सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शनिवार, 31 मार्च 2018

शंकर स्वयं केशरीनन्दन...


जब पृथ्वी पर भगवान श्रीराम का अवतार होना निश्चित हो गया । तब भगवान की सेवा के लिए देवता, यक्ष, गन्धर्व आदि वानर और भालु इत्यादि के रूप में प्रगट होकर राम जी की बाट जोहने लगे ।


  भगवान शंकर जी भी अपने को रोक न सके और रामजी की सेवा करने के लिए स्वयं हनुमान जी के रूप में माता अंजनी और पिता श्रीकेशरी जी के यहाँ अवतार ले लिया । 


  हनुमानजी महाराज वायु देवता के औरस पुत्र के रूप में भी प्रसिद्ध हुए । रामजी से इनके प्रेम और भक्ति ने हनुमान जी को जगतपूज्य बना दिया । रामकथा में हनुमान जी का इतना अनुराग है कि जहाँ भी रामकथा होती है हनुमानजी महाराज स्वयं उपस्थित होकर सुनते हैं ।


भगवान शंकर जी राम जी के कार्य को पूरा करके रामजी की सेवा करने हेतु वानर बने और हनुमान नाम से विख्यात हुए – रामकाज लगि तव अवतारा


हनुमानजी की शक्ति और भक्ति की चर्चा हर जगह होती है । हर युग में होती है । स्वयं व्रह्माजी, शंकरजी, और विष्णुजी हनुमान जी की सेवा और भक्ति की चर्चा करते हैं । श्रीसीताराम जी के दुलारे हनुमानजी महाराज भगवान राम के भक्तों के रक्षक हैं । जीवों को राम जी से मिलाने वाले हैं ।


  जिसे हनुमानजी की कृपा मिल जाय उसे रामजी मिल जाते हैं । हनुमान जी की कृपा से जीव भगवान रामजी को प्राप्त कर सकता है । शंकरजी भी जीव को रामजी से जोड़ते हैं । शंकरजी स्वयं हनुमानजी हैं और इस रूप में भी जीव को रामजी से जोड़ते हैं । मेरी तो हनुमानजी महाराज से यही प्रार्थना है-


अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलहिं जेहि श्रीरघुराई ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।

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मंगलवार, 27 मार्च 2018

न भूतो न भविष्यति की उपमा वाले ठाकुर जिन्हें ठकुरई नहीं आती


भगवान श्रीराम अद्वितीय देवता हैं । ऐसा संतों, भक्तों और ग्रंथों का मत है । भगवान श्रीराम  सरलता, विनम्रता, धर्म, दया, करुणा, क्षमा आदि की प्रतिमूर्ति हैं । असरन सरन, असहाय सहायक  और निराधार आधार हैं । प्रनतपाल हैं । आरतपाल हैं । दीन-दुखियों पर सहज ही अनुग्रह करने वाले हैं । जिसे कोई और कहीं शरण नहीं है उन्हें रामजी की शरण मिलती है ।



 कहाँ तक कहें आनंद रामायण में कहा गया है कि ‘रामेण सदृशो देवो न भूतो न भविष्यति’ अर्थात भगवान श्रीराम जी जैसे न कोई देवता पहले हुआ है और न आगे होगा ।



 इतना ही नहीं और ठाकुर तो ठकुरई दिखाते हैं लेकिन मेरे राम जी का स्वभाव इतना सरल है कि वे ठकुरई दिखाना ही नहीं जानते- ‘सरल स्वभाव नहि जानैं ठकुराना’ । हमारे रामजी को ठकुरई नहीं आती है । ऐसे हैं हमारे रामजी ।



 हमारे रामजी ठुकुराना भी नहीं जानते । जो शरण में जाता है उसे ही रख लेते हैं । सदा-सदा के लिए अपना बना लेते हैं – ‘दीन हीन राखि लेत रखना ही जाना । शील को निधान नहि जानैं ठुकुराना’ ।।



 इस प्रकार राम जी के समान न कोई देवता पहले हुआ और न आगे भविष्य में होगा । रामजी परम सरल और शील के निधान हैं न वे ठुकुराना जानते हैं और न ही ठकुराना ।



।। जय श्रीसीताराम ।।

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रविवार, 25 मार्च 2018

भगवान श्रीराम के चरित्र से देश-समाज की समस्याओं का निराकरण



भगवान श्रीराम का चरित्र बहुत ही उत्तम है । मानवता को जीवटता प्रदान करने वाला है । देश-समाज को नई दिशा देने वाला है ।  


  देश-समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है । इससे घर फिर गाँवसमाज और देश बनता है । आजके समय में परेशानी ज्यादा है । हर जगह समस्या है । हर व्यक्ति समस्याग्रस्त है । हर घर में समस्या है । समाज में समस्या और देश में समस्या है । सारी समस्याओं का निराकरण हमें रामजी के चरित्र से मिलता है । इस प्रकार रामजी के चरित्र का चिंतन-मनन करके और फिर अनुकरण करके समस्याओं का निराकरण हो सकता है । और देश-समाज में सुख शांति आ सकती है ।


 भगवान श्रीराम जी के चरित्र को जानने-समझने के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस जी को जन कल्याणार्थ उपलब्ध करा दिया है ।  श्रीरामचरितमानस जी का अध्ययनचिंतन-मनन सबके लिए जरूरी है । क्योंकि श्रीरामचरितमानस जी से हर व्यक्ति को मानवता की शिक्षा मिलती है । जीवन के हर क्षेत्र और हर स्थिति और परिस्थिति में आगे बढ़ने की शिक्षा मिलती है ।


नियम-नीति से चलकर जीवन में आगे बढ़ने की जरूरत होती है  धर्म पूर्वक आचरण सबके लिए और देश-समाज की भलाई के लिए जरूरी होती है  नियम-नीति और धर्म के अभाव में जो आचरण अथवा क्रिया-कलाप होते हैं वे देश-समाज के लिए अच्छे नहीं होते  इस स्थिति में सीनाजोरीबरजोरीघूसलूटपाटबेमानी आदि ब्याप्त हो जाते हैं  धीरे-धीरे ये देश-समाज में बढ़ते जाते हैं और स्थिति दिनों-दिन खराब होती जाती है  आज की यही स्थिति है 


 जब मनुष्य पर धर्म का बंधन नहीं रहता तो वह नियम और नीति की अवहेलना करता है  और अपने अहम अथवा स्वार्थ के लिए सबको नजरंदाज करता है  इससे देश-समाज में अराजकता बढ़ती है  आज का समाज दिशा हीन होता जा रहा है  इसे दिशा भगवान राम के चरित्र से मिल सकती है  अतः सबको भगवान राम के चरित्र का चिंतन-मनन और अनुकरण करना चाहिए 


  आज भगवान राम का प्रगटोत्सव है  श्रीराम नवमी है  श्रीअयोध्या जी सहित देश के विभिन्न भागों में आज श्रीराम नवमी का पर्व मनाया जा रहा है  आज के समय में लोगों को और खासकर युवाओं और बच्चों को भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेकर देश समाज में दिनों-दिन घट रही मानवीय मूल्यों को फिर से जीवंत करने का प्रयास करना चाहिए 




।। जय सियाराम ।।



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रविवार, 18 मार्च 2018

भगवान को जानकर मानने का मतलब-भगवान से जुड़ने का अच्छा तरीका


पहले भगवान के चरित्र-लीला और गुण जो संतो और ग्रंथों के माध्यम से जाने जा सकते हैं, को जानना चाहिए । यह सुनकर और पढ़कर भी किया जा सकता है ।


  जब भगवान के बारे में जानकारी हो जाय तो उसे मानकर विश्वास करें । यह एक अच्छा तरीका है भगवान से जुड़ने का । ऐसे कई उदाहरण हैं कि लोगों ने पहले भगवान को और उनके बारे में जाना और फिर वे सदा-सदा के लिए भगवान से जुड़ गए ।


  गोस्वामी तुलसीदासजी जे ने संतो से सुना कि राम जी दीन-हीन पर विशेष कृपा करते हैं । वे परम सरल हैं । करुणा सागर हैं । ऐसा जानकर तुलसीदास जी ने मान लिया कि हमारे रामजी ऐसे हैं । और इसी विश्वास से रामजी उनके और वे रामजी के हो गये ।


शवरी जी जब दंडकारण्य-जगंल में आई तो उन्हें कोई ठौर देने वाला नहीं था । मतंग जी ने उन्हें अपने पास रखा और रामजी के बारे में बताया ।  बताया कि जिसे हर कोई ठुकुराता है उसे भी राम जी नहीं ठुकुराते । उसे अपना लेते हैं । एक दिन रामजी तुमसे स्वयं मिलने आएँगे और अपनाएँगे । शवरी ने यह जानकर मान भी लिया । विश्वास कर लिया । फिर वही हुआ । रामजी मिल गए ।


   रुक्मणी जी भी भगवान के बारे में जानकर ही भगवान से प्रेम करने लगी थीं । पहले जाना कि भगवान श्रीकृष्ण ऐसे हैं । फिर मान लिया । विश्वास कर लिया । और बाद में भगवान से जुड़ गईं । भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र-लीला को सुनकर उन्होंने उस पर विश्वास किया और भगवान उन्हें मिल गए ।


 इस प्रकार संत और ग्रंथ के माध्यम से भगवान को , भगवान के बारे में जानना चाहिए । और फिर मानना चाहिए । भगवान श्रीराम के बारे में श्रीरामचरितमानस जी में वर्णित उनके चरित्र-लीला को पहले जानें और फिर उन पर विश्वास करें । फिर उसके अनुरूप फल मिलेगा और भगवान से जुड़ जाएँगे ।


इस प्रकार भगवान के बारे में जानकर मानना चाहिए , विश्वास करना चाहिए । और इसके बाद हर कोई भगवान से जुड़ सकता है ।


  ।। जय श्रीसीताराम ।।

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मंगलवार, 13 मार्च 2018

मानव माने होय

‘मानव माने होय’ दोहा संग्रह है । संग्रह के दोहों की भाषा बहुत ही सरल तथा रोचक है और अर्थ सहज ही स्पष्ट है  सनातन धर्म के सर्वमान्य सिद्धांतदर्शन व देश समाज में व्याप्त नैतिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार तथा पाखंड आदि ही इन दोहों के बिषय हैं ।

  इन दोहों में यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जो ‘माने’ सो मानव और जो कुछ मानता ही नहीं वह मानव कैसे ? मनुष्य और अन्य प्राणियों में मुख्य अंतर यही है कि मनुष्य को बहुत सारे नियमों और नीतियों को मानना पड़ता है जबकि अन्य के लिए इस तरह का कोई नियम और नीति नहीं है । मनुष्य नियमों और नीतियों को मानकर ही ‘मानव’ बनता है । बिना माने मनुष्य मानव नहीं होता । वह या तो पशु अथवा दानव की श्रेणी में आ जाता है ।

 मनुष्य मानव बनकर ही देश-समाज की उन्नति कर सकता है और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । यदि मनुष्य मानव बनकर रहना सीख जाय तो देश-समाज की सारी समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाएँ ।

  आजकल लोग अज्ञानमान और अभिमान बस नैतिक नियम और नीति, माता-पिता, माँ-बहन, गुरू, गोविंद और गौ को भी नहीं मानते । लगता है न मानना ही आज के लोगों की नियति होती जा रही है । इससे मानवता खतरे में पड़ गई है । और देश-समाज में चोरी, घूसखोरी, हत्या, अपहरण, शीलहरण और तरह-तरह के भ्रष्टाचार दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं । लेकिन बिडम्बना यह है कि जो मनुष्य मानव बनकर नहीं रह सका, वह अपने आप को ही ईश्वर समझने लगा है ।

 संग्रह के दोहे धर्म-अध्यात्मज्ञान-विज्ञान तथा मानवता को पुष्ट करने वाले हैं । ये सभी के लिए पठनीयअनुकरणीय और संग्रहणीय है । देश-समाज में नैतिक मूल्यों में वृद्धि हो और अनैतिकता पराजित हो तथा मानवता को बल मिले, यही इन दोहों का लक्ष्य है 


                                                                                                
 ।  जय श्रीसीताराम 
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गुरुवार, 8 मार्च 2018

भगवान को जानना, मानना-विश्वास और प्रेम


गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा दिखाए गए सत्य सनातन धर्म के सत्य और भक्ति सिद्धांत तथा अपना अनुभव इस लेख का आधार है   हर व्यक्ति चाहे वह जिस देश जाति का हो वह सही से भक्ति का आचरण करके भगवान का अनुभव कर सकता है । भगवान इतना दुर्लभ नहीं हैं जितना हम समझते हैं । बशर्ते हमारी कोशिस सही हो ।


  भगवान पर विश्वास  कैसे हो ?  यही सबसे मूल प्रश्न है ।  जिन्हें भगवान पर विश्वास नहीं है उन्हें सबसे पहले भगवान को जानने का प्रयास करना चाहिए । जिन्हें भगवान पर विश्वास है उन्हें भी भगवान को जानना चाहिए ।


जब भगवान को जानेंगे तो उन पर विश्वास होगा । विश्वास होगा तो मानने लगेंगे । और जब विश्वास के साथ भगवान को मानेंगे तो फिर कहना ही क्या है ? विश्वास होने से धीरे-धीरे प्रीति होने लगती है और इस प्रकार व्यक्ति भक्ति की ओर अग्रसर हो जाता है ।


एक बार भगवान पर विश्वास करके देखिये फिर जैसा मैंने ‘मानव माने होय’ दोहा संग्रह में लिखा है कि- ‘भले बुरे हर पल मिलैं रामदास के राम’ । इसका सहज ही अनुभव होने लगेगा । संसार के लोग उतना सहायक नहीं होंगे जितना कि राम जी । हर पल मिलेंगे । हर मोड़ पर ।


गोस्वामीजी कहते हैं कि जब हम भगवान को जानते हैं तो उन पर विश्वास हो जाता है और जब विश्वास हो जाता है तो प्रीति भी हो जाती है या होने लगती है ।

गोस्वामीजी कहते हैं कि बिना जाने विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास के प्रेम नहीं होता । इसलिए भगवान को जानना जरूरी है । भगवान को जानने से और विश्वास करने से ही काम बनने लगते हैं-


जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहि प्रीती ।।


भगवान को जानें कैसे ? भगवान की कथा, भगवान के चरित, भगवान की लीला ही भगवान को जानने में सहायक होते हैं । बिना इनके कोई भगवान को जान नहीं सकता । अगली पोस्ट में इस बिषय पर और आगे लिखेंगे ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


मंगलवार, 6 मार्च 2018

भगवान को न मानने वाले हर युग में होते हैं


आज के समय में कई लोग ऐसे हैं जो भगवान को नहीं मानते । लेकिन ऐसा आज ही हो रहा है । ऐसा नहीं है । क्योंकि भगवान को न मानने वाले हर युग में होते हैं । सतयुग, त्रेता, और द्वापर में भी भगवान को न मानने वाले थे ।


  सतयुग में हिरण्यकश्यप भगवान को नहीं मानता था । और उसके कई अनुयाई भी थे । त्रेता में रावण भगवान को नहीं मानता था । खुद को ही भगवान मानने लगा था । साधु और शास्त्र मत का विरोधी बन गया था । इसी तरह द्वापर में पौंड्रक ने खुद को ही भगवान घोषित कर दिया था ।


  इस प्रकार यह बात तय हो गई कि भगवान को न मानने वाले हर युग में होते हैं । अब अंतर इतना ही है कि अन्य युगों में भगवान को न मानने वाले कम संख्या में होते हैं और आजकल संख्या अधिक हो गई है ।


 आजकल भगवान प्रत्यक्ष नहीं दिख रहे हैं । जबकि अन्य युगों में जब भगवान प्रत्यक्ष दिखते थे । तब भी न मानने वाले नहीं मानते थे । भगवान सामने खड़े और ये लोग और इनके अनुयाई भगवान को भगवान मानने से इंकार करके उल्टे लड़ने के लिए तैयार हो जाते थे और लड़कर मर जाते थे ।  इतना ही नहीं पौंड्रक कहता था कि श्रीकृष्ण नकली भगवान  है, बना हुआ भगवान है । असली भगवान तो मैं हूँ । जो उसके अतिरिक्त किसी और को भगवान मानता था उसे उसके राज्य में रहने का अधिकार नहीं था । उसे मृत्युदंड तक देता था ।


  सबके साथ एक ही समस्या थी कि ये भगवान को जानते नहीं थे । मान और अभिमान बस ये लोग जानने का प्रयास ही नहीं करते थे । और यदि जान जाते तो मान भी जाते ।


  रावण को उसकी पत्नी बार-बार कहती थी कि ‘तेहिं जानहु दशकंध’ । अर्थात रावण उनको जान लो जिन्होंने बिराध और खर-दूषण का बध करके खेल-खेल में कबंध का बध कर दिया । और एक बाण से ही बालि का भी बध कर दिया है ।


लेकिन रावण जान न सका और इसलिए भगवान को मान न सका । इसी तरह भगवान को न जानने के कारण लोग भगवान को मान नहीं पाते अथवा बिना जाने ही मानते रहते हैं ।




                         ।। जय श्रीसीताराम ।।




गुरुवार, 1 मार्च 2018

भगवान तक पहुँचने का अनोखा रहस्य: भगवान को मानने के पहले जानना चाहिए


आज के समय में एक तरह के लोग ऐसे हैं जो भगवान को मानते हैं । वहीं दूसरी ओर दूसरे तरह के लोग ऐसे हैं जो भगवान को नहीं मानते । लेकिन ऐसे लोगों में से जो भगवान को मानते हैं, कुछ ही लोग होंगे जो भगवान को जानते भी हैं । वहीं दूसरी तरह के लोग भगवान को बिल्कुल नहीं जानते । यदि जानते होते तो न मानने का कोई सवाल ही नहीं था ।


   जो लोग भगवान को मानते तो हैं लेकिन जानते नहीं हैं उन्हें ठीक से लाभ नहीं हो पाता । भगवान का अनुभव नहीं हो पाता । सुना है कि भगवान होते हैं इसलिए ही लोग भगवान को मानते हैं लेकिन जानते नहीं हैं ।  


  इस प्रकार यह समस्या दोनों तरह के लोगों के साथ है कि वे भगवान को नहीं जानते । लेकिन भगवान को जानना जरूरी है । मानने के पहले जानना चाहिए । जब जान जाएँगे तो मानने में देर थोड़े लगेगी । अब जानें कैसे ?


 भगवान को जानने के लिए योग्य व्यक्ति अथवा योग्य ग्रन्थ का आश्रय लेना चाहिए । योग्य व्यक्ति को ही गुरु कहा जाता है । ऐसे योग्य व्यक्ति आज मुश्किल से ही मिलते हैं अथवा मिल सकते हैं । योग्य ग्रन्थ की बात करें तो श्रीरामचरितमानस जी का आश्रय लेकर भगवान को जाना जा सकता है ।


  जब हम भगवान को जान जाएँगे तो मानने लगेंगे । और भगवान से अपनी निकटता भी बढ़ जायेगी । इस प्रकार भगवान तक पहुँचने का मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा । इस सम्बंध में शीघ्र ही और समझाकर लिखने का प्रयास करेंगे ।



।।  जय श्रीसीताराम ।।


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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