सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 29 सितंबर 2019

जय दुर्गा दुर्गार्तिशमनि, भक्तन के दुख दोष दलनि



आज से नवरात्रि का पावन पर्व शुरू हो रहा है । यह समय साधना, जप, ध्यान के लिए उत्तम होता है । कई लोग पूरे नौ दिन का व्रत रखते हैं । तो कुछ लोग प्रतिपदा और अष्टमी को अपनी-अपनी श्रद्धा और विश्वास के अनुरूप व्रत रखते हैं । और नियम संयम से व्रत रखने से लाभ भी होता है ।


इसलिए जितना हो सके अपने सामर्थ्य के अनुसार सभी को व्रत करना ही चाहिए विधि-विधान के लिए जैसे घट स्थापन आदि के लिए किसी योग्य पंडित जी से भी सम्पर्क किया जा सकता है  


नवरात्रि के दौरान श्रीराम लीला का मंचन भी होता है । कहीं-कहीं नवों दिन तक रामानंद सागर द्वारा निर्मित रामायण सीरियल भी देखा और दिखाया जाता है ।


इस दौरान माता दुर्गा के पूजन के साथ श्री दुर्गा शप्तशती का पाठ भी लोग करते हैं ।  श्रीविनयपत्रिका से माता जी की स्तुति का भी पाठ किया जा सकता है तथा साथ ही श्रीरामचरितमानस जी से माता जी की स्तुति पढ़ सकते हैं  

नवरात्रि के समय कई लोग अन्य साधना भी करते हैं । इस दौरान श्रीरामरक्षास्तोत्र और श्रीरामचरितमानस के पाठ का भी विशेष महत्व होता है ।


 हम तो माताजी से निम्न पार्थना करते हैं-


जय दुर्गा दुर्गार्तिशमनि, भक्तन के दुख दोष दलनि ।

जगतजननि माँ शम्भु घरनि, देवन के भी त्रास हरनि ।।१।।

तव पद सेवत नहि दुर्लभ कछु, मुद् मंगल माँ सिद्धि सदनि ।

दुर्गमच्छेदनि दुर्गनाशनि माँ, पाप ताप भुवि भार दलनि ।।२।।

संतोष मन अभिलाषु मातु, दुरित दाह दारिद दरनि ।

दिन प्रति नेह बढ़ै रघुपति पद, कबहूँ नहि माँ घटै लगनि ।।३।।

   विनयावली / १६  


। जय दुर्गाजी 

रविवार, 22 सितंबर 2019

भगवान राम का वर्णन किस-किस ग्रंथ में है- सबकुछ राममय है


कई लोग समझते, सोचते अथवा मानते हैं कि भगवान राम का वर्णन केवल रामायण और श्रीरामचरितमानस जी में हैं । लेकिन ऐसा समझना, सोचना अथवा मानना अज्ञानता है ।


 भगवान राम का वर्णन किस-किस ग्रंथ में है ? ऐसा न पूछकर पूछना चाहिए कि भगवान राम का वर्णन कहाँ नहीं है ?


 वेद-उपनिषद, पुराण, नीति ग्रंथ, स्मृति-संहिता, महाभारत, रामायण और श्रीरामचरितमानस आदि सबमें रामजी का वर्णन है ।


चार वेद हैं । वेदों की अनेक शाखाएं हैं । ऋग्वेद की इक्कीस, यजुर्वेद की एक सौ नौ , सामवेद की हजार और अथर्वेद की पचास शाखाएं हैं । और वेदों की शाखाओं के अनेक उपनिषद हैं । 


 रामरहस्योपनिषद, रामतापनीयोपनिषद, वासुदेवोपनिषद, मुद्रलोपनिषद, शांडिल्योपनिषद, पैंगलोपनिषद, भिक्षुकोपनिषद, महोपनिषद, शारीरकोपनिषद, तथा योगशिखोपनिषद में भगवान राम के व्रह्म स्वरूप की महिमा का निरूपण किया गया है ।


इसीतरह लगभग सभी पुराणों में जैसे अग्नि पुराण, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, शिव पुराण, विष्णु पुराण आदि में राम जी की महिमा का वर्णन हैं । इनमें से पद्मपुराण और स्कन्दपुराण में भगवान राम की कथा और महिमा का विशेष वर्णन है ।


महाभारत में भी भगवान श्रीराम की कथा और महिमा का वर्णन है । अनेक रामायण हैं । सबमें रामजी की महिमा का वर्णन है ।


 श्रीरामचरितमानस जी में कही गई प्रत्येक बात का उल्लेख किसी न किसी ग्रंथ में है । रामरहस्योपनिषद में कहा गया है कि सभी पुराणों, स्मृतियों, वेदों, शास्त्रों, चारों विद्याओं, तथा आध्यात्मिक दर्शन का परमतत्व श्रीराम हैं । इतना ही नहीं विघ्नेश्वर गणेश, सूर्य, ईश्वर, शक्ति आदि का मूल तत्व श्रीराम हैं । इन्ही सब तथ्यों को श्रीरामचरितमानसजी में इस प्रकार कहा गया है-


वन्दौं नाम राम रघुवर को । हेतु कृशानु, भानु हिमकर को ।।
विधि, हरि हर मय वेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।


इस प्रकार भगवान राम की अतुलित महिमा है ।  भगवान राम सभी के लिए पूजनीय, वंदनीय और आदरणीय हैं । सभी ग्रंथों, देवी-देवताओं और चर-अचर के मूल तत्व हैं । हर जगह राम जी का ही वर्णन है । सबकुछ राममय है । रामजी के सिवा कुछ नहीं है । 

  इसलिए सभी शंकाओं को त्यागकर 'रामहि सुमिरिए गाइए रामहि । संतत सुनिए राम गुन ग्रामहि  का अनुसरण करके मानव जीवन को सार्थक करना चाहिए 


।। जय श्रीराम ।।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

भक्तों को वजरंग वाण क्यों नहीं पढ़ना चाहिए


श्रीहनुमान चालीसा से कौन परिचित नहीं होगा ? बहुत से लोग हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं और करना भी चाहिए ।  यह गोस्वामी तुलसीदास जी की मानव समाज को अनुपम भेंट है । श्रीहनुमान चालीसा का पाठ करके अनेकों लोग लाभांवित हो रहे हैं ।


किसी-किसी हनुमान चालीसा में वजरंग वाण भी दिया रहता है । और कई लोग इसका भी पाठ विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते हैं । लेकिन कई संतों का मत है कि वजरंग वाण गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना ही नहीं है । और इसका पाठ नहीं करना चाहिए ।


  वजरंग वाण में जिस तरह की शपथ दी गई है । वह भक्ति परक नहीं है । और इसलिए भक्तों के पढ़ने योग्य नहीं है ।


  गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ऐसा नहीं लिखते थे । इसलिए यह गोस्वामी जी की रचना नहीं मानी जाती । और कई संत इसका पाठ न करने को कहते हैं ।


  अतः भक्तों को वजरंग वाण का पाठ नहीं करना चाहिए 



।। जय श्रीहनुमानजी ।।


रविवार, 15 सितंबर 2019

श्रीराम स्तवराज स्त्रोत पाठ और महिमा


श्रीराम रक्षा स्त्रोत का नाम तो सबने सुना ही होगा । इसकी रचना श्रीविश्वामित्रजी ने किया है । भगवान शंकरजी ने स्वप्न में जैसा उपदेश दिया सुबह जगने पर विश्वामित्र जी ने वैसा ही लिपिबद्ध कर दिया । इस प्रकार श्रीविश्वामित्रजी श्रीराम रक्षा स्त्रोत के ऋषि हैं । प्रणेता हैं । इसीतरह श्रीसनत्कुमार जी श्रीराम स्तवराज स्त्रोत के ऋषि हैं ।


  समस्त ऋषियों-मुनियों के पुरोधा हैं- सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार । ये सनातन धर्म के आदि ऋषि हैं । इनकी उत्पत्ति सृष्टि के आरंभ में ही होती है । इनपर काल चक्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ये हमेशा बालक ही रहते हैं ।  छोटे-छोटे पाँच वर्ष के बालक जैसे ही रहते हैं- देखत बालक बहु कालीना  । अर्थात केवल देखने में बालक जैसे हैं । इनकी उम्र बहुत है । बहुत ज्ञानवान और तेजवान हैं । भगवान के परम भक्त हैं ।


 इनमें से सनत्कुमार जी ने सनत्कुमार संहिता की रचना किया है । इसमें बड़े अद्भुत श्लोकों में रामजी की महिमा गाई गई है । इसी ग्रंथ में श्रीराम स्तवराज स्त्रोत का वर्णन है ।


 श्रीराम स्तवराज में रामजी की अद्भुत महिमा का वर्णन है । बहुत ही उत्तम श्लोक हैं । बहुत उत्तम स्त्रोत है । प्राचीन काल में एक बार नारदजी ने श्रीराम स्तवराज स्त्रोत का पाठ करके रामजी से वरदान और उनका दर्शन प्राप्त किया था ।


गीता प्रेस से श्रीराम रक्षा स्त्रोत और श्रीराम स्तवराज लगभग दश रूपये में ही दोनों प्राप्त किए जा सकते हैं । और पाठ किया जा सकता है । श्रीराम स्तवराज की अतुलनीय महिमा है ।


।। जय श्रीराम ।।





रविवार, 8 सितंबर 2019

श्रीराम भक्त विभीषणजी की महिमा: संतों, भक्तों और ग्रंथों में विभीषण जी बहुत आदरणीय हैं


विभीषणजी भगवान श्रीराम के भक्त हैं । इनकी बड़ी महिमा है । जो राम जी से जुड़ जाता है उसकी महिमा बढ़ जाती है । और विभीषणजी तो रामजी के भक्त हैं । संतों और भक्तों के बीच विभीषणजी आदरणीय हैं । इनका नाम आदर के साथ लिया जाता है । जो रामजी से जुड़ जाता है वही  आदर के योग्य हो जाता है । इसी तरह ग्रंथों में भी विभीषणजी आदरणीय हैं । ग्रंथ भगवान और भगवान के भक्तों का आदर करते हैं ।

भगवान कहते हैं कि जो घर, परिवार, हित-मित्र आदि सबके ममता रुपी धागों को इकट्ठा करके इन्हें बर करके डोरी बनाकर अपने मन को मेरे पैरों से बाँध देता है उसे मैं अपना लेता हूँ और फिर कभी छोड़ता नहीं हूँ ।


विभीषण जी ने यही तो किया था । सबकुछ छोड़कर रामजी के शरणागत हो गए । इसलिए रामजी ने इन्हें अपना लिया और फिर कभी नहीं छोड़ा ।


विभीषणजी राम जी के हो गए तो भक्तों, संतों और ग्रंथों के भी हो गए । सब इनका गुणगान करने लगे । विभीषणजी अमर भी हो गए । और इतना ही नहीं प्रातः स्मरणीय भी हो गए ।


 भगवान के बारह श्रेष्ठ भक्तों की सूची, जिन्हें द्वादश भागवत कहा जाता है, में विभीषणजी का नाम भी आता है । इतनी महिमा है विभीषणजी की ।


जो लोग अध्यात्म और भक्ति के तत्व से दूर हैं वे अज्ञानता वश विभीषणजी को गलत समझते हैं । कुछ लोग कुल द्रोही भी कहते अथवा समझते हैं । लेकिन विभीषणजी कुलभूषण हैं । भक्ति के सिद्धांतों का निरूपण करने वाले ग्रंथ जैसे श्रीविनयपत्रिका जी कहते हैं कि-


 जाको न प्रिय राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही ।


विभीषणजी ने इसी सिद्धांत का अनुसरण किया और अमर हो गए । श्रेष्ठ भक्त हो गए । द्वादश परम भागवतों में उनका नाम आ गया । वे रामजी के और रामजी उनके हो गए । रामजी जल्दी किसी से नहीं मिलते, जल्दी किसी के नहीं बनते- ‘जनम जनम मुनि जतन कराहीं । अंत राम कहि आवत नाहीं’ ।। लेकिन राम जी विभीषणजी से मिले भी और उनके बने भी तथा उनको अपना बनाया भी ।


धन्य हैं विभीषणजी और उनका चरित्र ।


।। जय श्रीसीताराम ।।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

युधिष्ठिर जी के प्रश्न और व्यास जी के उत्तर: तत्व, श्रेष्ठ मंत्र और मोक्ष देने वाला साधन क्या है ?


एक बार युधिष्ठिरजी ने व्यासजी से कहा कि आप योगियों में श्रेष्ठ हैं । संपूर्ण शास्त्रों के विद्वान हैं । अतः मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ कि तत्व क्या है ? सर्वोत्तम जपनीय मंत्र क्या है ? तथा मोक्ष देने वाला साधन क्या है ?


वेदव्यासजी ने कहा कि हे महाभाग धर्मराज जो सर्वोत्कृष्ट, तीनों गुणों से अतीत, निर्मल एवं कल्याणमय है । वही परम तत्व है ।


 वेदव्यासजी ने आगे कहा कि ‘श्रीराम यह परम उत्तम जपनीय मंत्र है । इसीको ‘तारक व्रह्म’ कहा गया है । ऐसी वेदवेत्ताओं की मान्यता है ।


जो लोग ‘श्रीराम राम’ इस मंत्र का सदा जप करते हैं । उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होंगे । इसमें संशय नहीं है ।


  इस प्रकार वेदों का विभाग करने वाले परम संत, परम योगी और सभी पुराणों, अन्यान्य ग्रंथों के रचियता, महाभारत के प्रणेता और अनेकानेक ग्रंथ तथा रामायण लिखने वाले व्यासजी ने युधिष्ठिर जी से वेदवेत्ताओं से अनुमोदित तत्व, परम जपनीय मंत्र और मोक्ष के साधन का निरूपण किया ।


।। जय श्रीराम ।।

रविवार, 1 सितंबर 2019

राजा रामचंद्र भगवान राम के राज्य-रामराज्य की सीमा और अद्भुत विशेषताएँ


कम से कम रामराज्य शब्द से कोई अपरिचित नहीं होगा । रामराज्य उस राज्य को कहते हैं जहाँ अनीति, अनाचार, अत्याचार और भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं होती । हर किसी को नियम नीति से बराबर समतामूलक अधिकार प्राप्त होता है । हर कोई अपनी बात रख सकता है और नियम नीति के निर्धारण में भागीदार हो सकता है ।


किसी के साथ भेदभाव नहीं होता । भेद शब्द का प्रयोग नाट्य और वाद्य की कला में सुर-ताल के भेद में ही प्रयुक्त होता है । हर किसी में उच्च मौलिक गुण होने से समाज में शांति और उन्नति ही दिखती है और किसी को दंड नहीं दिया जाता । क्योंकि कोई ऐसा कार्य ही नहीं करता कि दंड देने की जरूरत हो । दंड शब्द का प्रयोग केवल यतियों के द्वारा धारित दंड के लिए ही होता है । कोई शत्रु न होने से जीतने के लिए केवल लोग मन जीतने की बात करते हैं । और अन्यत्र जीतो शब्द का प्रयोग नहीं होता –


दण्ड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र के राज ।।


रामराज्य में कोई गरीब नहीं होता । सभी सुखी, सच्चरित और संपदावान होते हैं । सभी लोग बहुत उदार और एक दूसरे की मदद करने वाले होते हैं- ‘सब उदार सब परउपकारी’ ।। सभी पुरुष एक स्त्री-अपनी पत्नी से और सभी स्त्रियाँ एक पुरुष -अपने पति से ही अनुराग रखती हैं ।


किसी की भी असमय मृत्यु नहीं होती । कोई विकलांग नहीं होता । किसी को कोई रोग नहीं होता । सभी लोग सुंदर और रोग दुःख से मुक्त होते हैं । किसी को भी किसी चीज अथवा किसी तरह की पीड़ा नहीं होती /रहती । कोई दुखी, दीन, दरिद्र और मूर्ख नहीं होता । कोई लक्षण हीन नहीं होता ।


किसी को भी न दैहिक, न दैविक और न ही भौतिक पीड़ा होती है । इन तीनों तापों से हर कोई मुक्त होता है । न सूखा पड़ता है, न बाढ़ आती है और न सुनामी आती है । समुद्र अपनी मर्यादा / सीमा का कभी उलघंन नहीं करता । सभी लोग एक दूसरे से प्रेम करते हैं और आनंद से रहते हैं ।


किसी भी व्यक्ति में कपट नहीं होता । सब एक दूसरे के उपकार को मानने वाले होते हैं । सभी लोग दम्भ रहित, धार्मिक और पुण्यात्मा होते हैं । सभी लोग गुणों का आदर करने वाले ज्ञानी और पंडित होते हैं ।


मनुष्यों की क्या कहें पशुओं में भी समता और प्रेम आ जाता है । हाथी और शेर भी एक साथ रहते हैं ।  पशु-पक्षी आदि अन्य जीव भी स्वाभाविक वैर को भुलाकर आपस में प्रेम भाव से आनंद पूर्वक रहते हैं । जैसे बिल्ली और चूहे भी एक साथ रहने लगते हैं ।


  पेड़ में फल और फूल हमेशा आते हैं । चारों तरफ हरियाली होती है । पक्षी कूंजते हैं और पशु-पक्षी निर्भय विचरण करते हैं । इन्हें कोई मारता अथवा परेशान नहीं करता । न ज्यादा गर्मी पड़ती है और न ज्यादा जाड़ा ही होता है । मौसम अनुकूल होता है । सुहावनी हवा चलती है । आँधी नहीं आती । तूफान नहीं आते-न जल में न थल में   कहीं जल की कमी नहीं रहती । तालाब और सरोवर में सुंदर कमल खिले रहते हैं । आदि । आदि ।


  यह सब व्यवस्था केवल अयोध्या में नहीं रहती । न केवल भारत में रहती है । पृथ्वी का एक कोना भी ऐसा नहीं होता जहाँ रामराज्य न रहा हो । जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया और इंडोनेशिया आदि देशों में भी कुछ निशानियाँ आज भी मिलती हैं ।



 ग्रंथ कहते हैं कि सात महाद्वीपों और सात सागरों वाली समस्त धरती पर रामराज्य था ।


केन्द्रीय शासन व्यवस्था थी ।  जिसका केंद्र अयोध्या थी ।  छोटे-छोटे कई राजा थे । लेकिन वे राम राज्य के अंतर्गत थे । और सभी राजाओं के राजा राजेन्द्र भगवान रामचंद्र जी थे- भूमि सप्त सागर मेखला । एक भूप रघुपति कोशला ।।


 इस तरह संपूर्ण धरती पर रामराज्य था । धरती का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं था । जहाँ रामराज्य न रहा हो । सभी लोग सुख और आनंद से भीगे रहते थे  संपूर्ण धरती पर सुख की वर्षा होती रहती थी  


।। जय श्रीराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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विशिष्ट पोस्ट

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे

लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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