सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

क्या स्त्रियों को हनुमानजी की पूजा नहीं करनी चाहिए ?

 

कई लोगों के मन में यह शंका रहती है कि स्त्रियों को हनुमानजी की पूजा करनी चाहिए अथवा नहीं ।

        

लेकिन इसमें शंका की कोई बात नहीं है । स्त्रियाँ भी हनुमानजी की पूजा कर सकती हैं । स्त्री और पुरुष दोनों को बस पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए ।

 

 मंदिर के गर्भ गृह में किसी को भी नहीं जाना चाहिए । न स्त्री को और न ही पुरुष को । गर्भ गृह में सामन्यतया केवल पुजारी को जाना चाहिए । तथा मंदिर में विराजमान विग्रह का स्पर्श भी सामन्यतया पुजारी को करना चाहिए ।

 

 भगवान की पूजा दूर से ही करें तो अच्छा है । भोग दूर से ही लगाएँ तो अच्छा है । कई लोग मुँह में भर देने को ही भोग लगाना समझते हैं । और इसलिए कई मंदिरों में ऐसा दिखता भी है । जबकि भाव से दूर से ही भोग अर्पित कर देना चाहिए । भगवान भाव के ही भूंखे होते हैं । मुँह में डालने की कोई जरूरत नहीं रहती ।

 

कई लोगों के मन में यह रहता है कि हनुमानजी बाल व्रह्मचारी हैं इसलिए हनुमानजी की पूजा स्त्रियों को नहीं करना चाहिए । तो यह गलत धारणा है । भक्ति और भाव होने पर कोई भी हनुमानजी का पूजा कर सकता है ।

 

एक पौराणिक कथा का उल्लेख करके इस लेख का समापन कर रहे हैं ।

 

भगवान राम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे । हनुमानजी महाराज यज्ञ के घोड़े के साथ गए हुए थे । इस दौरान एक ऋषि और उनकी पत्नी वन में हनुमानजी को मिलीं । जो रामजी का दर्शन करना चाह रहे थे । लेकिन इतनी दूरी यात्रा करने में समर्थ नहीं थे । इसलिए हनुमान जी ने अपने एक कंधे पर ऋषि को और दूसरे कंधे पर उनकी पत्नी को बैठा लिया । और भगवान राम के दर्शन करा दिए ।

 

ऐसे में यह कहना कि स्त्रियों को हनुमान जी की पूजा नहीं करनी चाहिए तर्क संगत नहीं है ।

 

।। जय श्रीहनुमानजी ।।

 

 

 

मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

कोशलपति भगवान राम बड़े अच्छे देवता हैं

मेरे  कोशलाधीश भगवान श्रीराम बड़े अच्छे देवता हैं । इनकी सुंदरता करोड़ो कामदेवों से भी अधिक है । इनके कमल नयन बड़े ही सुंदर हैं । इनका सुंदर श्याम शरीर बड़ा ही मनोहर हैं । भगवान श्रीराम देवी सीता के साथ सदा शोभायमान रहते हैं ।

 

  भगवान राम की भुजाएँ बहुत विशाल हैं । इसका एक मतलब है कि भगवान राम आजानुबाहु हैं । और दूसरा मतलब यह है कि संकट रुपी अथवा संसार रुपी समुंद्र में पड़े हुए अपने भक्तों को वे अपनी विशाल भुजाओं से आसानी से निकाल कर निहाल कर 

देते  हैं ।

 

भगवान राम अपने वाएँ हाथ में शारंग धनुष और दाएँ हाथ में अमोघ वाण धारण किए हुए हैं । और अपनी कमर में वाणों से भरा हुआ सुंदर तरकस बाँधे हुए हैं ।

 

भगवान राम वलि अथवा पूजा नहीं चाहते । रामजी केवल प्रेम चाहते हैं । रामजी सुमिरन करने से अर्थात प्रेम से उनके नाम, रूप और लीला का चिंतन करने से प्रसन्न हो जाते हैं । उनकी सब रीति जैसे दीन से प्रीति की रीति, आरत जन के दुख को सुनकर द्रवित होने की रीति, शरणागत के पालन की रीति आदि बड़ी पवित्र हैं । अर्थात रामजी ने कभी इनमें कोई कमी नहीं आने दिया है । उनकी रीति और प्रति लोक और वेद आदि में प्रकाशित हैं ।

 

भगवान राम जन को सभी सुख देते हैं और उनके सभी दुख दूर कर देते हैं । वे दीन-दुखी जन के बंधु –दीन बंधु हैं, आरत जन बंधु हैं ।

 

भगवान राम ऐसे करुणासागर हैं जो गुन को तो ग्रहण करते हैं और अवगुन तथा पाप का हरण कर लेते हैं । वेद-पुराण कहते हैं कि भगवान राम से सभी देश और काल सदैव परिपूर्ण रहते हैं । अर्थात कोई भी जगह-धरती, आकाश और पाताल में ऐसी नहीं हैं जहाँ राम जी नहीं हैं । रामजी हर जगह समान रूप से व्याप्त हैं । और भूत, भविष्य और वर्तमान का कोई भी क्षण ऐसा नहीं है जब राम जी नहीं रहते । इस प्रकार भगवान राम हर जगह और हर क्षण रहते हैं ।

 

भगवान राम सबके स्वामी हैं- सुर, नर, मुनि, जड़ और चेतन सबके स्वामी हैं । भगवान राम का सबमें वास है । अर्थात भगवान राम जड़ और चेतन सभी के अंदर रहते हैं । और राम जी सबकी गति जानते हैं । अर्थात राम जी से कुछ भी छुपा नहीं है । वे अन्दर और बाहर दोनों को जानते हैं । मतलब रामजी से दुराव नहीं किया जा सकता है । उनसे कुछ छुपाया नहीं जा सकता । भगवान राम बाहरजामी भी हैं और भगवान राम अंर्तजामी भी हैं ।

 

करोड़ों कामनाएँ करके कौन बहुत से देवताओं को पूजता फिरे ? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि उनकी सेवा कीजिए जिनकी सेवा स्वयं भगवान शंकर जी करते हैं ।

 

कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान राम जैसे सीधे-सरल, रीति-प्रीति और विरद का निर्वाह करने वाले सर्व समर्थ देवता के होते हुए भी लोग दुखी रहते हैं । अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए यहाँ-वहाँ चक्कर लगाते रहते हैं । उनकी शरण में, उनकी सेवा में क्यों नहीं चले जाते जिनकी सेवा शंकर जी सरीखे देवता किया करते हैं –


है नीको मेरो देवता कोशलपति राम ।

सुभग सरोरुह लोचन , सुठि सुंदर श्याम ।।

***            ***              ***

तुलसिदास तेहि सीइये, शंकर जेहि सेव ।।

-    श्रीविनयपत्रिका

 

।। कोशलाधीश भगवान राम की जय ।।

 

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

रघुनाथ जी से नाता जोड़ने की जरूरत: संसारी अपने माता-पिता से भी नाता नहीं निभा पाते

संत-सदग्रंथ बताते हैं कि इस संसार में कोई अपना सगा नहीं है । सबके एकमात्र सगे, एकमात्र हितैषी केवल और केवल हमारे रघुनाथ जी हैं । हमारे रामजी हैं । लेकिन जीव इस बात को समझ नहीं पाता । जान नहीं पाता । और जान भी जाए तो मान नहीं पाता ।

 

  इसलिए ही जीव संसार में दुख पाता है और जनम-मरण के चक्कर से नहीं छूटता । गोस्वामी तुलसीदासजी ने बार-बार समझाया है कि जिन स्त्री-पुत्रों के लिए जीव अपने धर्म-पथ से च्युत हो जाता है । वे भी उसके काम नहीं आते । अंत समय में हर कोई साथ छोड़ जाता है । काम केवल मेरे राम आते हैं ।

                

  व्यक्ति अपने स्त्री-पुत्र के पालन में, उनको सुखी रखने के लिए, उनके उत्थान के लिए बहुत कुछ करता रहता है । इसी चक्कर में वह मानवता के लिए जरूरी कई धर्मों से मुह मोड़ लेता है ।

 

 जो माता-पिता किसी भी तरह अपने कई बच्चों का पालन करते हैं बुढ़ापे में उनका पालन सभी बच्चे मिलकर भी नहीं कर पाते । सब अपने स्वार्थ-पूर्ति में लगे रहते हैं । अपने भविष्य के लिए चिंता करते हैं । लेकिन जिनके ये भविष्य थे उनकी चिंता करने का इनके पास कमी ही कमी रहती है । समय, धन, तन, मन आदि सबकी कमी ।

 

स्वयं खाएंगे, पहनेगें, ठीक से रहेंगे लेकिन माता-पिता के लिए न मन रहेगा और न धन । स्वास्थ्य खराब होने पर अपनी दवा करा लेंगे, अपने बच्चों की दवा करा लेंगे, अपनी पत्नी की दवा करा लेंगे । तब न धन की कमी रहेगी न मन की । तब नहीं कहेंगे कि पैसा नहीं है कहाँ से करूँ । अपने लिए अपने बच्चों के लिए उधार भी मिल जाएगा । लेकिन जिनके ये भविष्य थे उनके लिए कमी ही कमी रहेगी । उन्हें बोल भी देंगे हमारे पास ही नहीं है तो कहाँ से करूँ । सारी कमी केवल माता-पिता के लिए ही रहती है ।

 

 गोस्वामी जी ने श्रीविनयपत्रिका जी में लिखा है कि बुढ़ापे में जिनके लिए जीवन पर तुमने किया है वे तुम्हारे नजदीक खड़ा होने में भी लज्जा का अनुभव करेंगे । किसी को तुम्हारी बोली भी नहीं सुहायेगी । खाना-पीना भी भारी हो जायेगा । कई लोगों को तो कुत्ते के समान निरादर सहना पड़ता है ।

 

 ऐसे में सदा रघुनाथ जी से ही जुड़कर रहना चाहिए । क्योंकि रामजी हर देश-काल में तुम्हारे साथ रहने वाले हैं । वे किसी स्थिति और परिस्थिति में तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेंगे । तूँ नाहक में रिश्ते-नाते जोड़ता रहता है । लेकिन जिनसे वास्तव में नाता जोड़ना चाहिए उनसे नहीं जोड़ता । अब देर मत करो । आज ही रघुनाथ जी से नाता जोड़ लीजिए ।

 

।। जय श्रीरघुनाथ जी ।। 

शिष्य को गुरू का और गुरू को शिष्य का कब त्याग कर देना चाहिए

 अपने भारतीय अध्यात्म जगत में गुरू का बहुत महत्व है । और गुरू को भगवान के समान बताया गया है । इसलिए सभी को बहुत सोच-समझकर गुरू बनाना चाहिए । और गुरू का यथा संभव आदर सम्मान करना चाहिए ।

 

  भारतीय जन मानस में परंपरा का बहुत महत्व है । लोग परंपरा से जुड़े रहते हैं और उसका निर्वाह भी करते हैं । एक लोग बता रहे थे कि उनका गुरू घराना था । मतलब पीढ़ी दर पीढ़ी इनके यहाँ के लोग एक गुरू के यहाँ से दीक्षा लेते रहते थे । एक गुरू के यहाँ का मतलब गुरू के पुत्र फिर उनके पुत्र से । यह परंपरा चली आ रही थी ।

 

 लेकिन गुरू जी के पीढ़ी में एक लोग का चाल-चलन बिगड़ गया । मदिरा पान भी करने लगे । लेकिन परंपरा के नाम पर उनको भी नहीं छोड़ा और इनसे भी दीक्षा लेते रहे । यहाँ यह कहना है कि ऐसी स्थिति में परंपरा का निर्वाह जरूरी नहीं है ।

 

दूसरी ओर कई गुरू ऐसे भी होते हैं जो किसी कारण बस सठिया जाते है । जो न करने योग्य करने लगते हैं और न बोलने योग्य बोलने लग जाते हैं । यहाँ तक भगवान के बारे में भी उल्टा सीधा बोलने लग जाते हैं । अतः जो भगवान राम-कृष्ण के बारे में उल्टा-सीधा बोलने लगे उसे भी त्याग देना चाहिए ।

 

  पुराणों में यह बात बड़ी प्रसिद्ध है कि राजा बलि ने अपने गुरू को केवल इसलिए त्याग दिया था क्योंकि उनके गुरू उन्हें वामन भगवान को तीन पग पृथ्वी दान करने से मना कर रहे थे ।

 

  इसी बात को गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्री विनयपत्रिका जी में भी लिखा है- ‘बलि गुरू तज्यो’ ।  गुरू और शिष्य का सम्बंध भगवान के नाते ही है और जब गुरू या शिष्य भगवान के विषय में उल्टा-सीधा बोलने लगे अथवा उनका चाल-चलन बिगड़ जाय तो ऐसी स्थिति में त्याग ही उत्तम है-

 जाको न प्रिय राम वैदेही । तजिए ताहि कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही ।।

 

।। जगदगुरु भगवान शंकर की जय ।।

रविवार, 8 नवंबर 2020

आधुनिक शोध पत्रों में प्रयुक्त होने वाली रेफरेंसिंग पद्धति के जन्मदाता- गोस्वामी तुलसीदास

 

शोध पत्रों में संदर्भ ग्रंथ और उनके लेखकों का नाम लिखने की पद्धति को रिफरेंसिंग स्टाइल कहा जाता है । भिन्न-भिन्न शोध पत्रों की रिफरेंसिंग स्टाइल भिन्न-भिन्न होती है ।


  भारतीय धर्म ग्रंथों में शोध के बारे में भी वर्णन मिलता है । अंधकार से प्रकाश और पुरातन से नूतन की ओर अग्रसर होने का संदेश दिया गया है । अध्यन-अध्यापन के बारे में भी संतों ने, ऋषियों ने बहुत कुछ बताया है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि संसार में सब कुछ है । लेकिन कर्महीन मनुष्य कुछ प्राप्त नहीं कर पाता । जो जैसा और जिस दिशा में कर्म करता है उसे वैसी ही सफलता मिलती है ।


  आजकल गणित, विज्ञान और अन्य विषयों के कई शोध पत्रों में संदर्भ लेखन की निन्मलिखित पद्धति प्रयोग में लाई जाती है ।


  मान लीजिए किसी लेखक का नाम राजा राम है ।  तो आधुनिक संदर्भ पद्धति में लेखक के नाम को राजा राम न लिखकर राम राजा लिखा जाता है ।  


 यहाँ हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि नाम लेखन की इस पद्धति को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व ही आरंभ कर दिया था । 


 श्रीरामचरितमानस और श्रीविनयपत्रिका जी में तुलसीदास जी ने कई बार अपना नाम दास तुलसी लिखा है । श्रीविनयपत्रिका जी में इसके कई उदाहरण मिलते हैं-


१)    सेस सर्वेस आसीन आनंद-वन, दास तुलसी प्रनत त्रासहारी ।


२)    प्रचुर भव-भंजनं, प्रनत जन-रंजनं दासतुलसी सरन सानुकूलं ।


३)    देहि रघुवीर पद प्रीति निर्भर मातु, दास तुलसी त्रास हरनि भव-भामिनी

 

इसी तरह दो-तीन नहीं अनेकों उदाहरण हैं । इस प्रकार यह कहना गलत नहीं होगा कि गोस्वामी तुलसीदास महाराज शोध पत्रों में प्रयोग होने वाली लेखकों के नाम लेखन की आधुनिक संदर्भ पद्धति के जन्मदाता हैं ।

 

।। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की जय ।।

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

राघव मोरे दीन हितैषी - देत-दिवावत मान सुधारत बिगरी हो चाहे जैसी

मेरे राघव भगवान श्रीराम, रघुनाथजी दीनों के बड़े हितैषी हैं । वैसे तो रामजी सबके हितैषी हैं । संसार में प्रत्येक प्राणी का हित रामजी से ही होता है । वह चाहे रामजी को जानता हो या न जानता हो । वह रामजी को मानता हो अथवा न मानता हो । इन सब बातों से रामजी को कोई अंतर नहीं पड़ता । क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है ।  उनका दूसरों का हित करने का स्वभाव ही है । लेकिन रामजी दीनों के विशेष हितैषी हैं । दीनों का ऐसा हितैषी संसार में और कोई दूसरा नहीं है । सच्चे अर्थों में मेरे रामजी ही एकमात्र दीन हितैषी हैं ।

 

जिन दीनों की न तो लोग कोई बात पूछते हैं  और न ही लोग उनसे कोई बात करना पसंद करते हैं  । तथा यह संसार जिनकी ऐसी-तैसी करता रहता है । उन दीनों को रघुनाथ जी बाँह पकड़कर, अपना लेते हैं और उन्हें धन्य कर देते हैं । उन्हें अपने-पास बिठाकर उनकी कुशल-छेम पूछते हैं ।

               

 इतना ही नहीं मेरे रामजी उन्हें स्वयं तो मान देते ही हैं और दूसरों से भी मान दिलाते हैं ।  तथा उनकी बिगड़ी चाहे जितने जन्मों की हो, चाहे जैसी ही क्यों न हो उसे धीरे-धीरे सुधार देते हैं ।

 

जैसे पलक नयन को रखती है ठीक इसी तरह से रघुनाथ जी अपने दासों को रखते हैं तथा उनके जीवन के सभी अनिष्टों को मिटा देते हैं ।

 

 भगवान राम दीन संतोष जैसे दीनों को अपने धाम में बसाते रहते हैं । उनकी यह रीति और दीनों से प्रीति अनूठी है जो युगों-युगों से सतत चली आ रही है । भगवान राम के अलावा और कहीं और किसी दूसरे की ऐसी अनूठी रीति नहीं है-

 

राघव मोरे दीन हितैषी ।

जेहि दीनन कोई बात न पूछै जग करै ऐसी तैसी ।। १ ।।

तेहि दीनन गहि बाँह निवाजत कुशल निभै कहौ कैसी ।

देत-दिवावत मान सुधारत बिगरी हो चाहे जैसी ।। २ ।।

पलक नयन जिमि दास को राखत मेटत सकल अनैसी ।

दीन संतोष निज धाम बसावत रीति कहीं नहीं ऐसी ।। ३ ।।

 

।। दीन हितैषी भगवान राम की जय ।।

 

रविवार, 1 नवंबर 2020

ऐसे ठाकुर जो अपने प्रभाव को जीत कर अपने स्वभाव के वश में रहते हैं

कबीरदास जी ने जिन मनुष्यों के लिए कहा है कि ‘पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात’ ऐसे हम लोग भी अपने प्रभाव में रहते हैं

कोई धन के प्रभाव में, कोई पद के प्रभाव में तो कोई प्रतिष्ठा के प्रभाव में रहता है । कोई अपनी पहुँच के प्रभाव में रहता है ।

कई लोग इन्हीं सब प्रभावों के चलते न सीधे चलते हैं, न सीधे बोलते हैं, न सीधे रहते हैं । लेकिन हकीकत तो यही है कि हैं तो पानी के बुदबुदे ही ।

लेकिन ऐसे ठाकुर जिनके लिए ग्रंथ कहते हैं कि ‘हरिहिं हरिता, शिवहिं शिविता विधिहिं विधिता जो दई’ वे अपने प्रभाव में नहीं बल्कि सदा अपने स्वभाव में रहते हैं ।

इतना प्रभाव होकर भी प्रभाव का प्रभाव न दिखे ऐसा होना लगभग असंभव होता है । लेकिन हमारे रामजी इस असंभव को संभव करके दिखाते हैं । केवल एक मात्र  मेरे रामजी, मेरे रघुनाथजी ही ऐसे  ठाकुर हैं जो अपने स्वभाव में रहते  हैं । बहुत ही सीधा और सरल स्वभाव है मेरे राम जी का ।

 हर कोई इनके स्वभाव की चर्चा करता है । शंकरजी कहते हैं कि ‘उमा राम स्वभाव जेहि जाना । ताहिं भजन तजि भाव न आना’ । कागभुसुंडि जी गरुण जी से कहते हैं कि ‘अस स्वभाव कहुँ सुनहुँ न देखउँ । केहि खगेश रघुपति सम लेखहुँ’ ।।  

धन्य हैं राम जी जो ‘विष्णु कोटि सम पालनकर्ता’ हैं  ‘रूद्र कोटि सत सम संहर्ता’ हैं , ‘बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई’ रखने वाले हैं, ‘दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन’ करने वाले हैं आदि । आदि । जो वास्तव में निरुपम हैं –

        ‘निरुपम न उपमा आन राम सामान राम निगम कहैं’ ।


ऐसे रामजी ने अपने प्रभाव को जीत लिया है । इसलिए वे प्रभाव के वश में न रहकर अपने स्वभाव के वश में रहते हैं ।

 

।। जय श्रीराम ।।

  

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

हम लोग भी पहले निराकार थे-साकार तो बाद में बने हैं


भगवान साकार हैं अथवा निराकार ? कोई कहता है कि भगवान निराकार हैं । कोई कहता हैं कि भगवान साकार हैं ।  कोई कहता है कि भगवान साकार और निराकार दोनों हैं ।

 

अब प्रश्न यह है कि सही कौन है ?  सही वही है जो यह समझता और मानता है कि भगवान साकार और निराकार दोनों हैं ।

 

गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार साकार और निराकार में भेद नहीं है । दोनों एक ही हैं । क्योंकि जो साकार है वह निराकार भी है । और जो निराकार है वह साकार भी है ।

 

इसे हम निम्नलिखित उदाहरण से समझा रहे हैं ।

 

 हम लोग क्या हैं ? साकार अथवा निराकार । वर्तमान में हम सभी लोग साकार हैं । लेकिन थोड़ा पीछे जाइए । जन्म से पहले की बात जरा ध्यान से सोचिए । माता के गर्भ में आने से थोड़ा और पहले क्या हम साकार थे ? नहीं थे । उस समय हम सभी निराकार थे । साकार तो बाद में बने हैं ।

 

  अतः स्पष्ट है कि जो साकार है वह निराकार भी है । और जो निराकार है वह साकार भी है । यही बात गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस जी में समझाया है ।

 

अतः इस बात का कोई झगड़ा नहीं है कि भगवान साकार हैं अथवा निराकार । भगवान साकार भी हैं और निराकार भी हैं । रामजी के दो स्वरूप हैं एक साकार रामजी और दूसरे निराकार रामजी ।

 

   गर्भ में आने से थोड़ा और पूर्व जीव निराकार रामजी का अंश होता है और गर्भ में आकर साकार रामजी का अंश बन जाता है । रामजी हमारे अंशी हैं और हम सब रामजी के अंश हैं ।

 

चूँकि हमारे रामजी निराकार भी हैं और साकार भी इसलिए हम सभी निराकार भी हैं और साकार भी । अतः हम सब भी निराकार से ही साकार हुए हैं । ठीक इसीतरह मेरे रामजी निराकार से साकार हो जाते हैं ।

 

  अतः कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए । भगवान के भी दो स्वरूप हैं और हम सभी के भी दो स्वरूप हैं क्योंकि भगवान राम हमारे अंशी हैं और हम सभी भगवान राम के अंश हैं ।

 

।। जय श्रीसीताराम ।।

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

हनुमानजी महाराज अन्वेषण (खोज) के पंडित हैं

 

हनुमानजी महाराज खोज करने में बहुत कुशल हैं । इसलिए हनुमानजी को- अन्वेषण पंडित अर्थात अनुसंधान-खोज का पंडित कहा जाता है ।

 माता सीता का अन्वेषण करना हुआ तो लंका जाकर सीताजी की खोज करने में और दूसरा कोई कुशल नहीं था । सभी स्थितियों और परिस्थितियों को समझकर उनसे निपटने के लिए धैर्य, साहस, विद्या, वुद्धि और बल आदि की जरूरत होती है । और हनुमान जी में ये सभी गुण हैं । इसलिए हनुमानजी महाराज माता सीता की खोज करने में सफल हुए । इस कारण से संत, भक्त और ग्रंथ हनुमानजी को सीतान्वेषण पंडित भी कहते हैं ।

 

ठीक इसी तरह से जब अहिरावण भगवान श्रीराम और भैया लक्ष्मण को लेकर पाताल चला गया तो बड़ी असमंजस की स्थिति बन गई । किसी को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रामजी और लक्ष्मणजी कहाँ चले गए । ऐसी स्थिति में रामजी और लक्ष्मणजी का अन्वेषण करने में कोई अन्य कुशल नहीं था । अन्वेषण पंडित हनुमानजी महाराज ने रामजी और लक्ष्मणजी की खोज करने में सफल हुए ।

 

जब लक्ष्मण जी को वीरघातिनी शक्ति लगने से मूर्छा हुई तो पहले लंका में सुषेन वैद्य की खोज करना था और फिर हिमालय पर संजीवनी बूटी की । इसमें भी हनुमानजी महाराज सफल हुए और लक्ष्मणजी की मूर्छा दूर हुई ।

  

  एक कथा के अनुसार जिस वाण के लगने से रावण की मृत्यु होनी थी उस वाण को तपस्या करके रावण व्रह्माजी से ले आया था । और लंका में अपने महल के एक खंभे के अंदर रखवा दिया था । इस रहस्य को केवल रावण और मंदोदरी जानते थे । अन्वेषण पंडित  हनुमानजी महाराज इस वाण की खोज करने में भी सफल हुए थे ।

 

इस प्रकार हनुमानजी महाराज खोज करने में बहुत कुशल हैं । और इसलिए ये अन्वेषण पंडित हैं । अनुसंधान पंडित हैं 

 

।। अन्वेषण पंडित हनुमानजी की जय ।।

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

वृहद उत्तर रामायण धारावाहिक के निर्माण की जरूरत-भगवान श्रीराम के यज्ञ का घोड़ा लव और कुश के अलावा और किसने पकड़ा था ?

 गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सनातन परंपरा के प्रसिद्ध संत हैं । श्रीतुलसीदासजी महाराज भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे । और गोस्वामी  तुलसीदासजी स्वयं श्रीराम लीला का आयोजन करवाते थे । कहा जाता है कि बनारस में जिस स्थान को आज लंका नाम से जाना जाता है वहाँ गोस्वामी जी के श्रीराम लीला की लंका हुआ करती थी । इस कारण से वह स्थान लंका के नाम से जाना जाने लगा । और आज भी उसे लंका कहा जाता है । और यह स्थान बनारस का बहुत ही प्रसिद्ध स्थान है ।

 

  धारावाहिक के माध्यम से श्रीराम कथा का प्रसारण श्रीराम लीला का ही परिष्कृत और आधुनिक रूप है । और गोस्वामीजी स्वयं रामलीला के मंचन के समर्थक थे । इस विचार से धार्मिक धारावाहिक बनने चाहिए बस तथ्यों से छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए । और यहाँ हम यह बताना चाहते हैं कि वृहद उत्तर रामायण पर एक धारावाहिक की जरूरत है  

  अब प्रश्न यह है कि उत्तर रामायण पर एक नए धारावाहिक की जरूरत क्यों है ? अब तक जितने धारावाहिक उत्तर रामायण पर बने हैं वे बहुत ही संक्षिप्त हैं । जबकि उत्तर रामायण पर पुराणों के अनुसार एक बहुत ही अच्छा और विस्तृत धारावाहिक बनाया जा सकता है । इससे लोगों में, समाज में और जागरूकता बढ़ेगी ।

 

 यदि लोगों से एक प्रश्न पूछा जाय कि भगवान राम के यज्ञ का घोड़ा किसने पकड़ा था ?  तो सामान्यतया अधिकांश लोगों का एक ही जबाब होगा- लव कुश ने । क्योंकि लोगों में जानकारी का अभाव है ।

 

 उत्तर रामायण की कथा बहुत ही विस्तृत और भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण है । भगवान श्रीराम के यज्ञ के घोड़े को कुछ अन्य राजाओं ने भी पकड़ा था । और ग्रंथों में इसका विस्तृत वर्णन है । भगवान शंकर जी भी अपने एक भक्त राजा की तरफ से अपने गणों की सेना लेकर युद्ध करने आते हैं । हनुमानजी और शंकरजी का भी युद्ध होता है । अंत में स्वयं भगवान श्रीराम को युद्ध क्षेत्र में आना पड़ता है । लेकिन भगवान श्रीराम के आने पर कोई युद्ध नहीं होता है । भगवान शंकरजी और राजा भी भगवान श्रीराम को साष्टांग प्रणाम करते हैं और राजा यज्ञ के घोड़े को छोड़ देता है । सभी लोग भगवान श्रीराम का दर्शन करके धन्य हो जाते हैं 

 

 पाताल लोक में रहने वाले रावण के मित्र राक्षसों ने भी घोड़े को पकड़ा था । भरतजी के पुत्र पुष्कलजी घोड़े की रक्षा के लिए शत्रुघ्नजी के साथ गए थे । और इन्होंने बहुत अतुलित पराक्रम दिखाया था ।

 

 असम में स्थित माता कामाख्या की कथा भी रामायण से जुड़ती है । ऋषि च्यवन, ऋषि अरण्यक आदि की कथा भी उत्तर रामायण में आती है । भगवान राम की महिमा का सुंदर वर्णन आता है 

 

इस प्रकार उत्तर रामायण की कथा बहुत विस्तार युक्त है । और इस पर एक अच्छा और बड़ा धारावाहिक-वृहद उत्तर रामायण बनाया जा सकता है । जो वर्षों तक प्रसारित हो सकता है । 

इस धारावाहिक से समाज में जागरूकता बढ़ेगी और उत्तर रामायण के महत्वपूर्ण कथाओं को देखने और समझने तथा जानने का अवसर मिलेगा ।

  

।। जय श्रीसीताराम ।।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

रामानंद सागर के रामायण धारावाहिक में कुछ बड़ी भूल-गलतियाँ

 रामानंद सागर के रामायण धारावाहिक को रामायण पर बने धारावाहिकों में बहुत अच्छा स्थान प्राप्त है । और यह एक बहुत अच्छा प्रयास था । लेकिन इसमें कुछ गलतियाँ ऐसी हैं जिनसे बचा जा सकता था ।

 

  रामानंद सागर जी ने अपने रामायण धारावाहिक में अनेकों संदर्भ ग्रंथ का उल्लेख किया है । यह वैसा ही लगता है जैसे आजकल कुछ शोध कर्ता अपने शोध में बहुत संदर्भ दे देते हैं लेकिन उनमें से कुछ संदर्भो को ही वे ठीक से पढ़ते अथवा प्रयोग करते हैं ।

 

 रामानंद सागर जी ने कहा है कि उनके धारावाहिक का मुख्य स्रोत संस्कृत में रचित श्रीवाल्मीकि रामायण जी हैं और दूसरा मुख्य स्रोत अवधी में रचित श्रीरामचरितमानस जी हैं । और दो ग्रंथ अन्य भाषाओं के हैं । इन चार ग्रंथों के अतिरिक्त उन्होंने बहुत लंबी सूची दे रखी है । लेकिन ठीक से किसी का पालन नहीं किया ।

 

हम यहाँ पर कुछ बातों का ही उल्लेख कर रहे हैं । 

 

श्रीवाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राम जी के प्रगट होने का समय आ जाता है तो आकाश में देवता लोग आकर भगवान की स्तुति करते हैं, अप्सराएँ नृत्य करती हैं, गंधर्व गायन करते हैं । बाजे बजते हैं । आकाश से फूलों की वर्षा होती है । लेकिन यह सब दिखाना उन्होंने जरूरी नहीं समझा । रामजी के जन्म के समय देवता लोग स्तुति करते हैं इस बात का उल्लेख श्रीरामचरितमानस जी में भी है । लेकिन दोनों प्रमुख स्रोतों को नकार कर बहुत ही साधारण तरीके से जैसे आम राजकुमार का जन्म हो, बिल्कुल वैसे दिखा दिया ।

 

  जयंत को दंड देना रामायण की बहुत बड़ी घटना है । इसका उल्लेख श्रीवाल्मीकि रामायण और श्रीरामचरितमानस दोनों में है । लेकिन इसे भी नजरंदाज कर दिया गया । जयंत देवराज इंद्र का पुत्र है । कौए के वेश में आकर चोंच से सीताजी के पैर में प्रहार करता है । रामजी विश्राम कर रहे होते हैं । पास में पड़ी सींक (घास) का ही धनुष और वाण बनाकर वाण छोड़ देते हैं । जयंत का अभिमान चूर्ण हो जाता है । सहायता के लिए अपने पिता देवराज इंद्र के पास जाता है लेकिन वे भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते । शिव लोक, व्रह्म लोक हर जगह जाता है लेकिन राम द्रोही की रक्षा कौन कर सकता है ? अन्ततः नारदजी की प्रेरणा से रामजी की शरण में आता है तब उसकी प्राण रक्षा होती है । इस घटना को भी नहीं दिखाया गया । जबकि यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है ।

 

  रामजी बड़े कृतज्ञ हैं । इसलिए युद्ध में मारे गए वानरों और भालुओं को वे छोड़कर नहीं आते । और युद्ध में मरे हुए वानरों और भालुओं को जीवित कर दिया जाता है । इसका वर्णन श्रीरामचरितमानस जी में है । इसका वर्णन अध्यात्म रामायण और व्रह्मांड पुराण में भी है । पद्म पुराण में भी है । लेकिन इस महत्वपूर्ण घटना को नहीं दिखाया गया । जबकि पुष्प वाटिका प्रसंग जो प्रमुख चार स्रोतों में से केवल श्रीरामचरितमानसजी में है उसे बहुत विस्तार में दिखाया गया । और फ़िल्मी ढ़ंग में प्रस्तुत किया गया । इसे भी न दिखाते ।

 

  सबसे बड़ी भूल शबरी जी के प्रसंग में जान-बूझकर किया गया । यहाँ एक प्रश्न उठता है कि क्या रामानंद सागर और उनकी टीम गोस्वामी तुलसीदासजी और वेद व्यास जी से भी बड़ी विद्द्वता पूर्ण और भक्त थी ? वेद व्यास जी ने ही सभी पुराणों की, उपनिषदों की रचना की है और वेदों के विभाग किए हैं ।

 

   श्रीरामचरितमानसजी के अनुसार राम जी शबरी जी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं । रामजी सामान्यतया अपने व्रह्म स्वरूप को प्रगट नहीं होने देते थे अपने वास्तविक स्वरूप को छुपाते थे । लेकिन जो उच्च कोटि के समर्पित भक्त होते थे उनके सामने यह भेद खुल जाता था । वहाँ यह छुपाव नहीं चलता था । इसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में किया और वेदव्यासजी ने व्रह्मांड पुराण और अध्यात्म रामायण में किया । लेकिन रामानंद सागर ने इस प्रसंग में श्रीरामचरितमानस जी के चौपाइयों के माध्यम से नवधा भक्ति का उपदेश प्रस्तुत कराया लेकिन चौपाइयों के साथ छेड़छाड़ करने की धृष्टता की । उदाहरण के लिए- दूसर रति मम कथा प्रसंगा की जगह दूसर रति प्रभु कथा प्रसंगा बुलवाया । इसी तरीके से आगे के चौपाइयों को बदलने की धृष्टता की ।

 

नवधा भक्ति का जैसा वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस जी में किया है ठीक वैसा ही वर्णन अध्यात्म रामायण में वेद व्यास जी ने किया है

 

  चौपाइयों में बदलाव करके ये लोग क्या सिद्ध करना चाहते थे ? इस प्रसंग में श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, अध्यात्म रामायण और वेदव्यास जी की जान-बूझकर अवहेलना की गई है

 

ऐसे और प्रसंग हैं । लेकिन मुझे सबसे गलत नवधा भक्ति के उपदेश में छेड़छाड़ करना लगा ।

 

।। जयश्रीसीताराम ।।

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

भगवान के अनंत नामों में राजा की संज्ञा किसे प्राप्त है

एक बार नारदजी ने भगवान राम से कहा कि हे प्रभु मैं आप से एक वरदान माँगना चाहता हूँ । भगवान राम बोले कि नारदजी ऐसी कौन सी वस्तु है जो मुझे इतनी प्रिय है जिसे आप माँग नहीं सकते । अर्थात आप कुछ भी माँग सकते हैं ।

 

भगवान राम ने कहा कि मेरे लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो भक्तों के लिए अदेय हो । अर्थात जिसे मैं अपने भक्तों को न दे सकूँ । इसलिए आप अपने मन का संकोच छोड़कर मन चाही वस्तु माँग लीजिए ।

 

  नारदजी बोले के हे प्रभु आपके अनंत नाम हैं । और सभी नामों की बड़ी महिमा है । आपके सभी नाम एक से बढ़कर एक हैं फिर भी मेरी इच्छा है कि आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि होकर, आपके अन्य सभी नाम तारागण होकर तथा आपका राम नाम चन्द्रमा होकर भक्तों के हृदय आकाश में सुशोभित हों ।

 

  भगवान राम ने नारदजी को यह वरदान दे दिया ।  चन्द्रमा तारागणों के राजा हैं । इसलिए भगवान राम के नारदजी को दिए गए वरदान से राम नाम रुपी चन्द्रमा भगवान के अन्य सभी नाम रुपी तारागणों का राजा है ।

 

   इसप्रकार भगवान का राम नाम भगवान के अनंत नामों में राजा के समान सुशोभित है ।

 

निम्नलिखित लिंक भी देंखे-


श्रीराम नाम राजा के समान है



।।  नाम महाराज की जय ।।


मंगलवार, 1 सितंबर 2020

सनातन धर्म के अनुसार जिसकी मृत्यु हो जाय और जिसे बुढ़ापा आ जाए वह भगवान नहीं होता

सनातन धर्म में भगवान की कई विशेषताएँ कही गई हैं । इंही में से एक है कि भगवान की न तो मृत्यु होती है और न ही भगवान बूढ़े होते हैं ।

 

इसका मतलब है जिसकी मृत्यु हो जाए और जो बूढ़ा हो जाए वह सनातन धर्म के अनुसार भगवान नहीं होता है ।

 

ग्रंथों में भगवान के बारे में पढ़ा जाए, भगवान की स्तुति पढ़ी जाए तो यह मिलता है कि आप जरा और मृत्यु से परे हैं । जरा और मृत्यु भगवान का स्पर्श तक भी नहीं कर सकते आदि ।

 

जरा और मृत्यु केवल साधारण जीव का स्पर्श करते हैं जैसे मनुष्य और पशु-पक्षी आदि को भगवान को नहीं ।

 

स्कंद पुराण, पद्म पुराण, श्री वाल्मीकि रामायण, श्रीरामचरितमानस आदि में भगवान राम को नित्य और अविनाशी कहा गया है और जरा और मृत्यु से परे कहा गया है । इसी तरह श्रीमद भागवत पुराण आदि में भगवान श्रीकृष्ण के लिए भी कहा गया है ।

 

   लेकिन मूर्खता वश कुछ लोग कहते और समझते हैं कि भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई थी । जो कि पूर्णतया गलत है । यह सनातन धर्म के विरुद्ध बात है ।

 

 भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के लिए ग्रंथों में कहा गया है कि- जरामृत्यु वर्जितः । इसके बावजूद भी कुछलोग अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं । अनर्गल लिखते,कहते, और बताते रहते हैं ।

 

 सत्य सनातन हिंदू धर्म में परमात्मा अजर और अविनाशी होते हैं । भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण परमात्मा हैं और अजर हैं, अविनाशी हैं । न इन्हें बुढ़ापा आता है और न ही इनकी कभी मृत्यु होती है ।

 

कुछ अधिक जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें-

 

भगवान की मृत्यु नहीं होती  


। जय श्रीसीताराम 

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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विशिष्ट पोस्ट

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे

लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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