सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शुक्रवार, 20 मई 2011

राम बिना आराम कहाँ ?

सुसंत 

और सदग्रन्थ कहते हैं कि यदि आराम चाहते हो, तो राम को चाहो । बिना राम के आराम नहीं मिलता । लेकिन हम सभी आराम तो चाहते हैं, परन्तु राम को नहीं चाहते । इसलिए ही वास्तविक आराम नहीं मिलता । बिषयों का सुख स्थायी आराम नहीं देता । बाहरी और आंतरिक सुख में बहुत फर्क होता है । सुसंत बाहर से भले ही कंगाल दिखें पर अंदर से सुखसागर में गोते लगा रहे होते हैं ।

   मानव मन के कहने पर ही सब कुछ करता है । यह मन ही है जो किसी को आराम से बैठने नहीं देता । क्योंकि यह हमेशा दौड़ता ही रहता है । कभी विश्राम नहीं करता । और जब तक मन विश्राम नहीं करेगा । रामजी की ओर दौड़ने के लिए इसके पास समय ही नहीं रहेगा । और जब तक रामजी की ओर दौड़ेगा नहीं । वास्तविक आराम नहीं मिलेगा ।

   जब तक मन को आराम नहीं मिलेगा । तब तक हमें भी आराम मिलने वाला नहीं है । मन को आराम मन की गति में विराम लगा कर ही दिया जा सकता है । जब किसी के पास काम होता है तो वह विश्राम थोड़े करता है । कहता है दम मारने को समय नहीं है । यह कर लिया और वह करना है । इसके बाद वह करने जाना है । क्योंकि बहुत काम है । इसीतरह जब तक मन में काम है । विश्राम कहाँ ? और बिना विश्राम राम कहाँ ? और बिना राम आराम कहाँ ?

 मन के विश्राम से यहाँ मतलब बिषयों की ओर जाने से विराम लगाने से है ।  लेकिन मन आसानी से मानने वाला तो है नहीं ।  आखिर तब किया क्या जाय ? इसे समझाना चाहिए ।  फिर भी न माने तो जोर-जबरदस्ती भी करना चाहिए ।  इसे प्रलोभन देना चाहिए ।  बताना चाहिए कि संसार के रस तो बहुत पी चुके थोड़ा राम नाम रस भी पीकर देखो । किसी भी तरह इसे राम जी से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए ।  जबरदस्ती ही सही राम-राम करना शुरू कर देना चाहिए । रामजी का ध्यान करना चाहिए ।  राम जी के गुणगणों को इसे बार-बार सुनाना चाहिए । यह सुनना चाहे अथवा नहीं । और क्या तरीका हो सकता है ? रस्सी से तो इसे बाँधा नहीं जा सकता । धीरे-धीरे जब इसे रामजी के गुणगणों और राम नाम से अनुराग होने लगेगा तो लोभ, मोह, काम, क्रोधादि स्वतः रामजी की कृपा से दूर होने लगेंगे । जितना अनुराग बढ़ेगा उतना ही बिराग भी बढ़ेगा ।
     

   सच में संसार में क्षणिक आराम देने वाली तो बहुत चीजें हैं । लेकिन इनसे मन संतुष्ट कहाँ होता है ? मन वास्तविक सुख यानी आराम चाहता है । परन्तु सच्चा सुख इसे मिलता ही नहीं । इसलिए मन रुपी मृग की तृष्णा ज्यों की त्यों बनी रहती है । और यह चक्कर काटता रहता है ।
 
  जब हम श्रम से थकें होते हैं तो हमें विश्राम करने से आराम मिलता है । परन्तु जब फिर से श्रम करने लग जाते हैं । पुनः विश्राम की जरूरत पड़ती है । जब हम भूंखे होते हैं तो हमें भोजन से आराम मिलता है । परन्तु कुछ समय बाद फिर भूँख लग जाती है । इसी तरह मन को स्थायी सुख नहीं मिल पाता । और इसकी तृष्णा बनी ही रहती है । तृष्णा लेकर पैदा हुए, जिए और फिर तृष्णा लेकर ही चले गए । इसी से भटकना पड़ता है । तृष्णा न रहे तो दुख भी न रहे । इससे छुटुकारा केवल रामजी की कृपा से ही मिल सकता है । नहीं तो बिषयों से बिराग आसानी से नहीं होता ।

  जब हमारे मन की कोई कामना पूरी होती है तो हमे क्षणिक सुख यानी आराम मिलता है । लेकिन एक ही कामना तो होती नहीं । एक के बाद एक और हर कामना पूरी होने से ही आराम मिल सकता है । नहीं तो मन खिन्न रहेगा ही । कामनाओं का कोई अंत नहीं होता । मन की तृष्णा आसानी से मिटने वाली नहीं है ।  

आखिर यह स्थिति क्यों बनी हुई है ?  मन की तृष्णा समाप्त क्यों नहीं होती ? सारे भोग मिल जाएँ तो उन्हें भोगकर भी मन पूर्णरूपेण सुखी  क्यों नहीं होता ?

   क्योंकि मन इन छोटे-मोटे संसारिक सुखों से तृप्त होने वाला नहीं है । तृप्त कब होगा जब यह पूर्ण रूपेण सुखसागर में गोते लगायेगा । और सुखसागर हैं राम जी । अतः बिना राम के काम बनने वाला नहीं है । राम जी सभी सुखों के मूल हैं । बिना उनके हमें वास्तविक सुख यानी आराम नहीं मिल सकता ।

 राम जी तो कण-कण में रमते हैं और इसलिए ही राम कहलाते हैं । फिर भी जब तक उन्हें बुलाया न जाय, उनका स्मरण न किया जाय वे नहीं आते । और जब तक मानव मन राम से दूर रहता है अर्थात राम से निकटता स्थापित नहीं करता । उसे सच्चा यानी वास्तविक आराम नहीं मिलता । जब राम के लिए मन में चाह उत्पन्न हो जाती है अर्थात जब मन राम का स्मरण करने लगता है तो राम जी पास आ जाते हैं । और आराम मिल जाता है । सच्चा आराम रामजी के आने से ही मिलता है ।

   रामजी आ जाएँ तो आराम और अगर दूर चलें जाएँ तो इसे ही बेराम होना कहते हैं । राम को बुला लिया यानी उनका स्मरण किया या करने लगे तो राम के आने से आराम मिल जाता है ।  किसी की तबियत खराब हो जाय तो प्रायः लोग कहते हैं कि वे बेराम हैं । मतलब इन्होंने रामजी  को दूर कर (बिल्कुल भुला) दिया है और इसलिए इनसे  रामजी बहुत दूर चले गए हैं । जब राम जी दूर चले गए तो आराम कैसे होगा ?  स्वास्थ्य में सुधार होने पर कहते हैं कि अब आराम है । मतलब रामजी आ गए हैं और इसलिए आराम मिल गया इसलिए राम जी को पास रखना चाहिए । यानी उन्हें भुलाना नहीं चाहिए जिससे बेराम होने की स्थिति ही न आये ।
    
       मानो या न मानो बेराम होना भी एक बीमारी है  भले ही लोगों व अपनी दृष्टि में हम स्वस्थ व आराम में दिखें । लेकिन वस्तुतः हम बीमार होते हैं  यह एक ऐसी आंतरिक बीमारी है  जिसका इलाज किसी भी ज्ञात आधुनिक चिकित्सा पद्धति में नहीं है । इसका इलाज किसी सद्गुर या सुसंत के द्वारा ही सम्भव हो सकता है । ये आसानी से न मिल सकें तो स्वतः राम-राम करते हुए रामजी का गुणगान पढ़ते व सुनते हुए हम इस बीमारी से बच सकते हैं । आज के समय में अधिकांश लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं  परंतु भ्रम, अहंकार, मान, गुमान और अज्ञान आदि कुपथ्यों के वशीभूत होकर पथ्य को त्यागकर स्वस्थ व आराम में होने के वहम में जिए जा रहे हैं  
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शनिवार, 14 मई 2011

अहिल्या उद्धार


अहिल्या 
पंच देव कन्याओं में से एक हैं । ये अनुपम सुन्दरी और गौतम मुनि की प्रिय पत्नी व पतिव्रता थीं । इंद्र पूर्णतयः दोषी थे, इसलिए उन्हें मुनि ने तत्काल शाप दे दिया । फिर सोचा कि इतने दिनों से साथ में रहकर भी अहिल्या मेरे स्वभाव को नहीं जान सकी । व्रह्म बेला की रोज की मेरी जो दिनचर्या है, उसके प्रतिकूल आचरण न ही मैंने कभी किया और न ही कर सकता हूँ । इसने इतना भी बिचार नहीं किया । इसकी मति पथरा गई है , अतः यह भी पत्थर हो जाए । इस प्रकार अहिल्या को भी शाप मिल गया ।

    

   अहिल्या निर्जन वन में वर्षा, शीत, आतप आदि सहती हुई, भगवान श्रीराम के आने की प्रतीक्षा करने लगी । अब कोई एकमात्र श्रीराम की ही प्रतीक्षा कर रहा हो और श्रीराम न आएँ । ऐसा कहीं सम्भव है । श्रीरामजी सोचविमोचन हैं । वे सबके सोच संताप मिटाते हैं । लेकिन जो एकमात्र उन्हीं के भरोसे पड़ा हो । उसे वे कैसे भूल सकते हैं ?

   

    आगे-आगे ऋषि विश्वामित्र चले जा रहे हैं । बीच में दीन-मलीनों का उद्धार करने वाले श्रीरामजी और सबसे पीछे लक्ष्मण जी । मुनि तो आगे थे ही, वे चलते जा रहे थे । परन्तु श्रीरामजी तो अब आगे जा ही नहीं सकते थे । उन्हें तो अहिल्या का उद्धार करना था । परन्तु कैसे ? गुरू जी चलते जाएँ और राम जी अहिल्या का उद्धार करने लग जाय, ऐसा कहीं सम्भव हो सकता है ?



    श्रीरामजी दया, करूणा, शील, विनम्रता, कृतज्ञता, आदर्श, मर्यादा आदि जितने गुण हैं । सबके भंडार हैं, मूर्तिमान स्वरूप हैं  । ऐसे में पहले तो गुरू की आज्ञा लेनी/मिलनी चाहिए । क्योंकि गुरू जी साथ हैं । यदि साथ न होते तब दूसरी बात थी । इसलिए श्रीरामजी ने स्वयं मुनिराज से पूछा कि मुनिवर यह शिला कैसी है ? यह स्थान इतना सूना-सूना क्यों है ? तब विश्वामित्र जी ने अहिल्या की सारी कथा कह सुनाई । और आज्ञा भी दिया कि चरण कमल रज चाहत कृपा करो रघुवीर

   

   भगवान श्रीराम की चरण रज लगते ही अहिल्या शाप मुक्ति हो गई । अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त होकर भगवान का गुण गान करने लगी । उसे गौतम ऋषि का शाप वरदान लगा । क्योंकि उसे देव दुर्लभ श्रीराम जी के चरण रज की प्राप्ति हुई थी । जिसे मुनि लोग अनेक जन्मों की तपस्या से भी जल्दी प्राप्त नहीं कर पाते । अहिल्या सोचती है कि जिन भगवान के चरणों से निकली हुई गंगाजी को श्रीशिवजी हमेशा शीस पर रखते हैं  व्रह्मा जी हमेशा कमण्डल में लिए घूमते हैं आज उन्हीं भगवान ने हमें चरण रज दे दिया   इस प्रकार मुक्त होकर अहिल्या अपने पति गौतम ऋषि को पुनः प्राप्त हुई ।

  

   भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श होते ही अहिल्या का उद्धार हो गया यानी वह शाप के संताप से मुक्ति हो गई, लेकिन  भगवान राम को बदले में कोई हर्ष नहीं हुआ । उलटे पश्चाताप हुआ कि मुनि पत्नी को चरण लगाना पड़ा । कहाँ वह बर्षों से इसी प्रतीक्षा में थी कि रामजी आएँ और कृपा करें । तो मेरा कष्ट दूर हो । कष्ट दूर भी हुआ । इतना बड़ा उपकार करके भी अपने सरल व संकोची स्वभाव के चलते खुश होने के बजाय पश्चाताप करने लगे, मन अशांत हो गया । श्रीरामचरितमानस में तो यहाँ तक संकेत मिलता है कि अहिल्या उद्धार करके रामजी जाकर गंगा नहाये और दान दिये और उसके बाद शांत और प्रसन्नचित होकर आगे चले । विनयपत्रिका में गोस्वामीजी कहते हैं कि-


सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ।।


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मंगलवार, 10 मई 2011

भाग्य और पुरुषार्थ

भाग्य 

और पुरुषार्थ का रहस्य बहुत ही गूढ़ है । दोनों में कौन श्रेष्ठ है यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में हर कोई जानने की इच्छा रखता है अथवा अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी न कभी इसके बारे में जरूर सोचता है या फिर सोचने को मजबूर हो जाता है । अपने-अपने समझ व बिचार से हर कोई कुछ न कुछ  निष्कर्ष निकलता तो जरूर है । लेकिन एक निश्चित निर्णय पर नहीं पहुँच पाता । कभी लगता है भाग्य श्रेष्ठ है । कभी लगता है कि पुरुषार्थ श्रेष्ठ है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी धारणा होती है ।
                                                                             

 ऐसा कई बार होता है कि जब हम कोई कार्य करना चाहते हैं अथवा करते हैं तो कुछ न कुछ ऐसा घटित हो जाता है । जो हमारे कार्य की दिशा एवं दशा विल्कुल ही बदल देता है । इसलिए हम करना कुछ चाहते हैं और करने कुछ लगते हैं । बनना कुछ चाहते हैं और बन कुछ और जाते हैं । पहुंचना कहीं चाहते हैं और पहुँच कहीं और जाते हैं । पाना कुछ चाहते हैं और पा कुछ और जाते हैं । यह विचारणीय है ।

   इस रहस्य को समझने और समझाने के लिए हम निम्न दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं-

रामू कई दिन से भाग्य और पुरुषार्थ को लेकर परेशान था । कई लोगों से सम्पर्क किया । लेकिन शंका का समाधान नहीं हो सका । अचानक उसे मौसी के गाँव के पास रहने वाले महात्मा श्रीरघुवर दास जी महाराज का ध्यान आया और तुरंत उनसे मिलने चल दिया । वहाँ पहुँचकर महात्मा जी को प्रणाम करके बताए गए आसन पर बैठ गया । 

आश्वासन पाकर रामू बोला बाबाजी भाग्य और पुरुषार्थ का क्या रहस्य है मेरे मन में एक द्वन्द सा चल रहा है । कभी मन में आता है कि भाग्य सब कुछ है और कभी मन में आता है कि नहीं कर्म ही श्रेष्ठ है । तमाम बातें मन में उठती रहती हैं । जिससे मन बिचलित हो जाता है । और मैं किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता हूँ । कृपा करके मेरी इस भ्रान्ति को दूर कर दीजिए” 

महात्मा जी बोले बेटा तुम्हारा प्रश्न ही बिचलित करने वाला है । और जब तक तुम दोनों में से किसी एक को चुनना चाहोगे विचलित ही रहोगे । बड़े-बड़े महात्मा और शास्त्र भी इस बिषय में ऐसे बिचार प्रस्तुत करते हैं जिससे आपको कभी लगेगा कि भाग्य श्रेष्ठ है और कभी लगेगा कि कर्म श्रेष्ठ है । लेकिन मेरे बिचार से सार रूप में सच यही है कि दोनों ही श्रेष्ठ हैं” 

रामू बोला महात्मनलोग श्रीमद्भगवतगीता का संदर्भ देकर कहते हैं कर्म श्रेष्ठ है । इस पर आप क्या कहना चाहेंगे” ?

महात्माजी बोले लोग ठीक कहते हैं । कर्म श्रेष्ठ है । मैंने कब कहा कि कर्म श्रेष्ठ नहीं है । कर्म करोकर्म करने का अधिकार है पर फल देना किसी दूसरे के हाथ में है । गीता यही कहती है । वस्तुतः श्रीमद्भगवत गीता में निष्काम कर्म की बात कही गई है । परन्तु अधिकांश लोग या यूँ कहिये कि साधारण मानव किसी न किसी कामना से प्रेरित होकर ही कोई कर्म करता है । और तो छोड़िये यहाँ तक कि भगवान के मंदिर में भी किसी कामना को लेकर ही जाते हैं । कामना पूरी होने पर दुबारा जाते हैं । और कई लोग कामना न पूरी होने पर जाना ही छोड़ देते हैं” 

 महात्माजी बोलते रहे मानव मन निरंकुश होता है । और मानवमन के वश में होता है  इसे यदि विश्वास हो जाय कि भाग्य ही सब कुछ है और कर्म कुछ भी नहीं तो यह अकर्मण्य हो जायेगा । बस भाग्य के भरोसे ही बैठा रहेगा । वहीं दूसरी ओर इसे यदि विश्वास हो जाय कि भाग्य शून्य है और कर्म ही सब कुछ है तो इसका अहंकार बढ़ता जायेगा । खुद को कर्ता मान बैठेगा । ईश्वर की सत्ता को भी नकारने लगेगा । जैसा कि आज अक्सर सुनने में आता है । मनुष्य को सारे पुरुषार्थ करने तो चाहिए । लेकिन अपने को कर्ता मानकर नहींअहंकार से बचना चाहिए । सदा ध्यान रखना चाहिए-


रे मन नहि कुछ तेरे हाथ ।
होता जो करते रघुनाथ ।।
जग में कर सारे पुरुषार्थ ।
लेकिन दयाधरम के साथ ।।
दुःख देने में न हो हाथ ।
हो ले दुःख में सबके साथ ।।

    भाग्य अहम से दूर रख्रती है और कर्म अहम के पास ले जाता है । जब मनुष्य अहम युक्त कर्म करता  है तो भाग्य दूर चली जाती है और जब हाथ धोकर भाग्य के पीछे पड़ जाता है तो कर्म रूठ जाता है और जीवन में असंतुलन की स्थित आ जाती है” 


 महात्माजी आगे बोले एक बार दो व्यक्तियों को अलग-अलग किसी निर्जन स्थान में छोड़ दिया गया । जहाँ पानी नहीं था ।  पानी पीने के लिए उनके पास धरती से पानी निकालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । अतः प्यास से ब्याकुल होकर दोनों  धरती खोदने लगे । परन्तु पहला व्यक्ति बहुत देर तक खुदाई करने के बाद पहली वाली जगह छोड़कर किसी दूसरी जगह पर खुदाई करने लगा । क्योंकि उसे एक विशाल पत्थर की शिला मिल गई थी ।  जो किसी भी तरह से काटे नहीं कटती थी ।  इसी तरह दूसरी व तीसरी जगह पर भी हुआ  । और वह जल पाने में सफल न हो सका । अंततः प्यास के कारण दम तोड़ दिया 

   सोचिए क्या इसने कर्म नहीं किया भरपूर किया । पर पानी नहीं पाया । इसे चाहे इसका  भाग्य कह लोचाहे यह कि इसने ठीक से कर्म नहीं किया  । लेकिन सच तो यह है कि इसने कर्म किया तो, पर ठीक हुआ नहीं । ब्यवधान आते गए । इस स्थित में क्या कहोगे कि भाग्य या कर्म प्रधान है अथवा दोनों ।

   दूसरा व्यक्ति एक ही जगह पर लगातार खुदाई करता रहा । मतलब कोई व्यवधान नहीं आया । और वह पानी पीने में सफल हो गया । इसे इसके कर्म का फल मिल गया । यहाँ पर क्या कह सकते हैं कि कर्म या भाग्य प्रधान है अथवा दोनों ।

  दोनों स्थितयों में जहाँ एक ओर कर्म और भाग्य को अलग करके देखना मुश्किल लगता है । वहीं दूसरी ओर ऐसा भी कह सकते हैं कि दोनों को अपने कर्म के अनुसार ही तो फल मिला । जो जैसा करता है वैसा ही पाता है । यह सर्वविदित भी है और सत्य भी ।

   
   रामू बोला मेरे समझ में अब इतना आता है कि भाग्य और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो  पहलू हैं । दोनों को अलग करके देखना उचित नहीं है” 

महात्माजी बोले  हाँ भाग्य और पुरुषार्थ को जीवन रुपी रथ के दो पहिये भी मान सकते हो । किसी भी पहिये में खराबी आने से रथ डगमगा जाता है । जो स्वाभाविक ही है । मैंने अपने विचार आपके सामने रखे ।  आपको मुझसे सहमत होने की जरूरत नहीं है । इस बिषय पर बिभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हो सकते हैं ।

   फिर भी मेरी राय यही है कि जीवन में जो भी पाना चाहते हो उसके अनुरूप उचित कर्म करो । अहम से अपने को दूर रखो । भगवान सर्वश्रेष्ठ हैं । उनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है । कर्म करो और इश्वर से प्रार्थना करो । आपके कर्म के अनुरूप सफलता अवश्य मिलेगी । सार रूप में सभी शास्त्र या संत अथवा श्रीमद्भगवतगीता भी यही कहती है” 

रामू महात्माजी को प्रणाम करके और उनकी आज्ञा लेकर वहाँ से चला आया । उसकी भ्रान्ति दूर हो गई थी ।


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शुक्रवार, 6 मई 2011

आत्मा और ईश्वर: प्रकृति ईश्वरमय है


आत्मा 


और ईश्वर में बहुत ही गहरा सम्बन्ध है । आत्मा अविनाशी परमात्मा का ही एक अविनाशी अंश है । आत्मा हम सबमें है । और ईश्वर सबमें है । सर्वब्यापी है । कुछ लोग कहते हैं कि हम प्रकृति को मानते हैं, लेकिन ईश्वर को नहीं मानते । कुछ लोग कहते हैं कि जो प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ता । जिसे किसी ने देखा नहीं उसे क्या मानना

                                           

   कई लोग जो ईश्वर को नहीं मानते, वे भी जगह-जगह घूमने जाते हैं । प्राकृतिक दृश्य उन्हें भी बहुत लुभाता है । देखकर रोमांचित हो जाते हैं । क्या सुंदरता है ? कैसा मनोरम दृश्य है ? इत्यादि बातें मन में आती है और घर कर जाती है । लेकिन लोग यह नहीं समझते कि प्रकृति में यह मनोरमता, यह क्रियाशीलता कहाँ से आती है ? कभी आपने सोचा कि शरीर की क्रियाशीलता कहाँ से आती है ? शरीर पूर्णतयः निष्क्रिय कब हो जाता है ?


  भगवान घट-घट वासी हैं । फिर भी नजर नहीं आते । भगवान प्रकृति रूप हैं । भगवान प्रकृति में हैं और प्रकृति से परे भी हैं । प्रकृति में जो भी क्रिया-कलाप संचालित हो रहे हैं । वह इसलिए क्योंकि भगवान यानी ईश्वर इसमें बसे हुए हैं । यदि भगवान अपने को प्रकृति से एकदम अलग कर लें । तो कुछ भी नहीं होगा । सारा संसार जड़वत हो जायेगा और नास को प्राप्त हो जायेगा ।



  बात आसानी से समझ में नहीं आती । ईश्वर हर जगह है । हम सबमें हैं । सारी सृष्टि में हैं । फिर भी दिखाई नहीं पड़ते । दिखाई नहीं पड़ते इसका मतलब यह तो नहीं निकाला जा सकता कि भगवान हैं ही नहीं । हम उन्हें देख नहीं सकते । जान नहीं सकते । पहचान नहीं सकते । क्योंकि हमारे पास देखने और जानने के जितने भी साधन हैं, भगवान उनसे परे, बहुत परे बिद्यमान हैं ।

  बड़े-बड़े सुसंत साधना रुपी साधन के द्वारा भगवान को जानने, पहचानने की कोशिस करते हैं । संत कहते हैं कि भगवान को हम तब तक नहीं जान सकते जब तक कि वे स्वयं कृपा करके हमें जना न दें । क्योंकि हमारे पास साधनाभाव है । हमारे पास उन्हें जानने के लिए पर्याप्त साधन ही नहीं हैं ।  


   भगवान हैं तो हर जगह और हमारे अंदर भी हैं । लेकिन बिना जाने तो काम बनने वाला नहीं है । जैसे चाहे हमारे घर में अरबों की सम्पत्ति छुपी हो, किस काम की । जब तक हम उसे जानेंगे नहीं । पहचानेंगे नहीं । हम धनाभाव में ही जीते रहेंगे । उसका कुछ भी फायदा नहीं उठा पाएंगे । ठीक यही हाल ईश्वर और हम सबकी है ।


   आज विज्ञान ने बहुत बड़ी प्रगति कर ली है । आज ऍक्स रे, सीटीस्कैन, एमआरआई जैसी तकनीकों से हम शरीर के अंदर हर हिस्से की जाँच-पड़ताल कर लेते हैं । हर एक अंग, हर एक चीज जो भी शरीर में है, उसे हम स्क्रीन पर देख सकते हैं । चित्र ले सकते हैं ।

 लेकिन कोई भी मशीन ऐसी नहीं है, जिससे हम आत्मा को देख सकें, उसका चित्र ले सकें । अर्थात हमारे पास देखने व जानने के जितने भी साधन हैं, उनकी सहायता से न ही हम आत्मा को देख सकते हैं और न ही जान सकते हैं । अब बताइये भला इस स्थिति में क्या कोई ऐसा कह सकता है कि आत्मा होती ही नहीं ? आत्मा को भी किसी ने देखा तो नहीं है । जाना नहीं है ।


   जब तक शरीर में आत्मा रहती है । तब तक ही इसमें क्रियाशीलता रहती है । इसे भूख लगती है । प्यास लगती है । इत्यादि । लेकिन ज्यों ही आत्मा शरीर से निकलती है । शरीर निष्क्रिय हो जाता है और नाश को प्राप्त हो जाता है ।


   ठीक इसी तरह प्रकृति की सारी क्रियाशीलता, मनोरमता इत्यादि इसलिए है क्योंकि इसमें भगवान विद्यमान हैं । जब भगवान नहीं रहेंगे यानी जब अपने को प्रकृति से पृथक कर लेंगे तो प्रकृति नहीं रहेगी, न हम रहेंगे अर्थात कुछ भी शेष नहीं रहेगा ।  जैसे आत्मा जब शरीर से पृथक हो जाती है, तब शरीर होकर भी कुछ भी नहीं होता और नाश को प्राप्त हो जाता है ।

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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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