सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 27 मई 2018

भगवान का गुणगान प्रत्येक व्यक्ति को क्यों करना चाहिए ?


संत, सदग्रंथ और भक्त जिसे देखो वही भगवान का गुणगान करते रहते हैं । अस्तुति करते रहते हैं । इसके कई कारण और कई लाभ हैं । यहाँ एक लाभ के बारे में लिखा जा रहा है ।


 भगवान की स्तुति करने से गुणगान करने से मन और वाणी में पवित्रता आती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए भगवान राम का यश गाया है । कहा है । लिखा है ।


 मन और वाणी की पवित्रता से आचार और विचार सभी धीरे-धीरे पवित्र हो जाते हैं । आचार और विचार पवित्र हो जाए तो फिर जीव कुमार्ग को छोड़कर सुमार्ग का अनुकरण करने लग जाता है । इसलिए ही हमारे पूर्वजों ने इसे जन-जन के लिए अनिवार्य बताया था  हर किसी को भगवान राम का गुणगान करना चाहिए  पढ़ना चाहिए और सुनना चाहिए  

                         
   अगर सभी लोग सुमार्ग पर चलने लगें और कुमार्ग से दूरी बना लें तो फिर सबका, देश समाज का सुधार हो जाए ।


  इस प्रकार भगवान का गुणगान प्रत्येक व्यक्ति के लिए जरूरी और उपयोगी है । क्योंकि सुमार्ग पर चलकर अपना और औरों का कल्याण करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है ।



।। जय श्रीसीताराम ।।

गुरुवार, 24 मई 2018

दवा (औषधि) और रोग: दवाएँ किसे ठीक कर पाती हैं


कोई बीमारी होने पर लोग दवा (औषधि) लेते हैं । प्राचीन समय में भी एक से एक औषधियों की व्यवस्था और जानकारी थी । धीरे-धीरे इनका प्रयोग कम हो गया । इनकी जानकारी भी धीरे-धीरे जाती रही । फिर भी आज भी बहुत से लोग आयुर्वेदिक औषधियों से बहुत लाभ उठा रहे हैं । आयुर्वेदिक औषधियों में एक से एक जीवनदाई औषधियाँ होती हैं । लेकिन इनके उत्पादन, चयन और निर्माण प्रक्रिया में बहुत सावधानी होनी चाहिए । यहाँ तक कई औषधियों में तो स्थान, दिन और तिथि तक का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है । ऐसे में आजकल इतनी बारीकियों पर कम ध्यान दे पाने से ये कम उपयोगी साबित हो सकती हैं ।


  ग्रंथों में जैसे श्रीरामचरितमानस जी में कहा गया है कि किसी भी रोग को छोटा नहीं समझना चाहिए । अर्थात कोई भी रोग हो जाए तो यथाशीघ्र उसका उपचार कराया जाना चाहिए । ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि यह रोग तो बहुत छोटा है इससे क्या हो जाएगा अथवा करा लेंगे इलाज । इतनी जल्दी भी क्या है ?


 रोग का तो इलाज कराना ही चाहिए । इलाज कराने से रोग ठीक भी हो जाता है । लेकिन सभी रोग ठीक नहीं होते । अथवा हर कोई ठीक नहीं होता ।


 दवाएँ उन्हीं को ठीक कर पाती हैं जिन्हें ठीक होना होता है । जिन्हें ठीक नहीं होना होता उनकी चाहे जितनी दवा कराओ कोई असर ही नहीं होता ।

  कई लोग डॉक्टर और अस्पताल बदलते रहते हैं और कहते हैं कि यहाँ-वहाँ कितनी दवा करा डाली लेकिन कोई आराम नहीं । जिस दवा से कई लोगों के रोग ठीक हो गए वही दवा उसी रोग में कोई असर नहीं दिखा पाती ।


  ऐसे में यह स्पष्ट है कि दवाएँ सबको नहीं ठीक कर पाती । अथवा एक सीमा तक ही ठीक कर पाती हैं । या जिन्हें ठीक होना होता है उसे ही ठीक कर पाती हैं ।


  जो ब्यक्ति काल के बस में हो जाता है अर्थात जिसका काल आ जाता है उसे कोई भी दवा नहीं लगती । ऐसे व्यक्ति को ठीक नहीं होना होता है तो दवाएँ बेअसर हो जाती हैं । इस प्रकार जिसे ठीक होना होता है उसे ही दवाएँ ठीक कर पाती हैं-

हित मत तोहिं न लागत कैसे । काल बिबस कहुं भेषज जैसे ।।


।। जय श्रीसीताराम ।।




मंगलवार, 22 मई 2018

बिना मारे मरने का रहस्य : काल भगवान किसी को नहीं मारते


जब से सृष्टि की रचना हुई लोग पैदा हो रहे हैं और मर रहे हैं । यह सिलसिला अनादिकाल से ही चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा । इसे कोई भी और कभी भी रोक नहीं सकता ।

               
   जो पैदा होता है वह मरता है । यह सिद्धांत है । अब प्रश्न यह है कि काल भगवान किसी को मारते हैं अथवा लोग स्वयं मरते हैं । तो इसका जबाब है कि काल भगवान किसी को नहीं मारते । लोग स्वयं मरते हैं । मरना सबको है ही इसलिए किसी न किसी कारण से सब मरते हैं । लेकिन न किसी ने देखा है, न सुना है और न कहा है कि जब अमुक व्यक्ति का समय पूरा हुआ तो काल भगवान आए और उसे मारकर ले गए ।


 लोग स्वयं मरते हैं इसका तात्पर्य सीधा है कि कोई किसी रोग के चलते मरता है तो कोई साँप के काटने से मरता है । कोई किसी दुर्घटना में मरता है तो कोई किसी के मारने से मरता है । मान लीजिए कोई बृद्ध व्यक्ति है और उसकी मृत्यु हो गई अब उसकी मेडिकल जाँच कराने पर क्या आएगा ? कफ से गला अवरुद्ध होने से, हृदय गति रुकने से अथवा प्राण वायु (आक्सीजन) के मस्तिष्क में न पहुँचने इत्यादि कारणों से मृत्यु हुई है । यही तो जाँच में आएगा । कोई न कोई कारण आएगा । यह थोड़े आएगा कि काल भगवान ने मार दिया ।


इसका मतलब तो यही हुआ कि बिना काल भगवान के मारे सब लोग किसी न किसी कारण से स्वयं मरते हैं ।


 रावण मर नहीं रहा था । जब काल को उसने बस में कर लिया था तो मरता कैसे ? मंदोदरी रावण से बार-बार कहती थी कि काल किसी को भी हाथ में दंड लेकर थोड़े मारता है । केवल कोई न कोई स्थिति उत्पन्न कर देते हैं । जैसे रावण की बुद्धि, बल और धर्म बिचार चला गया जिससे उसने माता सीता का हरण कर लिया और वह भी मर गया । इसी तरह किसी स्थिति अथवा परिस्थिति बस  किसी को साँप काट लेता है तो किसी को कोई रोग हो जाता है आदि । यदि यह जाँच कराओ कि यह रोग क्यों हुआ तो इसका भी कारण मिल जाता है ।


इस प्रकार हर किसी के मृत्यु का कारण कुछ न कुछ होता है । काल भगवान स्वयं किसी को नहीं मारते । लोग स्वयं मर जाते हैं ।



।। जय श्रीसीताराम ।।





शनिवार, 19 मई 2018

पवनतनय के चरित सुहाए-१९ (हनुमान जी का रावण को सम्पदा और प्रभुता के मूल स्रोत के बारे में बताना )


हनुमानजी महाराज ने रावण से कहा कि हे रावण तुम भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों को ह्रदय में धारण कर लो और लंका पर अचल राज्य करो । ऋषि पुलस्त्य का यश निर्मल (कलंक रहित) चन्द्रमा जैसा है । और तुम उनके यश रुपी चन्द्रमा में कलंक मत बनो । अर्थात तुमभी रामानुरागी बन जाओ ।

  हनुमानजी ने आगे कहा कि तुम मद और मोह को छोड़कर बिचार करके देखो कि राम नाम के बिना वाणी की शोभा नहीं होती है । अर्थात जब तक मद, मोह का त्याग नहीं किया जायेगा तब तक राम नाम की महिमा समझ में नहीं आएगी । और जिह्वा का सदुपयोग नहीं हो पायेगा ।

हनुमानजी ने कहा कि हे देवताओं के शत्रु रावण श्रेष्ठ स्त्री की शोभा सारे आभूषणों से युक्त होकर भी वस्त्रहीन होने पर नहीं होती है । अर्थात जिह्वा की शोभा भी बिना राम नाम रुपी वस्त्र धारण किये नहीं होती है ।

  रामविमुख होने से सम्पदा और प्रभुता धीरे-धीरे चली जाती है । और इनका होना अथवा पाना न होने अथवा न पाने के समान हो जाता है । जिन नदियों में स्वयं का जल स्रोत नहीं होता वे बरसात समाप्त होने के बाद धीरे-धीरे सूख जाती हैं । बरसात के पानी से वे कितने दिन तक जलयुक्त बनी रह पाएँगी । ठीक इसी प्रकार जिनके पास सम्पदा और प्रभुता का मूल स्रोत नहीं होता उसकी सम्पदा और प्रभुता भी बरसाती पानी की तरह थोड़े दिन तक ही ठहरती है ।

  सम्पदा और प्रभुता का मूल स्रोत तो  भगवान श्रीरामजी की कृपा है । और बिना स्रोत के ऊपरी सम्पदा और प्रभुता कितने दिन ठहरेगी । इसलिए ही हनुमानजी रावण को समझाते हैं कि तुम रामजी के चरणकमलों को ह्रदय में धारण कर लो बस तुम्हें लंका का अचल राज्य मिल जाएगा । और तुम्हारी सम्पदा और प्रभुता स्थाई हो जायेगी । अन्यथा यदि तुम राम बिमुख बने रहोगे तो एक दिन तुम सम्पदा और प्रभुता दोनों से हीन हो जाओगे ।

  इसप्रकार सम्पदा, प्रभुता हो अथवा अन्य सुख हों सबका स्रोत रामजी की कृपा ही है । जिसे रामजी की कृपा मिल जाय उसे फिर सबकुछ मिल जाता है ।

(शेष भाग-२० में ।)
।। जय श्रीसीताराम ।।



मंगलवार, 15 मई 2018

किसी असाधु (कपटी साधु ) के संपर्क में आने से भगवान दूर हो जाते हैं


सामान्तया लोग साधु के पास भगवान से जुड़ने के लिए जाते हैं । भगवान को जानने-समझने के लिए जाते हैं । उन्हें गुरु बनाकर अपना लोक और परलोक सुधारने के लिए जाते हैं ।


 लेकिन यदि वे किसी कारण वश, भूल अथवा अज्ञान वश किसी असाधु (कपटी साधु) के संपर्क में आ जाते हैं तो परिणाम उल्टा आता है । अनुभूति भले देर में हो । क्षणिक लाभ भले ही हो । लेकिन भगवान तो दूर हो जाते हैं ।


 हनुमानजी महाराज जैसे संत और भक्त जिनका जन्म सिर्फ राम कार्य पूर्ण करने के लिए हुआ है, वे भी कपटी मुनि के प्रभाव से थोड़ी देर के लिए ही सही पर राम कार्य से दूर हो गए   इतना ही नहीं जब भरत जी ने कहा कि मेरे वान पर बैठ कर चले जाओ तो उन्हें एक क्षण के लिए संशय हुआ यह कपटी मुनि के सम्पर्क का प्रभाव था  लेकिन दूसरे क्षण भगवान राम के प्रताप को समझकर उनका संशय दूर हो गया जो भरत जैसे संत के सम्पर्क का प्रभाव था  


 माता सीता को भी कपटी साधु के प्रभाव में आने से भगवान से दूर होना पड़ा । उनकी यही भूल थी कि उन्होंने कपट वेषधारी रावण को महात्मा समझा तो वे भी भगवान से बहुत दूर हो गईं ।


  प्रतापभानु बहुत ही धार्मिक राजा थे । लेकिन वे भी कपटी मुनि के प्रभाव में आने से भगवान के बिमुख हो गए ।


  इस प्रकार कपटी साधु के संपर्क में आने. अथवा रहने वाले लोग भगवान से दूर हो जाते हैं । इसलिए भगवान से जुड़ने के लिए कपटी साधु से हमेशा दूर रहना चाहिए । जो इनसे दूर नहीं रहेगा वह भगवान से दूर हो जाएगा ।


।। जय श्रीसीताराम ।।



रविवार, 13 मई 2018

वेश और चमक-दमक देखकर कपटी मुनि को बहुत बड़ा महात्मा समझने का परिणाम


श्रीरामचरितमानसजी में तीन कपटी मुनियों का वर्णन आता है । पहला कपटीमुनि राजा प्रतापभानु से पराजित होकर एक राजा बनता है । मुनि वेश धारण करके जंगल में कुटी बनाकर रहने लगता है ।


 एक बार राजा प्रतापभानु जंगल में भूँख-प्यास से पीड़ित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुटी देखकर कुटी के पास गए । कपटी मुनि ने बहुत ही अच्छा वेश बना रखा था । वेश देखकर राजा ने कपटी मुनि को बहुत बड़ा महात्मा समझा ।  इन्होंने साधु जानकर उससे प्रणाम किया । ये उसे पहचान नहीं सके । लेकिन वह कपटी मुनि इन्हें पहचान गया ।

                   
  कपटी मुनि अपने कपट के प्रभाव में राजा प्रतापभानु को फँसा लेता है और राजा उसे महामुनि समझ कर उसकी बातों में आ जाता है और उसके अनुसार अनुष्ठान करने को तैयार हो जाता है और राजा प्रतापभानु कुल सहित नाश को प्राप्त हो जाता है ।


  दूसरा कपटी मुनि राक्षस राज रावण बनता है और जिसके कपट के प्रभाव में माता सीता आती हैं और प्रभु राम से दूर हो जाती हैं और उन्हें भी नाना कष्ट उठाना पड़ता है ।


  तीसरा कपट मुनि कालनेमि बनता है और इसके कपट के प्रभाव में हनुमानजी महाराज आते हैं और उनके कार्य में भी व्यवधान पड़ता है । भले ही थोड़े समय के लिए ही ।


  इस प्रकार कपटी मुनि के कपट के प्रभाव में आने से हर किसी को किसी न किसी कष्ट अथवा व्यवधान का सामना करना पड़ता है ।


  कपटी मुनि के कपट पूर्ण बातों, उनके वेश, और चमक-दमक को देखकर लोग फँस जाते हैं और समझते हैं कि ये तो बहुत बड़ा महतमा हैं । जबकि साधुता की पहचान चमक-दमक और प्रभाव से नहीं होती । साधुता की पहचान स्वभाव से होती है ।


  आजकल लोग प्रभाव को देखकर जल्दी प्रभावित हो जाते हैं और ‘देखि सुवेष महामुनि जाना’ की उक्ति को चरितार्थ कर बैठते हैं जिसका परिणाम अच्छा नहीं होता ।


।। जय श्रीसीताराम ।।





शुक्रवार, 4 मई 2018

साधुता और अपराध: साधुता सूर्य और अपराध (पाप) अंधकार


साधुता और अपराध एक दूसरे के विरोधी होते हैं । मतलब जहाँ साधुता होगी वहाँ अपराध नहीं होंगे । और जहाँ अपराध होंगे वहाँ साधुता नहीं होगी । यह सिद्धांत है । यह शास्त्र सम्मत है ।


कई बार किसी को साधु वेश में देखकर लोग उसे साधु समझ लेते हैं । और जब उससे कोई अपराध बनता है तो चर्चा का विषय बन जाता है कि एक साधु ने ऐसा किया । वहीं दूसरी ओर बिना वेश के ही कुछ लोगों को लोग साधु समझने अथवा मानने लगते हैं और जब इस तरह के व्यक्ति से कोई अपराध बन जाता है तो लोग फिर कहने लगते हैं कि एक साधु ने ऐसा किया ।


 जहाँ और जिसे सदग्रंथ जैसे श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवत पुराण के प्रति आदर, समर्पण और समझ होती है, तो वहाँ और उससे अपराध नहीं बनता है ।


कोई भी व्यक्ति जिसे लोग साधु कहते, समझते या मानते हैं और उससे अपराध बनता है तो इसका सीधा सा मतलब है कि उसके पास साधुता तो थी ही नहीं । और न ही उसे किसी सदग्रंथ के प्रति आदर, समझ और समर्पण ही था ।


जब ग्रंथ के प्रति आदर, समपर्ण और समझ बढ़ती है तो ग्रंथ के देवता के प्रति अपने आप आदर और समर्पण आ जाता है ।


  इस प्रकार सदग्रंथ और भगवान के प्रति आदर, समपर्ण रखने वाले के पास धीरे-धीरे साधुता आ जाती है । और जहाँ साधुता होती है वहाँ अपराध तो रह ही नहीं सकता । क्योंकि साधुता सूर्य के समान और अपराध तथा पाप अंधकार के समान होते हैं ।




।। जय श्रीसीताराम ।।


मंगलवार, 1 मई 2018

पवनतनय के चरित सुहाए-१८ (हनुमान जी का भगवान श्रीराम के शरण में जाने के लिए रावण को सीख देना )


हनुमानजी महाराज ने रावण से कहा कि हे रावण मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती कर रहा हूँ कि तुम अभिमान को छोड़कर मेरी सीख को सुन लो । तुम बिचार करके अपने कुल को देखो और भ्रम को छोड़कर भक्तों के भय को हरने वाले भगवान श्रीराम का भजन करो । रावण का कुल बहुत ही उत्तम था । इसके कुल में सब भगवान का भजन करने वाले थे । इसलिए हनुमान जी ने कहा कि तुम भी अपनी कुल परंपरा के अनुसार भगवान का भजन करो ।

हनुमानजी ने कहा कि काल देवता, राक्षस और चर-अचर सबको खा जाता है । अर्थात कोई और कुछ भी ऐसा नहीं है जो काल का ग्रास न बनता हो । लेकिन यह काल भी जिसके डर से बहुत डरता है उन भगवान श्रीराम से किसी भी स्थिति में बैर मत करो । और मेरे कहने से जनकसुता सीताजी को वापस कर दो । 
देवताओं की आयु बहुत अधिक होती है । इसलिए ही उन्हें अमर कहा जाता है । लेकिन वस्तुतः वे अमर नहीं हैं । इस संसार में कोई भी अविनाशी नहीं है । एक न एक दिन सबका विनाश होता है । केवल और केवल एकमात्र भगवान ही अविनाशी हैं । इस प्रकार काल सबको खा जाता है-

राजा रंक मुरख निपुन ऋषि महर्षि सब देव ।
रामदास मरने चले बचा नहि जग केव ।।

हनुमानजी ने रावण से कहा कि करुणा के सागर खरारि भगवान श्रीराम शरण में आए हुए का पालन करने वाले हैं । अर्थात जो कोई भी उनकी शरण में जाता है उसे वे ठुकुराते नहीं हैं । अपना लेते हैं और उसका हर तरह से पालन करते हैं । इसलिय तुम भी भगवान श्रीराम के शरण में चले जाओ । शरण में जाने से तुम्हारे सारे अपराधों को छमा करके तुम्हें अपना लेंगे । अपनी शरण में रख लेंगे ।

   रामजी शरण में आए हुए जन का अपराध नहीं देखते हैं । उसके सारे अपराध को छमा करके निर्भय कर देते हैं और रख लेते हैं । इतना ही नहीं सदा-सदा के लिए रख लेते हैं । जिसको एक बार अपना कह दिया । उसे कभी नहीं छोड़ते । किसी भी स्थिति और परिस्थिति में नहीं छोड़ते । यह भगवान श्रीराम का वाना है ।

(शेष भाग-१९ में ।)

।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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