सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

राम जी से जुड़ने के दो आसान तरीके

राम जी से जुड़ने के लिए हमें ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है । हम यहाँ दो आसान चीजें बताना चाहते हैं । जिससे हम सीधे भगवान राम से जुड़ सकते हैं । राम जी से जुड़ने के लिए हम स्वतः प्रयास करके आगे बढ़ सकते हैं । इसमें सत्संग और सहायक हो सकता है । जब तक हमारे अंदर रामजी से जुड़ने की-मिलने की ललक नहीं होगी, इच्छा नहीं होगी कोई हमारी मदद नहीं कर सकता । हमें स्वयं इसके लिए प्रयत्न करने होंगे ।



   यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई कहे कि हमें इतना रुपया-पैसा अथवा और कुछ दीजिए तो मैं आपको भगवान से मिला दूँगा । या मैं यह करा दूँगा अथवा वह करा दूँगा तो भगवान प्राप्त हो जाएँगे । आप भगवान से जुड़ जाएँगे । अथवा इससे मिलती-जुलती बातें कोई भगवान के सम्बन्ध में कहे तो यह बिल्कुल गलत है । हमें सावधान रहना चाहिए ।



  हमारे रघुनाथ जी को कोई रूपये-पैसे आदि साधनों से कभी नहीं मिला सकता है ।  हमारे राघव जी केवल और केवल प्रेम से मिलते हैं । इसलिए राघव जी से प्रेम करना सीखना चाहिए । और इधर-उधर की बातों में नहीं उलझना चाहिए । एक और महत्वपूर्ण बात हम बताना चाहते हैं ।




   हम सब जानते हैं कि जो जैसा होता है उसे वैसे ही लोग अच्छे लगते हैं । और हमारे राघव जी बहुत ही सरल हैं । इसलिए राम जी से जुड़ने के लिए हमें अपने अंदर सरलता लानी चाहिए । हम जितना सरल होंगे उतना ही हमारा राम जी से जुड़ना आसान हो जायेगा ।




   हम सरल बनेंगे तो राम जी को हम अच्छे लगने लगेंगे । यहाँ हमने दो चीजों का जिक्र किया है- प्रेम और सरलता । इन दो चीजों के बल पर हम राम जी से जुड़ सकते हैं । राम जी का अनुभव  कर सकते हैं । इसलिए इधर-उधर भटकना छोड़कर प्रेम और सरलता से राम जी से  जुड़कर हम अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं ।



           
           
।। जय सियाराम ।।

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मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

श्रीरामचरितमानस: अर्थ और व्याख्या

श्रीरामचरितमानस जी के चौपाइयों, दोहों और अन्य छन्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ व व्याख्याएँ देखने व सुनने को मिलती हैं ।  भिन्न-भिन्न लोग भिन्न अर्थ लगाते हैं । ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि श्रीरामचरितमानस जी की गहराई असीमित है-‘प्रभु महिमा जितनी गहराई’ । अब जिसकी जितनी पहुँच होती है वह उतनी गहराई तक जाता है । अपनी-अपनी सूझ-बूझ और वुद्धि आदि के बल पर जो जहाँ तक पहुँचता है, उसी के अनुरूप व्याख्या करता है ।

 
  लेकिन व्याख्या भक्ति, वैराग्य, मर्यादा और सर्वहित-सर्वकल्याण के दायरे में ही होनी चाहिए । इससे परे व्याख्या जो श्रीरामचरितमानस जी के मूल सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हो मान्य नहीं है । ऐसी व्याख्या किसी को नहीं करनी चाहिए । इसके माध्यम से दुनिया को रिझाने के लिए काम नहीं करना चाहिए । श्रीरामचरितमानस जी श्रीराम जी को रिझाने के लिए हैं ।


   सनातन-हिंदू धर्म के सभी मूल ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं । जिसे आम जनता न ही पढ़ सकती है और न ही समझ सकती है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज जानते थे कि आगे यह स्थिति और खराब हो जायेगी । इसलिए आम जनता को सनातन हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों को समझाने के लिए,  जन-जन को राम जी से जोड़ने के लिए, आम जनता को मानवता का मतलब सिखाने के लिए, जीवन धन्य करने के लिए और सुख-सौभाग्य बढ़ाने के लिए उन्होंने वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों तथा गीता आदि के सार से समाहित श्रीरामचरितमानस जी को आम जनता के लिए उपलब्ध कर दिया । जिससे यदि आम जनता और कुछ न पढ़ सके तो सिर्फ श्रीरामचरितमानस पढ़कर कल्याण की भागी बन सके और श्रीरामचरनानुरागी बन सके ।


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है कि श्रीरामचरितमानस जी की रचना और नामकरण दोनों भगवान शंकर जी ने किया है । और भगवान शंकर जी और माता पार्वती जी की कृपा से तुलसी इसके कवि बन गए । अर्थात जनता को उपलब्ध कराने के लिए निमित्त बन गए ।


    श्रीरामचरितमानस जी में प्राणीमात्र की कल्याण की भावना है । जो भी इनसे जुड़ेगा उसका कल्याण ही होगा । इनके माध्यम से सनातन धर्म को जीवटता मिली है और आगे भी मिलती रहेगी । इनको केवल पढ़ने से ज्ञान, वुद्धि  और सौभाग्य की वृद्धि होती है और अमंगल का नाश होता है । और समझ कर पढ़ने से और लाभ होता है ।


   जब कोई अर्थ अथवा व्याख्या भक्ति, वैराग्य, मर्यादा और सर्वकल्याण के अनुरूप न लगे तो समझ जाना चाहिए कि गलती हो रही है और हम ठीक से समझ नहीं पा रहें हैं अथवा समझाने वाला ठीक से समझा नहीं पा रहा है । श्रीरामचरितमानस जी से जन-जन का कल्याण हो और श्रीराम प्रभु  के चरणों में अनुराग दृढ़ हो यही इच्छा है और लेखन की सफलता है ।

           
           
।। जय सियाराम ।।

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शनिवार, 6 दिसंबर 2014

माया, भक्ति और भगवान

संसार में तरह-तरह के लोग होते हैं ।  एक तरह के लोग वे हैं जो भगवान को मानते ही नहीं । इनके अनुसार भगवान हैं ही नहीं । दूसरे वे लोग हैं जो भगवान को मानते हैं, विश्वास करते हैं लेकिन भगवान का अनुभव नहीं कर पाते । तीसरे वे लोग हैं जो भगवान को मानते हैं लेकिन सिर्फ अपने फायदे के लिए । फायदे मतलब कमाई के लिए । भगवान से इनका कोई और लेना-देना नहीं है । ऐसे भी लोग हैं जो भगवान को मानते भी हैं और अनुभव भी करते हैं । अनुभव वे लोग ही करते हैं जो भगवान से प्रेम करते हैं । और भगवान से प्रेम करने वाले कम ही हैं ।



    भगवान का अनुभव कर पाना बड़ी बात है । इसके लिए भक्ति की जरूरत है । जब व्यक्ति को सत और असत का ज्ञान हो जाता है तो अपने आप भगवान से प्रेम होने लगता है और भगवान का अनुभव होने लगता है । सत और असत के ज्ञान में माया बाधक है ।



    कहते हैं सारा संसार माया है । हम जहाँ तक देख पाते हैं सब माया ही है । जो असत है अर्थात जो सत्य नहीं है वही माया है । जो स्थाई नहीं है वह माया है । जो बदलता रहता है वह माया है । जो स्थाई है, जो कभी नहीं बदलता वही सत्य है । परिवर्तन संसार का नियम है । यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है, सबकुछ बदलता रहता है । कई परिवर्तन इतने सूक्ष्म होते हैं जिनका हम सहसा अनुभव नहीं कर पाते । लेकिन प्रति क्षण हर चीज में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है । इसलिए सब कुछ माया है और सत्य सिर्फ राम नाम है-‘प्रतिपल बदले सरकता सो जानो संसार । नसोंमुख यह जगत में नाम राम को सार’ ।।


   
   जीवन में सबसे बड़ी चीज जो हमें प्राप्त करनी चाहिए वह है श्रीराम चरण अनुराग । भगवान राम की भक्ति । लेकिन हम बहुत कुछ प्राप्त करते हैं और प्राप्त करने में लगे रहते हैं और जो प्राप्त करना चाहिए उसके बारे में कभी सोच भी नहीं पाते । समय ही नहीं मिलता । यह माया का प्रभाव है ।



   राम चरण अनुराग दो तरीके से मिल सकता है- एक सीधे राम जी की कृपा से और दूसरे राम जी की कृपा से सत्संगति से । और कोई तीसरा रास्ता नहीं मालुम पड़ता । जैसे-जैसे राम जी के चरण में अनुराग दृढ़ होता है-भक्ति बढ़ती है वैसे-वैसे भगवान का अनुभव होने लगता है और इसी क्रम में एक दिन भगवान राम स्वयं मिल जाते हैं ।

           
           
।। जय सियाराम ।।

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मंगलवार, 25 नवंबर 2014

ज्ञान और भगवान का अनुभव

संसार में तरह-तरह के ज्ञान हैं । ज्ञान के भिन्न-भिन्न रूप हैं । स्वरूप हैं । सबके ज्ञान की सीमा होती है लेकिन ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती । हर किसी को हर चीज का ज्ञान नहीं होता । ज्ञान अनंत है । ज्ञान भगवान का ही रूप है । जैसे भगवान का कोई पार नहीं पा सकता ठीक वैसे ही ज्ञान का ।


  ज्ञान की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं । जीव संसार में ज्ञान की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरता है । जन्म के समय से जीव के ज्ञान की प्रथम अवस्था शुरू हो जाती है । वह धीरे-धीरे स्पर्श करके, देखकरके और सुन करके सीखना शुरू करता है । उसे इस अवस्था में अपने-माता-पिता का भी ज्ञान नहीं होता । और भगवान तो पिताओं के भी पिता हैं तो उन्हें जीव कैसे जाने ?


    धीरे-धीरे माता को और फिर माता द्वारा बताने पर पिता को जानता है । इसके बाद जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता है जीव ज्ञान की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता जाता है । जीवन पर्यन्त जीव कुछ न कुछ सीखता ही रहता है क्योंकि ज्ञान अनंत है ।



   जीव सत्संगति से, गुरु से अथवा अन्य किसी माध्यम से ईश्वर का अनुभव करता है अथवा कर सकता है । ईश्वर को न मानना अथवा ईश्वर की सत्ता को नकारना भी ज्ञान की एक अवस्था है क्योंकि हर किसी को कुछ न कुछ ज्ञान होता ही है । ऐसे भी लोग होते हैं जो देश-दुनिया की बहुत सी जानकारी रखते हैं, उन्हें कई चीजों का ज्ञान होता है फिर भी ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते । क्योंकि उन्हें इसका ज्ञान अथवा भान नहीं होता । कई लोग इस अवस्था से कभी बाहर ही नहीं निकल पाते ।


संसार में तरह-तरह के ज्ञानी हैं । कोई किसी क्षेत्र का ज्ञानी होता है तो कोई किसी और का । हर क्षेत्र का ज्ञान किसी को नहीं होता । और पूर्ण ज्ञान किसी को नहीं होता । पूर्ण ज्ञान केवल परमात्मा को ही होता है । और परमात्मा का ज्ञान अथवा भान विरले को ही होता है ।



  वैसे तो ज्ञान अनंत है फिर भी ज्ञान की अंतिम अवस्था ही भक्ति है । ज्ञान की इस अवस्था में पहुँच जाने पर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता । इस अवस्था में हर कोई नहीं पहुँचता । ज्ञान की इस अवस्था में पहुँचने के लिए स्कूल, कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय जाने की अथवा डिग्री धारी होने की जरूरत नहीं होती । संसारिक दृष्टि से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी इस अवस्था को प्राप्त हो सकता है और ज्ञानी से ज्ञानी इस अवस्था में नहीं पहुँच सकता ।



    भक्ति ज्ञान की वह अवस्था है जब ऊँच-नीच, छोटे-बड़े आदि का भाव मिट जाता है । जीव में समता आ जाती है । सत और असत का ज्ञान हो जाता है । इस अवस्था में ईश्वर का भान हो जाता है । जीवन राममय हो जाता है । हर जगह राम जी ही दिखने लगते हैं-



सिय राम मय सब जग जानी । करौं प्रनाम जोरि जुग पानी ।।


           
            

।। जय सियाराम ।।

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सोमवार, 17 नवंबर 2014

जीवन में तनावमुक्त रहने का सहज उपाय

  ऐसा कोई भी काम, बात अथवा कोई भी चीज जो अपने अथवा अपने मन के अनुकूल नहीं होती, उससे दुःख होता है । तनाव होता है । कुछ स्थिति में तो हम दुःख अथवा तनाव से तो बच ही नहीं सकते । ये ऐसी स्थितियाँ होती हैं जो अपने बश में नहीं होतीं । कई बार अपना कोई रोल नहीं होता फिर भी किसी दूसरे की वजह से भी तनाव अथवा टेंशन हो जाता है ।



   टेंशन होने पर लोग ठीक से अपना काम नहीं कर पाते । ठीक से खा-पी नहीं पाते । ठीक से सो नहीं पाते ।  नीद गायब हो जाती है । जीवन असहज हो जाता है । आजकल अधिकांश लोग टेंशन में जीते हैं । इसके कई कारण हैं । फिर भी इससे हम सहज ही बच सकते हैं ।



  टेंशन से बचने के लिए तीन चीजें जरूरी हैं । १. आत्म संतुष्टि, २. कम से कम अपेक्षा और ३. भक्ति-समर्पण ।


  आत्म-संतुष्टि का मतलब है कि अपने पास जो भी है, जैसा भी है उससे संतुष्ट रहो । जो नहीं है उसके लिए परेशान न होकर जो है उसमें ही खुश रहना चाहिए । किसी चीज के लिए सदप्रयास करना बुरा नहीं है । सदप्रयास करने पर भी न मिले तो जो है उसी में, उसी के साथ जीना चाहिए ।

   कम से कम अपेक्षा का मतलब है कि लोगों से ज्यादा अपेक्षा मत रखो । अपेक्षा पूरी नहीं होने पर दुःख होता है । टेंशन होता है । दूसरे के लिए कुछ कर सकते हों तो जरूर करें । लेकिन दूसरे भी हमारे लिए करें इसकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए । यहाँ तक कि अपने निकट सम्बन्धियों से भी कोई अपेक्षा मत करो । इससे जीवन में टेंशन कम हो जाएगा ।



  तीसरी चीज सबसे महत्वपूर्ण है । भगवान में भक्ति रखना चाहिए । समर्पण रखना चाहिए । विश्वास करना चाहिए । और अपेक्षा रखनी ही हो तो राम जी से रखो, इससे आधार मिलेगा । इससे बड़ा अवलंब और क्या हो सकता है ? दुनिया से अपेक्षा रखने वाला टेंशन में ही जीता है । और रामजी से अपेक्षा रखने वाले को टेंशन होता ही नहीं ।

 

  लोग छोटी-छोटी बातों से अपना दिमांग खराब करते रहते हैं और टेंशन में जीते हैं । घर-परिवार से लेकर कार्यालय तक उसने ऐसा क्यों किया, ऐसा क्यों कहा, ऐसा क्यों नहीं किया, ऐसा क्यों नहीं कहा आदि के चक्कर में पड़े रहते हैं । इससे टेंशन होता है । स्वयं अपना कर्तव्य करना चाहिए । भगवान में भरोसा रखना चाहिए और चीजों के लिए सदप्रयास करते रहना चाहिए । यदि सदप्रयास करने पर भी कोई चीज नहीं मिलती तो टेंशन करने के बजाय भगवान की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए । क्योंकि हम केवल कोशिश कर सकते हैं और-




होइहैं सोइ जो राम रचि राखा । कोउ करि तर्क बढ़ावै साखा ।।





।। जय सियाराम ।।



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शनिवार, 8 नवंबर 2014

एक से अधिक भगवान की जरूरत: गुण और स्वभाव की भिन्नता

सनातन हिंदू धर्म का एक मूल सिद्धांत विविधता में एकता का है । एकरूपता का है । सनातन-हिंदू धर्म में भगवान के कई रूप हैं । भगवान विविध रूपों में हैं । कई भगवान हैं । फिर भी मूलतः सब एक ही हैं । लेकिन एक होने के बावजूद भगवान के भिन्न-भिन्न रूप में गुण और स्वभाव में भिन्नता होती है । जैसे त्रिदेवों को लीजिए तो श्रीविष्णु जी, श्री व्रह्मा जी और श्री शंकर जी के रूप, गुण और स्वभाव में काफी भिन्नता है । लेकिन मूलतः सब एक हैं ।



   वेद, पुराण, शास्त्र, रामायण और संत-भक्त कहते हैं कि भगवान राम जैसा कोई देवता नहीं है । इनके जैसा गुण और स्वभाव रखने वाला कोई नहीं है । भगवान राम जैसा स्वभाव सिर्फ राम जी का ही है । ऐसा स्वभाव न विष्णु जी का है, न श्रीकृष्ण जी का है, न शंकर जी का है और न ही किसी अन्य देवता का । भगवान राम को लोग उनके स्वभाव से जानते और पहचानते हैं । राम जी जैसा गुण और स्वभाव किसी के पास नहीं है । इतनी भिन्नता के बावजूद एकरूपता कैसे है ?



  भगवान के रूप, गुण और स्वभाव की भिन्नता को समझने के लिए आधुनिक विज्ञान की जरूरत है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ कम से कम तीन अवस्थाओं में रह सकता है । इसकी और अवस्थाएं भी हो सकती हैं जैसे-प्लाज्मा । हम उदाहरण के लिए जल को लेते हैं । जल से कौन परिचित नहीं हैं । जल ही जीवन है । जीव की उत्पप्ति सबसे पहले जल में हुई, विज्ञान भी कहता है और सनातन धर्म के अनुसार भी ऐसा ही है ।




  जल शीतलता और तरलता लिए हुए होता है । यदि जल के ताप को घटाएं तो यह वर्फ और बढ़ाएँ तो वाष्प बन जाता है । एक ही चीज भिन्न-भिन्न रूप ले लेती है । देखने वाली बात यह है कि जल से वर्फ और वर्फ से जल बन जाता है । इसी तरह वाष्प भी । मतलब सब एक दूसरे में परिवर्तनीय हैं । और मूलतः एक हैं । इसके बावजूद अलग-अलग रूप में गुण व स्वभाव में भिन्नता है । जैसे जल में तरलता है तो वर्फ में नहीं । वाष्प में दाहकता (ताप) की अधिकता होती है और वर्फ में अतिशीतलता होती है । आदि । जबकि जल, वाष्प और वर्फ सब मूल रूप में एक ही हैं ।



  ठीक इसी तरह भगवान के कई रूप हैं । फिर भी मूलतः सब एक हैं । लेकिन रूप व स्वरूप की विविधता के साथ गुण और स्वभाव में भी विविधता होती है । और क्रियाशीलता में भी विविधता आ जाती है । इसलिए ही एक से अधिक भगवान की जरूरत होती है । जैसा कार्य करना होता है, उसी के अनुसार रूप, गुण और स्वभाव स्वीकार करके भगवान अपना नया रूप बना लेते हैं  हर कोई अपने-अपने गुण और स्वभाव के अनुसार ही तो कार्य और व्यवहार करता है ।



  सनातन धर्म में भगवान राम का स्वभाव और गुण बहुत ही विशिष्टता लिए हुए है । ऐसा गुण और स्वभाव न किसी देवता और भगवान का है और  न ही हो ही सकता है  इसलिए ही तो कहते है कि-


अस स्वभाव कहुँ सुनहुँ न देखहुँ । केहिं खगेश रघुपति सम लेखहुँ ।

उमा राम स्वभाव जेहिं जाना । ताहिं भजन तजि भाव न आना ।



 जय सियाराम ।।



  

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शनिवार, 1 नवंबर 2014

भगवान की माया का प्रभाव

भगवान की माया कितनी निराली है कि सारे संसार को भुलाकर रखे हुए है । सबको संसार में लुभा रखा है । चाहे जितना पढ़ो, चाहे जितना सुनो कि संसार मिथ्या है । सब बेकार है ।  पर संसार पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता । सारा संसार  इधर-उधर भरमता रहता है । क्योंकि सब कुछ मिथ्या के बजाय सत्य लगता है । और बेकार के बजाय सार युक्त लगता है ।


  संसार में तरह-तरह के भोग हैं । ऋषि-मुनि, साधु-संत, महात्मा, वैरागी, वेद-पुराण, रामायण आदि सब कहते और बताते हैं कि भोग नहीं हैं । वस्तुतः ये रोग हैं ।  फिर भी सारा संसार इंही भोगों के पीछे भागता रहता है ।  जो जितना भोग करता है वह अपने को उतना ही सुखी समझता है और अन्य लोग भी उसे सुखी समझते हैं । लेकिन यह माया की करनी से ऐसा होता है । वह सबको मूरख बना रखा है ।


    यह भगवान की माया ही है जिसने दुखों को सुख दिखा रखा है और झूठ को सत्य । ऐसा करके इसने सबको भर्मित कर रखा है । वैसे तो संसार के सारे रंग फीके हैं । फिर भी इसने  इसे रंगीला बना कर रखा है । जिससे संसार, संसार में ही लगा रहता है । संसार को ही देखता रहता है । संसार के सार यानी भगवान को नहीं देख पाता ।


    यह संसार एक सपने के समान ही है । जीव के जन्मते ही संसार रुपी स्वप्न रात्रि शुरू हो जाती है और जीव सोया रहता है । और मरते ही इस रात्रि का अंत हो जाता है । तब जीव जग जाता है और उसके हाथ कुछ नहीं रहता । ठीक ऐसे ही जैसे स्वप्न से जगने बाद संसार में होता है । यह परम सत्य है । इस बात को सभी जानते हैं । फिर भी सबको उलझा रखा है । सबको बड़ी ही मनोहर चीजें दिखा-दिखाकर परम मनोहर भगवान राम से सबका ध्यान हटा रखा है । सब अपने और औरों के तथा नाना दृश्यों के चित्र खीचनें में लगे रहते हैं । लेकिन अपने नेत्र रुपी कैमरें से राम जी का चित्र खींचकर ह्रदय रुपी अलबम में नहीं लगा पाते ।



   जैसे किसी को राजा के सैनिक कैद कर रखे हों तो वह कहीं कैसे जा सकता है ? ठीक ऐसे ही इस माया से कोई कैसे बचे सबके पीछे इसने बिषयों की सेना लगा रखी है । ये सैनिक हमेशा लोगों के पीछे लगे रहते हैं ।


  इस संसार में लोग मरते रहते हैं । फिर भी यह संसार बसा हुआ है । लोगों को मरते देखकर भी लोगों को ऐसा लगता है कि उन्हें तो कभी मरना ही नहीं है, लोगों को इसने ऐसा सिखा रखा है । और लोग नाना तरह के कर्म और अधर्म में लगे रहते हैं । किसी को सत्य नहीं दिखता क्योंकि लोग मतवाले हो गए हैं । हों भी न कैसे जब इसने सबको मोह रुपी मदिरा पिला रखी है ।


  यह इस प्रकार बहुत बड़ी ठगिनी है । और सारे संसार को ठग रखा है । इस ठगिनी से बचना मुश्किल है । फिर भी इससे बचने का एक उपाय है-

   

“संतोष पार पाता वही इस ठगिन से जो  रामनाम में मन लगाये हुए है” ।




।। जय सियाराम ।।





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बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

राम भगत तुम सम को नाही

श्रीहनुमानजी महाराज एक अनूठे संत और भक्त हैं जो अपने समान स्वयं ही हैं । विद्या, बुद्धि गुण और बल आदि के सागर हैं । इनके बल और पराक्रम को कौन नहीं जानता ? तीनों लोकों में इनके बल और पराक्रम का प्रकाश जगमगा रहा है ।


   सब कुछ करने में समर्थ हैं इनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है पवनतनय हनुमान जी महाराज सदा अपने भक्तों का हित करने में तत्पर रहते हैं । सिधि और निधि को  देने वाले और रामजी के गुण को गाने वाले रामदूत हनुमान जी ज्ञान और विवेक के भंडार तथा महावीर हैं और सारा संसार इनका गुणगान करता है


  हनुमानजी महाराज सब प्रकार से सुंदर हैं और श्रीसीताराम जी महाराज इनके ह्रदय में बिराजमान रहते हैं । श्रीसूर्य देव, श्रीइंद्र देव व अन्य देवी-देवता व मनुष्य इनके पौरुष से भलीभाँति परिचित हैं ।


   दानव, दैत्य, भूत आदि जितने प्राणी संसार में हैं, सबके सब इनका नाम सुनते ही डर जाते हैं । और जैसे श्रीसूर्य देव को देखते ही भारी अँधियारी रात्रि भाग जाती है और अँधेरे की जगह प्रकाश छा जाता है ठीक ऐसे ही जितने भी दुष्ट या नकारात्मक शक्तियाँ हैं इन्हें देखते ही नष्ट हो जाती हैं ।


  जिसने इस चर-अचर संसार को प्रकट किया है और जिन्हें श्रीशिव जी और माता पार्वती जी तथा अन्य देवी देवता मानते हैं, पूजते हैं उनके अर्थात श्रीराम जी के ये प्रिय सेवक हैं तथा रामजी को सुख देने वाले हैं और रामजी ने इनकी बार-बार बड़ाई भी किया है । भगवान राम ने इनका ‘संकटमोचन’ नाम रखाया है और कहा है कि मैं तुमसे उरिण नहीं हूँ । अर्थात इनकी सेवा और भक्ति से रामजी अपने को इनका कर्जदार मानते हैं ।



   भगवान श्रीशंकर जी, श्रीविष्णु जी और श्रीव्रह्मा जी इनकी राम-भक्ति की सराहना करते हैं । इनके समान रामजी का कोई दूसरा भक्त नहीं है । ऐसी उपमा रखने वाले श्रीहनुमान जी धन्य हैं, धन्य हैं । इनकी कीर्ति सारे संसार में छाई हुई है । जिसका गायन भगवान श्रीशंकर जी और हजार मुख वाले श्रीशेष जी भी नहीं कर पाते ।



 श्रीहनुमान जी महाराज एक तरह से भगवान श्रीराम जी के प्रेम का ही मूर्तिमान स्वरूप हैं । जिसे श्रीहनुमान जी मिल जाते हैं उसे श्रीराम जी भी मिल जाते है । ये राम जी के निकट स्नेही जनों में से हैं और दीन-दुखी और मलीन तथा शरणागत से स्नेह रखते हैं । संतोष श्रीहनुमान जी से यही विनती करता है कि मेरे पापों, अवगुणों को छमा करके इस तरह से मदद कीजिए जिससे इसको भी श्रीरघुनाथ जी मिल जाएँ-




जय हनुमन्त जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा  ।।  

रबि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर-नारी ।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।

अग जग जाल सकल जेहि सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्ह बड़ाई ।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई  । संकटमोचन नाम धराई ।।

हरि हर बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।

धन्य धन्य कीरति जग छाई । शेष महेश सके नहि गाई ।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।






।। जय श्रीहनुमान ।।




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बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

भगवान श्रीराम की भक्ति और पूजा-पाठ कब से करना चाहिए

समान्यतया लोग कहते, सोचते  और समझते हैं कि बचपन खेलने-कूदने के लिए होता है । यौवन धन-सम्पत्ति जमा करने और मौज-मस्ती के लिए तथा बुढ़ापा जप-तप और पूजा-पाठ के लिए होता है । ऐसा सोचना ठीक नहीं है


    पूजा-पाठ और भगवान की भक्ति के लिए यदि पहले समय नहीं मिला है अथवा बिचार नहीं जगा है तो सबसे सही समय वर्तमान यानी आज का समय है । कहते हैं जब जागो तभी सवेरा । अर्थात पूजा-पाठ के लिए प्रेरणा मिलते ही, बिचार बनते ही शुरू कर देना चाहिए । मन में जब पूजा-पाठ के लिए भाव जागृत हों, वही समय सही समय होता है । कहने का मतलब बुढ़ापे की प्रतीक्षा में समय नहीं गवाँना चाहिए ।


  वैसे पूजा-पाठ और भक्ति के लिए सही समय बचपन ही होता है । यदि बचपन में इसके लिए संस्कार नहीं मिले, भाव नहीं जगे तो आगे चलकर बहुत मुश्किल हो जाता है । और बचपन के संस्कार मिटाए नहीं मिटते ।  यदि बचपन और यौवन में कभी सत्संग नहीं किया और यौवन में  मन को नहीं कसा तो अचानक बुढ़ापें में यह पकड़ में नहीं आता है । इसलिए जितना हो सके उतना भक्ति-भाव पहले से ही जगाना चाहिए ।



    जिंदिगी रुपी घर का निर्माण बचपन से शुरू होता है । यदि बचपन गड़बड़ा गया तो पूरा घर गड़बड़ हो जाता है । बच्चों के बचपन को बचाने के लिए विशेष प्रयास करना चाहिए । बुरी संगति और बुरी आदतों से उन्हें बचाना चाहिए । चौदह वर्ष तक के समय का बचपन पूरी जिंदगी का आयना बन जाता है । इसी में जो बिचार और जो संस्कार जुड़ जाते हैं वे जिंदिगी से कभी नहीं जाते । भले ही आगे ये कभी कम अथवा अधिक जागृत रहें लेकिन समय पड़ने पर ये अपना प्रभाव दिखाते हैं । यदि इस समय कुसंगति का असर हो जाता है तो जीवन बिगड़ जाता है । इस समय जैसी संगति मिलती है जीवन वैसे ही बन जाता है । यदि इसी समय में सत्संगति मिल जाती है तो यौवन प्रबुद्ध हो जाता है और बुढ़ापा सिद्ध हो जाता है ।



    बुढ़ापा तभी सिद्ध होता है जब बचपन और यौवन में भी मन भगवान श्रीराम में लगता है । नहीं तो लाख कोशिश करने पर भी बुढ़ापे में भक्ति-भाव जगा पाना मुश्किल ही होता है । पूर्व और इस जन्म के कर्म और इनके द्वारा बना भ्रम जाल मन को उलझाये रखते हैं और बुढ़ापा सिद्ध नहीं हो पाता । इसलिए आज से ही मन को श्रीराम में रमाने का प्रयास करना चाहिए 





।। जय श्री राम ।।



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शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

मन की सफाई: जरूरत और समाधान

सनातन (हिंदू) धर्म में साफ-सफाई का बहुत महत्व है ।  हमें अपने आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखना चाहिए । साथ ही शारीरिक सफाई की भी जरूरत होती है । और इनसे बड़ी मन की सफाई होती है । मन भी स्वच्छ होना चाहिए । यह सफाई बहुत ही महत्वपूर्ण लेकिन कठिन है ।


  अपने घर, अपने आस-पास की जगह को तथा अपने शरीर को स्वच्छ रखना ज्यादा कठिन काम नहीं है । आजकल लोग ज्यादातर शरीर की सफाई को ही महत्व देते हैं । यह कलियुग के कई लक्षणों में से एक है ।


    कुछ भी हो मन की सफाई पर ध्यान देने की भी जरूरत होती है । यदि अपना मन साफ नहीं होता है तो अपने को तो परेशानी होती ही है, दूसरों को ज्यादा परेशानी होती है । इसलिए हमारे पूर्वजों, ऋषियों-मुनियों ने मन की स्वच्छता पर काफी जोर दिया था और इसके तरीके भी बताए थे ।


  हम जीवन में कुछ भी कर लें । नौकरी, घर, नौकर-गाड़ी और बैंक बलेंस आदि जुटा लें तो भी बिना मन को निर्मल किए अच्छी, सुख-शांति नहीं मिलती ।

अपना मन साफ हो तो कई परेशानियों से हम अपने आप बच जाते हैं । मन साफ न होने से हम दूसरों के दुःख से दुखी और सुख से सुखी नहीं हो पाते । इसके बिपरीति दूसरों को सुखी देखकर दुखी और दुखी देखकर सुखी होते हैं ।


  दूसरों का काम बनाने के बजाय बिगाड़ने में ज्यादा आनंद आता है । दूसरे के सुख-चैन और आराम को देखकर अपनी स्थिति बेराम जैसी हो जाती है । मन का चैन चला जाता है । शांति चली जाती है ।


 इससे हम अधिक स्वार्थी बन जाते हैं । अपने स्वार्थ अथवा हित के लिए कोई नियम मानते अथवा नकारते हैं । दूसरों की अनदेखी कर देते हैं । करते रहते हैं ।



   यदि अपना मन साफ हो जाय तो हम तो सुखी रहेंगे ही इससे अपनी वजह से दूसरों को परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा । यदि सभी लोग मन की सव्च्छ्ता पर जोर देने लगें और इसके लिए बचनबद्ध हो जाएँ तो देश-समाज से कई बुराइयों का अंत हो जाय । आपसी प्रेम बढ़े और समता आ जाए । लेकिन यह काम बहुत कठिन है ।



     मन की सफाई के लिए सत्संगति की जरूरत होती है । बिना सत्संगति के मन की सफाई असम्भव है । अब हम सत्संगति कहाँ और कैसे करें ? ऐसे में हमें श्रीरामचरितमानस जी के शरण में चले जाना चाहिए । यह एक सुगम उपाय है ।



   श्रीरामचरितमानस जी बिचार रत्नों के भंडार है । इन बिचार रत्नों को अपना कर, आत्मसात कर हम अपना और दूसरों का भी भला कर सकते हैं । एक बार श्रीरामचरितमानस जी के  शरण में चले जाइए और फिर कभी इनका साथ न छोड़िये तो धीरे-धीरे मन की सफाई शुरू हो जायेगी । जितना अधिक इनसे प्रेम और विश्वास होगा, उतनी अधिक सफाई भी होगी और धीरे-धीरे मन रामानुरागी भी हो जायेगा । इससे अधिक जीवन में और क्या प्राप्त किया जा सकता है ?



।। जय श्री राम ।।





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बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

देश-समाज के उत्थान के लिए श्रीरामचरितमानस की ओर लौटने की जरूरत

श्रीरामचरितमानस जी की महिमा के बारे में जो कहा जाय वही कम है । श्रीरामचरितमानस जी ज्ञान, वैराग्य  और भक्ति  की त्रिवेणी हैं । इनका अनुकरण करके कितने ही लोग कहाँ से कहाँ पँहुच गए, बता पाना मुश्किल है । कितने ही लोग इनके प्रभाव से वक्ता बन गए । कितने ही लोग कविता करने लगे । कितने ही लोग वैराग्य को धारण कर लिए  । कितने ही लोग भक्ति भाव को प्राप्त हुए । कितने ही लोग निराशा से निकलकर आशा में जीने लगे । कितने ही लोग दूसरों को रास्ता दिखाने लगे ।


   हम सब गाँधी जी को महात्मा गाँधी कहते हैं लेकिन यह कम लोग समझते हैं कि उन्हें महात्मा बनाने में श्रीरामचरितमानस जी का हाथ था । गाँधी जी के मन में भारत में रामराज्य लाने का सपना था, यह सपना भी इनके मन मस्तिष्क में मानस जी के ही प्रेरणा से आया था । ‘सत्य और अहिंसा’ का मूल मंत्र गाँधीजी ने श्रीरामचरितमानस जी से ही सीखा था । गाँधी जी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजाराम’ उनके मानस प्रेम का ही परिणाम था ।


   गाँधी जी के मन में श्रीरामचरितमानस जी और श्रीगीता जी का अमिट प्रभाव था । वे चाहते थे कि हमारे देश के युवा श्रीरामचरितमानस जी का और गीता जी का अध्ययन करें । और सही दिशा में अपना और देश का नवनिर्माण करें ।


  हम श्रीरामचरितमानस की ओर लौटकर मानवता की रक्षा कर सकते हैं । नैतिकता का जो दिनों-दिन ह्रास हो रहा है, उसे रोक सकते हैं । देश-समाज की सारी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं । नए भारत और नए विश्व का निर्माण कर सकते हैं । जहाँ सिर्फ सुख, शांति और प्रेम हो । हत्या, लूट-डकैती, सीनाजोरी और व्यभिचार आदि न हों ।


   इसके लिए हमे तो श्रीरामचरितमानस जी से जुड़ना ही होगा और साथ ही अपने बच्चों को श्रीरामचरितमानस जी से बचपन से ही जोड़ना होगा ।  हम स्कूलों और कालेजों में अपने बच्चों को बहुत कुछ पढ़ाते और सिखाते हैं । यदि साथ में वैकल्पिक विषय के रूप में श्रीरामचरितमानस जी को भी पढाएँ तो कुछ बिगड़ेगा नहीं । बल्कि नैतिकता और मानवता की सही शिक्षा बच्चों को मिल सकेगी । जन-जन से प्रेम, बड़ों को मान तथा सत्य और अहिंसा की शिक्षा से हमें नहीं लगता की अपनी ‘निरपेक्ष’ छवि में कोई परिवर्तन आ जायेगा-



धरम-करम अरु पाप-पुन्य क्या, मानस हमें बताती है ।

जन-जन से करिये प्रीति सदा, मानस सबको समझाती है ।।

सत्य-अहिंसा के मारग पर, चलना हमें सिखाती है 

गुरजन को आदर मान, दया, सत्कर्म का पाठ पढ़ाती है ।।

भारतीय-संस्कृत को मानस से, जीवटता मिल जाती है ।

राम-राज्य का सुंदर सपना, मानस हमें दिखाती है ।।

राजधर्म व जन्मभूमि से, प्रेम की ज्योति जगाती है ।

श्रीरामचन्द्र के चरण-कमल में, पावन प्रीति कराती है ।।



आज देश का युवा वर्ग, कुबतों में ज्यादा उलझा है 
कोरे-बोरेसाहित्य पढ़े, उनको ही जाना समझा है ।।
नाम सुना पर पढ़ा नहीं, मन कहीं और ही पलझा है ।
इतना तो जानों मानस से, कितनों का वाना सुलझा है ।।



नास्तिकता का वाना ओढ़े, इधर-उधर ही भटका है ।
करना है कुछ काम और, मन कहीं और ही अटका है ।
आसानी से काम बनें, मन उसी राह पे रपटा है ।
अच्छी खराब कैसी भी राह, किसको इसका खटका है ?
कैसी भी चाल चलिके कुचाल, इसने उसको पटका है ।
मन में शांति संतोष नहीं, पल-पल पे खाता झटका है ।।
          

जीवन में संघर्ष बहुत, जल्द निराश हो जाते हैं ।
घबराकर बहुत उदासी में, कुछ उल्टा कदम उठाते हैं ।।
मन की अशांति का हल अपने, कहीं    खोजे पाते हैं ।
माता-पिता गुरजन को भी, कुछ तो आँख दिखाते हैं ।।
घर हो बाहर सभी जगह, कैसा उत्पात मचाते हैं ।
देश-समाज को आशा जिनसे, वही बिगड़ते जाते हैं ।।



पढ़ने को पढ़ते बहुत आज, पर नैतिकता का नाम नहीं  ।
जीवन मूल्यों को खोते जाते, दुरावस्था ऐसी न जाय कही ।।
शिक्षा में कुछ बदलाव करें, नही दूजा और उपाय  यही ।
बैकल्पिक बिषयों में सदग्रंथ पढ़ें, लगता है यही बिचार सही ।।



मानस भी पढ़ना सीखो, पढ़ने से कुछ नहि लेती है ।
सहज ज्ञान देकर मानस, कुविचारों को हर लेती है 
जीवन में कुछ करने का, बल सम्बल भी देती है ।
निरासा, उदासी के आलम में, संतोष शांति सुख देती है ।।

         
देश-समाज की स्थिति दिन-दिन और बिगड़ती जाती है ।
शीलहरण, हिंसा, लूट-डकैती रोज सुनने में आती है ।
शुरू से अपने बच्चों को जो मानस पाठ पढाएं हम ।
अपने आप बहुत सीमा तक समस्याएँ हो जाएँ कम ।।
स्कूलों और कालेजों में जो मानस भी पढ़ी जायेगी ।
जन-जन से प्रेम, बड़ों को मान, सत्य-अहिंसा की शिक्षा से
                   क्या निरपेक्षछवी मिट जायेगी ?



।। जय श्रीसीताराम ।।



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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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