रामजी की सेना में असंख्य वानर और भालू थे । सुंदर काण्ड में कहा गया
है- ‘पदम अठारह यूथप बंदर’ अर्थात रामजी की सेना में सेनापतियों की संख्या
ही अठारह पद्म थी । ऐसे में रामजी की सेना में वानरों और भालुओं की संख्या की गणना
कर पाना असंभव ही है । इसलिए ही भगवान शंकर माता पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा
राम जी की सेना को मैंने देखा है । लेकिन मेरी समझ से जो उनकी सेना की गणना करना
चाहे तो वह मूर्ख ही कहा जाएगा । अर्थात गणना कर पाना असंभव सा है-
वानर कटक उमा मैं देखा । सो मूरख जो करन चह लेखा ।।
कितनी अद्भुत बात है कि इतनी बड़ी सेना होने के
बावजूद राम जी को अपने एक-एक वानर भालू की परवाह रहती है । रामजी सबका कुशल समाचार
भी पूछते रहते है । ऐसी है भगवान श्रीराम की भक्तवत्सलता-
अस कपि एक न सेना माही । राम कुशल जेहिं पूछी नाहीं ।।
अपनी अद्भुत भक्तवत्सलता के चलते लंका विजय के बाद भगवान श्रीराम ने
अमृत वर्षा द्वारा मरे हुए वानरों और भालुओं को जीवित कर दिया । इससे भगवान राम का
एक नाम ‘मृतवानरजीवनः अर्थात मरे हुए वानरों को जीवन प्रदान करने वाले’ पड़ गया ।
मरे हुए वानर-भालू जीवित होकर प्रसन्नचित्त से सबसे मिले । राम जी ने
अपनी सारी सेना को निहारा और हनुमानजी से बोले हनुमान ! सेना में एक बंदर नहीं है ।
ऐसा क्यों है ? वह कहाँ गया ?
तब हनुमानजी बोले भगवन उस वानर को कुम्भकर्ण ने खा लिया था । यदि
उसकी कोई हड्डी, बाल अथवा खाल कुछ भी बचा होता तो अमृत वर्षा से वो भी जिन्दा हो
जाता । लेकिन उसके शरीर का कोई भी अवशेष बचा ही नहीं है । इसलिए वह जीवित नहीं हो
सका और सेना में एक वानर कम है ।
राम जी को छोटे से छोटे वानर-भालू की भी परवाह है । वे उसके बिना
लंका से वापस नहीं जा सकते थे । जो रामजी की सेना में सम्मिलित हुआ । रामजी की ओर
से लड़ा उसे छोड़कर रामजी चले जाएँ यह रामजी को स्वीकार्य नहीं है ।
अमृत वर्षा से तो वह जी
नहीं सकता था । इसलिए रामजी ने यमराज की ओर देखा । यमराज भगवान श्रीराम का भाव समझ
गए । यमराज ने डरते हुए उस वानर को लाकर रामजी के सम्मुख खड़ा कर दिया । धन्य हैं रामजी
और उनकी भक्तवत्सलता ।