सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 14 सितंबर 2014

भगवान राम जैसा सुसाहेब दूजा नहीं है

गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुनाथ जी के गुणों की गाथा सुनकर चित प्रफुल्लित हो जाता है । फिर भी अपने पास रामजी को रिझाने के लिए कुछ भी नहीं है: न तो वैसी भक्ति है और न ही भाव ही हैं ।


   बड़ी विपरीति स्थिति है । तो भी हमारे रघुनाथ जी तो ऐसे हैं कि उनके निहार लेने मात्र से हारे हुए का दाँव लग जाता है और वह विजयी हो जाता है । रघुनाथ जी के ही बुझाने से अबुझ बुझाव भी समझ में आ जाते हैं । और असुझ, सुझाव सूझ जाते हैं । अर्थात सब कुछ सहज ही अधिगम हो जाता है ।


  कहने का मतलब न तो मुझे कुछ सूझता है और न ही कुछ बूझता है और मैं हर प्रकार से हारा हुआ हूँ । जीव की अवस्था बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़कर ऐसी ही हो जाती है ।


ऐसे में यदि कृपा करके रघुनाथ जी निहार लें तो सूझने भी लगेगा कि क्या और कैसे करना है और साथ ही बूझने भी लगेगा । बिना बूझे संसार से तरना कैसे होगा ? और इस प्रकार से जन्म-जन्मांतर से हारे हुए जीव की-मेरी जीत हो जायेगी ।


    गोसाईं जी कहते हैं कि वैसे तो मेरा सब कुछ बिगड़ा हुआ है । स्थिति-परिस्थिति कुछ भी ठीक नहीं है । फिर भी एक आशा है । वह क्या है ? वह यही है कि रघुनाथ जी मेरे सुसाहेब हैं । और मैंने अपनी स्थिति से अपने सुसाहेब को अवगत करा दिया है ।


   कोई ऐसा-वैसा साहेब हो तो नाना प्रकार की दुबिधा होती है । चिंता सताती है कि साहेब कुछ करेंगे भी कि नहीं । करेंगे तो कब करेंगे ? करेंगे भी कि भूल जायेंगे ? आदि ।


  लेकिन रामजी कोई ऐसे-वैसे साहेब नहीं है । वे सुसाहेब हैं । कब, क्या और कैसे करना है, यह वे भलीभाँति जानते हैं । और उन्हें याद दिलाने की भी जरूरत नहीं रहती । एक बार अपनी समस्या बताकर चैन से रहो-तुलसी सुख सोए एक राम भरोसे । देर लग सकती है फिर भी समय रहते रामजी बेड़ा पार कर देंगे । इसमें कोई दो राय नहीं है । यही सबकुछ विपरीत होने के बावजूद अच्छा है कि मैंने रामजी जैसे सुसाहेब को अपनी बात बता दी है-




सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ सो ।
तुलसी सुसाहेबहिं दिहेउ है जनाउ सो


।।जय श्रीसीताराम ।।




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शनिवार, 13 सितंबर 2014

भगवान की समदर्शिता

सदग्रंथ और संत कहते हैं कि भगवान समदर्शी हैं । अर्थात भगवान भेदभाव नहीं करते वहीं दूसरी ओर भगवान भगवत कथाओं और लीलाओं में देवताओं की मदद करते देखे जाते हैं । ऐसे में लगता है कि भगवान देवताओं का पक्ष लेते हैं और राक्षसों के विपक्ष में रहते  हैं ।


 
    लेकिन ऐसा नहीं है । क्योंकि भगवान केवल और केवल सत्य, न्याय और धर्म का पक्ष लेते हैं । जहाँ धर्म होगा, न्याय होगा और सत्य होगा, भगवान उसी पक्ष में रहेंगे । चाहे वह पक्ष देवता का हो और चाहे राक्षस का ।



   मान लीजिए किसी माता-पिता के दो संतान हैं । और वे दोनों से बराबर प्रेम करते हैं । यदि इनमें से पहला कोई गलती करता है और माता-पिता दूसरे का समर्थन करते हैं तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि माता-पिता पक्षपात करते हैं । सही व्यक्ति का समर्थन पक्षपात कैसे हो सकता है ?


  
   वहीं दूसरी ओर देवता भगवान को अपना स्वामी मानते हैं और कोई कष्ट पड़ने पर भगवान को पुकारते हैं । जबकि राक्षस अपने को ही भगवान मान बैठते हैं और भगवान को कभी नहीं पुकारते । भगवान सबकी पुकार सुनते हैं । यहाँ तक एक चीटी की भी । और पुकारने वाले के पास भगवान जाते हैं और न पुकारने वाले के पास होकर भी नहीं जाते । इससे भगवान देवताओं की मदद करते हुए देखे जाते हैं । इससे भी समदर्शिता भंग नहीं होती ।



   यही हाल भक्त और अभक्त का भी होता है । भगवान अपने भक्तों की मदद करते हैं । क्योंकि भक्त भगवान को सब कुछ मानते हैं और उन्हें बुलाते हैं । पुकारते हैं । भक्त भगवान को कर्ता मानते हैं । लेकिन अभक्त नहीं पुकारते । अभक्त अपने आप को ही कर्ता मानते हैं । पुकारने वाले की मदद करना और न पुकारने वाले की मदद न करना समदर्शिता को भंग नहीं करता । भगवान की मदद सत्य, न्याय और धर्म पर चलने वाले को ही मिलती है । और भक्त इन रास्तों से चलकर ही भगवान को प्राप्त कर सकते हैं ।



  जो भगवान को पुकारेगा और धर्म पर चलेगा भगवान उसकी जरूर सुनेगें चाहे वह राक्षस कुल में जन्मे प्रहलाद और विभीषण ही क्यों न हों ।



।। जय सियाराम ।।

  


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रविवार, 7 सितंबर 2014

मन की स्वाभाविक स्थिति

मन की स्वाभिक स्थिति ऐसी होती है कि चाहे जितना पढ़ो, चाहे जितना सुनो यह न तो ‘राम नाम’ भजने में लगता है और न ही रामजी के गुणों को गाने में, बस इधर-उधर भरमाता रहता है ।


  देवता, ऋषि-मुनि, साधु-संत, महात्मा, वैरागी, वेद-पुराण, रामायण आदि सब कहते और बताते हैं कि राम नाम में बड़ा रस होता है । लेकिन इसे राम नाम में रस नहीं मिलता । इसके विपरीत इसको इधर-उधर की बातों में बड़ा रस मिलता है । यह घर-घर घूम कर खबर लगाना चाहता है कि कहाँ क्या हुआ ? वे ऐसे हैं । वो वैसे हैं । इनके यहाँ ऐसा हुआ या होता है । उनके यहाँ वैसा होता है । यह सब गाने में लगा रहता है ।


  इन्होंने ऐसा कहा । उन्होंने वैसा कहा । किसने कैसा कहा ? ऐसी बातों में सबको उलझाये रखता है । दूसरों की कोई कमी जान जाये तो सारे लोगों को बता डालता है । जब तक बताए न,  शांति ही नहीं मिलती । औरों के ऊपर खुद भी हँसता है और दूसरों को भी हँसाता है ।


   कहीं भगवान का कीर्तन हो रहा हो तो इसे नहीं भाता । वहाँ नहीं जाना चाहता । लेकिन कहीं आस-पास में झगड़ा हो रहा हो तो उसे सुनना चाहता है । काम-काज को छोड़कर दौड़ता है । बरबस वहाँ खींच कर ले जाता है । न भी ले जाए तो कान को लगा देता है । लाकर बाहर अथवा खिड़की के पास खड़ा कर देता है ।


  कहीं राम जी की कथा चल रही हो तो वहाँ नहीं जाता अथवा नहीं जाना चाहता है । यदि चले भी जाओ तो भी इधर-उधर के प्रपंच में उलझा देता है । अथवा अपने अनुकूल साथी खोजकर कुछ बात-चीत चालू करा देता है । नहीं तो आलस्य और निद्रा के अधीन करके थोड़े ही समय में झपकियों का आनंद दिला देता है ।


 कोई गलत काम अथवा पाप कर्म करता है तो किसी को भी नहीं बताता । छुपाये रखना चाहता है । और तो और राम जी से भी इस भेद को छुपाना चाहता है । लेकिन इसके विपरीति यदि कोई अच्छा काम अथवा पुण्य का काम करता है । तो करने से ज्यादा गाता है । सबको बता डालता है । एक करता है तो दो बताता है । पुण्य में सो रुपया लगाकर दो सो चिल्लाता है ।


स्वयं तो सारी मूर्खों वाली करनी ही करता है । परंतु दूसरों को ज्ञान सिखाता रहता है । इस प्रकार से जीवन व्यर्थ के कामों ज्यादा बीतता है ।



   कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा । लेकिन न ही यह जगता है और न ही जगने देता है । संसार में श्रीराम नाम ही सार है । राम नाम में बहुत रस है । लेकिन इसे यह रस नहीं भाता । नहीं सुहाता । यदि अब भी यह पिछली सारी करनी को भुलाकर, सारी चतुराई को छोड़कर राम नाम में रम जाये तो अपना कल्याण हो जाय-



“सब करनी अब तू विसरावै राम भजै गुन गावै” ।।




।। जय सियाराम ।।





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सोमवार, 1 सितंबर 2014

कर्म, मोह और पूजा

सनातन (हिंदू) धर्म में कर्म की बड़ी महिमा कही गई है । इस संसार में हर कोई कर्म के बंधन से बंधा हुआ है । कर्म का फल सबको मिलता है । गोस्वामी जी तो यहाँ तक कहते हैं कि कर्म की संसार में बहुत बड़ी भूमिका है । इसने ही इस संसार को बना रखा है । यानी कर्म के बिना संसार की कल्पना नहीं हो सकती ।


   संसार में हर कोई, चर-अचर किसी न किसी कर्म में निरत हैं । पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, हवा, जल, अग्नि, वायु, आकाश और ग्रह-नक्षत्र आदि भी अपने-अपने कर्म में निरत रहते हैं ।


    भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण जी के जीवन से हमें धर्मपूर्वक कर्तव्य करने की ही प्रेरणा मिलती है । कर्तव्य पालन में मुश्किलें भी आ सकती हैं । लेकिन कर्तव्य पथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए ।


  सबको अपना-अपना कर्म करना चाहिए । कर्म का मतलब कर्तब्य पालन से भी होता है । हर किसी को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए । कर्म करना यानि कर्तव्य का पालन करना पूजा के समान कहा गया है ।


   यदि कोई व्यक्ति रोज घंटों पूजा करता है लेकिन अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाता तो उसे पूजा का समुचित फल नहीं मिलता । पूजा का फल प्राप्त करने के लिए अपने कर्तव्य का ठीक से पालन करना भी जरूरी होता है ।


    एक संत कहते हैं कि यदि सनातन (हिंदू) धर्म के परिपेक्ष्य में अंग्रेजी के GOD का पूर्ण रूप लिखें तो GO ON DUTY होगा । अतः बिना अपने कर्तव्य का पालन किये भगवान नहीं मिलेंगे । ईमानदारी से कर्तव्य पालन करने से देश-समाज का विकास होता है । समता और समृद्धता आती है । धर्म बढ़ता है । अच्छाई बढ़ती है और बुराई पराजित होती है ।


  ठीक से कर्तव्य अथवा कर्म के पालन में मोह भयंकर शत्रु होता है । मोह कर्म से विचलित कर देता है । उत्थान के बजाय पतन की ओर ले जाता है । इससे बुराई बढ़ती है । अधर्म बढ़ता है ।


   इसलिए ही बार-बार सदग्रंथ और संत मोह से बचने का परामर्श देते हैं । क्योंकि मोह पथभ्रष्ट कर देता है । कर्म से बिचलित कर देता है । ठीक से यानी धर्मपूर्वक कर्तव्य पालन में सबसे बड़ी रुकावट है ।



  श्रीअर्जुनजी जब महाभारत के युद्ध में कौरव सेना के सामने खड़े होते हैं तो मोह उनके कर्तव्य पालन में बाधक बनकर खड़ा हो जाता है । योद्धा का कम युद्ध करना होता है । समरांगण में सामने वाला शत्रु होता है । और महाभारत का युद्ध सत्य और धर्म की मर्यादा स्थापित करने के लिए हो रहा था । इसलिए इसका होना बहुत जरूरी था । जिसके लिए श्रीअर्जुन जी को लड़ना जरूरी था । लेकिन श्रीअर्जुनजी मोह बस इस ज्ञान को भुला बैठे थे । तब भगवान श्रीकृष्ण जी ने उन्हें कर्म करने का श्रीगीता जी का उपदेश दिया ।



    इसीतरह मान लीजिए कोई अधिकारी है । और उसे कुछ नियुक्तियाँ करनी है । अब उसका कर्तव्य है कि वह योग्य व्यक्ति का चयन करे । यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है । इससे अन्याय, अधर्म और बुराई पनपती है ।


  अधिकारी को मोह कई रूपों में हो सकता है । मान लीजिए इसे धन का मोह हो जाता है । ऐसे में यह धन लेकर अयोग्य व्यक्ति का चयन कर लेगा । मान लीजिए इसे धन का मोह नहीं होता, इसे परिवारिक मोह हो जाता है । ऐसे में यह अपने किसी निकट सम्बन्धी का चयन कर लेगा । कुलमिलाकर मोह धर्मपूर्वक कर्तव्य पालन में सबसे बड़ी बाधा हैं । इसलिए मोह से बचना जरूरी है । मोह का यह मतलब नहीं है कि अपने परिवार से प्रेम न करे । प्रेम करना बुरा नहीं है । लेकिन प्रेम कर्तव्य पालन में रुकावट नहीं होना चाहिए ।



  सनातन (हिंदू) धर्म की सीखें बड़ी ही जीवंत और जन-जन के लिए उपयोगी हैं । सनातन (हिंदू) धर्म के तथ्यों-रहस्यों को ठीक से समझकर और इनका अनुकरण करके देश-समाज और मानवता का कल्याण करना चाहिए ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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विशिष्ट पोस्ट

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे

लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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