अयोध्या जी में भगवान रंगनाथ जी का एक बड़ा ही मनोहारी विग्रह था । और इक्ष्वाकु वंश में परंपरा से ही रंगनाथ जी की पूजा होती आ रही थी । भगवान राम के राज्या- भिषेक के बाद जब विभीषण जी लंका जाने लगे तो उन्होंने भगवान राम से यह श्रीविग्रह माँग लिया ।
चूँकि
भगवान राम अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करते हैं- “राम सदा सेवक रूचि राखी । वेद
पुराण साधु सुर साखी” ।। और इसलिए रामजी ने विभीषण जी को निराश नहीं किया और परंपरा
से पूजित इस श्रीविग्रह को भी विभीषणजी को दे दिया ।
विभीषण जी जब रंगद्वीप में पहुँचे तो
श्रीविग्रह के पूजन हेतु रुके । लेकिन बाद में जब उठाने लगे तो भगवान का श्रीविग्रह उठा ही नहीं ।
विभीषण जी अन्न जल छोड़कर भगवान की आराधना में लग गए । उन्हें रात में स्वप्न हुआ
कि यह स्थान लंका से अधिक दूर नहीं है । और दूसरे तुम साधन सम्पन्न हो जब चाहो
दर्शन के लिए आ सकते हो । विभीषण जी को आकाश मार्ग से चलने की विद्या भी आती थी ।
इसलिए आज से मैं लंका की
ओर मुँह करके यहाँ स्थित रहूँगा । तुम दर्शन हेतु आ जाया करना । यहाँ के राजा और व्राह्मण रघुनाथ जी
से मुझे माँगना चाहते थे लेकिन संकोच वश माँग नहीं पाए थे । अतः यहाँ रहने से इनकी
भी इच्छा पूर्ण हो जायेगी ।
एक दिन विभीषण जी पूजन
हेतु आए तो पास के सघन बगीचे से फूल लेने चले गए । वहाँ एक परम वृद्ध
व्राह्मण ध्यानावस्थित थे । अनजाने में विभीषण जी के पैर की ठोकर उन्हें लग गई ।
ठोकर लगने पर वे उठे और कुछ कदम ही चलकर गिर गए और उनकी मृत्यु हो गई ।
यह बात
रंगद्वीप में फैल गई कि इस राक्षस ने वृद्ध व्राह्मण को मार डाला । विभीषण जी को
मारने के लिए इन पर प्रहार किया गया लेकिन कोई असर नहीं हुआ । तब इन्हें लोहे की
जंजीर से बांध कर एक गुफा में रखा गया ।
जब
भगवान राम तक यह समाचार पहुँचा तो रामजी व्याकुल हो गए और पुष्पक विमान से रंगद्वीप
पहुँचे । स्वागत आदि के बाद रामजी ने पूछा कि विभीषण कहाँ हैं ? तब विभीषण जी को
उपस्थित किया गया । विभीषण जी जंजीर में बँधे हुए शिर झुकाए हुए आए । इन्हें इस
घटना पर बहुत दुख और पछतावा था ।
वहाँ के लोगों ने कहा कि
एक तो यह राक्षस होने से देव-विप्र और वैदिक मर्यादा विरोधी है । दूसरे आप ने इसे अपना
दास बना लिया है । इससे इसे मद हो गया है । और अब इसने वृद्ध व्राह्मण को भी मार
डाला है । हम लोग इसे मृत्युदंड देना
चाहते थे लेकिन हमसे यह मरता ही नहीं है । आप सम्राट हैं । समर्थ
हैं । इसे मृत्युदंड दीजिए ।
रामजी
जानते थे कि विभीषण विप्र-गुर-सुर का आदर करने वाला है । इससे अनजाने में ऐसा हो
गया है ।
यह सुनते
ही रामजी के कमलनयन भर आए । रामजी बोले
इन्होंने जो अपराध किया है उसके बदले जो दण्ड आप लोग निर्धारित करते हैं उसे मैं
अस्वीकार नहीं कर सकता हूँ ।
लेकिन मैंने इन्हें कल्प भर राज्य करने का बचन
दिया है । और मेरा बचन मिथ्या भी नहीं होता । रामजी ने कहा कि सेवक कोई अपराध करे
तो इसका दण्ड स्वामी को मिलना चाहिए । यदि इनके अपराध का दण्ड प्राणदण्ड है तो
मेरा मरना ही उत्तम है । मेरे सेवक को कैसे मारा जा सकता है ? मैं प्राणदण्ड के
लिए प्रस्तुत हूँ ।
फिर इस समस्या को सुलझाने के लिए व्राह्मणों के कहने
पर वशिष्ठ जी को बुलाया गया । और विभीषण जी की बात सुनी गई । और यह निश्चित हुआ कि
अनजाने में यह अपराध बन पड़ा है तथा इसका प्रायश्चित शास्त्रों में है । इस प्रकार प्रायश्चित
का विधान किया गया ।
जब विभीषण जी को प्रायश्चित के लिए मुक्त किया गया
तो रामजी ने कहा कि विभीषण प्रायश्चित के बाद ही मुझसे मिलेंगे । प्रायश्चित के बाद विभीषण जी राम जी से मिले ।
तो राम जी ने इन्हें समझाया कि चूँकि तुम मेरे सेवक हो इसलिए तुम्हें बड़ी सावधानी
से रहना चाहिए और सब के प्रति दया का भाव रखना चाहिए ।
इस घटना
के बाद विभीषण जी रंगद्वीप में अदृश्य रूप से रंगनाथजी के दर्शन और पूजन के लिए
आने लगे । आज भी विभीषण जी रंगनाथ जी के दर्शन-पूजन हेतु रंगद्वीप आते हैं । कहा
जाता है कि प्रातःकाल मंदिर खुलने पर पूजन हुआ है इसका आभास भी होता है ।
इस प्रकार भक्त वत्सलता वश विभीषण की रक्षा हेतु विभीषण के बदले रामजी
स्वय मृत्युदंड के लिए तैयार हो गए थे ।
।। जय श्रीराम ।।