सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

शिक्षक, गुरू और भगवान


    शिक्षक और गुरू में भेद होता है । प्रत्येक गुरू एक शिक्षक होता है । लेकिन प्रत्येक शिक्षक गुरू नहीं होता । सद्ग्रन्थों में जिस गुरू की चर्चा आती है, यदि उसे हम सद्गुरु कहें तो शिक्षक को शिक्षागुरू कह सकते हैं ।

शिक्षागुरु की श्रेणी में स्कूलों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के शिक्षक गण आते हैं । शिक्षागुरु का मुख्य काम शिक्षा देना होता है । ये स्कूलों द्वारा निर्धारित पाठयक्रमों की शिक्षा देते हैं । स्कूलों में प्रत्येक विषय के अलग-अलग शिक्षक होते हैं । जैसे-जैसे हम स्कूल बदलते हैं, हमारे शिक्षक भी बदलते जाते हैं । इस प्रकार अपने अध्ययन काल में हम अनेकों शिक्षागुरु पाते हैं ।

जब हम स्कूल में पढ़ने जाते हैं तो उस समय जो विषय हमें पढ़ना होता है । उसके विषय-बस्तु से हम अज्ञान होते हैं । शिक्षागुरु अपने ग्यान के प्रकाश से हमारे अज्ञान के अंधकार को मिटाकर सम्बन्धित बिषय के बिषय-बस्तु का ग्यान करा देते हैं । बिषय सीखकर हम परीक्षा उत्तीर्ण कर ले जाते हैं और जीवन में आगे बढ़ते हैं । शिक्षागुरु भी हमारे लिए आदरणीय हैं । क्योंकि ये हमें ज्ञान का प्रकाश देकर हमारे अज्ञान के अंधकार को मिटाते हैं ।

  सदगुरु वह है जो हमें सच्चिदानन्द आनन्दकन्द भगवान की शिक्षा दे ।  जो भगवान से मिलने का मार्ग प्रशस्त कर दे । भगवान को बता दे । ऐसी शिक्षा दे दे जिससे कम से कम भगवान हमारे अनुभव में आ जायें । हमारा मन भगवान का अनुरागी हो जाये । भगवान का ध्यान-मनन करने लगे । प्रत्येक व्यक्ति के लिए सदगुरु मुख्यतः एक ही होता है । लेकिन शिक्षागुरु एक के बाद एक बदलते रहते हैं ।

  हमारे और भगवान के बीच अज्ञान का पर्दा है । जिससे हम भगवान को देख नहीं पाते हैं अथवा समझ नहीं पाते हैं या अनुभव नहीं कर पाते हैं । सदगुरु अपने ज्ञान के प्रकाश से इस अज्ञान रुपी अंधकार के पर्दे को हटा कर भगवान को हमारे अनुभव में ला देता है ।
  

  सनातन धर्म कहता है कि मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य भगवान को प्राप्त करना ही है । बिभिन्न योनियों में में जन्मता हुआ प्राणी ईश्वरानुग्रह बश मानव जीवन धारण करता है । इस मानव जीवन का सही उपयोग भगवान को प्राप्त करने में लगाने से ही हो सकता है । शुभ कर्म , दया और परहित आदि इसमें सहायक होते हैं । हम भगवान से दूर हो गए हैं । जो हमें भगवान के पास ला दे । वही सदगुरु है । और ऐसा गुरू यानी सदगुरु परमादणीय है ।

  चूँकि हमारे जीवन का उद्देश्य भगवान से सानिध्य प्राप्त करना ही है और सदगुरु इसमें सहायक होता है । इसलिए ही गुरू यानी सदगुरु को साक्षात परमब्रह्म की यानी भगवान की उपमा दी गई है । क्योंकि ईश्वर के सानिध्य में किसी को वही ला सकेगा जो खुद ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर चुका होगा ।

  कबीरदासजी ने कहा है कि यदि गुरू और भगवान दोनों खड़े हों तो सबसे पहले गुरू को ही प्रणाम करना चाहिए । क्योंकि गुरू ने ही तो भगवान तक पहुँचने में हमारी सहायता की है । यहाँ पर कबीरदास जी ने गुरू की महत्ता इसलिए बताई है क्योंकि गुरू ने ही भगवान से हमारा सानिध्य कराया है । कहने का मतलब गुरू की महत्ता भगवान के कारण ही होती है ।

   सदगुरु श्रेष्ठ होते हैं । इसमें दो राय नहीं है । लेकिन सदगुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ समझना उचित नहीं है । सदगुरु श्रेष्ठ हैं लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि भगवान सर्वश्रेष्ठ हैं । भगवान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है । इसलिए गुरू भक्ति में मस्त होकर भगवान को कभी नहीं भूलना चाहिए और न ही भगवान का तिरिष्कार करना चाहिए ।

  यह कहना कि हम केवल गुरू यानी सदगुरु को मानते हैं । भगवान को नहीं मानते । गलत है । यह सनातन धर्म का मार्ग नहीं है । ऐसा गुरू जो हमें भगवान से दूर कर दे किसी काम का नहीं होता ।
  यदि आपको सदगुरु और भगवान दोनों मिल जायें और दोनों में से आपको किसी एक को चुनना हो तो आप किसे चुनेगें ? कुछ लोग कह सकते हैं सदगुरु को और कुछ कह सकते हैं भगवान को ।
  

  लेकिन इस चयन में हमें यह देखना चाहिए कि हमारा सदगुरु भगवान के मिलने में बाधक है अथवा सहायक । यदि बाधक बन रहा हो तो ऐसे सदगुरु को तुरंत त्याग देना चाहिए । सनातन धर्म और सुसंतो का भी यही कहना है । इसे हम एक उदाहरण देकर समझायेंगे ।

   इस कलिकाल के संतो में से यदि सुसंत का उदाहरण खोजना हो तो गोस्वामी तुलसीदास जी का नाम अवश्य सामने आएगा । तुलसीदासजी ने ऐसे माता-पिता, भाई, पति आदि और यहाँ तक सदगुरु को भी त्यागने की सलाह दी है जिसको श्रीसीतारामजी प्रिय न हों अथवा श्रीसीतारामजी से मिलने में बाधक हों ।

   श्रीमद्भागवत और वामन पुराण में राजा वलि ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने भगवान के सानिध्य में बाधक अपने गुरू को भी त्याग दिया था । गुरू को त्यागकर वलि ने भगवान को प्राप्त किया था ।
  
   लेकिन यदि हमारा सदगुरू भगवान के मिलने में बाधक नहीं है बल्कि सहायक है तो ऐसे सदगुरु को त्याग देने से भगवान कभी नहीं मिलेंगे । वे स्वयं ही दूर हो जायेंगे ।

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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

भगवान श्रीराम और श्रीरामकथा का मूल स्वरूप तथा धारावाहिकों व एनिमेशन फिल्मों की श्रीराम कथा

भगवान श्रीराम और श्रीराम कथा का मूल स्वरूप समझने अथवा जानने के लिए धारावाहिकों और एनीमेशन फिल्मों की श्रीराम कथा उपयुक्त नहीं है । श्रीराम कथा पर कई धारावाहिक बन चुके हैं । और आजकल एनीमेशन फिल्मों के माध्यम से भी श्रीरामकथा दिखाई जा रही है । बच्चे एनीमेशन फिल्मों में दिखाई गई श्रीरामकथा को ही वास्तविक श्रीरामकथा समझने लगते हैं । इसी तरह से लोग खासकर युवा धारावाहिकों में दिखाई गई श्रीरामकथा को ही रामायण समझने लग जाते हैं ।


  लेकिन भगवान श्रीराम और श्रीरामकथा के बारे में ठीक से समझने के लिए हमें इनके सहारे नहीं रहना चाहिए । और न ही यह मान लेना चाहिए कि बस यही रामायण है । श्रीरामायण जी के मूल स्वरूप को समझने के लिए सदग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिए । इसके लिए श्रीवाल्मीकि रामायण अथवा गोस्वामीतुलसीदास जी की श्रीरामचरितमानस जी का अध्ययन करना चाहिए ।


   श्रीवाल्मीकि रामायण जी संस्कृत में होने से आसानी से नहीं समझे जा सकते । इसके लिए संस्कृत भाषा तथा संस्कृत व्याकरण का उचित ज्ञान होना चाहिए । बिना उचित ज्ञान के लोग उल्टी-सीधी व्याख्या प्रस्तुत कर देते हैं । मूर्खता अथवा अज्ञानतावश कुछ लोग यहाँ तक कह चुके हैं कि श्रीवाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम भगवान नहीं हैं । श्रीवाल्मीकि रामायण जी की कथा गूढ़ है । गायत्री छंद के रचयिता श्रीविश्वामित्र जी ने भगवान श्रीशंकर जी के आदेश पर श्रीरामरक्षास्तोत्र की रचना की है । जिसमें उन्होंने श्रीवाल्मीकि जी को ‘राम-राम’ कूकने वाली कोयल कहकर वन्दना की है । वाल्मीकि जी को व्रह्म के समान कहा गया है । और ऐसे महापुरुष सिर्फ भगवान का ही यशोगान करते हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज  ने श्रीरामचरितमानस जी में श्रीहनुमानजी के साथ श्रीवाल्मीकि जी की संयुक्त वन्दना की है । क्योंकि श्री हनुमानजी महाराज और श्रीवाल्मीकि जी महाराज श्रीसीताराम जी के सुंदर कथा रुपी पुण्य अरण्य में विहार करने वाले हैं ।



खैर संस्कृत भाषा के उचित ज्ञान के अभाव में यदि हम श्रीवाल्मीकि रामायणजी को नहीं पढ़ सकते अथवा नहीं समझ सकते तो कोई बात नहीं । और इसलिए ही गोस्वामीतुलसीदास जी ने हमें श्रीरामचरितमानस जी को उपलब्ध कराया है । श्रीरामचरितमानस जी की रचना और नामकरण स्वयं भगवान श्रीशंकर जी ने किया है । गोस्वामीजी हम लोगों को उपलब्ध कराने हेतु निमित्तमात्र बने हैं ।


  बच्चे, युवा और वृद्ध सभी को श्रीरामचरितमानस पढ़ना व समझना चाहिए । व्यस्तता वश रोज न पढ़ सकें तो कम से कम हर रविवार को जरूर पढ़ना चाहिए । धारावाहिकों और एनीमेशन फिल्मों की श्रीरामकथा को ही वास्तविक श्रीरामकथा समझ लेना अथवा भगवान श्रीराम और श्रीरामकथा के स्वरूप को समझने का आधार मानना अथवा समझना गलत है ।



  यही नहीं एनीमेशन फिल्मों में तो बहुत चीजें गलत दिखा दी जाती हैं । इसी तरह धारावाहिकों में भी गलती रहती है । उदाहरण के लिए जब भगवान श्रीराम जी की और राक्षस की लड़ाई दिखाते हैं तो श्रीराम बाण को भी अप्रभावी होते दिखा देते हैं । जो कि गलत है । श्रीराम बाण कभी अप्रभावी नहीं होता । श्रीराम बाण अमोघ होता है । उसे कोई काट भी नहीं सकता ।

   फिर भी धारावाहिकों की श्रीराम कथा को देखना गलत नहीं है । श्रीरामकथा का मंचन तो ‘श्रीरामलीला’ के जरिए करने की भी प्रथा है । जिसके खुद गोस्वामीतुलसीदास जी महाराज भी पक्षधर थे । और वे ‘श्रीरामलीला’ कराते भी थे । कहते हैं कि वाराणसी में जिस स्थान को आज लंका के नाम से जाना जाता है । वह स्थान गोस्वामीजी की ‘श्रीरामलीला’ में लंका हुआ करता था । इसी से वह स्थान लंका कहलाता है ।



  कुछ भी हो यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भगवान श्रीरामजी के समान सिर्फ भगवान श्रीराम ही हैं । श्रीराम कथा के समान सिर्फ श्रीराम कथा ही है । श्रीराम जी के गुण-स्वभाव के समान केवल श्रीराम जी के गुण-स्वभाव ही हैं । श्रीराम और रावण की लड़ाई के समान केवल राम-रावण लड़ाई ही है ।



भगवान श्रीरामजी के गुणों को उनके स्वभाव को समझने के लिए श्रीरामचरितमानस जी के शरण में जाना चाहिए । कोई व्याख्या पढ़नी अथवा सुननी हो तो किसी श्रीरामभक्त संत द्वारा लिखी अथवा कही गई व्याख्या ही श्रेयस्कर होती है । प्रवचन भी किसी श्रीरामभक्त संत का ही अधिक श्रेयस्कर होता है ।

  इधर-उधर लिखी गई अथवा कही गई सब बातें प्रमाणिक नहीं होती । हमेशा प्रमाणिकता का विचार करना चाहिए । सच्चे श्रीरामभक्त प्रलाप नहीं करते । श्रीरामचरितमानस जी के शरण में जाने से हर तरह से कल्याण ही होता है । अतः श्रीरामचरितमानस जी को हर किसी को बिना किसी विचार के अपना लेना चाहिए ।



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शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

कामद भे गिरि राम प्रसादा

श्रीचित्रकूटजी की बहुत महिमा है । श्रीचित्रकूटजी की महिमा का गायन सुर, नर, व मुनि सभी करते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज व श्रीवाल्मीकि जी ने श्रीचित्रकूटजी की महिमा का गायन किया है ।


  श्रीचित्रकूटजी को यह महिमा भगवान श्रीरामजी से मिली है । तीनों कालों और तीनों लोकों में जिसे भी कोई महिमा अथवा बड़ाई मिलती है वह हमारे रामजी से ही मिलती है । जिसे रामजी का प्रसाद मिल जाय, रामजी की कृपा मिल जाय उसकी बहुत महिमा हो जाती है । वह बहुत बड़ा हो जाता है ।

 
    कोई भी हो, किसी भी योनि का जड़-चेतन कुछ भी हो तीनों लोकों में उसका सुयश छा जाता है । सुर, नर, मुनि उसकी प्रसंशा करने लगते हैं । वह पहले कितना ही दीन-हीन क्यों न रहा हो बाद में वह राघवजी की कृपा से दूसरों पर कृपा करने वाला बन जाता है ।


  यही हाल श्रीकामदानाथजी का भी था । पहले ये मामूली से पर्वत थे । लेकिन आज बिना इनके दर्शन-पूजन और परिक्रमा के श्रीचित्रकूटजी की यात्रा अधूरी रहती है ।


   इन्हें हमारे रामजी का प्रसाद यानी कृपा मिल गई । फिर क्या था ये साधारण गिरि से ‘कामद’ यानी कामनाओं को देने वाले अर्थात पूरा करने वाले बन गए ।



  श्रीकामदानाथजी कामनाओं को तो पूरा करते ही हैं, प्रेम से निहार लेने से ही मन के विषाद को दूर करके शांति भर देते हैं-



कामद भे गिरि राम प्रसादा ।  अवलोकत अपहरत विषादा ।।


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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

जटायुजी की जीत

भगवान श्रीरामजी सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ जब पंचवटी में रहने आये तभी गीधराज जटायु से उनकी भेंट हुई और परिचय हो गया । जटायु जी दशरथजी के मित्र थे । इस नाते से रामजी ने उन्हें पिता के समान ही मानकर उनका आदर और सम्मान किया तथा हाथ जोड़कर प्रणाम किया । एक पक्षी को ऐसा सम्मान शायद इतिहास का पहला और अंतिम उदाहरण था । यह रामजी का आदर्श है जिसने आमिष भोगी जटायु को ‘तात’ की संज्ञा दे दिया ।


   रामजी पंचवटी में रहने लगे । कुछ दिन बाद रावण ने रामजी और लक्ष्मणजी की अनुपस्थिति में सीताजी का हरण कर लिया । सीताजी बहुत दारुण विलाप करती हुई जा रही थीं । उस विलाप को सुनकर कोई उन्हें छुड़ाने नहीं आया । लेकिन पक्षी होकर भी जटायु जी सीताजी की मदद के लिए आये । इन्होंने देखा कि सीताजी का हरण करके लंका का राजा रावण जा रहा है । जिसके बल पराक्रम से देवता भी भयभीत रहते हैं । फिर भी वृद्धावस्था के बावजूद इन्होंने हिम्मत नहीं हारी ।


रावण को इन्होंने ललकारा और रुकने को कहा । रावण को ऐसी आशंका नहीं थी कि वायु मार्ग में कोई उसका रास्ता रोकेगा । रामजी और लक्ष्मणजी बहुत दूर थे । और कोई अन्य चाहे वह कोई भी हो रावण का रास्ता रोकने की हिम्मत नहीं जुटा सकता । ऐसे में रावण आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि आखिर यह कौन है ? जब जटायु जी थोड़ा पास आये जिससे रावण को इतना आभास हुआ कि कोई पक्षी है । तब उसने सोचा कि कहीं यह गरुण तो नहीं हैं । फिर सोचा कि आखिर गरुण क्यों आयेंगे ? एक बार जब मैंने उनका पीछा किया था तो भागते-भागते उन्हें क्षीर सागर में शरण लेनी पड़ी थी । गरुण की तो बात ही क्या उनके स्वामी विष्णुजी भी हमारे बल को भली-भाँति जानते हैं । ऐसे में यह कौन है ? तब तक जटायु जी और पास में आ गए तो रावण ने उन्हें पहचाना कि यह जटायु है ।



  जटायुजी ने पहले तो समझाया परंतु रावण से कोई उत्तर न मिलने पर युद्ध आरंभ कर दिया । रावण पर इन्होंने अपने पंजे और चोंच से कई भीषण आघात किए । रावण मूर्छित भी हुआ लेकिन अंततः उसने इनके पंख काट दिए । जिससे घायल होकर जटायु जी पृथ्वी पर गिर पड़े और राम-राम रटने लगे । इधर रावण सीताजी को लंका ले आया ।


   जटायु जी को बड़ा पछतावा हो रहा था कि मैं रावण को रोक नहीं सका ।  मेरे सामने वह मेरी पुत्रबधू सीताजी का हरण कर ले गया । दूसरी बात की चिंता थी कि बिना रामजी को सीताजी का हाल बताए प्राण छूटने वाले थे । वे इसी सोच में थे कि मैं रामजी के किसी भी काम नहीं आ सका । वे ऐसा सोचते और राम-राम रटते जाते थे ।


   रामजी और लक्ष्मणजी सीताजी को खोजते-खोजते इधर आ पहुँचे । रामजी को सुनाई पड़ा कि कोई उन्हें पुकार रहा है । फिर क्या था उन्हें सीताजी कि याद भूल गई और सबके सोच को मिटाने वाले सोचविमोचन और दयामय रामजी आवाज की तरफ चले  । पास जाकर देखा कि गीधराज जटायु घायल पड़े हैं-


सुनि निज नाम पुकारत कोई सिया की याद भुलाए ।
गीधराज ढिंग राम दयामय सोच विमोचन आए ।।


घायल जटायु को रामजी ने गोद में ले लिया और रामजी रो पड़े । मरते समय यह संयोग स्वयं राजा दशरथ को भी नहीं मिल सका था । लक्ष्मणजी ने जटायु जी को जल लाकर पिलाया । जटायु जी ने सीताजी के हरण की सारी बात बताई और बोले अब अंत समय है अब तक केवल आपके दर्शनों के लिए प्राण रुके थे । रामजी ने उन्हें प्राण न छोड़ने को कहा लेकिन वे जबाब में बोले कि सुर-नर-मुनि दुर्लभ यह संयोग फिर कहाँ मिलेगा ? जटायु जी ने अंतिम सांस रामजी के गोद में लिया । फिर राम जी ने पिता की तरह आँखों में आंशूं लिए हुए उनका अंतिम संस्कार किया-

      
ऐसा कहकर गीध जटायू प्रभु के धाम सिधाए ।
क्रिया किए निज कर रघुनायक जलजनयन जल लाए ।।


    रामजी के सिवा ऐसा दूसरा कौन है जिसकी गीध जैसे आमिष भोगी पक्षी पर इतनी कृपा हो ? ऐसा करने वाला दूसरा कोई न था, न है और न ही होगा । रामजी की कृपालुता, उदारता की तुलना नहीं हो सकती ।


  रामजी ने जटायुजी का श्राद्ध किया । उनकी ऐसी सदगति हुई । जिसकी कामना जन्म-जन्मांतर तक तपस्या करने वाले ऋषि-मुनि और योगीजन किया करते हैं । इस प्रकार जटायु जी धन्य और धरा-धाम पर सदा-सदा के लिए अमर हो गए । रामजी के यह गुण-स्वभाव में है कि वे उजड़े हुए को बसा देते हैं और हारे हुए को जिता देते हैं । जटायुजी रावण से हार गए थे लेकिन रामजी ने उन्हें जिता दिया और अपने धाम में बसा दिया ।


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गुरुवार, 5 सितंबर 2013

भगवान श्रीरामजी ने रावण को कब और क्यों मारा ?

भगवान श्रीरामजी दया, करुणा, क्षमा आदि गुणों में अद्वीतीय हैं । और स्वभाव से बहुत सरल हैं । इनके इतना सरल कोई भी और कहीं भी नहीं है । कोई भी ऐसा नहीं है जो राम जी की सरलता और सहजता को सुनकर और जानकर प्रभावित न हो जाय, सोचने पर मजबूर न हो जाय अथवा राम जी का गुणगान न करने लग जाय । रावण जैसा दुरात्मा भी रामजी के स्वभाव से, उनकी सरलता से प्रभावित था ।


  रावण के अत्याचार से त्राहि-त्राहि मची हुई थी । हर कोई परेशान था । चाहे वह सुर, नर मुनि कोई भी रहा हो । सारी सृष्टि रावण के अधीन थी । देवता भी उसके अधीन थे । व्रह्मा, शिव और विष्णु जैसे देवता भी रावण को नहीं मार सकते थे । व्रह्मा जैसे देवता को, जो सृष्टि रचयिता हैं, रावण के नौकर डाँट दिया करते थे । शिवजी और विष्णु जी का भी मान मर्दन रावण ने किया था । उसकी भुजाओं पर बड़े-बड़े देवताओं, दिगपालों के आयुधों के घाव के निशान अंकित थे ।  जिसमें विष्णु जी के चक्र और इंद्र के व्रज का भी निशान शामिल था ।  इसलिए ही रावण अपनी भुजाओं को निरखते हुए चलता था । ऐसा करके वह अपने बल और पौरुष को याद करता था कि जिस भुजा को नारायण का चक्र नहीं काट सका उसे कौन काट सकेगा ? 


  
 मद सबके लिए घातक होता है चाहे वह सुर, नर, मुनि कोई भी हो । मद प्रभुता से आता है । प्रभुता के कई रूप है । यह समय और व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है । मद हो जाने पर वुद्धि भ्रमित हो जाती है । इस स्थिति में जो किया जाय वही जायज लगने लगता है । बुरी चीज अच्छी लगने लगती है । ऐसे में बड़े-बड़े लोग अपना प्रभाव खो देते हैं और विनाश को प्राप्त होते हैं ।



  रावण को अपने बल और व्रह्मा जी से प्राप्त वरदान से मद हो गया था । इससे वह वेद विरुद्ध हो गया । भगवान राम बहुत ही छ्माशील हैं । उन्होंने उसे छमा किया । फिर वह पृथ्वी, साधुओं और मुनियों को सताने लगा और देव लोक को उजाड़ दिया । देवता इधर-उधर भटकने लगे । इतने पर भी रामजी ने उसे नहीं मारा ।



   रामजी तो रावण को कभी भी मार सकते थे । संसार क्या जिसके अंश मात्र से व्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे देवताओं की सृष्टि हो जाती है- ‘शंभु, बिरंचि, बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंश ते नाना’ । ऐसे भगवान के लिए सृष्टि के किसी प्राणी को मारना कोई बड़ी बात तो थी नहीं । जब चाहते तभी मार देते । लेकिन वे उसे छमा करते रहे ।


    और तो और रावण ने माता सीता का हरण कर लिया । अब तो इसको मार ही देना चाहिए था । फिर भी रामजी ने उसे छमा किया । यानी इतने पर भी तुरंत उसका वध नहीं किया ।


गोस्वामीतुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि भगवान श्रीराम जी की अपने सेवकों पर विशेष कृपा होती है । और इसलिए रामजी को अपने सहज छमाशील स्वभाव को छोड़ना पड़ा । क्योंकि रावण ने मद के कारण विभीषण जी को लात मार दिया । रामजी ने रावण के दर्प को अब  तक दूर नहीं किया था । लेकिन जब रावण ने विभीषण जी को लात मार दिया तो रामजी उसे छमा नहीं कर पाए-


   सेवक-छोह तें छाड़ी छमा , तुलसी लख्यो राम! सुभाउ तिहारो। 

    तौलौं न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौं बिभीषन लातु न मारो।। 



रामजी का और रावण का युद्ध चल रहा था   देवता और ऋषि-मुनि सब अचंभित हो देख रहे थे

।  लेकिन रामजी रावण को एक तरह से खेल खेला रहे थे   परंतु युद्ध के दौरान रावण ने

 विभीषण जी पर शक्ति से वार कर दिया । जिसको रामजी ने स्वयं सह कर विभीषण जी की 

रक्षा किया और रावण का वध कर दिया ।



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मंगलवार, 13 अगस्त 2013

गोस्वामीतुलसीदास जी की भूँख

संसार में हर किसी को किसी न किसी चीज की भूँख होती है । बहुतों को तो कई चीजों की भूँख रहती है । रुपया-पैसा, धन-दौलत, गाड़ी-बँगला, सिद्धी और प्रसिद्धी, वैभव व नाना भोग की चाह किसे नहीं होती । इन चीजों के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते ? सत्य छोड़कर असत्य का साथ देते हैं । कर्म छोड़कर  कुकर्म करते हैं । इन चीजों के आकर्षण से कोई विरला ही बच पाता है । लोग इन्हें छोड़ना चाहें तो भी नहीं छोड़ पाते । इसलिए ही लोग विरागी बनकर भी रागी बने रहते है । साधु बनकर भी असाधुता से बच नहीं पाते ।



   चंद टुकड़ों, रोटी अथवा पैसे के लिए फिरते हुए भिखारी यहाँ-वहाँ रोज मिलते हैं । बड़े-बड़े लोग साधुओं से, तांत्रिको से व मंदिर में भगवान से बड़ी-बड़ी चीजें माँगा करते हैं । कहने का मतलब ऐसे लोग भौतिक चीजों को प्राप्त करके सुख का अनुभव करते हैं ।


 
कोई विरला भिखारी ऐसा होता है जिसे इन चीजों से सुख नहीं मिलता और न ही वह इन चीजों के लिए याचना ही करता हैं । क्योंकि उसकी भूँख भौतिक चीजों से मिटती ही नहीं । गोस्वामी जी की भूँख ऐसी ही थी ।



सांसारिक भूँख अथवा संसार की चीजों से मिटने वाली भूँख कभी मिटती नहीं है । थोड़े समय के लिए शांति भले ही हो सकती है । अगले पल फिर भूँख लग जाती है । अथवा यूँ कहें कि बढ़ती जाती है । ऐसा मे क्या किया जाय अथवा वह कौन सी वस्तु है जिसके सेवन से सारी की सारी भूँख सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाती है । फिर संसार की चीजों का कोई मतलब नहीं रह जाता । गोस्वामीजी केवल इसी चीज का सेवन करना चाहते थे । यही इनके जीवन का लक्ष्य था । इसके सिवा इन्हें और कुछ नहीं चाहिए था । न नाम, न धाम, न काम, न सिद्धी और  न ही प्रसिद्धी । इसलिए ही वे सच्चे विरागी थे । सच्चे साधु थे, सच्चे संत थे, सच्चे महात्मा थे ।



गोस्वामीजी जन्म-जन्मांतर के भूंखे थे । उनकी भूँख शांति नहीं होती थी । लेकिन वे हर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते थे । साधारण अन्न से उन्हें तृप्ति मिलने वाली नहीं थी । वे छककर रामभक्ति रुपी अमृत तुल्य अन्न खाना चाहते थे । केवल और केवल रामभक्ति रुपी अमृत तुल्य अन्न से ही उनकी भूँख मिट सकती थी । ऐसे में यहाँ-वहाँ हाथ फैलाने से क्या होने वाला था ?



वे अग-जग नायक देवताओं के भी देवता भगवान श्रीरामजी से माँगते थे । और कोई रामजी से माँगे और उसकी माँग न पूरी हो ऐसा होता ही नहीं । वे रामजी से कहते थे कि प्रभु आप तो गरीबनेवाज है । और मैं जन्म-जन्मांतर का भूँखा भिखारी हूँ । मेरी भूँख आप ही मिटा सकते हैं । लोग आप से बहुत कुछ माँगते रहते हैं । और आप बड़े दाता हैं ।  देवता को महादेवता और राजा को महाराजा बना देते हैं । दीन-दुखियों और गरीबों पर तो आपकी विशेष कृपा है । सबको बहुत कुछ देते हैं । मुझे बस एक बार अपनी भक्ति रुपी अमृत तुल्य अन्न का छककर भोजन करा दीजिए । बस मेरी भूँख मिट जायेगी । मेरा बस इतना सा ही माँगना है-



मैं जनम को भूँखो भिखारी आप गरीबनेवाज ।

पेट भर तुलसिहिं जिमाओं भगति सुधा अनाज ।।



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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

दसवाँ ग्रह

हम सब जानते हैं कि कुल नव ग्रह होते हैं । प्रत्येक जीव के जीवन पर इन ग्रहों का प्रभाव भी पड़ता है । कभी-कभी प्रभाव अच्छा तो कभी-कभी खराब भी होता है । कई ग्रह जब अरिष्ट हो जाते हैं तो लोगों का जीवन काफी हद तक अस्त-ब्यस्त हो जाता है । काफी नुकसान हो जाता है । और कई तरह के कष्ट मिलने लगते हैं । इसलिए लोग ग्रहों को संतुष्ट करने के लिए तरह-तरह के उपाय भी करते व कराते रहते हैं ।


  विज्ञान भी कुछ समय पहले तक कुल नव ग्रह ही मानता था । लेकिन अब उसने यह संख्या घटाकर आठ कर दी है । विज्ञान यह संख्या अभी और घटा अथवा बढा सकता है । क्योंकि उसका ज्ञान अधूरा है । अपूर्ण है । ऐसी स्थिति में भ्रम तो रहता ही है ।


  यहाँ पर हम यह बताना चाहते हैं कि इन आठ अथवा नव ग्रहों के अलावा भी एक दसवाँ ग्रह होता है । जिसे बहुत कम लोग ही जानते हैं । दसवाँ ग्रह अन्य सभी ग्रहों पर भारी होता है । इसकी सबसे बड़ी बिशेषता यह है कि यह कभी भी और किसी पर भी अरिष्ट नहीं होता । इससे किसी को कोई नुकसान नहीं होता । इससे किसी को कोई कष्ट नहीं मिलता ।


  यह बड़े से बड़े दुष्प्रभावों को मिटा देता है । दुःख को सुख में बदल देता है । निराशा को आशा में बदल देता है । इतना ही नहीं यह असंभव को संभव बना देता है । यह दसवाँ ग्रह है- भगवान श्रीराम जी का ‘अनुग्रह’ । इसकी अनुकूलता जिसे मिल जाय उसे कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता । इसका प्रभाव मैंने कई बार प्रत्यक्ष देखा है । हम एक घटना का यहाँ जिक्र कर रहे हैं-

 
शर्मिला के बेटा नहीं था । उसके एक बेटी थी जो शादी के कुछ समय बाद ही पैदा हो गई थी । अब उसे एक बेटे की कामना थी । बेटी जब लगभग तीन बर्ष की हो गई तो बेटे की चाह प्रबलतम होने लगी । लेकिन धीरे-धीरे चार, पाँच  और छे वर्ष भी बीत गए लेकिन बेटा तो दूर फिर कोई सन्तान नहीं हुई ।


  वह पण्डितों, ज्योतिषियों व संतो से मिलकर उपाय पूछने व करने लगी । पूजा-पाठ तो वह पहले भी करती थी । लेकिन अब पुत्र की कामना से व्रत, उपवास और पूजा पाठ करने लगी थी । लोग तरह-तरह की बात कर रहे थे । लोग कहते कि हम कई लोगों को जानते हैं जिनके सिर्फ एक संतान होकर लाख उपाय करने पर भी दूसरी सन्तान कभी नहीं हुई । वह बहुत ही निराश रहने लगी थी । दिनों-दिन उसकी चिंता बढ़ती ही जा रही थी ।


   इस बीच उसे श्वेतप्रदर नामक बीमारी भी हो गई । और वह एक गाइनो डॉक्टर से इसकी तथा बच्चा होने की दवा कराने लगी । उसे बेटा चाहिए था लेकिन उसे इसके अनुकूल कुछ भी सुनने को नहीं मिल रहा था । उसका ब्लड ग्रुप आर एच निगेटिव था । विज्ञान के अनुसार इस स्थिति में दूसरी संतान होने में काफी दिक्कत होती है । कुछ लोग कहते कि आर एच निगेटिव वाले को दूसरी संतान होती ही नहीं । गर्भ ठहरे भी तो गिर जाता है । आदि । वह क्या करती सुनती जाती थी ।


  धीरे-धीरे समय बीतता गया । अब उसकी बेटी लगभग आठ बर्ष की हो चुकी थी । उसे श्वेतप्रदर के साथ रक्तप्रदर भी हो गया था । पहले वाले डॉक्टर ने जबाब दे दिया था और वह अब लखनऊ के एक प्रसिद्ध गाइनो से इलाज कराने लगी थी । उसकी सास से कुछ लोग कहने लगे थे कि यदि पोते का मुँह देखना हो तो बेटे की दूसरी शादी करा दो । यह सब सुनकर उसकी दशा जड़ कटे पौधे की तरह होती जा रही थी । वह सोचती कि मैंने ऐसा कौन सा पाप कर दिया है कि भगवान मुझे एक पुत्र नहीं दे सकते । हमारी सभी सहेलियों के पुत्र हैं । किसी-किसी के तो दो-दो । लेकिन मेरे एक भी नहीं ।


  मैं उसे समझाया करता था । एक तरह से विश्वास दिला रखा था कि आपको बेटा जरूर होगा । मुझे लगता है कि मेरी बात पर भी उसे शौ प्रतिशत विश्वास नहीं था । लेकिन कर ही क्या सकती थी ? एक दिन उसने कहा कि एक पंडित जी कह रहे थे कि ग्रह अरिष्ट हैं । इसके लिए कई चीजें करने को कह रहे थे ।


     मैंने कहा कि ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है । जो कर सकती हो करो बाकी छोड़ दो । सिर्फ ‘राम-राम’ करो सब ठीक हो जाएगा ।  मैंने उसे दसवें ग्रह के बारे में में विस्तार से बताया । और कहा कि तुम किसी की मत सुनों, कुछ मत करो, चिंता निकाल दो सिर्फ राम जी से अपना दुःख कहो । यह सब सुनकर वह चली गई ।


   कभी-कभी इंसान के जीवन में ऐसा समय आ जाता है कि उसे लगने लगता है कि उसके दुःख का अंत नहीं होने वाला है । उसके जीवन के अंधकार को मिटाने के लिए सारे प्रकाश कम हैं । ऐसे में बड़े-बड़े भी धैर्य खो देते हैं । यही उसके साथ भी हुआ । लखनऊ के डॉक्टर ने कई महीने दवा करने के बाद  कह दिया कि अब तुम्हारे बच्चा होने की कोई उम्मीद नहीं है । जितना जल्दी हो सके गर्भाशय निकलवा दीजिए । यह सुनकर मानो उसके पैर तले की जमीन ही खिसक गई हो । उसने अपने को कैसे संभाला होगा भगवान ही जानें । बाद में उसने मुझे फोन पर यह सब बताया । उसकी बातों में इतना दर्द था कि मैं बयां नहीं कर सकता । मैंने इस बार भी उसे भरोसा दिया । मैंने उसकी इच्छा, लगन और दर्द देखा था । सो मैंने कहा कि चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा । वह बोली अब कैसे ठीक होगा ? मैंने कहा रामजी बड़े दयालु हैं । उन पर भरोसा रखो । और अपना डॉक्टर बदल दीजिए ।


   उसने ऐसा ही किया और गोरखपुर में दवा कराने लगी । यहाँ की दवा से उसे काफी राहत हुई । बाद में वह इलाहाबाद  में दवा कराने लगी । यहाँ के डॉक्टर ने फ्लोपियन ट्यूब की जांच कराई और कहा सब ठीक है । समझ में नहीं आता कि क्या बात है ? उसने अब सोच लिया कि रामजी को जो करना होगा करेंगे ।


  अब भी वह निराशा में जी रही थी । लेकिन कुछ समय बाद उसे दसवें ग्रह की अनुकूलता मिली और उसे गर्भ ठहर गया । अब उसकी बेटी लगभग दस साल की हो चुकी थी ।  वह खुश थी फिर भी आर एच निगेटिव होने की चिंता, लंबी बीमारी के बाद यह दिन आने से चिंता थी कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए । उसने फिर से दवा कराना शुरू कर दिया । सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था । लेकिन एक दिन फिर से वह चिंता में घिर गई । डॉक्टर ने अल्ट्रासाउंड के बाद बताया कि बच्चे का एक पैर छोटा और एक बड़ा होगा । जबकि पहले के अल्ट्रासाउंड में ऐसा कुछ नहीं आया था । डॉक्टर ने कहा कि अब कुछ किया भी नहीं जा सकता । यह सुनकर वह काफी देर तक रोती रही । रात मे जगती थी और ठीक से खाना भी नहीं खा पाती थी । मैंने उसे फिर धैर्य से काम लेने की बात कही । और दसवें ग्रह की अनुकूलता से सब कुछ ठीक हो जाता है ऐसा उसे समझाया । मैंने कहा जैसे अभी तक जो हुआ वह भी एक तरह से असंभव से संभव हुआ है ठीक ऐसा ही आगे भी होगा और आपको एक पुत्र की प्राप्त होगी । क्योंकि आपको दसवें ग्रह की अनुकूलता मिल चुकी है । यह सुनकर वह प्रसन्नचित हो गई और भगवान ऐसा ही करें कहने लगी ।


   कुछ दिन बाद उचित समय पर उसने एक बेटे को जन्म दिया । जो सुंदर, हष्ट-पुष्ट और हर तरह के अंग विकार से मुक्त है । उसने उसका नाम ‘श्रीराम’ रख दिया है और वह अब दसवें ग्रह पर बलिहारी जाती है ।


    यह तो सिर्फ एक घटना थी । दसवें ग्रह की महिमा का बखान करने में कोई भी सक्षम नहीं है । इसकी महिमा अनंत है । इससे ही सारे संसार का भला होता है । और सारे संसार के दुखों का अंत होता है । इसकी अनुकूलता के लिए समता, सहजता, श्रीराम भक्ति और समर्पण जरूरी होता है ।



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रविवार, 14 जुलाई 2013

जो बड़ होत सो राम बड़ाई

संसार मे यदि कोई भी और कहीं भी बड़ा है तो उसकी यह बड़ाई रामजी से है । अर्थात रामजी द्वारा दी हुई बड़ाई से ही वह बड़ा है । कोई माने या न माने, अनुभव करे अथवा न करे परंतु तीनों कालों और तीनों लोकों मे यही सत्य है ।


  अयोध्याजी की बड़ी महिमा है, सप्तपुरी में सबसे बड़ी कही गई हैं । अयोध्याजी की यह महिमा कैसे हुई ? यह बड़ाई कहाँ से मिली ? श्रीरघुनाथ जी से ही उन्हें यह गौरव प्राप्त है ।


   राजा दशरथजी, कौशल्याजी, कैकेयीजी, और सुमित्राजी आदि की भी बड़ाई राघव जी से ही है । श्रीलक्ष्मणजी, श्रीभरतजी और श्री सत्रुघ्नजी की बड़ाई भी श्रीरामजी से ही है ।


  श्रीहनुमानजी महाराज की बहुत महिमा है । इनकी भी बड़ाई रघुनाथजी से है ।


श्रीचित्रकूट धाम, श्रीकामदगिरि और श्रीरामेश्वरम की भी बड़ाई श्रीरामजी से ही है । इसी तरह श्रीवशिष्ठजी, श्रीविश्वामित्रजी, श्रीवाल्मीकिजी और श्रीभारद्वाजजी आदि संतो की भी बड़ाई श्रीरामजी से ही है ।


  ये तो कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण थे । अप्रत्यक्ष में वे सभी आ जाते हैं । जिन्हें सामान्यतया लोग सीधे-सीधे रामजी से जुड़ा नहीं समझते । लेकिन अखिल व्रह्मांड में जो भी, कभी भी  और कहीं भी बड़ा हुआ है, वह श्रीरामजी द्वारा दी हुई बड़ाई से ही बड़ा हुआ है । चाहे वह देवता, मनुष्य, ऋषि-मुनि आदि कोई भी हो अथवा कोई भी रहा हो-


   रामजी की अमित प्रभुताई कीर्ति लोकों में छाई हुई है ।
   जग मे जो भी बड़ा है कहीं रामकृपा से उसकी बड़ाई हुई है ।।

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सोमवार, 1 जुलाई 2013

देत सदा प्रभु दास बड़ाई

भगवान श्रीरामजी महाराज सदा अपने दासों को बड़ाई देते हैं । ऐसी उनकी रीति और प्रीति है । वेद, पुराण, देवता, ऋषि-मुनि और लोक इसके साक्षी है । हम सब भी देखते रहते हैं । समझ भले न पाते हों ।


  ऐसा सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति के संतान नहीं थी । एक महात्मा जी आये और उन्होंने कुछ उपाय बताए अथवा आशिर्बाद दे दिया और उसके संतान हो गई । ऐसे ही मेरा वह कार्य रुका हुआ था लेकिन महात्माजी के आशिर्बाद से पूरा हो गया आदि । यहाँ हमें लग रहा है कि यह कार्य संत ने कर दिया । लेकिन वस्तुतः करते तो हमारे रघुनाथ जी हैं । वह अपने भक्त की लाज रखने के लिए उसके लोकोपकारी कार्यों को सिद्ध करा देते हैं ।


    कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो लेकिन यदि वह सोचता है कि ऐसा हमने कर दिया अथवा करा दिया या फिर मेरे आशीर्वाद से ऐसा हो गया तो यह गलत है । क्योंकि ऐसा जो होता है वह राघवजी की कृपा से ही होता है । सबकी बड़ाई रामजी द्वारा ही प्रदत्त है ।


  पुराणों में एक कथा आती है कि एक बार देवताओं के अभिमान को दूर करने के लिए भगवान ने एक तिनका रख दिया । पवन देवता आये तो अपने बारे में बताने लगे । छद्मवेशधारी भगवान ने कहा कि ठीक है इस तिनके को उड़ा कर दिखा दीजिए । पवन देवता कोशिश करके थक गए लेकिन तिनका टस से मस नहीं हुआ । इसी तरह अग्नि देवता लाख कोशिश करके उस तिनके को जला नहीं पाए । आदि । यहाँ पर यह बताने का मतलब यह स्पष्ट करना है कि देवताओं का बल भी रघुनाथजी की कृपा से है । अन्यथा वे भी कुछ नहीं हैं । ऐसे में कोई संत या महात्मा या अन्य कोई प्राणी सोचे कि मैं सब कुछ कर सकता हूँ अथवा मैंने ऐसा कर दिया तो यह तर्क संगत नहीं है । आपने ऐसा किया यह रघुनाथ जी की कृपा से हुआ है । उन्होंने ऐसा करके आपको बड़ाई दी है ।


   सब कुछ करने में समर्थ होने पर भी दास के माध्यम से कार्य करवाकर रामजी दास को बड़ाई देते हैं । इतना ही नहीं भक्त की बात रखकर भक्त को बड़ाई देते हैं । भक्त का काम पूरा करके, भक्त की इच्छा रखकर भक्त को बड़ाई देते हैं । दास को बड़ाई देना रामजी के स्वभाव में हैं । तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि रामजी पर विश्वास करके तो देखो, उन्हें अपना स्वामी बनाकर तो देखो । हमने कभी राम दास को घटते हुए नहीं देखा है । अब हम एक उदाहरण देना चाहते हैं ।



  श्रीहनुमानजी महाराज श्रीरामजी के बहुत बड़े भक्त हैं । श्रीसीताजी की हनुमानजी से खोज कराके रामजी ने हनुमानजी को बहुत बड़ाई और अपनी निश्चल भक्ति दे दिया । साथ ही हनुमानजी के ऋणी भी बन गए ।


  देश मे अनेकों हनुमान मंदिर हैं । लगभग सभी प्रतिष्ठित हनुमान मंदिर के सामने अथवा पास मे एक राम मंदिर भी होता है । श्रीहनुमान जी का दर्शन करने के पूर्व अथवा दर्शन के पश्चात पास के श्रीराम मंदिर मे माथा जरूर टेकना चाहिए । हनुमानजी का दर्शन भी तभी पूर्ण समझना चाहिए ।


   हमनें कई जगहों, जैसे श्रीसंकटमोचन हनुमान मंदिर बनारस, श्रीलेटेहनुमान मंदिर संगम और श्रीहनुमानगढ़ी अयोध्याजी, पर देखा है कि भक्तजन हनुमान जी के पास मिठाई, फूल आदि लेकर लाईन मे लगे रहते हैं । और भीड़ देखते ही बनती है । वहीं दूसरी ओर रामजी के मंदिर पर भीड़ लगभग नगण्य होती है । कई लोग तो रामजी के पास जाते भी नहीं । कई लोग जो जाते हैं तो फूल और प्रसाद पहले ही चढ़ा चुके होते हैं । तो सिर्फ रामजी के आगे हाथ जोड़कर चलते बनते हैं । इससे बड़ा और प्रत्यक्ष ‘देत सदा प्रभु दास बड़ाई’ का उदाहरण और क्या होगा ?


   यह दृश्य देखकर मेरा मन सहज ही श्रीरामजी की कृपा, दयालुता, भक्तवत्सलता और स्वभाव के बारे मे सोचने लग जाता है और कह उठता है कि ‘देत सदा प्रभु दास बड़ाई’ ।


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शनिवार, 15 जून 2013

कैसे तुम्हें रिझाऊँ

हम सब चाहते हैं कि भगवान हमसे रीझ जांय । पर ऐसा होता नहीं है । ऐसा क्यों है ? क्या भगवान रीझना ही नहीं चाहते ? अथवा क्या भगवान बदल गए हैं ? ऐसा तो बिल्कुल नहीं है-

करुणासागर की करुणा में कमी नहीं कोई आई है ।
न ही राघव ने अपनी विरद की रीति भुलाई है ।।

आखिर तब क्या कारण है ? कहते हैं कि ‘रोपा पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय’ । बबूल का पेड़ लगाकर आम खाना चाहो तो यह कहाँ सम्भव है ? आम खाना हो तो बबूल नहीं आम का ही पेड़ लगाना पड़ेगा । ठीक ऐसे ही हम लाख चाहें कि भगवान हमसे रीझ जांए तो ऐसा बिल्कुल नहीं होगा जबतक हम इसके अनुरूप काम न करें ।


   कुछ ऐसा है जिससे रघुनाथ जी रीझ जाते हैं । तभी तो शबरी, जटायु, केवट, कोल-किरात-भील और बानर-भालुओं से रामजी रीझ गए थे । हमें तो लगता है कि हमारे अंदर एक भी गुण ऐसा नहीं है जिससे रामजी रीझ सकें । इन गुणों को कैसे अपने अंदर उतारू , यह भी हम नहीं जानते । ऐसे में यदि रघुनाथजी ही कुछ करें तभी काम बन सकता है अथवा नहीं ।


 संतो ने समझ-बूझ कर बहुत कुछ करने को कहा है । ग्रंथो ने भी रास्ते दिखाए हैं । अंततः सभी का यही निर्णय मालुम पड़ता है कि जिस पर रघुनाथ जी की अहैतुकी कृपा हो जाय अर्थात जिससे रामजी रीझना चाहें उसी पर रीझ जाते है । जतनों का क्या भरोसा ?


   गोस्वामीजी ने कहा है कि कई संत-महात्मा आजीवन नाना जतन करते रहते हैं फिर भी अंत समय में राम नाम भी मुँह से नहीं निकल पाता है । वहीं दूसरी ओर कोलों-किरातों व भीलों ने क्या किया था ? गीध जटायु ने क्या किया था ? बानरों और भालुओं ने क्या किया था ? इनको रामजी ने अपना लिया । ऐसे में कहना पड़ता है कि प्रभुजी जिसको अपनी ओर से कृपा करके अपना लें वहीं उनका हो सकता है ।


   फिर भी हमें कुछ न कुछ तो करना ही होगा । हाथ पर हाथ रखकर बैठने से काम थोड़े बनेगा । न ही यह कहने से काम चलेगा कि यदि रामजी को रीझना होगा तो रीझ ही जायेंगे हम क्या करें ? हमें प्रयास करते रहना है ।  अपने अंदर उन गुणों को उतारना होगा जिससे केवट, गीध जटायु और शबरी आदि से भगवान रीझ गए थे

              
 ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

भक्ति-भाव न मेरे, भाव कहाँ से पाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

गुन हैं एक न मेरे, गुन मैं कहाँ से लाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

करम शुभाशुभ घेरे,  कैसे इन्हें भगाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

पाप बुद्धि है मेरी, कैसे स्वच्छ बनाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

मन चंचल है मेरा, कैसे इसे टिकाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

दशरथ सी आसक्ति प्रभूजी मैं कैसे उपजाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

मातु कौसल्या जैसे प्रभूजी कैसे लाड लडाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

लक्ष्मण जैसा भाव समर्पण पामर कर न सकाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

त्याग भरत सा नेह चरण में कैसे नाथ लगाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

रिपुहन जैसी प्रीति सादगी रघुवर कहाँ से लाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

सीता जैसे जीवन अपना कैसे तुम्हें बनाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

केवट सा अनुराग नाथ मैं कैसे हिय जगाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

जटायु जैसी भाग प्रभूजी कैसे भाग लिखाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

शबरी सा विश्वास भगति नव कैसे मैं उपजाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

हनुमत जैसे राम लखन सिय कैसे हिय बसाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

भोले शंकर जैसे मन को कैसे राम रमाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

तुलसी जैसा ध्यान प्रभू बिन ज्ञान कहाँ से लाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

करनी अपनी समुझि-समुझि प्रभु मैं तो लाज लजाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

जनमि-जनमि बहु दूर हुए हम पास में कैसे आऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

जैसे-तैसे जो भी बनता गुन तेरे ही गाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

संतोष समुझि गुनगन की करनी विरद ते आस लगाऊँ । ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।








चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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