सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

वेद विदित त्रिभुवन गुरू भगवान शंकर की कृपा के बिना जीव के अंदर भगवान राम की भक्ति का संचार नहीं होता


  भगवान शंकर जी की अतुलनीय महिमा है । भगवान शंकर परम वैष्णव हैं ।शंकरजी जगतगुरु और रामजी के बड़े भक्त हैं । राम जी के भक्तों पर शंकरजी की विशेष कृपा रहती है ।


  शंकर जी के भक्त तो शंकर जी की पूजा, अर्चना करते ही हैं । भगवान राम के भक्त भी शंकर जी की पूजा अर्चना करते हैं ।


  अध्यात्मिक दृष्टि से रामजी और शंकर जी में भेद नहीं है । इसलिए शंकर जी के भक्त को राम भक्त से और रामजी के भक्त को शंकर जी के भक्त से द्रोह नहीं करना चाहिए । इसी तरह भगवान राम के भक्त को शंकर जी की तथा शंकरजी के भक्त को राम जी की पूजा करनी चाहिए ।


  भगवान राम स्वयं कहते हैं कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि वह शंकरजी से द्रोह करके मुझ तक पहुँच जाएगा तो ऐसा संभव नहीं है । क्योंकि शिव द्रोही मुझे स्वप्न में भी प्राप्त नहीं कर सकता है-‘शिव द्रोही मम दास कहावा । सो जन सपनेहुँ मोहि न पावा’


  संत, ग्रंथ कहते हैं और यह स्वयं के अनुभव में आया हुआ सत्य है कि बिना शंकर जी की कृपा के जीव के अंदर राम भक्ति का संचार होता ही नहीं है । क्योंकि शंकर जी गुरुओं के भी गुरू परम गुरू, आदि गुरू, जगत गुरू हैं । शंकर जी वेद विदित त्रिभुवन गुरू हैं- ‘तुम त्रिभुवन गुरू वेद बखाना । आन जीव पामर का जाना’



   जीव पर पहले शंकर जी की और बाद में भगवान राम की कृपा होती है । शंकरजी को रामजी, राम जी का नाम, रामजी के गुण, लीला और कथा बहुत प्रिय है । शंकर जी राम जी का नाम जपने से, लेने से बहुत प्रसन्न होते हैं ।


 शंकर जी कहते हैं कि जब किसी के मुँह से ‘र’ से आरंभ होने वाला कोई शब्द निकलता है तो राम नाम के ब्याज से मेरा मन पहले ही प्रसन्न हो जाता है ।


   भगवान शंकर की दयालुता, कृपालुता किसी से भी छिपी नहीं है । हमारी तो शंकर जी से यही पार्थना है-


गिरिजारमन चन्द्रमौलि गंगाधर, तुम सम दयालु कहाँ जग माहीं ।

बिषपान कियो देखत जग संकट, नाथ तव कृपा भव रोग नसाहीं ।।१।।

तव पद सेवत नहि दुर्लभ कछु, भाविउ को प्रभु मेंटि सकाहीं ।

गिरिजा अर्धंग त्रिपुरारि त्रिलोचन, कोउ अस जो तव शरन न चाही ।।२।।

शंकर महादेव जग स्वामी, भक्तन के दुख दूर कराहीं ।

औढरदानि सुदानि बड़ो, देखत दान खुद दान लजाहीं ।।३।।

महाकाल महेश अकाम दिगम्बर, राम नाम रूचि तव मन माहीं ।

तव पद प्रेम किए बिनु कोऊ, राम चरन रति पावत नाहीं ।।४।।

आशुतोष सुखधाम प्रभू, मम अवगुन दोष धरौ चित नाहीं ।

सुत नारि समेत रहौ कृपालु, संतोष विनय करुनामय पाहीं ।।५।।
                          
।। हर हर महादेव ।।

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बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

क्या हनुमानजी का नाम प्रातःकाल नहीं लेना चाहिए ?


सामान्यतया कई लोगों के मन में एक दुविधा रहती है कि हनुमानजी का नाम प्रातःकाल लेना चाहिए कि नहीं । कई लोग ऐसा सोचते अथवा कहते हैं कि हनुमानजी का नाम प्रातःकाल नहीं लेना चाहिए । जो कि गलत है । हनुमान जी का नाम कभी भी लिया जा सकता है और लेना भी चाहिए ।


   सुन्दरकाण्ड की निम्नलिखित चौपाई-


प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलइ अहारा ।।


का अर्थ यह नहीं है कि जो हनुमानजी का नाम प्रातः काल लेता है उसे उस दिन भोजन नहीं मिलता ।


  इस चौपाई को हनुमान जी ने विभीषण जी से कहा है । इसमें हनुमानजी ने यह नहीं कहा है कि जो प्रातःकाल मेरा नाम लेता है उसे उस दिन भोजन नहीं मिलता ।


यहाँ हमारा शब्द वानर-भालु जाति के लिए आया है । जिन्हें राम जी ने अपना लिया है । हनुमानजी महाराज रामजी की करुणा का बखान करते हुए कहते हैं कि हे विभीषण जी जिन वानरों-भालुओं को विकारी समझा जाता था । जिनका नाम लेने से अशुभ होता है ऐसा माना जाता था उन्हें भी रामजी ने अपना लिया है ।


  अर्थात रामजी दीन-हीन और मलीन पर विशेष कृपा करते हैं जैसे वानरों और भालुओं पर किया है और इसलिए आपको भी चिंता नहीं करनी चाहिए । क्योंकि रामजी ने जब हम लोगों पर अपनी कृपा कर दी-अपना बना लिया तो आप पर भी कृपा जरूर करेंगे । इस प्रकार हनुमानजी ने विभीषण जी को बल दिया, धैर्य बँधाया ।


जिसे रामजी अपना लेते हैं वह सम्मानीय और पूजनीय हो जाता है । वह दूसरे को भी शुभ फल देने वाला हो जाता है । ऐसे में परम राम भक्त का नाम प्रातःकाल लेने से अशुभ कैसे हो सकता है ? अथवा उस दिन भोजन क्यों नहीं मिलेगा ? सच तो यह है कि हनुमानजी के सुमिरन से रामजी अधिक प्रसन्न होते हैं और हनुमानजी का सुमिरन करने वाले भक्त रघुवर पुर में वास प्राप्त करते हैं ।


   कुल मिलाकर यही कहना है हनुमानजी का सुमिरन प्रातःकाल भी करने में कोई दोष नहीं होता है ।  इसलिए मन में कोई भी शंका नहीं रखनी चाहिए और हनुमान जी का खुब सुमिरन और पूजन करना चाहिए ।


।।  जय श्रीहनुमानजी ।।  


रविवार, 2 फ़रवरी 2020

सीताजी की अग्नि परीक्षा- कारण और रहस्य


क्या सीताजी की कोई अग्नि परीक्षा हुई थी ? क्या सीताजी को वास्तव में अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी ? यदि हुई भी थी तो सीताजी की अग्नि परीक्षा का प्रमुख कारण और रहस्य क्या है ? सामान्यतया लोग समझते हैं कि सीताजी की अग्नि परीक्षा सीताजी के पवित्रता की परीक्षा थी । लेकिन यह बात सही नहीं है । संत और भक्त इस बात को जानते और समझते हैं ।


रावण वध के पश्चात जब सीताजी लंका से रामजी के पास आईं तो सीताजी को अग्नि में जाकर रामजी के पास आना पड़ा था । जिसे लोगों ने अग्नि परीक्षा का नाम दे दिया । जबकि यह कोई परीक्षा नहीं थी । श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों में भी अग्नि परीक्षा शब्द नहीं आया है ।


लंका में वास्तविक सीताजी गयी ही नहीं थीं । सीताजी की छाया सीता जी के रूप में लंका गई थी । जिसे प्रतिबिम्ब सीता अर्थात सीताजी का प्रतिबिम्व कहा जाता है । वास्तविक सीता जी को रामजी ने अग्नि में भेज दिया था । अर्थात अग्नि देव के पास भेज दिया था ।


  यह कोई सामान्य चरित्र नहीं है । इसे हम लोग अपने से सामान्य मनुष्य से जोड़कर नहीं देख सकते हैं । हम लोग अर्थात सामान्य मनुष्य अग्नि की लपटों को भी स्पर्श नहीं कर पाते हैं तो अग्नि में प्रवेश करना हम लोगों की पहुँच से दूर की बात है । सामान्य मनुष्य अग्नि में कैसे रह सकता है ? यह सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं है ।


  लेकिन भगवान के लिए असम्भव कुछ नहीं है । अग्नि भी भगवान का स्वरूप है । सीताजी भी भगवान का ही स्वरूप हैं । राम और सीता जो अलग दिखते हैं वास्तव में वे सीताराम अर्थात एक ही हैं । इसप्रकार सीताजी भी अग्नि में रह सकती हैं । अग्नि उन्हें जला नहीं सकती है ।


  चूँकि वास्तविक सीताजी लंका में थीं ही नहीं और प्रतिबिम्ब सीता केवल रावण वध के लिए ही अस्तित्व में आई थीं । इसलिए प्रतिबिम्ब सीता को अग्नि में भेजकर वास्तविक सीता को अग्नि से वापस लेना था ।


  इसे ही लोगों ने अग्नि परीक्षा का नाम दिया । जबकि यह घटना कोई परीक्षा नहीं थी । लेकिन यह रहस्य सबको पता नहीं था कि वास्तविक सीताजी अग्नि में हैं । इस रहस्य को देवता भी नहीं जानते थे । और रामजी अपने स्वरूप को, अपने चरित्र को स्वयं प्रगट नहीं करते । इसलिए सबके सम्मुख रामजी ने यही कहा कि तुम्हें अग्नि से होकर ही मेरे पास आना होगा ।


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि राम जी ने सीताजी को अग्नि में पहले ही रखा हुआ था । जिनको अब सबके अंतर के साक्षी रामजी प्रगट करना चाहते हैं –


सीता प्रथम अनल महुँ राखी । प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी ।।



चूँकि सीताजी अग्नि में हैं इसलिए उनका प्रागट्य अग्नि से ही होगा । अग्नि से ही उन्हें प्रगट करना पड़ेगा । यहाँ पर राम जी के अंतर साक्षी नाम को लिखकर गोस्वामी जी ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि यह कोई परीक्षा नहीं है । परीक्षा नहीं होने जा रही है । वल्कि यह सीताजी का प्रागट्य महोत्सव है । परीक्षा तो वह लेता है जिसे क्या है और क्या नहीं है यह जाँँचना होता है । जो सबके अंतर में अंतर आत्मा रूप से स्थिति है, जड़ चेतन सबके भले-बुरे कर्मो का अंतर साक्षी है । सब कुछ जनता है । वह परीक्षा क्या लेगा ? इसे गोस्वामी जी ने स्पष्ट कर दिया है ।


जब प्रतिबिम्ब सीता जी अग्नि में गईं तो प्रतिबिम्ब रूप अग्नि में ही जल गया और वास्तविक सीताजी को अग्नि देव ने प्रगट होकर रामजी को वापस कर दिया । देवता, मुनि और सिद्ध सबने देखा कि सीताजी ने अग्नि में प्रवेश किया लेकिन कोई इस रहस्य को समझ नहीं पाया कि रामजी सीताजी को अग्नि से वापस ले रहे हैं-


प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे ।

प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ।।

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग विदित जो ।

जिमि क्षीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो ।।


जो लोग अज्ञानता बस यह सोच रहे थे कि यह सीता जी के पवित्रता की परीक्षा हैं । इसमें देवता भी शामिल थे । उन लोगों ने जब सीता जी को अग्नि से बाहर निकलते देखा तो उनके समझ से सीता जी की पवित्रता प्रमाणित हो गई । इस प्रकार लोक की दृष्टि में लौकिक कलंक भी उस प्रंचड अग्नि में जल गया ।


  स्कंद पुराण में कथा आती है कि जब सीता जी को अग्नि में प्रवेश करते हुए देवताओं ने देखा तो उनके मन में आया कि ये भगवान हैं अथवा सामान्य मनुष्य । क्योंकि भगवान तो अंतरसाक्षी हैं । उन्हें प्रमाण की क्या जरूरत है ? ऐसी स्थित में प्रमाण तो सामान्य मनुष्य लेता है । देवताओं को अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय कराने के लिए रामजी ने अपने विराट स्वरूप को प्रगट किया ।


  श्रीवाल्मीकि रामायण में सीताजी को अग्नि में प्रवेश करते देख देवता बहुत चिंतित हुए । और रामजी से सीताजी को अग्नि में जाने से रोकने के लिए प्रार्थना करने लगे । और स्तुति करने लगे कि आप तो तीनों लोकों के आदि कर्ता स्वंय भगवान हैं । आदि । क्योंकि यह भेद किसी को ज्ञात नहीं था कि वास्तव में सीताजी को अग्नि में भेजा नहीं वल्कि अग्नि से वापस लिया जा रहा है ।


  जैसे क्षीरसागर ने स्वयं प्रगट होकर श्रीलक्ष्मी जी को भगवान श्रीविष्णु को समर्पित कर दिया था । ठीक उसी प्रकार अग्नि देव ने अपने स्वरूप में प्रगट होकर सीताजी को भगवान राम को समर्पित कर दिया । लेकिन लोगों ने सीताजी को अग्नि से निकलते हुए तो देखा लेकिन यह रहस्य नहीं समझ पाए कि जो सीताजी लंका में थीं  वह दूसरी थीं तथा जो अग्नि से बाहर आईं वह ही वास्तविक सीता जी  हैं । जिन्हें रामजी ने अग्नि के पास छोड़ रखा था 


।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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