सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

बुधवार, 29 अगस्त 2018

गुरजन से प्रश्न और उनका अपमान: सनातन धर्म में प्रश्न और संवाद की महत्ता को कम करना बहुत गलत परंपरा है

अपने अधिकांश ग्रंथ पूछे गए प्रश्नों के उत्तर ही हैं । संवाद के रूप में हैं । रामायण और पुराण आदि संवाद ही तो हैं । प्रश्नों के उत्तर ही हैं । लेकिन आजकल संवाद और प्रश्न की परंपरा लगभग लुप्त होती जा रही है ।



मैंने कई बार कहा है कि सनातन धर्म के मूल सिद्धांत वैज्ञानिक हैं । गणतीय हैं । यह मेरा अनुभव है । और मैंने कई बार कई उदाहरणों से इसे स्पष्ट करने का भी प्रयास किया है । मेरा यह मानना और कहना है, और कई बार कह भी चुके हैं कि गणित और विज्ञान की जानकारी होने से सनातन धर्म को और अच्छी तरह से समझा जा सकता है । कई बार ऐसा भी बोल देता हूँ कि यदि किसी को गणित ठीक से समझ में आ जाये तो उसे भगवान समझ में आ जाएँगे । और अपने यहाँ तो गणित और विज्ञान आरंभ से ही धर्म-वेद के विशिष्ट अंग रहे हैं । सनातन धर्म में आयुर्विज्ञान और गणित आदि मूल धर्म ग्रंथ के भाग हैं । अन्यत्र ऐसा मैंने नहीं सुना है ।



  शास्त्रों में कहा गया है कि गुरजनों की सेवा प्रश्नों से करनी चाहिए । आजकल बताया जाता है कि गुरु से प्रश्न नहीं करना चाहिए । प्रश्न गुरजन से नहीं करेंगे तो किससे करेंगे ? और बिना प्रश्न के विकास कैसे होगा ? ज्ञान का प्रकाश कैसे होगा ?




आजके समय में प्रश्न करना गुरु की अवमानना समझा और समझाया जाता है । जबकि गुरु कुछ कहें अथवा बताएं तो उसमें भी विनम्रतापूर्वक अपनी बात कहने में कोई गलत नहीं है ।  इससे अपमान नहीं होता है । बल्कि संशय का समन और शुद्ध ज्ञान-विज्ञान का उदय होता है ।



अपने यहाँ ऐसा भी नहीं था कि जो मैंने ज्ञान-विज्ञान और भगवान के बारे में कह दिया वही अथवा उतना ही सही है । वही अंतिम सत्य नहीं माना जाता था । इदिमिथ्यम, नेति-नेति और चरैवेति-चरैवेति इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । नित नूतन ज्ञान-बिज्ञान की ओर अग्रसर होना और अंधकार से प्रकाश की ओर जाना सनातन धर्म का मूल लक्ष्य है ।



कुल मिलाकर प्रश्न करना, सुनना और उत्तर देना एक स्वस्थ परंपरा के जरूरी अंग थे । इसकी महत्ता को बनाये रखना और प्रोत्साहित करना चाहिए । इससे सनातन धर्म को जीवटता मिलेगी और लोग अधिक लाभांवित हो सकेंगे ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


मंगलवार, 28 अगस्त 2018

रामजी किसपर अपने हाथों की छाया कर देते हैं


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि विश्वामित्रजी के, अहिल्याजी के और राजा जनकजी आदि के बड़े सोच को रामजी ने पल में दूर कर दिया । रामजी सोचविमोचन हैं । वे जन के सोच को दूर कर देते हैं ।



रामजी के शील की सराहना जितनी की जाय उतनी कम है । बालि और रावण भी अपने भाइयों की कथा सुनकर राम जी के शील की सराहना करते हैं । राम जी सुसाहिब हैं और शत्रु भी उनके शील की सराहना करते हैं -‘शत्रु सुसाहिब शील सराहैं’



गोस्वामीजी कहते हैं कि रघुनायक भगवान राम की ऐसी अगणित अनुपम गुनगाथायें हैं । दीन हीन पर कृपा करने का उनका स्वभाव है । दर-दर की ठोकर खाने वाले को राम जी की दर पर सहारा मिल जाता है । ऐसा युगों-युगों से है ।



जिससे सारे  संसार ने मुँह फेर लिया हो, विधाता ने मुँह फेर लिया हो और क्या कहें भाग्य ने मुँह फेर लिया हो राम जी उसके सम्मुख हो जाते हैं । ऐसे आरत, दीन और अनाथ पर रामजी अपने हाथों की छाया कर देते हैं-



 ‘आरत दीन अनाथनि पर रघुनाथ करैं निज हाथ की छाहैं’ ।
                      
                                            -कबितावली ।


।। जय श्रीराम ।।


शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

मस्तक पर लगा तिलक झलकना चाहिए


सनातन धर्म में तिलक लगाने के भी नियम हैं । आकार और प्रकार हैं । रूप और प्रारूप हैं । भिन्न-भिन्न परम्पराओं में अलग-अलग तरह के तिलक लगाये जाते हैं । प्रत्येक सनातन धर्मी को तिलक लगाना चाहिए । और यहाँ पर हम साधरण लोगों द्वारा लगाये जाने वाले तिलक के बारे में बता रहे हैं ।


कई लोग तिलक लगाते तो हैं लेकिन पता ही नहीं चलता कि तिलक धारण किए हुए हैं । अथवा बहुत ध्यान से देखने पर पता चलता है कि तिलक लगाए हुए हैं । तिलक लगाने पर यह पता चलना चाहिए कि ये तिलक धारण किए हुए हैं ।


 तिलक हमेशा स्पष्ट और दिखने वाला होना चाहिए । गोस्वामी जी ने स्वयं राम जी के रूप का वर्णन करते हुए कहा है कि-‘भाल विशाल तिलक झलकाहीं’ । तिलक झलकना चाहिए । अर्थात तिलक दिखने वाला होना चाहिए और बहुत छोटा नहीं होना चाहिए ।


एक बार एक आदमी ने मुझसे पूछा कि आप तिलक क्यों लगाते हो तो मैंने जबाब दिया कि जो लोग भगवान को नहीं मानते उनके भी मन में तिलक देखकर यह बिचार तो आता है कि ये भगवान को मानते हैं और भगवान के नाम का तिलक लगाए हैं । इससे ऐसे नास्तिकों का भी थोड़ा-बहुत लाभ होता है क्योंकि एक पल के लिए ही सही उनके मन में भगवान के बारे में बिचार तो उठता ही है । कुछ नहीं तो इतना ही कि ये भगवान को मानते हैं और भगवान के नाम का तिलक लगाए हुए हैं ।


  एक बार एक लोग ने विनोद में कहा कि आप भी औरतों की तरह मांग भरकर आ जाते हो । तब मैंने उनसे कहा कि आप ने ठीक ही कहा । क्योंकि जैसे सौभागिनी स्त्रियाँ विवाह हो जाने के बाद अपने पति-स्वामी के नाम का सिन्दूर लगाती हैं ठीक वैसे ही मैं भी रामजी के नाम का तिलक लगाता हूँ । जैसे पति अपनी विवाहिता पत्नी का सार-संभार करता है ठीक वैसे ही रामजी मेरा सार-संभार करते हैं । यह उन्हीं के नाम की मांग है-‘स्वामी मेरे राम स्वामिनी सीता माता’-विनयावली



कुल मिलाकर तिलक अवश्य लगाना चाहिए और ऐसा लगाएँ कि स्पष्ट दिखे । दूर से ही अवलोकित हो  बिना झलके तिलक की शोभा नहीं होती है ।



।। जयश्रीराम ।।

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष और महाफल देने वाले श्रीरामचरितमानसजी की वंदना


श्रीरामचरितमानसजी सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं । सुख-शांति देने वाले हैं । अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष देने वाले हैं । इन सबसे अधिक श्रीरामचरितमानसजी महाफल यानी श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों में प्रेम और भगवान राम की भक्ति देने वाले हैं ।


   श्रीरामचरितमानसजी की अतुलित महिमा है । भगवान राम जितनी महिमा है । अर्थात अनंत महिमा है । इनकी वंदना करना रामजी की वंदना करने के समान है । इनका यश गाना रामजी के यश गाने के समान है ।


   श्रीरामचरितमानसजी की कथा अथवा पाठ से पूर्व इनकी वंदना करनी चाहिए । कथा और पाठ के पूर्व ग्रंथ और ग्रन्थकार दोनों की वंदना होनी चाहिए । ग्रंथ की महिमा का वर्णन करना चाहिए । इसीप्रकार पाठ और कथा के अंत में भी ग्रंथ महिमा का वर्णन किया जाता है ।


 गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्वयं ग्रंथ के आरंभ और अंत में श्रीरामचरितमानसजी की महिमा का वर्णन किया है । ऐसा प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है । अतः ग्रंथ की वंदना करनी चाहिए और महिमा का गायन करना चाहिए ।


  हम यहाँ पर विनयावली से श्रीरामचरितमानसजी की वंदना और मंगलगीत से श्रीरामचरितमानसजी की महिमा को उदधृत कर रहे हैं ।



।। श्रीरामचरितमानसजी की वंदना ।।


वन्दौं श्रीरामचरितमानस विमल ।

ज्ञान-विज्ञान, धर्म-कर्म जेहि सर विकसे सुंदर कमल ।।१।।

सर्व साधारण, साधु, विद्वान प्रिय खोलत मति पटल ।

दारुण कलिकाल महुँ भव पार हेतु सम्बल सरल ।।२।।

सप्त सोपान युत सुंदर सरोवर शिव-शिवा महिमा कहत ।

सादर निमज्जत राम पद अनुराग जग कोउ नहि लहत ।।३।।

अनुपम भगति-विराग संजुत कहत सुनत समुझत बनत ।

अति पठनीय पढ़त सुख शांति संतोष सहजेहिं मिलत ।।४।।

                               -विनयावली-४/१-४



।। श्रीरामचरितमानसजी की महिमा ।।


परम सुहावन अति मनभावन, निर्मल सर सुखदाई  
                         चलो मन जाके नहाई ।।

अतिसय पावन शिव मनभावन, गिरजहु  रहीं लुभाई  
                         चलो मन जाके नहाई ।।

सात रुचिर सोपान मनोहर, राम भगति पथ भाई । 
                          चलो मन जाके नहाई ।।

सियाराम यश सुधा जल सोहै, प्रभु महिमा गहराई । 
                            चलो मन जाके नहाई ।।

देखे ज्ञान नयन सुख उपजै, रामचरन रति दाई । 
                             चलो मन जाके नहाई ।।

काम क्रोध मद मोह नसाए, ज्ञान विराग बढ़ाई । 
                              चलो मन जाके नहाई ।।

पाप दोष दुःख ताप मिटाए, अद्भुत जल सितलाई । 
                                चलो मन जाके नहाई ।।

प्रेमसहित अवगाहत यह सर, सब कलि-कलुष नसाई  
                                 चलो मन जाके नहाई ।।

सादर मज्जन-पान किये से, भवबाधा मिट जाई  
                               चलो मन जाके नहाई ।।

सुंदर-सुगम मुद-मंगलदायक, अगम किये जड़ताई  
                                 चलो मन जाके नहाई ।।

श्रीरामचरितमानस यह सरवर, तुलसी जग सुगम बनाई  
                                    चलो मन जाके नहाई ।।

सुजन-साधु जानत सर महिमा, संतोष कहाँ लगि गाई  
                                     चलो मन जाके नहाई ।।

                                            -मंगलगीत- १


 ।। जय श्रीसीताराम ।।


रविवार, 19 अगस्त 2018

महाफल यानी सबसे बड़ा फल: चार फलों (पुरुषार्थों) से महत्वपूर्ण पाँचवा फल( पुरुषार्थ) जिसे प्राप्त कर लेने पर कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता है


चार फल के बारे में लोग जानते हैं । इन्हें चार पुरुषार्थों के नाम से भी जाना जाता है । ये हैं- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष । यह कम लोग जानते हैं कि इनसे भी महत्वपूर्ण एक फल होता है जिसे महाफल कहते हैं । यह महाफल यानी सबसे बड़ा फल होता है । इससे अधिक जीवन में और कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है । अर्थात यह प्राप्त हो जाय तो कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता है ।

                  
 अब प्रश्न यह है कि वह कौन सा फल है जो सबसे महत्वपूर्ण यानी महाफल है । बिना जाने इसे प्राप्त करने का प्रयास भी तो नहीं कर सकते । इसलिए सबसे पहले यह जानना होगा कि सबसे बड़ा फल यानी महाफल क्या है ?


विनयपत्रिकाजी में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि-

करिहैं राम भावतो मन को, सुख-साधन, अनयास महाफल


यह महाफल क्या है ?

अरथ धरम न काम रूचि गति न चहौं निर्बान ।
जनम जनम रति राम पद यहि वरदान न आन ।।


श्रीसीताराम जी के चरणों में प्रेम ही महाफल है । गोस्वामीजी की और कोई कामना थी क्या ? बस एकमात्र यही कामना थी । यही उनके मन को भाता था-करिहैं राम भावतो मन को  



 भरतजी भी महाफल ही चाहते थे । उन्हें चार फलों की चाह नहीं थी । इसप्रकार श्रीसीतारामजी के चरण कमलों में प्रेम प्राप्त कर लेना महाफल प्राप्त कर लेना है । और जब और जिसे यह प्राप्त हो जाता है तो उसे और कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता । धन्य हैं वे लोग जो मानव जीवन पाकर महाफल प्राप्त कर लेते हैं ।



।। जय सियाराम ।।





शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

जन-जन के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाले संत तुलसीदास


सामान्यतया संसार में लोग माया-मोह में फँसे होते हैं । और फँसे-फँसे ही संसार से चले भी जाते हैं । संसार में रहकर नाना कष्टों का सामना करते हैं । सुख की तलाश में जीवन व्यतीत हो जाता है । ईर्ष्या, छल, प्रपंच, लड़ाई-झगड़ा आदि में लगे हुए जीव को भला सच्चा सुख कैसे मिल सकता है ?

          
  गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज को लोगों की ऐसी दशा देखकर बहुत पीड़ा होती थी । लेकिन समाधान कैसे हो ? सच्चे सुख की प्राप्ति केवल और केवल रामजी की भक्ति से ही संभव है । लेकिन इसके लिए कोई सहज सुगम मार्ग लोगों को उपलब्ध नहीं था । नाना मत, नाना पंथ और नाना ग्रंथ और ग्रंथों तक सबकी पहुँच भी नहीं थी ।


  ऐसे में जन-जन के कल्याण का मार्ग कैसे प्रशस्त हो ? राम भक्ति का मार्ग सबके लिए कैसे सुलभ हो ?


 गोस्वामी जी केवल अपने लिए सुख-शांति नहीं चाहते थे । केवल अपना उद्धार नहीं चाहते थे । वे जन-जन का कल्याण चाहते थे । सबका उद्धार चाहते थे । वे चाहते थे कि लोगों को एक ऐसा मार्ग मिल जाय जिस पर चलकर लोग अपना कल्याण करते रहें ।


राम भक्ति का मार्ग जन-जन के लिए सुलभ करने का कार्य लकीर का फकीर बनकर नहीं किया जा सकता था । इसलिए संत तुलसीदास जी ने लोगों के विरोध के बावजूद भी दो ग्रन्थ रत्न- श्रीरामचरितमानस और श्रीविनयपत्रिका  जनता को सरल भाषा में सुलभ करा दिए । वे जानते थे कि आगे आने वाले समय में संस्कृत को जानने और समझने वाले लोग बहुत कम हो जाएँगे । ऐसे में सनातन धर्म का सही सिद्धांत जन-जन तक कैसे पहुँचेगा ? श्रीराम भक्ति का मार्ग जन-जन के लिए कैसे खुलेगा ?


 गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्पष्ट कर दिया कि राम जी की भक्ति का मार्ग सबके लिए खुला है । कोई भी हो । चाहे जिस देश जाति का हो ?  कोई भी स्त्री, पुरुष, नपुंसक, चर-अचर इस पथ का पथिक बन सकता है और अपना कल्याण कर सकता है ।


  उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन बहुत छोटा है इसलिए नाना मत, पंथ और ग्रंथ के चक्कर में मत पड़ो । भागो मत । भटको मत । बस विश्वास करके रामजी के चरणों में अनुराग करो । और इसके लिए श्रीरामचरितमानस जी का अनुकरण करो और राम-राम करो । इससे जीवन सात्विक हो जायेगा । कष्ट धीरे-धीरे कम हो जाएँगे । मन में सुख शांति आ जायेगी और परलोक भी सुधर जाएगा-


 नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू” ।।




।। जय श्रीसीताराम ।।

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

पवनतनय के चरित सुहाए-२३ (श्रीहनुमानजी महाराज का माता सीता से विदा लेकर भगवान श्रीराम के पास वापस प्रस्थान करना)


हनुमानजी महाराज ने माता सीता से कहा कि हे माता जिस तरह रघुनायक भगवान श्रीराम ने मुझे पहचान के लिए अगूंठी दिया था । वैसे ही आप भी मुझे पहचान के लिए कोई चिंह दीजिए । माता सीता ने हनुमानजी को अपनी चूड़ामणि उतार कर दिया जिसे हनुमानजी ने हर्षित होकर ले लिया ।

सीताजी ने हनुमानजी से कहा कि हे तात मेरा प्रणाम निवेदित करके ऐसा कहना कि हे प्रभु रामचन्द्रजी आप तो हर तरह से पूरणकाम हैं । अर्थात आपकी अपनी कोई कामना नहीं है । परंतु आप दीनों-भक्तों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हो । हे दीनों पर दया करने वाले रामजी, हे नाथ आप अपने विरद को याद करके मुझ पर आए हुए बड़े संकट का हरण कर लीजिए ।

हे तात आप रामजी को इंद्रपुत्र जयंत की कथा सुनाना और राम जी के वाण का प्रताप प्रभु राम को समझाना । अर्थात कहना कि हे प्रभु जयंत ने जब माता सीता को चोंच मारकर अपराध किया था तो आपने उस पर बिना देर किए ही वाण चला दिया था । और रावण ने तो माता सीता का हरण करके आप से दूर कर दिया है । रावण का अपराध बड़ा है । फिर भी आप ढ़ील क्यों दिए हो । देरी क्यों कर रहे हो । मैं दीन हूँ । और दुष्ट यहाँ मुझे परेशान कर रहे हैं । आप दीनों पर दया करने वाले हैं । मुझ दीन पर भी दया करके मेरे कष्टों का अंत कर दीजिए ।

  प्रभुजी आपके वाण की बड़ी महिमा है । आपने तो जयंत के ऊपर सींक के धनुष पर सींक का सर संधान करके छोड़ दिया था । जो उसका तीनों लोकों में पीछा करता रहा । देवराज इंद्र, भगवान शिव, जगतपिता व्रह्माजी आदि भी उसको ठौर नहीं दे सके । अंत में जब वह आपकी शरण में आया तो उसकी एक आँख फोड़कर आपने उसे जीवनदान दे दिया । आप इतने समर्थ हैं कि वहीं से सर संधान करके रावण और उसकी सेना का अंत कर सकते हैं फिर भी मेरे लिए देर क्यों कर रहे हैं ।

सीताजी ने आगे कहा कि यदि एक महीने के भीतर रामजी ने मेरी सुधि नहीं लिया, यहाँ नहीं आए तो मुझे जीवित नहीं पाएँगे । हे हनुमान मैं अपने प्राणों को किस प्रकार धारण करूँ । अब तो तुम भी जाने के लिए कह रहे हो । तुम्हें देखकर ह्रदय में शीतलता आई थी । लेकिन अब तुम्हारे जाने के बाद मेरे लिए फिर से वही रात और दिन होंगे । अर्थात तुमसे मिलकर और प्रभु का संदेश पाकर मैं हर्षित थी लेकिन अब फिर से वही दुःख भरे दिन और रात आ जायेंगे यानी दुष्ट जन सतायेंगे और प्रभु से दूरी कष्ट देगी ।

हनुमानजी जी ने माता जानकी को समझा-बुझाकर अनेक तरह से धीरज धारण कराया । और सीताजी के चरणों में प्रणाम करके भगवान श्रीराम के पास प्रस्थान किया ।

(शेष भाग-२४ में ।)


।। जय श्रीसीताराम ।।

रविवार, 5 अगस्त 2018

श्रीरामकथा को काम कथा नहीं बनाना चाहिए


श्रीराम कथा जन-जन को पावन करने वाली, मनभावन भगवान श्रीराम से जोड़ने वाली, और सबको दुखों से छुड़ाने वाली है । यह बहुत ही पवित्र कथा है जिसे बहुत ही अच्छे भाव से कहने और सुनने की जरूरत रहती है-‘अतिसय पावन शिव मन भावन गिरजहुँ रहीं लुभाई’ (मंगलगीत) ।

                        
 इसलिए श्रीराम कथा को काम कथा नहीं बनाना चाहिए । इसे बड़े ही भक्ति भाव से ज्ञान-विज्ञान, वैराग्य और मर्यादा के अनुरूप कहना सुनना चाहिए ।


  श्रीसीताजी की खोज के प्रसंग पर एक वक्ता प्रवचन कहते हुए कह रहे थे कि अंगदजी लंका चले तो जाते लेकिन वापस आने में संशय था । उन्होंने जामवंतजी से कहा कि मैं चला तो जाऊंगा लेकिन वापस आ पाऊंगा कि नहीं यह निश्चित नहीं है । इसमें संशय है । जामवंत जी ने कहा कि क्यों संशय है ?


 तब अंगदजी ने आगे कहा कि मैं बहुत कामी हूँ । और लंका में बहुत सुंदर-सुंदर देव, नर, दानव, यक्ष, गंधर्व, नाग आदि की कन्याएं हैं । युवतियां हैं । ऐसे में अगर मैं वहाँ चला गया तो हो सकता है कि कामी होने के कारण मैं किसी के चक्कर में फँस कर वहीं रह जाऊँ और वापस न आ पाऊं ।


 कोई दशरथजी को कामी बताकर चला जाता है तो कोई अगंदजी के लंका से  वापस न आ सकने में जो संशय है उसका कारण उनका कामी होना बता देता है । और थोड़ा घटा-बढ़ाकर कह देता है । यदि अंगदजी के संशय का कारण उनका कामी होना ही होता तो वे दूत बनकर लंका क्यों जाते ? उस समय तो अंगदजी ने वापस आने में कोई संशय की बात क्यों नहीं किया ? सभी कन्याएं व युतियाँ तब भी तो लंका में ही थीं । लेकिन अपने नाम का प्रस्ताव होते ही अंगदजी अपने को धन्य मानते हुए हर्षित होकर लंका जाने के लिए तैयार हो गए । और गए भी । और दूत का कार्य सम्पूर्ण करके सकुशल प्रभु के पास वापस आ गए 


 मुझमें न तो साधुता है, न भक्ति है, और न ही समुचित ज्ञान ही है और न ही  वैराग्य है । न ही भगवान श्रीराम का और न ही उनके दासों का भी दास बनने की योग्यता है—‘दासहुँ जोग नहीं गुन कोई’- विनयावली । फिर भी जो थोड़ा-बहुत मेरे बिचार में आता है, मन को भाता है उसके अनुरूप निवेदन कर देता हूँ ।


कुलमिलाकर जहाँ तक मेरे समझ में आता है उसके अनुसार श्रीराम कथा बड़ी सावधानी से प्रेम, भक्ति, ज्ञान-विज्ञान और वैराग्य के दायरे में कहना ही उत्तम है । और ऐसा करने से ही कहने और सुनने वालों का समुचित कल्याण हो सकेगा ।



।। जय सियाराम ।।



गुरुवार, 2 अगस्त 2018

श्रीरामचरितमानस अर्थ और व्याख्या-४: भाव और प्रभाव


जैसे भगवान श्रीराम भाव प्रधान देवता हैं । ठीक वैसे ही श्रीरामचरितमानसजी भी भाव प्रधान हैं । और भाव के अनुसार ही श्रीरामचरितमानस जी के सुनने और कहने का प्रभाव भी होता है ।


  जो जिस भाव से पढ़ता, सुनता और सुनाता है वैसा ही फल यानी प्रभाव भी होता   है । इसलिए ही कहने सुनने में सावधानी होनी चाहिए ।


उदाहरण के लिए कुछ लोग कहते अथवा कह देते हैं कि गोस्वामीजी ने रामायण में कुछ जोड़-तोड़ करके श्रीरामचरितमानसजी की रचना कर दिया है । लेकिन ऐसा कहना, मानना, सोचना, बताना उत्तम पक्ष को नहीं दर्शाता है । वैसे भी जोड़-तोड़ का सामन्यतया अच्छे सम्बंध में प्रयोग नहीं किया जाता है । अतः श्रीरामचरितमानसजी के लिए ऐसे शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।


  श्रीरामचरितमानसजी की रचना भगवान शंकर ने स्वयं किया है-‘रचि महेश निज मानस राखा’ । इतना ही नहीं श्रीरामचरितमानसजी का नामकरण भी भगवान शंकरजी ने ही किया है-‘ताते रामचरितमानस वर । धरेउ नाम हिय हेरि हरष हर’ । गोस्वामीजी तो शंकर जी के उपदेश से जन-जन को उपलब्ध कराने के लिए निमित्त मात्र बने हैं-‘शंभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी । रामचरितमानस कवि तुलसी  ऐसे में श्रीरामचरितमानसजी के लिए जोड़-तोड़ जैसे शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है ।


जो गोस्वामी तुलसीदासजी की कोटि के संत होते हैं उनके ह्रदय में भगवान की लीला कथा स्वतः प्रगट होती है । और जैसे प्रगट होती है, जैसा उनके चिंतन में आता है वे उसे वैसा ही लिख देते हैं । फिर इसमें जोड़-तोड़ की बात कहाँ से आती है ।


 इतना ही नहीं श्रीरामचरितमानसजी सभी सद्ग्रंथों के सार हैं । और सार सर्वोत्तम और अधिक उपयोगी होता है । जैसे दूध का सार माखन है वैसे ही सद्ग्रंथो का सार श्रीरामचरितमानसजी हैं-‘सार अंश सम्मत सबही की’ । श्रीरामचरितमानसजी पर सबकी सम्मति है । पहुँचे हुए भक्त-संत, नारद, शारद इत्यादि जितने बड़े विशारद हैं सबकी सम्मति है । 


  अधिक क्या कहें जिस ग्रंथ पर भगवान महादेव ने स्वयं 'सत्यम शिवं सुंदरम’ लिखा हो उस ग्रंथ के लिए जोड़-तोड़ जैसे शब्द का प्रयोग कितना उचित है ?



।। जय सियाराम ।।

बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीरामचरितमानस अर्थ और व्याख्या-३: प्रवचन-कथा में अनर्थकारी भूल से समुचित कल्याण कैसे होगा


एक बार कैकेयी जी के कोप भवन जाने के प्रसंग पर श्रीरामचरितमानसजी से प्रवचन चल रहा था । इस प्रसंग के दौरान प्रवचन कर्ता (जो ख्यातिप्राप्त हैं ) ने कहा कि जिस घर के बूढ़े ऐसे होंगे उस घर का क्या होगा ? अर्थात वहाँ तो उथल-पुथल और अनर्थ तो होंगे ही ।


मैं बहुत ही विन्रमता पूर्वक निवेदन कर रहा हूँ कि राजा दशरथ गृहस्थ संत थे । उन्हें कामी समझना अथवा समझाना अनर्थकारी है । राजा दशरथ जैसे बूढ़े हो जाएँ तब तो घर वैकुण्ठ से भी बढ़कर हो जाएगा  लेकिन राजा दशरथ जैसा कोई बन ही नहीं सकता   राजा दशरथ जैसे केवल और केवल दशरथ जी ही थे  उनके जैसा तीनों कालों में कोई भी नहीं हो सकता है  


 सोचने वाली बात है कि रामजी दशरथ जी के यहाँ ही क्यों प्रगट हुए ? कहीं और क्यों नहीं हुए ? इसका एक कारण- राजा दशरथ जी और कौशल्या जी पूर्व जन्म के  मनुजी और शतरूपाजी थे । जिन्होंने रामजी से रामजी को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान ले लिया था ।


  दूसरे राजा दशरथ सामान्य गृहस्थ नहीं थे । वे गृहस्थ संत थे । वे रघुकुल के मणि थे । वेदों में प्रसिद्ध थे । वेद उनके गुणों का वर्णन करते थे । वे धर्म धुरंधर थे । गुणों के भंडार और ज्ञानी थे । उनके हृदय में रामजी की भक्ति थी । उनकी बुद्धि रामजी में ही लगी रहती थी-


  अवधपुरी रघुकुलमनि राऊ । वेद विदित तेहिं दशरथ नाऊ ।।

धर्मधुरंधर गुननिधि ज्ञानी । हृदय भगति मति सारंगपानी ।।



  इतना ही नहीं राजा दशरथ गुरु, विप्र, गाय और देवताओं की सेवा करने वाले थे  वशिष्ठ जी ने कहा है कि  राजा दशरथ जैसा पुण्यात्मा न पहले हुआ है, न है और न होगा । भरद्वाजजी ने कहा है कि दशरथजी के गुणसमूहों का वर्णन नहीं किया जा सकता । अधिक क्या कहा जाय दशरथ जी की बराबरी का जगत में कोई दूसरा नहीं है-दशरथ गुनगन वरनि न जाहीं । अधिक कहा जेहि सम जग नाहीं  




ऐसे संत समान राजा दशरथ को कामी समझना और समझाना अनर्थकारी है । गृहस्थ व्यक्ति को अपने परिवार में प्रेम रखना बुरा नहीं है । परिवार में आसक्ति नहीं होनी चाहिए । दशरथजी को केवल राम जी में ही आसक्ति थी । रामजी उनको प्राण से अधिक प्रिय थे । ऐसे में जिनकी मति सदैव रामजी में ही लगी रहती थी उन राजा दशरथ को कामी समझना व समझाना बहुत बड़ी भूल है । इए तरह के प्रवचन सुनने व सुनाने से समुचित कल्याण कैसे होगा ?


श्रीरामचरितमानस जी के मूल सिद्धांतों के अनुसार वही मानने योग्य है, आदर के योग्य है, बड़ाई के योग्य है, वही प्रिय है जिसे रामजी प्रिय हैं । जो रामजी से जोड़े सो अपना और जो रामजी से अपने को दूर करे वह अपना नहीं है ।


  कैकेयी जी को रामजी बहुत प्रिय हैं । और रामजी कैकेयी माता को बहुत मानते हैं । इसलिए ही राजा दशरथ जी का कैकेयी के प्रति अनुराग था । जब कैकेयी ने राम वनवास का वरदान ले लिया तो राजा दशरथ उनसे दूर हो गए । और कैकेयी उनके अनुराग की अधिकारिणी नहीं रह गईं । प्रेम पात्र नहीं रह गईं । तुरंत तिरस्कार के योग्य हो गईं 


मानस जी के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखकर इस प्रसंग के सभी बातों को भक्ति-वैराग्य और रामजी के प्रेम के दायरे में घटाना पड़ेगा । जो मानसजी के मूल भाव के अनुकूल होने से सटीक होगा । अन्यथा दशरथजी जैसे संत को कामी समझने अथवा समझाने से अनर्थ ही होगा । और कथा सुनने और सुनाने वाले का समुचित कल्याण कैसे हो पायेगा ?




।। जय श्रीराम ।।



चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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