जितने भी साधु-संत, ऋषि-मुनि और गृहस्थ आदि हैं
उनको संसार से तरने और भगवान से जुड़ने का योग, संयोग, विवेक आदि शंकर जी की कृपा
से ही मिलता है ।
संसार
में जन्म हो जाता है । लोग आजीविका के लिए कार्य करके, खा-पीकर, घूमकर जीवन बिता लेते हैं
और अचानक अंत समय आ जाता है लेकिन संसार में रहकर भगवान से भी जुड़ना चाहिए । यह भी एक बहुत जरूरी
कार्य है । इसका विवेक ही नहीं उत्पन्न हो पाता ।
किसी-किसी को यह विवेक
उत्पन्न होता है और जिस किसी को यह विवेक उत्पन्न होता है उसे शंकर जी की कृपा से
ही यह विवेक उत्पन्न होता है- ‘बहु जन्म उपायन कर अनेक बिनु शिव कृपा नहिं भव
विवेक’ ।
कुलमिलाकर
भगवान शंकर की ही कृपा से लोग भगवान से जुड़ते हैं, भक्ति में लगते हैं और संसार
सागर से तरते हैं । विभीषण जी जब तपस्या कर रहे थे उस समय भी ब्रह्मा जी के साथ
शंकरजी विभीषण जी को वरदान देने आए थे और विभीषण जी को भक्ति का वरदान मिला था ।
इसके बाद विभीषणजी लंका में ही रहते आ रहे थे ।
सत्य, नीति और धर्म के रास्ते पर चल रहे थे । और अपने बड़े भाई रावण को भी धर्म के
रास्ते पर लाना चाहते थे । लेकिन सफल नहीं हुए ।
जब
विभीषण जी को रावण ने लात मारा और लंका से निकाल दिया तब विभीषण जी के पास कोई
रास्ता ही नहीं बचा था कि कहाँ जाएँ और क्या करें ? रावण का इतना प्रभाव था कि कोई
भी उसके विरोध में नहीं जा सकता था । कोई भी देवता, नाग, यक्ष, दानव, असुर आदि
विभीषण जी को नहीं रख सकता था- ‘राखि विभीषण को सके तेहि काल कहाँ को’ ।
विभीषण जी पहले अपनी माता के पास गए और उन्हें
सारी स्थिति और परिस्थिति से अवगत कराया । फिर अपने भाई कुबेर जी के पास गए और
उन्हें सारा हाल बताया । यही प्रश्न था कि क्या किया जाय ?
विभीषण
जी और कुबेरजी सोच-विचार कर ही रहे थे और उन्हें शंकरजी के दर्शन हुए । शंकरजी
बोले वत्स विभीषण ज्यादा सोच-विचार करने की जरूरत नहीं है और न ही भगवान के पास
जाने में किसी विशेष मूहूर्त की ही जरूरत होती है । सारी शंकाओं को त्याग दो और
असरन-सरन भगवान श्रीराम की शरण में चले जाओ ।
इस प्रकार जब विभीषण जी सोच-विचार में पड़े थे,
शंका में घिरे थे तब एक बार फिर उन्हें शंकर जी की कृपा प्राप्त हुई । और
शंकर जी ने आकर श्रीराम शरण में जाने का मार्ग प्रशस्त किया जो विभीषण जी के लिए
केवल एक मात्र विकल्प और परम कल्याणकारी था । फिर विभीषण जी रामजी की शरण में चल दिए –
चलो रे मन श्रीराम की शरन ।
सबबिधि लायक श्रीरघुनायक, आरत आरति हरन ।।
अगजग नायक दीन सहायक, अघ अरु दोष दलन ।
करुणासागर विरद उजागर, सियावर शील सदन ।।
दीन मलीन नहीं जग कोई, आश्रय एक चरन ।
सबबिधि हीन नहीं गुन एको, सुजस सुने श्रवन ।।
शरन शबद सुनि प्रभुजी रीझत, फेरत नाहीं वदन ।
बानर भालु निसाचर राखे, दीनन भीर भवन ।।
सरल स्वभाव ठकुरई न जानैं, दीनन प्रीति गहन ।
राम स्वभाव रीति उर धरिये, तजि अघ दोष डरन ।।
दीन संतोष नहीं बल मोरे, जप तप आदि भजन ।
असरन सरन विरद बल जीवत, रखिए हेरि जतन ।।
।। हर हर महादेव ।।