साधारण अथवा संसारिक प्रतिष्ठा की क्या बात किया जाय गोस्वामीजी कहते थे कि शिवजी और विष्णुजी बन जाना भी मुझे भला नहीं लगता है । भला लगता है तो राम जी का गुलाम, सेवक बनकर जीने में ।
कहते थे कि मैं स्वयं अपने को राम जी का सेवक कहता हूँ और दूसरे से कहलवाता भी हूँ । अर्थात किसी को ऐसा कहने से मना नहीं करता हूँ । क्योंकि मुझे यह बहुत अच्छा लगता है । लेकिन सेवक का स्तर स्वामी के अनुरूप तो होना चाहिए । बड़े स्वामी का सेवक बनने की पात्रता तो होनी चाहिए । कहाँ दीन हीन तुलसी और कहाँ अग-जग के नायक, 'शिवहिं शिवता, हरिहिं हरिता, विधिहिं विधिता जो दई' की प्रभुता वाले राम जी । ऐसे रामजी जिनके एक अंश मात्र से अनेकों शंकरजी, विष्णुजी और व्रह्माजी उत्पन्न हो जाते हैं- शंभु बिरंचि विष्णु भगवाना । उपजहिं जासु अंस ते नाना ।।
कहते थे की मेरी इस धृष्टता से राम जी को उपहास सहना पड़ता है । क्योंकि जिसकी सेवा में बड़े-बड़े मुनि और देवता रहते हैं, तुलसी सरीखा व्यक्ति अपने को उन रामजी का सेवक कहता और कहलवाता है ।
कहते थे फिर भी राम जी बड़े कृपालु हैं । उन्होंने पत्थर को भी जलयान जैसा बनाकर तरने और तारने वाला बना दिया है । वानरों और भालुओं को भी बुद्धिमान मंत्री बना लिया है । ऐसे में वे अपने इस मूर्ख सेवक की भी प्रीति और रूचि को रख लेंगे । अर्थात मुझे भी अपना लेंगे ।
रामजी ऐसे तुलसीदासजी से नहीं रीझते तो फिर और किससे रीझते ? सरलता और दीनता की पराकाष्ठा तुलसीदासजी से राम जी रीझ ही गए । धन्य हैं गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज । उनका चरित्र । उनकी रहनी । उनकी सरलता । उनकी दीनता । यदि यह कहा जाय कि उनकी दीनता पर राम जी रीझ गए तो यह कहना गलत नहीं होगा । उनके ग्रंथ इस बात के प्रमाण हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का सम्पूर्ण मानव जाति पर और खासकर सनातनधर्मियों पर अनंत उपकार हैं । समस्त सनातन समाज सदा उनका आभारी रहेगा ।
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