ग्रंथों के अनुसार जिस प्रकार नाम और नामी में कोई अंतर नहीं
है उसी प्रकार धाम और धामी में भी कोई अंतर नहीं है । अतः धाम में निष्ठा डिगना
ईष्ट में निष्ठा डिगने के बराबर है ।
पहले के समय में परिपक्वता आ जाने पर साधु-संत समाज की ओर रुख करते थे । इस तरह का शास्त्र सम्मत नियम है । इसलिए गुरजनों का ऐसा ही आदेश भी होता था । पहले ऐसा नहीं था कि दो-चार-दस वर्ष में थोड़ी साधना करके अथवा थोड़ा-बहुत अध्ययन करके, थोड़ी संस्कृत सीखकर उपदेश देने निकल जाएँ, कथा प्रवचन करने लग जांये । क्योंकि इस पर शास्त्र सम्मत प्रतिबंध था । और गुरजनों के बीच रहकर, उनकी आज्ञा और अनुसाशन में रहकर आग में जिस तरह सोने को तपाया जाता है, उसी तरह अपने को कई वर्षों तक तपाना पड़ता था । इसके बाद ही जनता-समाज की ओर जाया जाता था ।
लेकिन आजकल ऐसा नहीं
है । थोड़ा-बहुत अध्ययन करके, थोड़ी संस्कृत सीखकर लोग समाज में, लोगों के बीच में
कथा प्रवचन करने लगते हैं । ऐसे में ऐसे लोग यदि अपने अपरिपक्व ज्ञान से स्वयं
गुमराह हो जाएँ और लोगों को भी गुमराह करें तो क्या आश्चर्य है ?
ऐसे ही एक संत एक क्षेत्र में धाम छोड़कर आने लगे और कथा-प्रवचन
भी करने लगे । लोगों ने उनको चढ़ाया भी बहुत जैसे कि ये भगवद प्राप्त हैं, इनको
भगवान के दर्शन हो चुके हैं । खासकर स्त्रियाँ ऐसा प्रचार करने लगीं और कहने लगीं
कि इनका कल्याण तो हो चुका है, इनको कुछ भी पाना शेष नहीं है, ये हम लोगों का
कल्याण करने आए हैं । आदि । लोग खुब खिलाते-पिलाते और सम्मान देते तो संत जी
बार-बार धाम छोड़कर आने लगे । और दूसरे क्षेत्र में कोई जानने अथवा मानने वाला नहीं
था । इसलिए भी उसी क्षेत्र में आते और रुकते भी । और बताते कि जब धाम में रहते हैं
तो कभी-कभी सूखी रोटी भी खानी पड़ती है और कभी-कभी भूंखे ही रहना पड़ता है । यह
सुनकर स्त्रियाँ बहुत दुखी होती और खुब खिलाती–पिलाती और जब जाने लगते तो अन्य
चीजों के साथ-साथ बहुत सारी खाने-पीने की चीजें जैसे अचार, ड्राई फ्रूट आदि देकर
विदा करती कि कुछ नहीं होगा तो अचार से ही रोटी खा लेंगे ।
एक बार एक स्त्री ने एक व्यक्ति के लिए कहा कि वो अपने गाँव में अपने घर के पास कुटियाँ में कुछ दिन आपको रखना चाहते हैं
। तो संत बोले कि वहाँ मैं नहीं रुकूँगा । उस व्यक्ति के बारे में संतजी एक
बार बोल चुके थे कि वह विश्वासपात्र नहीं है ।
कुछ समय बाद उसी
व्यक्ति के यहाँ गाँव में संत जी रुके ।
वह गाँव न तो कोई तीर्थ ही था और न ही कोई धार्मिक स्थान । उस व्यक्ति ने
उनकी बहुत सेवा की । जो खाना चाहें उसकी व्यवस्था करता और बहुत खिलाया-पिलाया । संत
जी लगभग दो महीने वहीं रुके रहे । धाम में इतनी व्यवस्था कहाँ हो पाती वहाँ भिक्षा
माँगकर भोजन करना पड़ता था । भिक्षा में तो वही मिलेगा जो जिसके यहाँ बना होगा और धाम
के आस-पास के लोग सामन्यतया सामन्य भोजन ही करते हैं तभी तो कभी-कभी सूखी रोटी ही
खाकर रहना पड़ता था ।
उस व्यक्ति की सेवा और व्यवस्था देखकर एक दिन संत जी बोल पड़े कि धाम छूट जाएगा नहीं तो जाते ही नहीं यहीं बस जाते । इस प्रकार एक संत की धाम निष्ठा डिग गई । ज्यादा सेवा और व्यवस्था से धाम के प्रति निष्ठा कम हो जाना बहुत ही सोचनीय बात है ।
जग रीझै तो सब
मिलै, मान बड़ाई दाम ।
रामदास हरि न मिलैं, भोजन भूरि प्रणाम ।।
जग रीझा तो क्या हुआ, रीझे नहिं जो राम ।
रामदास केहि लगि तजे, घर घरनी धन धाम ।।
।। जय श्रीराम ।।
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