जो शास्त्र को न माने वह न तो भक्त होता है और न ही संत । कई
लोग जो बातें अपने मन के अनुकूल हो उसे मानते हैं शेष नहीं मानते और मनमाना उपदेश
देते हैं । जबकि सनातन धर्म में भगवान भी शास्त्र के वन्धन में रहते हैं । इसलिए
भगवान स्वतंत्र होकर भी स्वतंत्र नहीं हैं ।
शास्त्र मर्यादा तो
बड़ी चीज है, सनातन धर्म में लोकाचार का भी बड़ा महत्व है । इसलिए लोक मर्यादा का भी
पालन जरूरी होता है । श्रीरामचरितमानस जी में यह बात बार-बार आई है । उदाहरण के
लिए- ‘करि लौकिक वैदिक सब रीती’ । भगवान श्रीराम की स्तुति करते हुए कहा
जाता है-‘लोक वेद रक्षक जनत्राता’ ।
इसलिए भगवान स्वयं शास्त्र मर्यादा के अनुकूल
व्यवहार करते हैं । भगवान के लिए कहा गया है- ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ ।
अर्थात आप परम स्वतंत्र हैं और आपके ऊपर कोई अथवा कुछ नहीं है । लेकिन भगवन परम
स्वतंत्र होकर भी शास्त्र के अनुकूल ही रहते हैं । एक कथा के माध्यम से समझाने का
प्रयास कर रहे हैं ।
एक बार राक्षसों को
शरण देने के कारण भृगु ऋषि की पत्नी का भगवान नारायण ने अपने चक्र से वध कर दिया ।
क्योंकि इसके बिना राक्षसों का वध नहीं हो पाता, जो कि बहुत जरूरी था ।
भृगु ऋषि ने इसके लिए
भगवान को शाप दिया । भगवान यह दिखाने के लिए कि परम स्वतंत्र होकर भी मैं स्वतंत्र
नहीं हूँ, बोले कि मैं आपके शाप को स्वीकार नहीं करता । मैं नहीं मानता । भृगु जी
ने कहा कि आपको स्वीकार करना पड़ेगा । भृगु जी तपस्या करने लगे । और अंततः भगवान ने
भृगु ऋषि के शाप को स्वीकार किया और दिखाया कि मैं भी स्वतंत्र नहीं हूँ ।
ऐसे अनेकों उदाहरण
हैं । जैसे जब भगवान शंकर ने व्रह्मा जी का एक सिर काटा तो व्रह्म हत्या उन्हें भी
लगी । और जब स्वयं व्रह्मा जी को शाप मिला तो उनको भी उसके अनुरूप रहना पड़ा ।
इस प्रकार सनातन धर्म
में किसी को भी मनमानी करने की स्वतंत्रता नहीं है । जब भगवान को ही नहीं है तो
भक्त और संत कहाँ ठहरते हैं ? इसलिए चाहे भक्त हो और चाहे संत सभी को शास्त्र के
अनुरूप ही चलना चाहिए । और सारे शास्त्र एक तरह और महापुरुष की आज्ञा एक तरफ से
बचना चाहिए । क्योंकि इस कलियुग में महापुरुषों की कमी नहीं है ।
।। जय श्रीराम ।।
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