भगवान श्रीराम के स्वभाव की चर्चा तीनों लोकों, चौदहों भुवनों और तीनों कालों में होती है । अर्थात सर्वत्र और हर काल में होती है । क्योंकि रामजी जैसा न कोई है और न कोई होगा ।
इसलिए ही महर्षि वाल्मीकि जी श्रीआनंदरामायण में कहा है कि- ‘रामेण सदृशो देवों न भूतों न भविष्यति’ अर्थात रामजी जैसा भगवान न पहले यानी भूतकाल में था और न आगे यानी भविष्य काल में होगा ।
रामजी का ऐसा स्वभाव है कि वे अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते । भरत जी कहते हैं कि- ‘मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ । अपराधिहुँ पर कोह न काऊ’ ।। अर्थात मैं अपने नाथ यानी रामजी का स्वभाव जानता हूँ कि वे किसी अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते हैं ।
रावण ने कितना बड़ा अपराध किया कि सीताजी का हरण कर
लिया । जिनके भृकुटी के संकेत मात्र से प्रलय हो जाती है जिनके एक वाण से
सब कुछ नष्ट हो सकता है इतनी सामर्थ्य होने पर भी रामजी ने अपनी शक्ति का प्रयोग
ही नहीं किया । रावण पर भी क्रोध नहीं किया । जब अंगद जी को दूत बनाकर भेजा तो यही
कहा कि- ‘काजु हमार तासु हित होई । रिपु सन करेहु बतकही सोई’ ।। अर्थात
रावण से तुम वही बातचीत करना जिससे हमारा काम हो जाए और उसका हित-कल्याण हो ।
रामजी उपकार को तो सदा याद रखते हैं लेकिन अपने
प्रति अपकार- अपराध को याद नहीं रखते । इसलिए ही दीन-हीनों पर करुणा ही बरसाते हैं
और अद्वितीय दीनबंधु कहलाते हैं-
वानर भालू असुर को सखा
बनावै कौन ।
दीनबंधु रघुपति सरिस हुआ न
है नहिं होन ।।
।। जय श्रीराम ।।
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