हे राघव जी, रघुनाथ जी आप मेरे अवगुणों को चित में
न रखें । अर्थात मेरे अवगुणों पर ध्यान न देकर आप अपने विरद के अनुरूप मुझ दीन पर कृपा
कीजिए ।
मैं कपटी, कुटिल, मंद, दुष्ट और कामी हूँ । आप
मेरे मन और मति को निर्मल कर दीजिए । मैं क्रोधी, द्रोही, दंभी और गुमानी हूँ । आप
मेरे सभी विकारों को हर लीजिए ।
मेरा मन अतिसय कुतर्की है । यह तरह-तरह के कुतर्क
करता रहता है । मेरा मन शंकित और चंचल है । मेरे अंदर लेशमात्र का एक भी गुण नहीं
है ।
हे मेरे स्वामी राम जी ! मैं आपकी माया के वशीभूत
होकर मोह, अज्ञान और पाप कर्मों में लगा हुआ भ्रमित फिर रहा हूँ । हे सेवकों को
सुख देने वाले रघुनाथ जी, हे शील और सुख के सागर आप मेरे सभी दोषों तथा दुखों को
हर लीजिए ।
हे राघव
जी इस संसार सागर में डूबता हुआ आपका यह दीन दास आपको पुकार रहा है । आप के हाथ बहुत
बड़े हैं । मुझ डूबते हुए को अपने हाथों से पकड़कर आप स्वयं निकाल लीजिए ।
हे दीनबंधु ! हे दुखहरन ! हे दया के सागर भगवान
श्रीराम आप दीन संतोष पर दया कीजिए । हे राघवजी मेरे दोषों को न देखते हुए
मेरी दीनता को देखकर आप मुझ पर कृपा कीजिए –
राघवजू मोरे अवगुन चित न
धरौ ।
मैं कपटी कुटिल मंद खल कामी, मन मति विमल करौ ।।
मैं क्रोधी, द्रोही, दंभी गुमानी, समस्त विकार हरौ ।
मन अतिसय कुतर्की शंकित चंचल, एकौ गुन न खरौ ।।
मोह अज्ञान पापरत स्वामी ! तव माया वश मैं फिरौ ।
सेवक सुखद शील गुन सागर, सब दुख दोष हरौ ।।
डूबत जन प्रभु तोहि पुकारै, कर गहि पार करौ ।
दीनबंधु दुखहरन दयानिधि, संतोष पे दया करौ ।।
राघवजू मोरे अवगुन चित न धरौ ।।
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