राजा सुरथ की कथा
संक्षेप में निम्नवत है ।
राजा सुरथ और उनकी
प्रजा सब बड़े धार्मिक थे और भगवान श्रीराम के परम भक्त थे । राजा सुरथ के नगर के देवालयों में भगवान राम की
सुंदर प्रतिमाएं विराजमान थीं । सब लोग रघुनाथ जी के सेवक थे । प्रजा भगवान राम का
स्मरण किया करती थी । रामजी की लीला, कथा सुनकर सब लोग आनंद प्राप्त करते थे ।
प्रजा पाप से कोसों दूर रहती थी ।
भगवान श्रीराम के यज्ञ का घोड़ा घूमते हुए राजा सुरथ के नगर के निकट पहुँच गया । राजा के सेवकों ने राजा को सूचित किया कि श्रीरामचंद्र का छोड़ा हुआ परम मनोहर अश्व नगर के निकट विचरण कर रहा है । आप उसे पकड़ लीजिए ।
राजा ने
सोचा कि यदि अश्व को पकड़ लिया जाय तो भगवान राम के चरण मेरे नगर में अवश्य पडेंगे
और हम अपने सेवकों सहित श्रीरामचंद्र जी के मुखचंद्र का दर्शन करके धन्य हो जाएँगे
। जिनका दर्शन इंद्र और व्रह्मा जी आदि को भी दुर्लभ है, उन रघुनाथ जी की मनोहर झाँकी
का दर्शन हम सब लोगों के लिए सुलभ हो जायेगा । जिसके जरिये भगवान मिल जाएँ वह
व्यक्ति, वस्तु, पशु, और कार्य आदि धन्य हैं ।
ऐसा विचार करके राजा ने अपने सेवकों को अश्व को पकड़ने
की आज्ञा दे दिया । और सेवकों ने अश्व को पकड़ लिया । राजा ने कहा कि हमने अश्व को
पकड़ लिया है इसलिए अब युद्ध की तैयारी करो । राजा की आज्ञा पाकर सभी योद्धा युद्ध
के लिए थोड़ी ही देर में तैयार हो गए ।
इधर शत्रुघ्न जी ने आकर अपने सेवकों से पूछा कि
यज्ञ का अश्व कहाँ है ? सेवक बोले कुछ योद्धा आए थे जो अश्व को जबरन लेकर चले गए ।
ऐसा सुनकर शत्रुघ्न जी ने अपने वुद्धिमान मंत्री सुमति से पूछा कि यह नगर किसका है
। यहाँ का राजा कौन है जिसने अश्व का अपहरण कर लिया है ।
सुमति जी बोले कि यह नगर कुण्डलपुर के नाम से
प्रसिद्ध है और यहाँ धर्मात्मा राजा सुरथ रहते हैं । राजा सुरथ सदा धर्म में ही
लगे रहते हैं और श्रीरामचंद्र जी के चरणों के उपासक हैं । और ये श्रीहनुमानजी की
तरह मन, वाणी और कर्म द्वारा भगवान की सेवा में लगे रहते हैं ।
यह जानकर शत्रुघ्न जी ने कहा कि ऐसी स्थिति में
हमें क्या करना चाहिए ? राजा के साथ कैसा वर्ताव करना चाहिए । फिर तय हुआ कि एक
कुशल दूत भेजा जाए । तब अंगद जी को दूत बनाकर भेजा गया । अंगद जी ने हर तरह से
राजा को समझाने का प्रयास किया । लेकिन राजा अश्व को मुक्त करने को राजी नहीं हुए ।
राजा ने कहा यदि भगवान श्रीराम स्वयं आकर दर्शन
दें तो मैं उनके चरणों में प्रणाम करके धन, धान्य, पुत्र, कुटुंब, सेना सहित सारा
राज्य समर्पण कर दूँगा । मैं केवल श्रीरामचंद्रजी के दर्शन की इच्छा से ही युद्ध
कर रहा हूँ । यदि रामजी मेरे घर नहीं आएँगे तो इस समय सभी वीरों को क्षण भर में
जीतकर बंदी बना लूँगा ।
अंगद ने राजा को समझाते हुए कहा कि जिन्होंने
लवणासुर दैत्य, विद्युन्माली राक्षस को मारकर कितने ही बलवानों को परास्त किया है ।
जिनके भतीजे महाबली पुष्कल (भरतजी के पुत्र ) हैं जिन्होंने वीरभद्र जी, जो भगवान
शंकर के प्रधान गण हैं, के युद्ध में छक्के छुड़ा दिए, हनुमानजी, वानरराज सुग्रीव आदि
वीर जिनके निकट रहते हैं, राजा शत्रुघ्न का रुख जोहते हुए सेवा करते हैं, कुशध्वज,
नीलरत्न, रिपुताप, प्रतापाग्रय्य, सुबाहु, विमल, सुमद और श्रीराम भक्त राजा वीरमणि तथा अन्य राजा
जिनकी सेवा में रहते हैं । उनके आगे तुम्हारी क्या हस्ती है ? इसलिए तुम अश्व को
समर्पित करके अयोध्या जाकर भगवान राम के दर्शन करके अपने जीवन को सफल करो ।
बहुत
बातें हुईं लेकिन राजा नहीं माने । बोले या तो रामजी दर्शन दें, अथवा युद्ध में
मुझे बंदी बनाकर अश्व को छुड़ा लिया जाय । अगंद जी ने वापस आकर सब कुछ सुना दिया ।
फिर युद्ध आरंभ हो गया ।
राजा सुरथ के पुत्र चम्पक पुष्कल के साथ युद्ध
करने के लिए आगे आए । पुष्कल ने उनका नाम पूछा । चम्पक बोले यहाँ नाम और कुल से
युद्ध नहीं होगा । फिर भी मैं तुम्हें अपना परिचय देता हूँ । श्रीरघुनाथजी ही मेरी
माता हैं । श्रीरघुनाथ जी ही मेरे पिता हैं । श्रीराम ही मेरे बंधु हैं । और श्रीराम
ही मेरे स्वजन हैं । मेरा नाम रामदास है और मैं सदा श्रीरामचन्द्रजी की ही सेवा
में रहता हूँ । भक्तों पर कृपा करने वाले रामजी ही मुझे इस युद्ध से पार लगाएंगे ।
फिर चम्पक ने अपना लौकिक परिचय भी दिया ।
इसके उपरांत पुष्कल जी में और चम्पक में बड़ा भीषण
युद्ध हुआ । अंत में पुष्कल जी ने व्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और उधर चम्पकजी ने भी व्रह्मास्त्र
का प्रयोग कर दिया । ऐसा लगा कि प्रलय हो जायेगी । लेकिन दोनों अस्त्रों का तेज
मिलकर एक हो गया और चम्पक ने उसे शांत कर दिया ।
फिर चंपक ने रामास्त्र का प्रयोग करके पुष्कल को
बंदी बनाकर अपने रथ पर बैठा लिया । तब शत्रुघ्न जी ने हनुमानजी को पुष्कल जी को
छुड़ाने के लिए भेजा । हनुमानजी और चंपक के बीच युद्ध छिड़ गया । अंततः चंपक मूर्छित
हो गए और हनुमानजी ने पुष्कल जी को छुड़ा लिया ।
चंपक को
मूर्छित देखकर राजा सुरथ हनुमानजी से युद्ध करने लगे । हनुमानजी और राजा सुरथ के
बीच बड़ा भीषण युद्ध हुआ । हनुमानजी राजा के वाणों से घायल हो गए । लेकिन हनुमानजी
ने बहुत अद्भुत पराक्रम दिखाया । ऐसा और कोई युद्ध ध्यान में नहीं आता । क्योंकि इस
युद्ध में हनुमानजी ने राजा सुरथ के एक के बाद एक कुल अस्सी धनुष तोड़ डाले । इतना
ही नहीं एक के बाद एक कुल उनचास रथ हनुमानजी ने राजा सुरथ के तोड़ डाले ।
हनुमानजी का यह पराक्रम देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य
हुआ । राजा बोले वायुनंदन ! तुम धन्य हो । ऐसा पराक्रम न तो कोई कर सकता है और न
ही आगे करेगा । तुम थोड़ी देर के लिए ठहर जाओ जब तक मैं अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा
रहा हूँ ।
राजा ने प्रत्यंचा चढ़ाकर पाशुपत अस्त्र का संधान किया और हनुमानजी बंध गए ।लेकिन अगले ही क्षण भगवान राम का स्मरण करके बंधन मुक्त हो गए और राजा से युद्ध करने लगे । फिर राजा ने व्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसे हनुमानजी ने निगल लिया । अन्ततः राजा ने रामास्त्र का प्रयोग किया और हनुमानजी बंधन में आ गए ।
हनुमानजी बोले राजन मुझे दूसरे किसी अस्त्र से नहीं
बाँधा जा सकता था । लेकिन तुमने मुझे मेरे स्वामी के अस्त्र से ही बाँधा है । मेरे
प्रभु दया के सागर हैं अब वे स्वयं मुझे छुडाएंगे ।
हनुमानजी को बंधन में देखकर पुष्कल जी युद्ध करने
आए । बड़ा घमासान युद्ध हुआ । अनेकों दिव्यास्त्रों का दोनों पक्षों से प्रयोग हुआ ।
अंततः महान तेजस्वी पुष्कल जी राजा के एक नाराच से मूर्छित हो गए ।
पुष्कल के मुर्छित हो जाने पर शत्रुघ्न जी युद्ध
के लिए आए । बड़ा भीषण युद्ध हुआ । लेकिन अंततः मुर्छित हो गए ।
राजा सुरथ के दस पुत्र थे । जो बड़े पराक्रमी थे । राजा के इन पुत्रों ने अपने साथ लड़ने वाले सभी
प्रमुख दस वीरों को मूर्छित कर दिया था ।
शत्रुघ्न जी के मुर्छित होते ही सेना में भगदड़ मच
गई । ऐसा देखकर सुग्रीव जी राजा सुरथ से युद्ध करने लगे । बड़े देर तक युद्ध हुआ ।
अंत में राजा सुरथ ने अपने भयंकर अस्त्र रामास्त्र से सुग्रीव जी को बाँध लिया । इस
प्रकार राजा सुरथ ने विजय प्राप्त किया ।
सभी प्रधान वीरों को, जिन्हें राजा ने बंदी बनाया था, अपने रथ पर बिठाकर राजा अपने
नगर में ले गए । फिर हनुमानजी से राजा ने कहा कि अब तुम भक्तों की रक्षा करने वाले
परम दयालु श्रीरघुनाथ जी का स्मरण करो जिससे तुम्हें बंधन से मुक्ति मिल सके ।
ऐसा सुनकर और अपने पक्ष के सभी प्रमुख बीरों को
बंधन में देखकर हनुमानजी रामजी की स्तुति करने लगे । हनुमानजी ने बड़ी सुंदर स्तुति
किया । जगत के स्वामी कृपानिधान भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रार्थना सुनकर पुष्पक
विमान से तुरंत कुण्डलपुर पहुँच गए ।
राजा सुरथ ने भगवान को सैकड़ों बार प्रणाम किया ।
श्रीराम ने राजा को ह्रदय से लगा लिया । और कहा राजन तुम धन्य हो । आज तुमने बड़ा
भारी पराक्रम दिखाया है । हनुमानजी सबसे अधिक बलवान हैं किन्तु आपने इनको भी बाँध
लिया । ऐसा कहकर रामजी ने हनुमानजी को बंधन से मुक्त कर दिया ।
जितने योद्धा मूर्छित थे सबपर रामजी ने कृपा दृष्टि से देखकर कृपा की वर्षा कर दिया ।सब लोग मुर्छा का त्याग करके रामजी का दर्शन करके रामजी के चरणों में पड़ गए ।
राजा ने अपना सारा राज्य रामजी को अर्पित कर दिया
और कहने लगे कि भगवन मैंने आप के साथ बड़ा अन्याय किया है । रामजी बोले नहीं, आपने
बड़ा उत्तम कार्य किया है । क्योंकि तुमने युद्ध में सभी वीरों को संतुष्ट कर दिया
है ।
फिर राजा सुरथ ने अपने पुत्रों के साथ रामजी का
पूजन किया । रामजी तीन दिन तक कुण्डलपुर में रुके चौथे दिन पुष्पक विमान से
अयोध्या आए । चंपक को कुण्डलपुर का राजा बनाया गया । और राजा सुरथ शत्रुघ्न जी के साथ
अश्व के पीछे भ्रमण करने चल दिए ।
।। भक्त और भगवान की जय ।।
आभार,
जवाब देंहटाएंजय श्री राम जी की 🙏
जय श्रीराम
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