गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्रीरामचरितमानस जी में कहा ही है कि 'कलि कौतुक तात न जात कही' और जैसे ‘दो महीने में इंग्लिश बोलना सीखें’ अथवा ‘एक महीने में अंकगणित सीखे’ इस तरह के विज्ञापन देखने-सुनने में आते ही रहते हैं । और इस तरह की पुस्तकें भी बाजार में मिल ही रही हैं । इसी तरह कलियुग का समय होने से ‘दो अथवा चार महीने में कथा कहना सीखें’ और ‘दो महीने में संस्कृत सीखें’ आदि के भी कोर्स चलने लगे हैं । और इस तरह की पुस्तकें भी मिल जाती हैं ।
ऐसे कथावाचक और संत मिल जाएँ जो इस बात का विज्ञापन कराएँ कि ‘एक वर्ष में भगवद प्राप्ति करें’,‘डेढ़ वर्ष में लीला में प्रवेश करें’ और ‘दो वर्ष में भगवान का दुर्लभ दर्शन प्राप्त करें’ तो इसे देख-सुनकर आश्चर्य करना इस कलिकाल में नासमझी ही कही जाएगी क्योंकि कहा गया है- 'रामदास कलिकाल में अधिक कहाँ सब थोर'। अर्थात कलियुग में जो हो जाए, सुनने में आ जाए, देखने में आ जाए उसे कम ही समझना चाहिए क्योंकि इससे भी अधिक की संभावना बनी रहेगी ।
पहले के समय में
समुचित अध्ययन के बाद बोध-ज्ञान प्राप्त करके अनुभव और आचरण में उतारने के बाद
ज्ञान का प्रचार करने-उपदेश देने, कथा आदि कहने की परंपरा थी । लेकिन अब ऐसा नहीं
है । लोगों के पास ज्यादा अध्ययन करने के लिए समय नहीं है । परंपरा से अध्ययन की
बात तो दूर समझो । फिर आचरण में उतारने की बात तो और दुर्लभ है । लेकिन उपदेश देना
है और कथा कहना है ।
श्रीमद्भागवत पुराण
में व्यास जी ने लिखा है कि कलियुग में कथा का सार समाप्त हो जाएगा । सार रहित कथा
होगी । वही हो रहा है । इसलिए ही चाहे जितनी कथाएं सुन लो स्थिति में ज्यादा बदलाव
नहीं होता ।
आज की युवा पीढ़ी ने
आधुनिक पढ़ाई किया है । वह तर्क भी करती है । तो उसे समझाने के लिए कुछ भी बोलकर
काम नहीं बनेगा । और जब कथा वाचक अथवा संत समुचित ज्ञान और अनुभव से रहित होगा तो तथ्य
हीन बातों से उन्हें नहीं समझा पायेगा । इससे उन्हें उल्टी-पल्टी बातें सुनकर संतों,
कथा वाचकों और कथाओं से अश्रद्धा हो जायेगी और वे धीरे-धीरे इनसे बहुत दूर चले
जाएँगे ।
एक संत कथा में बोल
रहे थे जब कौवा का बैंक अकाउंट नहीं होता और उसका काम बिना बैंक अकाउंट के चल सकता है तो आप
लोगों का क्यों नहीं चल सकता है । आप लोग कहोगे कि कौवा जल्दी मर जाता है तो उसे
अकाउंट की क्या जरूरत ? लेकिन ऐसा नहीं है । कौवा जल्दी नहीं मरता फिर भी उसका काम
बिना बैंक अकाउंट के चलता है तो फिर आप लोगों का क्यों नहीं चल सकता ?
मनुष्य के बौद्धिक और
सामाजिक स्तर की तुलना कौवा से करने का क्या औचित्य है ? भोले-भाले लोग तो ताली
बजायेंगे । लेकिन आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी इन बातों से निरास होगी ।
ऐसे ही एक संत ने एक स्त्री से कहा कि माता जी आपका भजन कैसे
चल रहा है तो वह बोली जितना हो सकता है करती हूँ अभी दो बेटियों का विवाह करना है ।
तो संत जी ताली बजकर जोर से हँसे और बोले तो कर लो बेटियों का विवाह तुम्हें भगवद
प्राप्ति नहीं होगी । ऐसे संत और कथा वाचक कैसा समाज बनाना और देखना चाहते हैं ?
ऐसे ही एक संत हजारों
की भीड़ में कथा कहते हुए कह रहे थे कि जब मेरा काम बिना पैसे के चल सकता है तो आप
लोगों का काम बिना पैसे के क्यों नहीं चल सकता । ऐसा कहकर ये संत अपनी महानता-श्रेष्ठता
लोगों को बताना चाहते थे । भोले-भाले लोग ताली बजाते हैं । लेकिन युवा तर्क करता
है कि संत जी भोजन करते हैं, कपड़ा पहनते हैं, बीमार होते हैं तो दवा भी कराते हैं
तो इनका काम बिना पैसे के कहाँ चल रहा है ?
ये लोगों को गुमराह
कर रहे हैं । हाँ इनका काम इनके पैसे से नहीं चलता बल्कि समाज के पैसे से चलता है,
शिष्यों के पैसों से चलता है लेकिन ये कह रहे हैं कि मेरा काम बिना पैसों के ही
चलता है । काम बिना पैसे के चलना और काम दूसरे के पैसे से चलना दोनों में बड़ा अंतर
है । इनको इतनी भी समझ नहीं है । और जैसा ये कह रहे हैं कि आप लोगों का काम बिना
पैसे के क्यों नहीं चल सकता तो अगर सब लोग ऐसा सोच लें और ऐसे ही रहने लगें तो संत
जी का काम भी कहाँ से चलेगा ?
उपरोक्त बर्णित बातों-तथ्यों से यही लगता है कि युवा पीढ़ी धीरे-धीरे संतों, कथा वाचकों और कथाओं से बहुत दूर हो जायेगी । और वे सोंचेगे कि संत जी जो बता रहे हैं ऐसा ही ग्रंथों में लिखा होगा इस कारण से उनकी ग्रंथों में भी अश्रद्धा हो जायेगी । इस स्थित में या तो अधिकाँश लोग नास्तिक हो जाएँगे अथवा दूसरे धर्मों की ओर आकर्षित हो जाएँगे इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता । तथा जिस तरह से संत और कथावाचक भगवद प्राप्ति, लीला में प्रवेश और भगवान के दर्शन को खेल-कलि कौतुक बना दे रहे हैं ऐसे में उपरोक्त विज्ञापन शीघ्र देखने को भी मिल सकते हैं ।
।। जय श्रीराम ।।
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