मेरे राघव भगवान श्रीराम, रघुनाथजी दीनों के बड़े हितैषी हैं । वैसे तो रामजी सबके हितैषी हैं । संसार में प्रत्येक प्राणी का हित रामजी से ही होता है । वह चाहे रामजी को जानता हो या न जानता हो । वह रामजी को मानता हो अथवा न मानता हो । इन सब बातों से रामजी को कोई अंतर नहीं पड़ता । क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है । उनका दूसरों का हित करने का स्वभाव ही है । लेकिन रामजी दीनों के विशेष हितैषी हैं । दीनों का ऐसा हितैषी संसार में और कोई दूसरा नहीं है । सच्चे अर्थों में मेरे रामजी ही एकमात्र दीन हितैषी हैं ।
जिन दीनों की न तो लोग कोई बात पूछते हैं और न ही लोग उनसे कोई बात करना पसंद करते हैं । तथा यह संसार जिनकी ऐसी-तैसी करता रहता है ।
उन दीनों को रघुनाथ जी बाँह पकड़कर, अपना लेते हैं और उन्हें धन्य कर देते हैं ।
उन्हें अपने-पास बिठाकर उनकी कुशल-छेम पूछते हैं ।
इतना ही
नहीं मेरे रामजी उन्हें स्वयं तो मान देते ही हैं और दूसरों से भी मान दिलाते हैं । तथा उनकी बिगड़ी चाहे जितने जन्मों की हो, चाहे
जैसी ही क्यों न हो उसे धीरे-धीरे सुधार देते हैं ।
जैसे पलक नयन को रखती है ठीक इसी तरह से रघुनाथ जी
अपने दासों को रखते हैं तथा उनके जीवन के सभी अनिष्टों को मिटा देते हैं ।
भगवान राम
दीन संतोष जैसे दीनों को अपने धाम में बसाते रहते हैं । उनकी यह रीति और दीनों से
प्रीति अनूठी है जो युगों-युगों से सतत चली आ रही है । भगवान राम के अलावा और कहीं
और किसी दूसरे की ऐसी अनूठी रीति नहीं है-
राघव मोरे दीन हितैषी ।
जेहि दीनन कोई बात न पूछै जग करै ऐसी तैसी ।। १ ।।
तेहि दीनन गहि बाँह निवाजत कुशल निभै कहौ कैसी ।
देत-दिवावत मान सुधारत बिगरी हो चाहे जैसी ।। २ ।।
पलक नयन जिमि दास को राखत मेटत सकल अनैसी ।
दीन संतोष निज धाम बसावत रीति कहीं नहीं ऐसी ।। ३ ।।
।। दीन हितैषी भगवान राम की जय ।।
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