अपने भारतीय अध्यात्म जगत में गुरू का बहुत महत्व है । और गुरू को भगवान के समान बताया गया है । इसलिए सभी को बहुत सोच-समझकर गुरू बनाना चाहिए । और गुरू का यथा संभव आदर सम्मान करना चाहिए ।
भारतीय
जन मानस में परंपरा का बहुत महत्व है । लोग परंपरा से जुड़े रहते हैं और उसका
निर्वाह भी करते हैं । एक लोग बता रहे थे कि उनका गुरू घराना था । मतलब पीढ़ी दर पीढ़ी
इनके यहाँ के लोग एक गुरू के यहाँ से दीक्षा लेते रहते थे । एक गुरू के यहाँ का
मतलब गुरू के पुत्र फिर उनके पुत्र से । यह परंपरा चली आ रही थी ।
लेकिन
गुरू जी के पीढ़ी में एक लोग का चाल-चलन बिगड़ गया । मदिरा पान भी करने लगे । लेकिन
परंपरा के नाम पर उनको भी नहीं छोड़ा और इनसे भी दीक्षा लेते रहे । यहाँ यह कहना है
कि ऐसी स्थिति में परंपरा का निर्वाह जरूरी नहीं है ।
दूसरी ओर कई गुरू ऐसे भी होते हैं जो किसी कारण बस
सठिया जाते है । जो न करने योग्य करने लगते हैं और न बोलने योग्य बोलने लग जाते
हैं । यहाँ तक भगवान के बारे में भी उल्टा सीधा बोलने लग जाते हैं । अतः जो भगवान राम-कृष्ण
के बारे में उल्टा-सीधा बोलने लगे उसे भी त्याग देना चाहिए ।
पुराणों
में यह बात बड़ी प्रसिद्ध है कि राजा बलि ने अपने गुरू को केवल इसलिए त्याग दिया था
क्योंकि उनके गुरू उन्हें वामन भगवान को तीन पग पृथ्वी दान करने से मना कर रहे थे ।
इसी बात को गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्री विनयपत्रिका जी में भी लिखा है- ‘बलि गुरू तज्यो’ । गुरू और शिष्य का सम्बंध भगवान के नाते ही है और जब गुरू या शिष्य भगवान के विषय में उल्टा-सीधा बोलने लगे अथवा उनका चाल-चलन बिगड़ जाय तो ऐसी स्थिति में त्याग ही उत्तम है-
जाको न प्रिय राम वैदेही । तजिए ताहि कोटि वैरी
सम जद्यपि परम सनेही ।।
।। जगदगुरु भगवान शंकर की
जय ।।
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