संत-सदग्रंथ बताते हैं कि इस संसार में कोई अपना
सगा नहीं है । सबके एकमात्र सगे, एकमात्र हितैषी केवल और केवल हमारे रघुनाथ
जी हैं । हमारे रामजी हैं । लेकिन जीव इस बात को समझ नहीं पाता । जान नहीं पाता ।
और जान भी जाए तो मान नहीं पाता ।
इसलिए ही
जीव संसार में दुख पाता है और जनम-मरण के चक्कर से नहीं छूटता । गोस्वामी
तुलसीदासजी ने बार-बार समझाया है कि जिन स्त्री-पुत्रों के लिए जीव अपने धर्म-पथ
से च्युत हो जाता है । वे भी उसके काम नहीं आते । अंत समय में हर कोई साथ छोड़ जाता
है । काम केवल मेरे राम आते हैं ।
व्यक्ति
अपने स्त्री-पुत्र के पालन में, उनको सुखी रखने के लिए, उनके उत्थान के लिए बहुत
कुछ करता रहता है । इसी चक्कर में वह मानवता के लिए जरूरी कई धर्मों से मुह मोड़ लेता
है ।
जो
माता-पिता किसी भी तरह अपने कई बच्चों का पालन करते हैं बुढ़ापे में उनका पालन सभी
बच्चे मिलकर भी नहीं कर पाते । सब अपने स्वार्थ-पूर्ति में लगे रहते हैं । अपने
भविष्य के लिए चिंता करते हैं । लेकिन जिनके ये भविष्य थे उनकी चिंता करने का इनके
पास कमी ही कमी रहती है । समय, धन, तन, मन आदि सबकी कमी ।
स्वयं खाएंगे, पहनेगें, ठीक से रहेंगे लेकिन
माता-पिता के लिए न मन रहेगा और न धन । स्वास्थ्य खराब होने पर अपनी दवा करा लेंगे,
अपने बच्चों की दवा करा लेंगे, अपनी पत्नी की दवा करा लेंगे । तब न धन की कमी
रहेगी न मन की । तब नहीं कहेंगे कि पैसा नहीं है कहाँ से करूँ । अपने लिए अपने
बच्चों के लिए उधार भी मिल जाएगा । लेकिन जिनके ये भविष्य थे उनके लिए कमी ही कमी
रहेगी । उन्हें बोल भी देंगे हमारे पास ही नहीं है तो कहाँ से करूँ । सारी कमी
केवल माता-पिता के लिए ही रहती है ।
गोस्वामी
जी ने श्रीविनयपत्रिका जी में लिखा है कि बुढ़ापे में जिनके लिए जीवन पर तुमने किया
है वे तुम्हारे नजदीक खड़ा होने में भी लज्जा का अनुभव करेंगे । किसी को तुम्हारी
बोली भी नहीं सुहायेगी । खाना-पीना भी भारी हो जायेगा । कई लोगों को तो कुत्ते के
समान निरादर सहना पड़ता है ।
ऐसे में
सदा रघुनाथ जी से ही जुड़कर रहना चाहिए । क्योंकि रामजी हर देश-काल में तुम्हारे
साथ रहने वाले हैं । वे किसी स्थिति और परिस्थिति में तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेंगे ।
तूँ नाहक में रिश्ते-नाते जोड़ता रहता है । लेकिन जिनसे वास्तव में नाता जोड़ना चाहिए
उनसे नहीं जोड़ता । अब देर मत करो । आज ही रघुनाथ जी से नाता जोड़ लीजिए ।
।। जय श्रीरघुनाथ जी ।।
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