सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

सनातनधर्म और २०१२ की सम्भावित प्रलय


संसार में जितने भी सनातनधर्मावलम्बी हैं उन्हें अपने सनातन धर्मी होने पर गर्ब होना चाहिए । क्योंकि सनातनधर्म एक अनूठा धर्म है । एक अद्वितीय धर्म है । सनातन धर्म की अनगिनत उपमा रहित विशेषताएँ हैं । यह आदि और अंत रहित है । अविनाशी है । इसे शुरू करने वाला यानी चलाने वाला कोई नहीं है । अर्थात इसका कोई प्रवर्तक नहीं है । यह दुनिया का प्राचीनतम धर्म है । ऐसी विशेषताएँ केवल और केवल सनातनधर्म में ही हैं । ऐसा क्यों है ?

 
   ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारा सनातनधर्म और कुछ नहीं बल्कि परमात्मा का ही स्वरूप है । यदि सनातन धर्म का मूर्तिमान स्वरूप देखना हो, इसका विग्रह देखना हो तो हमें भगवान श्रीराम को देखना चाहिए ।  कहा गया है- ‘रामो विग्रह वान धर्मः’ । अर्थात भगवान राम साक्षात धर्म के विग्रह हैं । मूर्तिमान स्वरूप हैं ।


   चूँकि हमारा धर्म भगवान का ही स्वरूप है ।  इसलिए ही परमात्मा की अधिकांश विशेषताएँ हमारे धर्म पर भी लागू होती हैं । जैसे यह अनादि है । मतलब आदि और अंत से रहित है । प्राचीनतम है । इसका कोई प्रवर्तक नहीं है । भला परमात्मा का कोई प्रवर्तक हो सकता है क्या ? इसमें दया और करुणा की भावना है । इसमें विश्व-कल्याण की भावना है । जैसे भगवान के लिए सारा संसार उनका है । ठीक ऐसे ही सनातन धर्म में भी वसुधैव कुटुम्बकं की भावना है । जैसे भगवान सभी से प्रेम करते हैं ठीक वैसे ही सनातन धर्म में प्रेम की भावना है । सब से प्रेम करो, जीवों पर दया करो सनातन धर्म के मुख्य आदर्श हैं । भगवान दुष्टों को दंडित करते हैं और सज्जनों से प्रेम करते हैं, उनकी रक्षा करते हैं । इसी तरह सनातनधर्म में भी दुष्टों को दंडित करने की और सज्जनों की रक्षा की बात है और अनर्गल मार-काट के लिए कोई स्थान नहीं है । इसमें तो परपीड़ा ही पाप है । आदि ।

 
   इस ब्लॉग के कई लेखों में यह बताया गया है कि सनातन धर्म के अधिकांश तथ्य गणितीय हैं, वैज्ञानिक हैं । इन्हें तार्किक ढ़ंग से समझा और समझाया जा सकता है । गणित और विज्ञान भी तर्क से समझे जाते हैं । हमे सनातन धर्म के अध्ययन के लिए सदैव प्रमाणिक ग्रंथो और पुस्तकों का ही प्रयोग करना चाहिए । किसी कही-सुनी बात पर सहसा विश्वास नहीं कर लेना चाहिए ।  आजकल तरह-तरह की पुस्तकें छापी जा रही हैं । तरह-तरह की बयानबाजी की जा रही है । अनर्गल प्रलाप किया जा रहा है ।  सार हीन और तथ्य हीन दुष्प्रचार किया जा रहा है ।  इंटरनेट पर तोड़-मरोड़कर उल्टी-सीधी बातें लिखकर लोगों को खासकर युवाओं को भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है । हमें इन सब बातों से हमेशा सावधान रहना चाहिए ।  ज्यादा न पढ़ सकें तो कम से कम श्रीरामचरितमानस पढ़ना चाहिए । यह भी न कर सकें तो राम-राम का जाप करना चाहिए और भगवान श्रीराम में सदा विश्वास रखना चाहिए ।


   जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण धराधाम से स्वधाम गए । उसी दिन से धरती पर कलियुग का आगमन हो गया । और धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा । पुराणों में इसका काल लगभग चार लाख बत्तीस हजार वर्ष कहा गया है । जिसमें से अभी कुल पाँच हजार वर्ष से थोड़ा अधिक समय ही बीता है । इस प्रकार देखा जाय तो अभी कलयुग बहुत समय तक धराधाम पर रहेगा ।

    श्रीरामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में एक देवी का वर्णन मिलता है । इन्होंने श्रीहनुमानजी तथा अन्य बानर बीरों को जल व फल दिया था । तथा उन्हें गुफा से निकालकर सागर के तट पर पहुँचाया था । ये देवी स्वयंप्रभा हैं । यही देवी माता वैष्णव के रूप में प्रतिष्ठित हैं ।


    कलयुग के अंतिम चरण में भगवान का कल्कि अवतार होगा । पुराणों के अनुसार यह अवतार भी भारत में ही सम्भलपुर नामके एक गाँव में विष्णुयश नामक एक विप्र के यहाँ होगा । तब ये कल्कि भगवान दुष्टों को दंडित करेंगे और धरती पर धर्म की स्थापना करेंगे । तथा देवी स्वयंबप्रभा से श्रीरामावतार में दिए गए बचनानुसार विवाह करेंगे ।


    यह सब होने में अभी लाखों वर्ष शेष हैं । अतः पुराणों के अनुसार २०१२ में प्रलय की कोई सम्भावना नहीं है ।
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सोमवार, 5 नवंबर 2012

रघुनाथ अनाथ के नाथ सही


दीन-मलीनों और अनाथों से प्रीति करने की भगवान श्रीरामचन्द्रजी महाराज की बड़ी ही अनोखी रीति है । संत और सदग्रन्थ के अनुसार उनकी यह रीति आज से नहीं है, बल्कि युगों-युगों से है । कैसी अनोखी और निराली रीति है- प्रीति करने की रीति । वो भी किससे अनाथों से, दीन-दुखियों से ।



   अपने को अनाथ का नाथ बताने वाले, कहने वाले और कहलवाने वाले इस संसार में कई हो सकते हैं । लेकिन सच्चे अर्थों में अनाथों का नाथ कौन है ? किसने अनाथों का हित करने का उनका नाथ बनने का अपना वाना बना लिया है । किसने कभी भी अनाथों से मुँह नहीं फेरा है । किसने बिना किसी कामना के अनाथों को सिर्फ अनाथ होने से ही अपनाया है, कभी भी किसी भी स्थिति अथवा परिस्थिति में ठुकुराया नहीं हैं । किसने एक बार अपनाकर सदैव उनका हित किया है, कभी छोड़ा नहीं है । आदि ।



   इन सभी विशेषताओं को एक मात्र हमारे रघुनाथ जी ही पूरा करते है और इसलिए ही वे सच्चे अर्थों में अनाथ के नाथ हैं । इसका कारण है प्रीति । रघुनाथजी अनाथों से सही अर्थों में प्रीति करते हैं । श्रीरामचरितमानस कहती है- ‘जिन्हहि परम प्रिय खिन्न’ । वेद कहते हैं- ‘जेहि दीन पियारे’ ।



 गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि एक समय ऐसा था जब हम दर-दर की ठोकर खाते हुए मारे-मारे फिर रहे थे । न पहने को कुछ था, न खाने को और न ही रहने को । ‘कहाँ जाऊँ का करी’ की स्थिति थी । मैंने संतो से पूछा कि क्या कोई मुझ जैसे का भी सार-संभार करने वाला है ?


   इस पर संतो ने सोच-बिचार कर कहा कि तुझ जैसे अनाथ का जिसे हर जगह दुत्कार और फटकार ही मिलती है, जिसका कोई गाहक नहीं है और जिसके ऊपर तिनके का भी सहारा नहीं है । ऐसे दीन-मलीन और अनाथ के राखनहार एक और केवल एक आरतपाल भगवान श्रीराम जी ही हैं । साधु-संत, भक्त और सदग्रंथ तथा लोक और वेदमत यही है ।



  एक बार तूँ कपट रहित होकर उनसे कह दे कि हे आर्तों और अनाथों के नाथ रघुनाथ जी, हे कोशलेश, हे करुणासिन्धु मैं आपकी शरण में हूँ और मेरा कोई नहीं है । बस तेरी स्थिति और परिस्थिति देखकर, तेरी दीनता को सत्य जानकर अनाथों के नाथ दीनानाथ रघुनाथ जी तुझे अपना लेंगे ।



 मैंने ऐसा ही किया और रघुनाथजी ने मेरी बाँह पकड़ ली । मैं तुलसीदास जो पहले भाँग के पौधे के तरह था, रघुनाथजी की कृपा ने मुझे भाँग से तुलसी सरीखा बना दिया ।



  रघुनाथ जी ने केवल तुलसीदासजी को ही नहीं अनेकों अनाथों को सनाथ किया है । सारा संसार उनका है । सब उनको प्रिय हैं । लेकिन दीनों-मलीनों और अनाथों पर उनका विशेष अनुराग है ।



पशु-पक्षी, देवी-देवता, मनुष्य अथवा राक्षस आदि कोई भी क्यों न हो भगवान श्रीराम उसे सनाथ करते हैं । बशर्ते उसमें पात्रता हो अर्थात यदि वह वास्तव में अनाथ है और वह रघुनाथजी को अपना नाथ मानता है तो वह चाहे कोई भी क्यों न हो अनाथ का नाथ होने के कारण रघुनाथजी उसकी लाज रख लेंगे । भगवान के गुण समूह और विरद ऐसा ही कहते हैं-



बानर-भालू, गीध, निसाचर सबकी पैठ न और कहीं ।

राम दरबार में सबका आदर जो भी जाये बात सही ।।

राम दरबार में न्याय मिले पशु-पक्षी आदिक को भी ।

दरबार खुला उनका सबके हित जो जाना चाहे जाय जभी ।।

राम दरबार की महिमा न्यारी होये कोई निराश नहीं ।

सुर, नर, मुनि, पशु-पक्षी की भी सुनीं जाती गुहार यहीं ।।

आरत-दीन मलीन को आदर दरबार की उनके रीति यही ।

गुनगन विरद संतोष कहे रघुनाथ अनाथ के नाथ सही ।।

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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

सोचविमोचन भगवान श्रीराम


भक्तों, संतों और ग्रंथों ने भगवान को जो भी नाम दिए हैं । भगवान उसे सार्थक करते हैं । और पूर्ण रूपेण उस पर खरा उतरते हैं । भगवान श्रीराम सचमुच में सोचविमोचन हैं-

 

  पूर्वकाल में मनु और शतुरूपा जी भगवान के दर्शन हेतु तपस्या कर रहें थे । यह तब की बात है जब अयोध्या में राजा दशरथ जी का भी जन्म नहीं हुआ था । इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्रीराम ने माता सीता के साथ इन्हें दर्शन दिया । मनु जी भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहते थे । लेकिन ये इस सोच में थे कि ‘हरिहिं हरिता, विधिहिं विधिता, सिवहिं सिवता जो दई’ ऐसे भगवान क्या हमारे पुत्र बनेंगे ।  भगवान ने इनके सोच का विमोचन किया और बोले राजन सारा संसार मुझसे बहुत कुछ मांगता है । लेकिन मुझे कोई नहीं मांगता । आज आप संकोच छोड़कर मुझे ही मांग लीजिए-‘सकुच विहाय माँगु नृप मोही’ । राजा ने भगवान को पुत्र रूप में मांग लिया ।  और आगे चलकर रामजी इनके पुत्र बनें ।



   राक्षसों के उत्पात से पृथ्वी ही नहीं बल्कि देवलोक भी तबाह हो चुका था । कोई भी देवता रावण के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने में सक्षम नहीं था । यहाँ तक त्रिदेव भी लाचार थे । देवता सोच-संताप बस मारे-मारे फिर रहें थे । तब भगवान श्रीराम उनके सोच-संताप को मिटाये-


बलहीन दीन देव सब सोच संताप बस भिखारी ।

दनुज सब टोह में बसे गिरि खोह में हालत परम दुखारी ।।

सब बिधि निरास आस खोइ जब हरि को जाय पुकारी ।

दीनदयाल राम आइ हरेउ सोच संताप अति भारी ।।
 


राजा दशरथ पुत्र रहित होने से बहुत दुखी रहते थे । इनको यह सोच खाए जा रहा था कि कहीं रविकुल का दशरथ के साथ ही अंत न हो जाय । रानियाँ भी सोच के मारे मन मार कर जी रहीं थीं । इधर अयोध्या की प्रजा भी सोच मग्न थी क्योंकि राजा का चौथपन आ चुका था और अभी तक कोई उनका युवराज नहीं था । पूरे अयोध्या में मानो सोक की लहर चल रही हो । लेकिन भगवान श्रीराम सच्चे सोचविमोचन हैं । उनसे अपने भक्तों का सोच देखा नहीं जाता । रामजी ने दशरथ जी के पुत्र रूप में प्रकट होकर राजा-रानी और समस्त पुरवासियों के सोच का विमोचन कर दिया-



जब सुत बिनु दशरथ राय दुखारे ।

सोच विबस रानिहु सब रहतीं अति मन मारे ।।

कृपाधाम राम प्रभू तुम सुत होइ आइ पधारे ।

राय-रानि पुरबासिन्ह को कियो सुखराशि सुखारे ।।

सोचविमोचन राम प्रभू तुम सबके सोच निवारे ।

आस किए पद पंकज में संतोषहु आपहिं राह निहारे ।।




    विश्वामित्र जी यज्ञ करना चाह रहे थे । लेकिन राक्षस यज्ञ पूर्ण नहीं होने दे रहे थे । विश्वामित्र और अपर मुनि मंडली सोच मगन थी कि क्या किया जाय ? यज्ञ कैसे पूरा किया जाय ? सोचविमोचन भगवान श्रीराम जी आये और यज्ञ पूरा कराके मुनियों के सोच का विमोचन किया ।



   अहिल्या वर्षों से पत्थर बनी हुई पड़ी थी । इनके सोच और संताप का निवारण करने वाला कोई नहीं था । भगवान श्रीराम ने पाहन योनि से मुक्ति करके अहिल्या के सोच संताप का शमन किया ।



   इधर राजा जनक जी, सुनैना जी, सीता जी और इनकी सखियाँ तथा नगर के अन्य स्त्री-पुरुष सोच मगन थे । क्योंकि लग रहा था कि शिव धनुष तोड़ने वाला कोई है ही नहीं । लोग इतना तक सोच रहे थे कि कन्या को अब क्वारीं ही रहना पड़ेगा । लेकिन हमारे स्वामी सोचविमोचन भगवान श्रीराम ने यहाँ भी सबके सोच-संताप का शमन किया-


जनकराज सिया मातु सहेली सब थे परम दुखारी ।

सोच मगन नृप पन करि सोचैं रहिहैं कन्या क्वारीं ।।

तोड़ि सके अस बीर कहाँ जब को न सका धनु टारी ।

सब कर सोच मिटायेव स्वामी भंजेउ शिव धनु भारी ।।



 इसी प्रकार श्रीरामचन्द्र जी ने अनगिनत लोगों के सोच का निवारण किया है और कर रहें हैं । जैसे वन जाकर देवताओं के, पैर धुलाकर केवट के, बार-बार सम्मानित करके माता कैकेयी के, भरत जी के, जटायु जी के, शवरी जी के, हनुमान जी के, सुग्रीव और विभीषण तथा तुलसीदास जी  आदि के सोच संताप को श्रीरामजी ने मिटाया है । इस प्रकार से भगवान श्रीराम सच्चे अर्थों में सोच विमोचन है ।

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शनिवार, 8 सितंबर 2012

सहज साधना


सारा संसार भगवान को पाना चाहता है । इसके लिए लोग तरह-तरह की साधना करते हैं । कई लोग तो बहुत ही कठिन साधना करते हैं । जो हर कोई नहीं कर सकता है । भगवान की कृपा पाने अथवा भगवान को पाने के लिए मुनि लोग कई उपाय बताते हैं । लेकिन सभी मुनि एक मत नहीं हैं । सभी लोग अलग-अलग मत रखते हैं । अलग-अलग रास्ते बताते हैं । शास्त्र और पुराण भी तरह-तरह के रास्ते दिखाते हैं ।

 

ऐसी परिस्थिति में लोग भ्रमित हो जाते हैं । क्या करें और क्या न करें, समझ नहीं पाते । बस उलझते जाते हैं । लोग अपने-अपने मत को सही बताने व समझाने के लिए झगड़ते भी हैं । एक दूसरे को बुरा-भला भी कहते हैं ।


   
बीमारी एक है । सिर्फ इलाज भिन्न-भिन्न हैं । भिन्न-भिन्न दवाईयां दी जा रही हैं । इतना ही नहीं कोई एलोपैथी तो कोई होमियोपैथी, कोई आयुर्वेदिक तो कोई युनानी आदि भिन्न-भिन्न पैथियों का मदद ले रहा है । कब कोई गढ़कर एक नई पैथी निकाल दे इसका भी पता नहीं है । ऐसे में क्या किया जाय ?


   
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि मुनियों के बहुत से मत और पुराणों द्वारा बताए गए अनेकों रास्तों से जहाँ-तहाँ झगड़ा ही दीखता है । अर्थात क्या किया जाय इसका आसानी से निश्चय नहीं हो पाता । साथ ही संशय भी बना रहता है कि हम जो कर रहे हैं वह सही है अथवा कोई अन्य मत या रास्ता । ऐसी ही परिस्थिति मेरे लिए भी थी । तब गुरु जी ने बताया कि सारे मतों और रास्तों में राम-भजन करना ही सबसे अच्छा है । और यह रास्ता मुझे राजपथ जैसा लगता है-

 
बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो ।
गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोहि लगत राज डगरो सो ।।


 
राजपथ अन्य रास्तों से भिन्न होता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यह सीधा राज भवन यानी राजा के पास ले जाता है ।



   राम-भजन रुपी जो राजपथ है, वह सीधे राजाओं के भी राजा, महाराजाओं के भी महाराजा, देवताओं के भी देवता अखिलभुवनाधिपति भगवान श्रीराम के चरणों तक ले जाता है ।




   इस राजपथ पर चलना बहुत आसान है । शरीर में प्राण है, मुख में जीभ है, राम-राम कहकर जीभ का सदुपयोग करना चाहिए । कितनी सहज साधना है । कुछ ढूँढना नहीं, कहीं जाना नहीं तथा राम-राम भजने में कोई कष्ट भी नहीं होता है और इसमें कुछ लगता भी नहीं । अब इससे सहज साधना और क्या हो सकती है ?

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गुरुवार, 9 अगस्त 2012

श्रीमद्भागवत पुराण में प्रम्यूटेसन की अवधारणा


उच्च गणित में प्रम्यूटेसन की अवधारणा है । जिसे स्नातक और परास्नातक स्तर के विद्यार्थियों को पढ़ना होता है । इससे निम्न स्तर पर भी यह दूसरे रूप में पढ़ाया जाता है । यहाँ हम यह बताना चाहते हैं कि सबसे पहले प्रम्यूटेसन की अवधरणा श्रीमद्भगवत पुराण में मिलती है । सबसे पहले नारद जी ने कंस को इसके बारे में बताया था । जिसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध में आता है ।


  कोई भी अरिक्त समुच्चय S लिया जाय तो S क्रोस S से S में परिभाषित ‘वन-वन-ऑन टू’ मैपिंग को ही प्रम्यूटेसन कहा जाता है । एक, दो, तीन, चार, पाँच, छे, सात, आठ........अवयव वाले समुच्चय में परिभाषित कुल प्रम्यूटेसंस की संख्या क्रमशः १, २, ६, २४, १२०, ७२०, ५०४०, ४०३२०,..... होती है ।


 नारदजी ने कंस को जो बताया था वह ८ अवयव वाले समुच्चय पर परिभाषित प्रम्यूटेसंस की बात थी । जब कंस को पता चला कि यहाँ अनेकों स्थितियाँ सम्भव हैं तो उसके कान खड़े हो गए ।


पाठक भली-भाँति इस तथ्य को समझ सकें, इसके लिए जरूरी है कि नारद जी और कंस की बातचीत को कुछ बिस्तार में प्रस्तुत किया जाय ।


  जब कंस अपनी बहन देवकी को, विवाह के बाद, उसके पति बसुदेव जी के साथ घर पहुँचाने जा रहा था तो आकाशवाणी हुई कि देवकी का आठवाँ पुत्र तेरा बध करेगा । यह सुनकर कंस ने देवकी को मारना चाहा । उसने सोचा कि जब देवकी ही नहीं रहेगी तो आठवाँ पुत्र कहाँ से आएगा ।


  इस पर वसुदेव जी ने जन्मते ही अपनी संतान को कंस को सौंप देने का वादा करके तथा तरह-तरह से समझा-बुझाकर कंस को मना लिया ।


  जब वसुदेव-देवकी को प्रथम संतान हुई तो पूर्व शर्तानुसार वसुदेवजी बच्चे को लेकर कंस के दरबार में गए । कंस ने अपनी झूठी दयालुता का परिचय देते हुए बच्चे को मारा नहीं और वापस कर दिया । बोला हमें खतरा तो आठवें से है । वसुदेवजी लौट आये और इधर कंस के दरबार में नारदजी का आगमन हुआ । कंस ने नारदजी को बताया कि आज मैंने वसुदेव-देवकी की पहली संतान को जीवनदान दिया है । क्योंकि मुझे खतरा तो उनकी आठवीं संतान से है ।

 
  नारदजी हँसे और बोले आप ऐसा कैसे कह सकते हैं कि वह आठवीं नहीं पहली संतान है । कंस बोला वह पहले पैदा हुआ है इसलिए वह पहली संतान है । नारदजी बोले वह आठवीं संतान भी तो हो सकता है । कंस विस्मित  हो गया ।


  नारदजी ने कंस को एक जीवंत उदाहरण की मदद से समझाया । उन्होंने आठ रेखाएं खीचकर गिनवाई (कहीं-कहीं सरोवर में खिले कमल के पुष्प का जिक्र किया गया है, बात एक ही है ) किसी एक रेखा को पहली रेखा मानकर गिना तो जो आठवीं आई उसे पहली मानकर फिर से गिना । अब जिसे पहली माना था वह इस बार आठवीं हो गई । इसी तरह नारदजी ने गिन-गिनकर स्पष्ट किया कि जिसे आप पहली समझ रहे हैं वह पहली, दूसरी, तीसरी,......, और आठवीं कोई भी हो सकती है । इसी प्रकार जो दूसरी संतान होगी वह आठ में से कोई हो सकती है ।....... । ऐसा सुनकर और प्रत्यक्ष अनुभव करके कंस का माथा घूम गया ।


 बाद में वसुदेव-देवकी के आठवीं संतान के रूप में जन्म लेकर भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का अंत किया था । श्रीकृष्ण जी का जन्म (प्राकट्य) भादव मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि में हुआ था । तभी से हम जन्माष्टमी का त्यौहार मनाते हैं ।


इस तरह कंस को समझाने के लिए नारदजी ने प्रम्यूटेसन थ्योरी का प्रयोग किया था ।

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बुधवार, 25 जुलाई 2012

संत उदय जग मंगल हेतू


संसार रुपी आकाश में सुसंत रुपी नक्षत्र के उदयीमान होने से संसार का मंगल होता है । दुनिया का भला होता है । सुसंत देश-समाज को नई दिशा देते हैं, लोगों को अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं तथा मानव बनने की सीख देते हैं । साथ ही ऐसा कुछ दे जाते हैं, अपने पीछे छोड़ जाते हैं जिससे संसार का लाखों वर्षों तक या यूँ कहिये कि असीमित समय तक मंगल होता रहता है । गोस्वामीतुलसीदास जी महाराज ऐसे ही संत थे ।

  
संत संसार में आकर अपना कल्याण करने के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करते हैं । सच तो यह है कि ये दूसरों का कल्याण करने के लिए ही आते हैं । इनका कोई दूसरा प्रयोजन होता ही नहीं । गोस्वामी तुलसीदास जी के आने से सारे संसार का कल्याण तो हुआ ही, सनातन धर्मियों को विशेष लाभ हुआ । ऐसा लाभ जो अन्य सभी लाभों से बढ़कर होता है । आज यहाँ तक कहा जाता है कि यदि कोई अपने को सनातन धर्मी यानी हिन्दू कहता हो और वह गोस्वामी तुलसीदास को न जानता हो अथवा उनका नाम न सुना हो तो उसके सनातनधर्मी होने में संदेह हो सकता है । गोस्वामी जी महाराज ऐसे सनातन धर्मी संत थे जो इसे पतन से बचाकर उत्थान की ओर ले जाने के लिए इसके सारे मर्मों, रहस्यों को टटोलकर, अपनी शिक्षाओं में जो इनकी पुस्तकों में संग्रहीत हैं, रख दिया; सच्चे और सरल अर्थो में समझाकर कह दिया । इससे सनातन धर्म को जीवटता प्राप्त हुई । क्योंकि लोग इसे आसानी से समझने व समझाने में सफल हुए और कल्याण के भागी हुए ।

   
गोस्वामी तुलसीदास सरीखे संत राग-द्वेष, छल-आडम्बर, पाखंड-धूर्तता, मान-अमान व धन के संग्रह से परे और बिकार रहित होते हैं । ये केवल अपने ईष्ट के भजन में लगे रहते हैं । ये कवि होते हैं और अपनी कविता का प्रयोग अपने ईष्ट की सौंदर्य-माधुरी और उनकी दिव्य लीलाओं के वर्णन करने में ही करते हैं । जिह्वा का प्रयोग भगवान के गुणों, लीलाओं के गान करने में और भगवन्नाम का जप करने में करते हैं । सबसे सम व्यवहार करते हैं-

“सिय राम मय सब जग जानी । बंदहुँ सबहिं जोरि जुग पानी” ।।  


 ऐसे में ये किससे बैर रखें, किसका विरोध करें ? ये अपने आचरण से, ज्ञान से ऐसा संदेश देते हैं कि संसार उससे सीख लेकर मनुज से मानव बनकर रहे और कल्याण का भागी होकर अखिल भुवनपति भगवान श्रीराम प्रभू के चरणों में प्रीति करते हुए उन्हीं को प्राप्त हो जाए ।


  सुसंत लोगों को सच्चा ज्ञान सिखाते हैं । उन्हें भरमाते अथवा भटकाते नहीं हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी ने सारे संसार को सच्चा ज्ञान सिखाया है-


 गुरू तुलसीदास ने लोगों को सच्चा ज्ञान सिखाया है ।

जग में रहकर श्रीराम भजो जन-जन को समझाया है ।।

दीन-मलीनों को रघुवर ने सादर गले लगाया है ।

मानहिं केवल भक्ति का नाता मानस में यह आया है ।।

परहित, दया, सत्य, अहिंसा को धर्म पुण्य बतलाया है ।

परपीड़ा, निंदा, झूंठ, हिंसा को अधर्म पाप बताया है ।।

ज्ञान, विराग, भक्ति त्रिवेणी सुजनों को नहलाया है ।

उनके शुभ उपदेशों पे संतोष बहुत ललचाया है ।।


   जैसे संसारी लोग अपने परिवार के लिए कुछ न कुछ थाती छोड़ जाते हैं ।  ठीक इसी प्रकार सुसंत भी करते हैं । लेकिन सुसन्तों का परिवार सीमित थोड़े होता है । सारा संसार उनका परिवार होता है । गोस्वामी जी भी हमें थाती दे गए हैं । हम लोगों का कर्तव्य है कि हम इस थाती को संभाल कार रखें और इसका अनुगमन करें जिससे अपने साथ-साथ दूसरों का भी मंगल हो-



तुलसीदास गुरू ने सौंपी जन-जन को ऐसी थाती है ।

देखि जिसे सब साधु-सुजन की हर्षित होती छाती है ।।

भवसागर से पार जो होना सीधा राह बताती है ।

रामनाम का जाप करो गति अनायास मिल जाती है ।।

पढ़ने सुनने पाठ किए से प्रेम सहित बतलाती है 

श्रीरामचन्द्र के चरण कमल में पावन प्रीति कराती है ।।

रामकृपा हो जाए फिर क्या चीज शेष रह जाती है ।

सोई-खोई किसमत भी संतोष सहज जग जाती है ।।



गोस्वामीजी ने श्रीरामचरितमानस जी को देकर सबका परम कल्याण किया है-


गुरू तुलसीदास जो श्रीरामचरितमानस न गाते ।

परम मनोहर सहज कथा बिनु लोग अधिक भरमाते ।।१।।

भवसागर से तरने का सरल सुगम मारग न सुझाते ।

साधु सुजन जन प्रेरणादायक सुंदर उक्ति कहाँ पाते ।।२।।

बरबस ही लोंगो के मुख में पावन छंद कहाँ आते ।

सच में मानस न होती तो धरम-करम बहु मिट जाते ।।३।।

दीन संतोष हीन जन मोसे राम चरन नहि लगि पाते ।


मूढ़ मलीन बिबस कलिकाल जनम-जनम लगि फँसि जाते ।।४।। 



। जय श्रीराम 

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सोमवार, 16 जुलाई 2012

निर्मल मन जन सो मोहि पावा


भगवान को आडम्बर बिल्कुल ही पसंद नहीं है । बनावट उनको रास नहीं आती । भगवान को निर्मल मन से ही पाया जा सकता है । कोई प्राणी चाहे वह व्रह्मा के समान ही क्यों न हो । यदि वह छल-कपट से युक्त है तो उसे भगवान कभी नहीं मिलेंगे । छल-कपट रहित होकर सच्चे मन से जो भगवान को चाहेगा, तो वह चाहे जो हो, उसे भगवान की कृपा मिलेगी । उसे भगवान मिल जायेंगे ।
                                           
  भगवान को दिखावा बिल्कुल पसंद नहीं है । भगवान के पास बिना किसी हिचक के अपनी स्वाभाविक अवस्था में ही जाना चाहिए । यदि जरा सा भी आडम्बर, बनावट बीच में आया तो भगवान स्वीकार नहीं करेंगे । हम श्रीरामचरितमानस से एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं ।

   जब भगवान श्रीराम अपने अनुज श्रीलक्ष्मण जी के साथ श्रीसीताजी के खोज में ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़ रहे थे । तो सुग्रीव को शंका हुई कि कहीं ये बालि के भेंजे हुए तो नहीं हैं । इसलिए सुग्रीव ने श्रीहनुमानजी को उनका भेद लेने के लिए भेजा ।

  श्रीहनुमानजी व्राह्मण का वेष धारण करके श्रीराम-लक्ष्मण के सम्मुख गए । श्रीरामजी के बात करने के तरीके से हनुमानजी ने उन्हें पहचान लिया कि ये अखिल जगत नियंता पारव्रह्म परमेश्वर हमारे आराध्य श्रीराम जी हैं । जिनकी मैं प्रतीक्षा कर रहा था । स्वयं कृपा करने आ गए हैं । इसलिए श्रीहनुमानजी तुरंत उनके चरणों में लेट गए ।

   श्रीराम प्रभु बहुत ही दयालु हैं । करुणा के सागर हैं । बहुत ही सरल और संकोची स्वभाव के हैं । गोस्वामीजी ने यहाँ तक कहा है कि यदि कोई प्रेम से, छल-कपट रहित होकर, श्रीरामजी को प्रणाम भी कर ले तो श्रीरामजी सकुचा जाते हैं । ऐसे में यदि कोई उनके चरणों में लेट जाय तो उनसे रहा नहीं जाता । वे एक क्षण की भी देरी नहीं करते । तुरंत उठाकर गले से लगा लेते हैं । ऐसा श्रीरामजी का स्वभाव है ।

   लेकिन आज यह पहली घटना थी । जब कोई श्रीरामजी के चरणों में लेटा हो और श्रीराम ने उसे तुरंत उठाकर गले न लगाया हो । यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि चरणों में लेटा हुआ व्यक्ति भगवान का प्रिय भक्त, चिर सेवक श्रीहनुमानजी महाराज थे । फिर भी श्रीरामजी ने उन्हें नहीं उठाया ।

   श्रीहनुमानजी सोचने लगे कि जरूर हमसे कुछ भूल हो गई है । नहीं तो अब तक करुणासागर के करुणा का ज्वार जरूर उठ गया होता । उन्हें अपनी भूल याद आ गई । वे खुद उठे । और स्तुति करने लगे । और फिर से चरणों में लेट गए । और अपने वास्तविक रूप में आ गए । छल वाला (बनावटी) रूप भी त्याग दिया । भगवान श्रीराम ने अब जरा सी भी देरी नहीं की । तुरंत उठाकर गले से लगा लिया-

         तब रघुपति उठाय उर लावा । निज लोचन जल सींच जुड़ावा ।।
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रविवार, 1 जुलाई 2012

तुम ही आदि मध्य अवसाना


भगवान का न ही आदि है, न ही मध्य है और न ही अंत है । भगवान आदि, अंत और मध्य से परे हैं । अर्थात वे आनादि और अंत रहित हैं । लेकिन यह चराचर जगत आदि, अंत और मध्य से परे नहीं है । संसार कहाँ से आया ? इसका अंत कब और कैसे होगा ? इत्यादि ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें आम आदमी से लेकर बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी जानना और समझना चाहते हैं ।

 
   संसार अथवा जीवन के जो भी रहस्य हैं उनका समुचित उत्तर संसार के सबसे प्राचीन धर्म यानी सनातन धर्म में ही स्पष्ट रूप में मिलता है । सनातन धर्म को किसी व्यक्ति बिशेष ने (मानव सृष्टि के बाद ) आरंभ नहीं किया है । यह अनादि काल से ही चला आ रहा है । मानव सृष्टि के पहले भी यह धर्म था । इसका न ही लोप होता है और न ही आरंभ ।  वास्तव में यह कोई धर्म अथवा पंथ नहीं है । यह जीवन का विज्ञान है । मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है ? संसार क्या है ? ईश्वर क्या है ? उनके रहस्य क्या-क्या हैं ? तथा मनुष्य मानव कैसे बना रह सकता है, यह सब सनातन धर्म ही बोधगम्य ढंग से सिखाता है ।


   यह चराचर जगत भगवान से ही उत्पन्न होता है और भगवान में ही समाहित हो जाता है । इस चराचर जगत के आदि में कुछ नहीं था । जो था वही ईश्वर है । इसके अंत में भी कुछ नहीं बचता । जो बचता है वही ईश्वर है । इसके आदि, अंत और मध्य भगवान ही हैं । इस लिए भगवान के लिए ‘तुम ही आदि मध्य अवसाना’ भी कहा जाता है ।
  

    किसी चीज का कोई एक ही आदि, मध्य और अंत भी हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए । उच्च गणित में ऐसे कई उदाहरण हैं । यदि हम कोई भी एकल समुच्चय लें तो इसका आदि, अंत और मध्य एक ही होता है । इस प्रकार ‘तुम ही आदि मध्य अवसाना’ गणितीय है । यह कोई अजीब तथ्य नहीं है ।

 
  इस अखिल चराचर संसार की उत्पत्ति एक बिंदु से होती है । वही बिंदु ही ईश्वर है । एक अनंत त्रिज्या के गोले अथवा आसानी के लिए वृत्त पर बिचार कीजिए । वृत्त का विस्तार केन्द्र (एक निश्चित विन्दु) से होता है । अनंत त्रिज्या के वृत्त की त्रिज्या यदि शून्य हो जाय तो क्या मिलेगा ? केवल वही निश्चित विन्दु ! अर्थात जिस विन्दु से वृत्त की सृष्टि (उत्पत्ति) होती है । यदि वृत्त का अंत हो तो वही विन्दु शेष रह जाता है । तथा वृत्त का मध्य भी केन्द्र विन्दु ही होता है ।

 
   ठीक इसी प्रकार इस संसार रुपी वृत्त का विस्तार (आरंभ) ईश्वर रुपी विन्दु से होता है । और अंत में विन्दु ही यानी ईश्वर ही शेष बचता है । इसलिए ही सदग्रन्थ भगवान को ‘तुम ही आदि मध्य अवसाना भी कहते है’ ।

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शनिवार, 16 जून 2012

अमित प्रभाव वेद नहि जाना



भगवान अनंत हैं । भगवान की लीला कथाएँ अनंत हैं । भगवान के गुण अनंत हैं । भगवान की महिमा अनंत है । भगवान का प्रभाव अनंत है । भगवान की करूणा अनंत है…..


 अनंत का एक मतलब यह है कि जिसका कोई अंत न हो अर्थात जो अंत रहित हो । दूसरा मतलब ऐसा भी है कि जिसका आदि, अंत और मध्य न हो, वह अनंत है ।  जो अनंत हो उसका कोई पार नहीं पा सकता । जब अंत ही नहीं होगा तो कोई पार कैसे पायेगा ?  जिसका अंत हो जाय अथवा जिसके अंत का पता चल जाय वह अनंत की परिभाषा के अंतर्गत आएगा ही नहीं । अनंत के ये दोंनो अर्थ उच्च गणित में भी प्रयोग में लाए जाते हैं । संख्या पद्धति (Number System), समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), समूह सिद्धांत (Group Theory), वलय सिद्धांत (Ring Theory), क्षेत्र सिद्धांत (Field Theory) इत्यादि में दोंनो के कई उदाहरण हैं ।

  
    भगवान अनन्त हैं । इसके कई अर्थ हैं । यदि भगवान की विराटता की बात की जाय तो वे इतने विराट हैं कि न ही उनका आदि, न ही मध्य और न ही अंत जाना जा सकता है । यहाँ यह बताना जरूरी है कि भगवान दूसरे रूप में इतने सूक्ष्म भी हैं कि वहाँ आदि, अंत और मध्य की परिभाषा ही समाप्त हो जाती है । इस रूप को ही निराकार कहा गया है । माइक्रोफिजिक्स (Quantum Mechanics) में भी ऐसी स्थिति है जहाँ आदि, अंत और मध्य की परिभाषा समाप्त हो जाती है ।

 
   भगवान की अनंतता का दूसरा अर्थ यह भी है कि वे आदि, अंत और मध्य से परे हैं । यह सब सामान्य जीवों के लिए लागू होता है । उदाहरण के लिए भगवान का न आदि (आरंभ) है यानी न वे जन्मते हैं और न ही कभी उनका अंत (विनाश) होता है । किसी भी चीज का मध्य तभी निर्धारित होता है जब उसका आदि और अंत ज्ञात होता है । गणित में परस्पर सम्बन्ध तीन राशियों में से कोई एक तभी ज्ञात की जा सकती है, जब शेष दो राशियों ज्ञात हों । चूँकि भगवान का आदि और अंत नहीं है । इसलिए ही उनका मध्य नहीं है । सामान्य जीव जन्मता है और उसके जीवन का अंत भी होता है । इसलिए जीवन का मध्य भी होता है । भगवान सदा एक रूप रहते है । लेकिन सामान्य जीवों का शरीर काल चक्र से बदलता रहता है ।
  

   भगवान की अनंतता में अनेकों अनंत समाहित हैं । ऐसे भगवान की महिमा का पार कौन पा सकता है ? किसी चीज के बारे में जानकारी न होना हमारी अपनी कमजोरी है न की उस चीज की ।  दरअसल किसी चीज के बारे में न जान पाना अथवा ठीक से न जान पाना हमारी अल्पज्ञता है । हमारी अज्ञानता है । इसमें चीज का क्या दोष है ? जब हम संसार के रहस्यों को ही नहीं जान पाते तो संसार बनाने वाले और संसार से परे भगवान के रहस्यों को कैसे समझ सकेंगे ?

   
     सदग्रन्थ कहते हैं कि शेष, महेश, गणेश, नारद-शारद व अन्यान्य देवी-देवता तथा बड़े-बड़े विशारद और वेद भी भगवान का पार नहीं पाते । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । एक सामान्य उदाहरण से देखें तो यह स्पष्ट हो जायेगा । पुत्र, पिता के बारे में बहुत कुछ जान सकता है । लेकिन सब कुछ तो नहीं जान सकता । पिता के जीवन के कई रहस्य ऐसे हो सकते हैं जिनका पुत्र को भनक तक न हो ।


    ठीक इसी तरह सारे देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा वेदों को भगवान ने ही उत्पन्न किया है । ऐसे में यदि ये भगवान को, उनकी महिमा को, उनके अमित प्रभाव को ठीक से नहीं जानते तो इसमें आश्चर्य क्या है ? सच तो यह है कि भगवान से परे कुछ भी और कोई भी नहीं है चाहे वह कोई देवी-देवता अथवा वेद ही क्यों न हो । लेकिन भगवान सबसे परे हैं ।

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शुक्रवार, 1 जून 2012

नहि तव आदि मध्य अवसाना


सनातन धर्म में भगवान की महिमा और विराटता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि न ही आपका आदि यानी आरम्भ है, न मध्य है और न ही अंत । जो अनंत हो उसका आदि, मध्य और अंत हो ही कैसे सकता है ?

 जो अनंत हो उसके बारे में पूरी तरह कैसे जाना जा सकता है ? संतो ने कहा है कि भगवान को वही जान सकता है जिसे भगवान खुद जना दें । अन्यथा भगवान को जान पाना मुश्किल है । ऐसे भगवान को लोग अपनी बुद्धि से जानना चाहते हैं, पहचानना चाहते हैं और उनका पार पाना चाहते हैं । जो कहाँ सम्भव है ? जब लोग अपनी अल्प बुद्धि से भगवान को नहीं जान पाते, उनकी महिमा का पार नहीं पाते तो अभिमान व अज्ञान बस कहने लगते हैं कि भगवान हैं ही नहीं । आज की स्थिति यही है ।

  यहाँ हम यह बताना चाहते हैं कि भगवान का न ही आदि है, न ही मध्य है और न ही अंत है । यह तथ्य गणितीय है । वैज्ञानिक है । उच्च गणित और उच्च विज्ञान इस तथ्य का समर्थन करते हैं । ऐसे ऑब्जेक्ट उच्च गणित में भी हैं । यहाँ हम एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं । जो लोग हाईस्कूल स्तर का भी गणितीय ज्ञान रखते हैं । वे इसे आसानी से समझ सकेंगे ।

 गणित में सेट अथवा समुच्चय की अवधारणा है । इसी में एक पूर्णाकों का समुच्चय कहलाता है । यहाँ यह बहुत ही ध्यान देने योग्य बात है कि पूर्णाकों के समुच्चय का न ही आदि होता है, न मध्य और न ही अंत । इस प्रकार यह ‘नहि तव आदि मध्य अवसाना’ का प्रतिनिधत्व करता है ।
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बुधवार, 16 मई 2012

शादी-विवाह में समान गुण-धर्म की आवश्यकता


शादी-विवाह एक ऐसा बंधन है जिसमें बंधने के लिए बहुत सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है । चाहे जिससे विवाह नहीं किया जा सकता । जो लोग जल्दीबाजी में कोई ऐसा-वैसा कदम उठा लेते हैं । आगे चलकर उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है । उनके बच्चों को भी इससे समस्याओं का सामना करना पड़ता है  विवाह रुपी बंधन में बंधने के लिए समान गुण-धर्म पर जोर देना बहुत आवश्यक है । इसके बिना सुसंगत जीवन जीना सरल नहीं होता ।

    संत और सदग्रन्थ कहते हैं कि विवाह में कम से कम तीन चीजें जरूर अच्छी और अनुकूल होनी चाहिए: १. घर, २. वर, और ३. कुल  लड़की के अनुरूप लड़का और लड़के के अनुरूप लड़की का होना आवश्यक है- ‘जौ घरु वरु कुलु होय अनूपा । करिअ विवाहु सुता अनुरूपा’ । यदि लड़की पढ़ी-लिखी है तो लड़का भी ऐसा ही होना चाहिए । लड़की सुंदर हो तो लड़का भी सुंदर होना ही चाहिए । इत्यादि । कहने का तात्पर्य यह है कि शादी-विवाह में विपरीत गुण-धर्म को जहाँ तक हो सके त्यागना चाहिए ।

    कई लोग किसी स्वार्थ अथवा लालच बश समान गुण-धर्म की अनिवार्यता को नजरंदाज कर देते हैं । कई लोग तो कन्या और वर की आयु का भी मेल नहीं बिठाते । ऐसा देखा जाता है कि देश समाज में कई विवाह ऐसे होते हैं जिन्हें बेमेल विवाह की संज्ञा दी जा सकती है ।

    जैसा कि कई युवा समझते हैं, शादी-विवाह का एक उद्देश्य नहीं होता । यह बहु उद्देशीय संस्कार है । व्यवस्था है । जिसके माध्यम से परिवारिक-सामाजिक संतुलन को बनाये रखकर गृहस्थाश्रम में रहते हुए परमात्मा की प्राप्ति का साधन करना होता है ।

   विवाह का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि साथ में रहें, खायें-पियें और बच्चे पैदा करें । यह गुण तो जानवरों में भी पाया जाता है । वे भी इतना कर लेते हैं । लेकिन मानव को इसके अलावा कुछ और करना होता है । पत्नी का धर्म है कि वह पति को पतन से बचाए । उसे भगवान श्रीराम के चरणों में प्रीति करने की प्रेरणा दे । और सहभागी बने । सभी ने सुना होगा कि जब कोई लड़का पढ़ाई-लिखाई और घर के काम-काज में कोई रूचि नहीं लेता तो कई बार बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि इसकी शादी कर दो । ठीक हो जायेगा । इसका तात्पर्य यही रहता है कि पत्नी इसे पतन से बचा लेगी और यह रास्ते पर आ जायेगा । ठीक इसी तरह पति का भी यही धर्म है कि वह पत्नी को भगवान के चरणों में प्रीति कराने में सहभागी बने । यदि दोनों के समान गुण-धर्म नहीं होंगे तो इसमें भी बाधा आएगी । इसलिए आस्तिक के साथ नास्तिक का विवाह भी बेमेल विवाह ही होता है ।

    जिस समाज में कन्या पली-बढ़ी है, जिसके संस्कार उसे मिले हैं, उसमें ही वह एक सुसंगत वैवाहिक जीवन जी सकती है । जीना भी तो कई तरह होता है । यह सब वर के लिए भी लागू होता है । सही सामंजस्य बिठाकर जीना है तो समान गुण-धर्म को नजरंदाज नहीं करना चाहिए ।

     हमने यहाँ जो कहा वह गणितीय है । गणित-विज्ञान भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं । हम संक्षेप में गणित के माध्यम से इसे समझाने का प्रयास कर रहे हैं । एक छोटा उदाहरण दे रहे हैं जिससे लोग आसानी से समझ सकें । इसके लिए स्कूल स्तर की गणित की जानकारी जरूरी है ।

   बीजगणित में सजातीय और बिजातीय पद की अवधारणा है । विवाह का मतलब जोड़ होता ही है । गणित में दो समान गुण-धर्म वाले पद जैसा जुड़ते हैं । वैसा विपरीत गुण-धर्म वाले पद नहीं जुड़ते । जुड़ तो जाएंगे, लेकिन जुड़ने के बाद भी उनमें अलगाव बना रहता है । उदाहरण के लिए-
     २ और बिजातीय है । इनका जोड़ होगा- २ + अ. दोनों जुड़ तो गए फिर भी उनमें अलगाव है । वहीं दूसरी ओर और सजातीय यानी समान गुण-धर्म वाले हैं तो इनका जोड़ होता है- २ + ३ =५ . इस स्थिति में दोनों ऐसे जुड़े कि एक हो गए ।
   


  इसी तरह और जुडकर २अ हो जाता है । लेकिन और जुडकर अ + ब यानी अलग बने रहते हैं । यह एक छोटा सा उदाहरण है । उच्च गणित में ऐसे कई सिद्धांत हैं । इसी तरह विज्ञान की अन्य शाखाओं में भी कई सिद्धांत मिलते हैं । जैसे भौतिकी में यदि किन्हीं दो भौतिक राशियों को जोड़ना है तो उनकी बिमा समान होनी चाहिए । यदि बिमा समान नहीं है तो ऐसे में दोनों के जोड़ को अनबैलिड माना जाता है ।

    इस प्रकार गणित-विज्ञान भी जोड़ में समान गुण-धर्म पर बल देते हैं । सनातन धर्म भी यही बताता है कि शादी-विवाह में समान गुण-धर्म की जरूरत होती है । सुखमय जीवन के लिए इन्हें नजरंदाज नहीं करना चाहिए । सुख को सीमित अर्थों में नहीं लेना चाहिए । सच्चा सुख वही है जो भगवत प्रेम से मिलता है । गृहस्थाश्रम में रहकर लोग परमात्मा की ओर उन्मुख हों । इसी से सच्चा सुख मिलेगा और मानव जीवन की सार्थकता होगी ।
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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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