सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

बुधवार, 29 नवंबर 2017

क्या शास्त्रों के अनुसार गुरू को भी घोर नर्क मिल सकता है

शास्त्रों में गुरू की अपार महिमा बताई गई है । गुरू जीव को परमात्मा से जोड़ने का काम करते हैं । गुरू बनना कोई सहज कार्य नहीं है । हर कोई गुरू नहीं बन सकता । शाश्त्रों के अनुसार गुरू को भी घोर नर्क मिल सकता है । 


 गुरू का मुख्य कार्य शिष्य के अंदर के अंधकार को मिटाना होता है । और प्रकाशमय परमात्मा से जोड़ना होता है । जब तक जीव के अंदर का अंधकार नहीं मिटता तब तक वह हृदयस्थ परमात्मा का भी अनुभव नहीं कर पाता ।


  गुरू से जुड़कर शिष्य को शोक रहित हो जाना चाहिए । यह गुरू का दायित्व है कि वह अपने शिष्य को शोक रहित कर दे । जीव जब तक भगवत अनुरागी नहीं बनता तब तक वह शोक रहित नहीं होता । सभी शोक का एक ही कारण है राम जी से दूरी । जीव जितना राम जी से समीपता का अनुभव करता है उतना ही वह शोक रहित होता जाता है ।


अब कोई गुरू ऐसा है जो शिष्य के धन का हरण तो करता है लेकिन शिष्य के शोक को दूर नहीं करता तो यह गलत है । गुरू से जुड़ने के पहले जो शिष्य की स्थिति थी वही स्थिति गुरू से जुड़ने के बाद भी रह जाती है तो क्या फायदा ? और यदि ऊपर से गुरू शिष्य से धन भी लेता रहता है तो शिष्य को ऐसे गुरू से क्या लाभ हुआ ? गुरू से जुड़ने के बाद जीवन बदलना चाहिए । भगवत अनुराग होना चाहिए, बढ़ना चाहिए । राम जी से समीपता का अनुभव होना चाहिए ।



गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानस जी में कहते हैं कि ऐसा गुरू जो शिष्य के धन का हरण तो करता है लेकिन शिष्य के शोक को दूर नहीं करता तो वह गुरू घोर नर्क में जाता है-



हरय शिष्य धन शोक न हरई । सो गुर घोर नरक महुँ परई ।। (श्रीरामचरितमानस उत्तर काण्ड)



।। जय श्रीसीताराम ।।

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सोमवार, 27 नवंबर 2017

धन आदि किसी भी लौकिक कामना से राम जी से जुड़ने वाले लोग भी भक्त होते हैं

संत और सदग्रंथ कहते हैं कि जीवन का परम लक्ष्य राम जी से जुड़ना है । यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ।  राम जी से जुड़ने वाले कुल चार तरह के लोग होते हैं । जुड़ने का मतलब भजन करने वाले से हैं । अर्थात राम जी का भजन करने वाले कुल चार तरह के लोग होते हैं-

१.      अर्थार्ती

२.      आर्त

३.      जिज्ञासु और

४.      ज्ञानी


अर्थार्ती वे लोग होते हैं जो धन आदि की इच्छा से राम जी का भजन करते हैं । राम जी से जुड़ते हैं । आर्त वे लोग होते हैं जो किसी दुख अथवा कष्ट के निवारण हेतु राम जी से जुड़ते हैं । जिज्ञासु वे लोग हैं जो भगवान और भगवान के रहस्य को समझने के लिए राम जी से जुड़ते हैं । तथा ज्ञानी वे लोग हैं जो भगवान को जानते हैं, समझते हैं और प्रेम से भजते हैं ।


इस प्रकार से राम जी से जुड़ने वाले चार तरह के लोग होते हैं । गोस्वामी तुलसीदास महाराज ने इन चारों तरह के लोंगो को भक्त कहा है और चारों को पुण्यात्मा, पापरहित और उदार बताया है ।


अतः स्पष्ट है कि जो जैसा चाहे राम जी से जुड़ सकता है । चाहे किसी कामना की पूर्ति के लिए जैसे धन, पद, प्रतिष्ठा, पुत्र आदि प्राप्ति के लिए जुड़े । अथवा किसी कष्ट, रोग, व्याधि अथवा दुख के निवारण के लिए जुड़े । या फिर भगवान को जानने, समझने के लिए जुड़े अथवा प्रेम से बिना किसी कामना के जुड़े । इनमें से सब अच्छे हैं फिर भी चौथे तरह के भक्त राम जी को ज्यादा  प्रिय होते हैं ।


कुल मिलाकर कोई भी और किसी तरह से भी राम जी से जुड़ सकता है और अपना कल्याण कर सकता है ।


                              ।। जय श्रीसीताराम ।।


शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

रामायण और कृतज्ञता: कृतघ्न का समाधान नहीं

जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हम अनेकों लोंगो से, अनेकों चीजों से लाभान्वित होते हैं । इसमें चर-अचर सभी शामिल हैं । अनेक माध्यम से जीवन पर्यन्त कुछ न कुछ सीखते रहते हैं । हम जहाँ कहीं भी जिस किसी मुकाम पर होते हैं वहाँ तक पहुँचने में अनेक लोंगो की मदद हमें प्राप्त होती है । इसलिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए । यह सिलसिला घर-परिवार से शुरू होकर देश-समाज तक जाता है । यह शिक्षा हमें रामायण जी से और राम जी से मिलती है ।


रामायण एक तरह से मानव विज्ञान है । मानव मनोविज्ञान है । मानवता का विज्ञान है । मनुष्य को कैसे रहना चाहिए ? देश, समाज और परिवार के प्रति कैसा कर्तव्य होना चाहिए ? रामायण से हमें इसकी शिक्षा मिलती है ।


सनातन धर्म में कृतज्ञता का बहुत महत्व है । हर किसी को कृतज्ञ होना चाहिए । यहाँ तक कहा गया है कि कृतघ्न मनुष्य का कोई समाधान नहीं है । सुगति नहीं है । इसलिए कृतज्ञता का भाव होना बहुत जरूरी है । हमें चर-अचर सबके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए यह हमारी सनातन संस्कृति का हिस्सा है । सनातन धर्म की सीख है । रामायण की सीख है । राम जी की सीख है ।


हमारे राम जी बहुत ही कृतज्ञ हैं । और उन्होंने हम लोंगो को भी यही सिखाया है । चाहे गीध जटायु हों, चाहे वानर-भालु हों सबके उपकार की बड़ाई राम जी करते हैं । और इतना ही नहीं यहाँ तक कहते हैं कि मैं ही नहीं आपका यह उपकार रघुकुल कभी नहीं भूलेगा ।


जब हनुमान जी महाराज सीता माता का पता लगाकर राम जी के पास वापस आए तो राम जी ने कहा कि पुत्र हनुमान मैं तो आपका ऋणी हो गया हूँ । इस उपकार के बदले कोई प्रतिउपकार मुझसे नहीं बन पायेगा । मैं कभी भी आपसे उरिण नहीं हो पाउँगा । इस प्रकार से राम जी कृतज्ञता की सीमा हैं । परम कृतज्ञ हैं ।


कृतज्ञ होना मानव का लक्षण हैं और कृतघ्न होना दानव का लक्षण हैं । इसलिए प्रत्येक मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए । कृतघ्नता का कोई उपचार नहीं है ।




।। जय श्रीसीताराम ।।

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बुधवार, 22 नवंबर 2017

कपटी मुनि-साधु के चक्कर में पड़ने से सर्वनाश तक हो सकता है

आज कल निराशा का माहौल है, अनिश्चितता का माहौल है, अशांति का माहौल है,  दुख का माहौल है । ऐसे में लोग सुख-शांति तलाशने के लिए साधु और अध्यात्म की ओर जाते हैं ।

                
इसका फायदा उठाकर लोंगो को ठगने के लिए कुछ लोग कपट वेष धारण करके अपने को साधु रूप में दिखाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं । ऐसे में कई लोग अनजाने में भूल वश फँस जाते है । अथवा ऐसा कहें कि इनका शिकार बन जाते हैं । लेकिन ऐसे लोंगो से बचना बहुत जरूरी है । क्योंकि लाभ तो सच्चे साधु और भक्त से जुड़ने पर ही होता है । कपटी मुनि के चक्कर में पड़ जाने से नुकसान ही अधिक होता है । यहाँ तक सर्वनाश तक हो सकता है ।


जो कोई भी ऐसे लोंगो के चक्कर में पड़ जाता है उसे हानि ही उठानी पड़ती है । दुख का सामना करना पड़ता है । सर्वनाश तक हो सकता है । हम शास्त्र सम्मत तीन कपटी मुनियों का उदाहरण दे रहे हैं ताकि लोग समझ सकें और ऐसे लोंगो से बचकर लाभ उठा सकें ।


श्रीरामचरितमानस जी में तीन कपटी मुनियों का वर्णन हैं । कपटी मुनियों के चक्कर में पड़ने से अनर्थ हो जाता है ।  इसलिए समय रहते चेत जाना जरूरी है ।  


प्रतापभानु जी बहुत बड़े धर्मात्मा राजा थे । लेकिन एक बार ये एक कपटी मुनि के चक्कर में पड़ गए और इनका सर्वनाश हो गया । दूसरा कपटी मुनि रावण बना जिसके चक्कर में पड़ने से माता सीता को भी दुख उठाना पड़ा । 


तीसरा कपटी मुनि कालनेमि बना जिसके चक्कर में हनुमान जी महाराज पड़े लेकिन समय रहते चेत जाने से अनर्थ होने से रह गया ।


अतः स्पष्ट है कि कपटी मुनि के चक्कर में पड़ जाने से हानि ही होती है । अनर्थ होता है । और सर्वनाश तक हो सकता है ।


साधु और भक्त से जुड़ने से मंगल होता है । लाभ होता है । इसलिए जुड़ना हो तो सच्चे साधु और भक्त से जुड़िये । कपटी साधु-मुनि से, बहुरूपिए से बचकर रहिए 


 

।। जय श्रीसीताराम ।।




सोमवार, 20 नवंबर 2017

भगवान हरिहर: आधे भगवान शिव और आधे भगवान विष्णु

भगवान शंकर जी के अर्धनारीश्वर स्वरूप से कौन परिचित नहीं होगा ? भगवान अर्धनारीश्वर जी के मन्दिर भी मिलते हैं । इस स्वरूप में भगवान शंकर और माता पार्वती दोंनो एक साथ एक रूप में समाये हैं । इस स्वरूप में आधा शरीर भगवान शंकर का होता है और आधा माता पार्वती जी का । वाम भाग का शरीर माता पार्वती का और दक्षिण भाग का शरीर भगवान शंकर का होता है । इस प्रकार आधे शिव और आधे पार्वती से मिलकर भगवान अर्धनारीश्वर जी बनते हैं ।


जैसे भगवान अर्धनारीश्वर हैं ठीक ऐसे ही भगवान हरिहर भी हैं । लेकिन हरिहर स्वरूप में आधे भगवान शिव और आधे भगवान विष्णु होते हैं । भगवान शंकर जी में और भगवान विष्णु जी में बड़ा प्रेम है इसलिए दोंनो लोग आधे-आधे मिलकर भगवान हरिहर हो गए हैं


 गोस्वामी तुलसीदास जी ने हरिशंकरी नामक एक पद की रचना किया है जो विनय-पत्रिका में दिया हुआ है । इस पद में युगल छंद हैं । हर छंद के प्रथम भाग में भगवान शंकर की और दूसरे में भगवान विष्णु जी की महिमा-वंदना है ।



  वस्तुतः यह पद नहीं है  यह हरिशंकरी नामक भगवान शिव और भगवान विष्णु के नामों की मंत्रावली है  इस मन्त्रावली की बड़ी महिमा है ।  यह बहुत ही कल्याणकारी है 

इस मंत्रावली को गोस्वामी जी ने शिव लोक और विष्णु लोक के लिए सीढ़ी कहा है । अर्थात इस मंत्रावली से जीव शिव और विष्णु लोक को प्राप्त कर सकता है ।




।। जय श्रीसीताराम ।।

बुधवार, 15 नवंबर 2017

सत्य सनातन धर्म के धार्मिक ग्रंथ-पुराण और लोंगो की मूर्खताएँ

जैसे सत्य सनातन धर्म में अनेक देवी देवता हैं वैसे ही सनातन धर्म में अनेकों ग्रंथ भी हैं । इनमें अठारह पुराण भी हैं । अलग-अलग पुराण अलग-अलग देवता को समर्पित हैं । जैसे विष्णु पुराण विष्णु भगवान को समर्पित है तो शिव पुराण भगवान शंकर जी को समर्पित है ।


सनातन धर्म के ग्रंथों में कई बाते ऐसी आती हैं जिन्हें पढ़कर अथवा सुनकर लोग अज्ञानता अथवा मूर्खता वश उसे गलत कहने अथवा समझने लगते हैं । कई लोग तो निंदा भी करते हैं अथवा करने लग जाते हैं ।


बचपन से ही राम जी की ऐसी कृपा हुई कि कोई कुछ भी कहे मेरे ऊपर कोई फर्क ही नहीं पड़ता था बल्कि हँसी आती थी अथवा मन में सोचता था कि कराल कलिकाल ने इन्हें वरगला रखा है इसलिए ही ये लोग ऐसा बोल रहे हैं । जैसे जब मैंने कहीं सुना कि तथाकथित विद्वान ऐसे कहते अथवा मानते हैं कि आर्य भारत में बाहर से आए थे । तो मैं सोचता था कि देखो गलत पढ़ाया अथवा बताया जा रहा है । अज्ञानता बश अथवा जानबूझकर लोग गलत धारणा को प्रचारित कर रहे हैं । 


 एक बार मैं स्टेशन पर बैठा हुआ था । कुछ विद्यार्थी भी वहाँ थे जिनकी बातों से पता चलता था कि वे कला संकाय के विद्यार्थी थे । लेकिन वे आपस में कह रहे थे कि व्रत करने से रखने से कुछ होता थोड़े है । विज्ञान कहता है कि इससे स्वास्थ्य सम्बंधी कुछ फायदे होते हैं और कुछ नहीं । मैं मन ही मन सोचने लगा कि ये भी कलिकाल के विगोए हुए हैं ।


कई लोग ग्रंथों को भी काल्पनिक कहते हुए पाये जाते हैं । ये भी कलिकाल के ही विगोए हैं । ऐसे ही कई बाते हैं जिन्हें मूर्खता वश लोग गलत समझ अथवा समझा रहे हैं । इन पर ‘ते कायर कलिकाल विगोए’ अथवा ‘बातुल भूत विवश मतवारे । ते नहि बोलहिं बचन सँभारे’ ही लागू होता है ।


कई लोग कहते हैं कि शिव पुराण पढ़ो तो शंकर जी को सबकुछ बताया गया है और विष्णु पुराण पढ़ो तो विष्णु जी को सब कुछ बताया गया । जिस देवता का पुराण वही सबसे बड़ा । कुछ समझ में ही नहीं आता कि कौन बड़ा है ? कौन श्रेष्ठ है ? जिसका पुराण वही बड़ा है । लोग नहीं समझ पाते कि सभी पुराण अलग-अलग लोंगो द्वारा नहीं लिखे गए हैं । सभी व्यास जी महाराज द्वारा ही लिखे गए हैं । अब एक ही लेखक अलग-अलग ग्रंथ में अलग-अलग देवता को सब कुछ क्यों कह रहा है ? यहाँ यह समझना बहुत जरूरी है कि ग्रंथ सबके समझने योग्य नहीं होते । इन्हें अधिकारी-योग्य व्यक्ति ही समझ सकते हैं । इसलिए पहले विद्वान लोग ही इन्हें पढ़तें-पढ़ाते थे ।


 ग्रंथो को हम सामान्य वुद्धि से ठीक से नहीं समझ सकते । ज्ञान अथवा समझ की कमी से जब हम कोई चीज ठीक से नहीं समझ पाते तो उसके बारे में गलत धारणा बना लेते हैं । उसे गलत कहने अथवा समझने लग जाते हैं । ग्रंथ वर्षों अथवा युगों के चिंतन के फलस्वरूप लिखे गए हैं । जिन्हें हम सहज ही पढ़ अथवा समझ लेना चाहते हैं जो कि संभव नहीं है । और जब नहीं समझेंगे तो अनर्गल प्रलाप ही तो करेंगे ।


   वास्तव में जिस देवता का पुराण उसे ही सबकुछ कहना- शिव पुराण में शिव जी को, विष्णु पुराण में विष्णु जी को ऐसे ही अन्य पुराण में अन्य को सबकुछ कहना बहुत बड़ा दार्शनिक  चिंतन है जिसे आसानी से नहीं समझा जा सकता । इसे समझने में गणित बहुत उपयोगी है । गणित के मदद से इस तथ्य को सहजता से समझा जा सकता है । परंतु इसके लिए गणित का ज्ञान होना आवश्यक है ।


अतः ग्रंथों को न समझ पाना अपनी अयोग्यता है । इसलिए ग्रंथों की निंदा करना या गलत समझना मूर्खता है ।



        ।। जय श्रीसीताराम ।।



सोमवार, 13 नवंबर 2017

देश प्रेम और रामायण: जन्मभूमि की मिट्टी का महत्व

हर किसी को अपने देश से प्रेम करना चाहिए । अपने जन्म भूमि की मिट्टी का आदर करना चाहिए । देश प्रथम की अवधारणा ऊँची और सही सोच को दिखाती है । यह संदेश हमें रामायण से मिलता है । रामराज्य से मिलता है ।


जन्म भूमि की मिट्टी का बड़ा महत्व होता है । एक तरह से यह हमारी माता है । तभी तो हमलोग भारत को भारत माता कहते हैं । जैसे माता-पिता का ऋण होता है ठीक वैसे ही  हर किसी पर देश का ऋण होता है । 


देश की मिट्टी का पूजन करना चाहिए । यह संदेश भी हमें रामायण से मिलता है । शायद अधिकाँश लोंगो को पता ही नहीं होगा कि राम जी भी अपनी मिट्टी की पूजा करते थे । वन जाते समय मिट्टी लेकर गए थे और पूजन करके शीस झुकाया करते थे ।


रामायण में तो जन्मभूमि की तुलना जन्म देने वाली माता से की गई है और जन्म भूमि को जन्म देने वाली माता के समान बताया गया है । रामजी ने तो यहाँ तक कहा कि लोग कहते हैं कि मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ लेकिन मुझे अपनी जन्भूमि तो वैकुण्ठ से भी ज्यादा प्रिय है ।

                                          
जननी और जन्मभूमि की बड़ी महिमा है । इनका स्थान सबसे ऊँचा है । वाल्मीकि रामायण में रामजी ने जन्म देने वाली माता और जन्म भूमि दोंनो को स्वर्ग से भी ऊँचा बताया है- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’





        ।। जय श्रीसीताराम ।।



शनिवार, 11 नवंबर 2017

श्रीशिव-पार्वती विवाह में श्रीशिव-पार्वती द्वारा श्रीगणेश जी का पूजन

यह बात हर कोई जानता है कि श्रीगणेश जी श्रीशिव-पार्वती के पुत्र हैं । श्रीगणेश जी प्रथम पूज्य हैं । यह भी प्रसिद्ध है । मतलब हर कोई जानता है । कोई भी शुभ कार्य करना हो तो पहले श्रीगणेशजी का पूजन किया जाता है । लेकिन शिव-पार्वती विवाह के समय शिव-पार्वती द्वारा गणेश जी का पूजन किया जाना कई लोंगो के लिए अचरज की बात है ।


  गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज जब श्रीरामचरितमानस जी में इस बात का उल्लेख किया तो उन्हें पता था कि इसे पढ़कर व सुनकर लोग आश्चर्य करेंगे ? इसलिए उन्होंने लोंगो को वहाँ सावधान किया है कि यह पढ़कर, जानकर अथवा सुनकर किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।


मैंने गणित और विज्ञान की पढ़ाई किया । और गणित में पी एच डी भी किया । क्वांटम भौतिकी और गणित में अन्तराष्ट्रीस्तर के शोध पत्र भी प्रकाशित किए । कुछ वैज्ञानिकों की थ्योरी पर भी काम किया । लेकिन यह पढ़कर कि भगवान शंकर और माता पार्वती ने अपने विवाह में गणेश जी का पूजन किया था मुझे कभी आश्चर्य नहीं हुआ ।


  मैं तो सनातन धर्म के दर्शन व मूल तथ्य को जानकर, पढ़कर और समझकर बिना मोल ही बिक गया । क्या चिंतन है ? ऐसे वैज्ञानिक और गणितीय चितंन सनातन धर्म में ही मिलते हैं । जिन्हें न समझने वाले गलत कह देते हैं अथवा मान लेते हैं । मैं तो खासकर गोस्वामी तुलसीदासजी के दर्शन, चितंन और भक्ति भाव के आगे बचपन से ही नतमस्तक हो गया था । कभी-कभी हम सहपाठियों से कहते थे कि यदि गोस्वामी तुलसीदास जी जीवित होते तो मैं पढ़ाई-लिखाई नहीं करता । सब कुछ छोड़कर गोस्वामी जी के शरण में चला जाता । उनकी सेवा में चला जाता ।


 गोस्वामीजी ने कहा कि आश्चर्य मत करना । क्यों नहीं करना ? क्योंकि सनातन धर्म के देवता अनादि हैं । अनंत हैं । सनातन धर्म अनादि है । यह कारण उन्होंने बताया । गोस्वामीजी की समझाने की यह शैली मुझे बहुत लुभाती है । वे उदाहरण बहुत अच्छे-अच्छे दिए हैं । जब शंकर जी, पार्वती जी और गणेश जी सब अनादि हैं और अनंत हैं तब आश्चर्य का कोई औचित्य नहीं बनता ? क्योंकि हमारे देवता आदि, अंत रहित होकर अनंत हैं । कौन कब प्रगट हुआ वास्तव में यह तो पता ही नहीं है । क्योंकि प्रगट होने के पहले भी ये प्रगट रहते हैं । और कौन किससे प्रगट हुआ यह भी जान पाना मुश्किल है ।


उदाहरण के लिए यदि कोई कहे कि शंकर जी से पहले गणेश जी पैदा हुए हैं और कोई दूसरा कहे कि नहीं गणेश जी से पहले शंकर जी पैदा हुए हैं । तो ऐसी स्थिति में सनातन धर्म के तर्कों के आधार पर दोंनो में से किसी को भी गलत कहना गलत है । अतार्किक है । गणित में भी मैंने ऐसे तर्कों को पढ़ा है । समझा और समझाया है । ऐसे उदाहरण गणित में मिलते हैं ।


गणित ऐसे सिद्धांतों का समर्थन करती है । इसलिए गोस्वामीजी ने ठीक ही कहा है कि यह सुनकर संशय मत करना कि श्रीशिव-पार्वती विवाह में श्रीशिव-पार्वती ने श्रीगणेश जी का पूजन किया था ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


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बुधवार, 8 नवंबर 2017

रामराज्य की पाँच प्रमुख विशेषताएँ

रामराज्य का वर्णन पुराणों और रामायण में आता है । रामराज्य की अनेकों विशेषताएँ हैं । यहाँ हम पाँच मुख्य विशेषताएँ दे रहे हैं-


१.      रामराज्य में राजधर्म का पालन होता है । राजधर्म क्या है ?

रामराज्य की शुभ गाथा को मुक्त कंठ से गाती है 
राजधर्म है प्रजा रंजन सार यही बतलाती है । - (विनयावली)

अर्थात सार रूप में राजधर्म और कुछ नहीं है –सिर्फ प्रजा रंजन है ।


२.      न्याय, शांति, सुख, समता और वैभव रामराज्य की धरोहर हैं

न्याय शांति सुख समता वैभव रामराज्य की थाती है । – (विनयावली)

समता रामराज्य का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है । सबको समान न्याय, सबको सुख-शांति मिले और हर कोई समपन्न हो यह रामराज्य की पहिचान है ।


३.   रामराज्य में सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है । यहाँ तक एक धोबी (सामान्य व्यक्ति) के भी आवाज की कीमत होती है ।


४.     रामराज्य में नीति निर्माण में प्रजा की सहभागिता होती है । और बहुमत की जगह सर्वमत की प्रधानता होती है । इससे ही रामराज्य एक आदर्श राज्य कहलाता है । हर व्यक्ति की संतुष्टि मायने रखती है 



५.      रामराज्य में आलोचकों को निर्भय और पुरस्कार मिलता है ।




।।  जय श्रीसीताराम ।।



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रविवार, 5 नवंबर 2017

जन-जन के सहज कल्याण के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी का अप्रतिम योगदान और सीख

अपने कल्याण के लोग क्या-क्या नहीं करते ? कहाँ-कहाँ नहीं जाते ? किससे नहीं मिलते ? लोग लोक और परलोक सुधारना चाहते हैं ।  कई लोग जो अपने को नास्तिक कहते हैं वे भी लाभ तो चाहते ही हैं । मंगल की कामना किसे नहीं होती ? 


लेकिन मंगल तो राम जी से जुड़ने से ही होता है । जीवन का सच्चा लाभ मिलता है । बस विश्वास की कमी है । और देर है राम जी से जुड़ने की । यह बताने के लिए, समझाने के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत प्रयास किया है । वे सबका कल्याण चाहते थे । जन-जन का कल्याण । इसके लिए उनकी सोच बहुत बड़ी थी । उन्होंने अपने ही समय में बहुत आगे का सोच लिया था । आगे आने वाली पीढियों के लिए उन्हें बहुत चिंता थी । हम लोंगो के लिए और हम लोंगो के भी आगे आने वाले लोंगो के लिए उन्होंने तभी सोच लिया था । 


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सबका कल्याण चाहते थे । उनके सामने देश समाज की वर्तमान और भविष्य की सारी स्थिति स्पष्ट थी । सनातन धर्मियों पर उनका इतना उपकार है कि सनातन हिंदू समाज कभी उनसे उरिण नहीं हो सकेगा । उन्हें पता था कि आगे आने वाले लोग तरह-तरह के प्रपंच में फँसे रहेंगे । सनातन संकृति और भगवान से दूर होते जाएँगे । ज्ञान की कमी के चलते अज्ञान बस इधर-उधर भटकेंगे । और दुखी रहेंगे । मन में शांति न होने से दुखी रहेंगे । कलह पूर्ण वातावरण रहेगा । ऐसे में सच्चा मार्ग कैसे मिलेगा ? ऐसा मार्ग जो सहज हो और जन-जन ले लिए सुलभ भी हो ।

                            
सनातन धर्म के ज्ञान भंडार संस्कृत भाषा में होने से आगे सामान्य लोंगो की पहुँच इन तक कैसे होगी ? यह उनकी बड़ी चिंता और सोच थी । इसी सोच के चलते, जन-जन का कल्याण करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी हिंदी व अवधी भाषा के माध्यम से सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को जनता के सामने रखा ।


  श्रीराम चरित, भगवान राम के गुण, आदर्श, भक्त वत्सलता, सरलता व कृपालुता को जो वाल्मीकि रामायण और नाना पुराणों में संस्कृत में वर्णित है और वेदों में गुप्त रूप में अप्रकट है उसे जन-जन के लिए सरल भाषा में प्रकट कर दिया । जिससे सबका कल्याण हो । सबका जीवन सुखमय हो ।


यह बात जग जाहिर है कि इसके लिए गोस्वामी जी को विरोध भी झेलना पड़ा था । लोग नहीं चाहते थे कि सहजता से लोंगो तक यह ज्ञान पहुँच सके । सभी लोग कहते थे कि ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही होने चाहिए  । लेकिन गोस्वामी जी का कहना था, सोचना था, मानना था कि आगे चलकर जन कल्याण कैसे होगा ? उन्हें सबके कल्याण की पड़ी थी ।

 इस कराल कलिकाल में जीव का सहज कल्याण करने के लिए ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानसजी और विनय पत्रिकाजी को जन-जन को सुलभ करा दिया है । श्रीरामचरितमानस जी से और विनय पत्रिका जी से जीव का सहज कल्याण हो जाता है-


काल कराल जानि जग तारन मानस विनय दिए दुख हारे ।

साधु सुजान मुदित मन गावत आप तरे अरु लोकहुँ तारे ।।

 देश समाज से उन्होंने बार-बार कहा कि राम जी से जुड़े बिना जीव का सहज कल्याण नहीं हो सकता । इसके लिए श्रीरामचरितमानस जी से जुड़ जाओ तो सहज कल्याण हो जाएगा । भटकने की जरूरत नहीं है । जरूरत है तो विश्वास करने की-


 नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।


।। जय श्रीसीताराम ।।

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

सनातन धर्म से सम्बंधित पाँच बातें जिन्हें लोग अज्ञानता बस सत्य मान या समझ रहे हैं

सनातन धर्म से सम्बंधित कई बातें ऐसी हैं जिन्हें हम अज्ञानता बस अथवा भ्रम बस सत्य समझ रहे हैं वास्तव में ये सत्य नहीं हैं  यह लोगों का अज्ञान है अथवा भ्रम मात्र है । यहाँ पर हम ऐसी पाँच बातों की चर्चा कर रहे हैं-


कई लोग कहते अथवा मानते हैं कि देवराज इंद्र के व्रज से हनुमानजी का हनु टूट गया था । जिससे उनका नाम हनुमान पड़ गया । लेकिन सत्य यह है कि हनुमान जी के हनु से टकराकर देवराज इंद्र के व्रज के दाँत टूट गए थे । हनुमानजी के हनु ने इंद्र के व्रज का मान मर्दन कर दिया था इसलिए हनुमान जी का नाम हनुमान पड़ा ।



कई लोग कहते हैं अथवा मानते हैं कि शैव और वैष्णव को एक करने के लिए गोस्वामीतुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस जी में पहले भगवान शंकर जी की कथा का वर्णन किया है । लेकिन यह असत्य है । क्योंकि राम जी की भक्ति के लिए शिवजी की कृपा आवश्यक है । शिव जी को राम जी और राम जी को शिव जी बहुत प्रिय हैं । यह सत्य सिद्धांत है ।



कई लोग ऐसा कहते अथवा बोलते हैं कि श्रीवाल्मीकि  रामायण में रामजी को राजकुमार माना गया है, भगवान नहीं माना गया है । यह असत्य है । लोंगो का अज्ञान मात्र है । वाल्मीकि रामायण जी भक्तों और संतों के समझने योग्य हैं । आम जन इन्हें नहीं समझ सकते । भगवान शंकर द्वारा स्वप्न में उपदेशित करने पर श्रीविश्वामित्र जी रचित श्रीरामरक्षास्तोत्र के अनुसार वाल्मीकि जी तो राम कथा रुपी डाली पर बैठकर राम-राम कूकने वाले कोकिल हैं ।



राम जी और कृष्ण जी दो हैं यानी इनमें भेद है । भेद करने वाले तो कृष्ण जी के ही दो स्वरूपों में भी भेद करते हैं । राम जी ही कृष्ण जी हैं और कृष्ण जी ही रामजी हैं । राम जी कम कला के और श्रीकृष्ण जी ज्यादा कला के हैं । यह कहना भी गलत है । क्योंकि दोंनो एक हैं । यही नहीं श्रीविनयपत्रिका जी में राम जी की स्तुति करते हुए राम जी को कला कोष कहा गया है ।



सब कुछ लिखा होता है । जो लिखा है वो तो होता ही है । लेकिन सब कुछ लिखा नहीं होता । जैसे कोई चोरी करे तो कहे कि यही लिखा है, जो लिखा है वह कर रहे हैं । यदि ऐसा होता तो फिर कर्म सिद्धांत की जरूरत ही क्या थी ?



                     ।। जय श्रीसीताराम ।।

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बुधवार, 1 नवंबर 2017

श्रीरामचरितमानसजी की रचना और नामकरण किसने किया ?

श्रीरामचरितमानस जी से कौन परिचित नहीं है । इनका अद्भुत प्रभाव है । इनकी अद्भुत महिमा है । लगभग सभी लोग समझते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस जी की रचना की है । और इन्होंने ही इनका नामकरण किया होगा । लेकिन यह पूर्णतया सत्य नहीं है ।


आखिर तब सत्य क्या है ? सत्य यह है कि तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस जी की न तो रचना किया है और न ही नामकरण । फिर भी लोक में यह प्रसिद्ध है कि श्रीरामचरितमानस जी के रचनाकार गोस्वामीतुलसीदासजी महाराज हैं ।


इस रहस्य का वर्णन स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस जी में किया है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि ‘रचि महेश निज मानस राखा’ । अर्थात स्वयं भगवान शंकरजी ने श्रीरामचरितमानस जी के रचनाकार हैं । रचना करके शंकर जी ने अपने मानस में रख रखा था । समय आने पर सबसे पहले भगवान शंकर जी ने पार्वती माता को इस कथा को सुनाया ।


 लोक कल्याण के लिए भगवान शंकर जी ने तुलसीदास जी को निमित्त बनाया । कथा शंकर जी के मानस से जन-जन को सुलभ कैसे होगी ? जब कोई इसे लिपिबद्ध करेगा तभी तो । इसके लिए गोस्वामीजी का चयन स्वयं शंकर जी ने किया- ‘शंभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी’रामचरितमानस कवि तुलसी ।। 


शंकर जी की कृपा से रामचरितमानस जी के कवि गोस्वामी तुलसीदासजी तो बन गए । लेकिन रामचरितमानस जी का नामकरण किसने किया- ताते रामचरितमानस वरधरेउ नाम हिय हेरि हरष हर ।। अर्थात रचना करके अपने मानस में रखने के कारण भगवान शंकर ने हर्षित होकर ह्रदय से सोचकर श्रेष्ठ ‘श्रीरामचरितमानस’ नाम रखा ।


  इस प्रकार मूल रूप में श्रीरामचरितमानस जी के रचनाकार और नामकरण करने वाले भगवान शंकर जी हैं ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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