सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

सनातन धर्म (रामायण आदि ) से सम्बंधित कुछ सामान्य जानकारी

सनातन धर्म से सम्बंधित कुछ जानकारियाँ नीचे दी जा रही हैं । ये ऐसी बाते हैं जिन्हें कई लोग ठीक से नहीं जानते अथवा असावधानी बस गलती करते रहते हैं । अथवा गलत समझते हैं या समझ रहे हैं । ये निम्नलिखित हैं-


१.      रामायण में गुह-निषाद और केवट दो अलग-अलग व्यक्ति हैं । अर्थात निषाद और केवट एक ही व्यक्ति के लिए प्रयोग नहीं हुआ है । निषाद श्रृंगवेरपुर के राजा के लिए आया है जो रामजी के सखा हैं । और केवट वहाँ के एक नाविक के लिए जिसने सीताजी, रामजी और लक्ष्मणजी को नाव से गंगा जी को पार कराया था ।


२.       अशोक वाटिका में रावण के जिस पुत्र का हनुमानजी ने वध किया था उसका नाम अक्षयकुमार नहीं था । उसका नाम अक्षकुमार था । लेकिन कई लोग उसे अक्षयकुमार कहते हैं ।


३.      रावण के ज्येष्ठ पुत्र का नाम मेघनाद था । लेकिन कई लोग भूल से उसे मेघनाथ कहते हैं अथवा कह देते हैं । मेघनाथ तो इंद्र देवता के लिए प्रयोग होता है ।


४.      कृष्ण कहने में थोड़ा सा कठिन है । इसलिए कई लोग कृष्णा बोलते हैं । लेकिन कृष्णा तो द्रोपदी जी का नाम है । कृष्णा कहना गलत नहीं है क्योकि द्रोपदी जी पंच देव कन्याओं में हैं और प्रातः स्मरणीय हैं । लेकिन कृष्णा कहना और समझना की भगवान कृष्ण का नाम ले रहें हैं गलत है ।


५.      हनुमान जी का वृद्ध रूप में चित्र मिलता है । लोग घरों में लगाए भी रहते हैं । लेकिन हनुमान जी हमेशा युवा ही रहते हैं । हनुमान जी जरा और मरण अर्थात वृद्धावस्था और मृत्यु से परे हैं । वृद्धावस्था और मृत्यु हनुमानजी का स्पर्श नहीं कर सकते हैं ।




।। जय श्रीसीताराम ।।

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शनिवार, 23 दिसंबर 2017

श्रीरामचरितमानस और श्रीहनुमानचालीसा पढ़ने-सुनने के फल के साक्षी शंकर जी क्यों हैं ?

सत्य सनातन धर्म के हर ग्रंथ में पढ़ने-सुनने के फल का वर्णन होता है । श्रीरामचरितमानस और श्रीहनुमानचालीसा में भी पढ़ने-सुनने के फल का वर्णन है ।


प्रायः श्रीहनुमानचालीसा हर कोई पढ़ता ही है ।  श्रीहनुमान चालीसा में कहा गया है कि ‘जो यह पढ़ै हनुमानचालीसा । होइ सिद्धि साखी गौरीसा ।। अर्थात जो श्रीहनुमानचालीसा पढ़ता है उसे इच्छित बस्तु की प्राप्ति हो जाती है , सिद्धि मिल जाती है । इस बात के साक्षी गौरीश यानी श्रीशंकर जी हैं ।


इसी तरह श्रीरामचरितमानसजी के पढ़ने-सुनने के अनेकों फल कहे गए हैं । जैसे दुर्भाग्यशाली सौभाग्यशाली बन जाता है, मनोकामना पूर्ण हो जाती है, भाग्योदय हो जाता है । अशांति हो तो शांति मिल जाती है, मन शांत हो जाता है, भगवान श्रीराम की कृपा मिल जाती है, श्रीराम जी के चरण कमलों में अनुराग हो जाता है इत्यादि । और श्रीरामचरितमानसजी में भी शंकर जी और पार्वती जी को ही साक्षी बनाया गया है- जौ हर गौरि पसाउ



कहने का मतलब यह है कि श्रीरामचरितमानस जी में और श्रीहनुमानचालीसा में भी फल के साक्षी भगवान शंकर जी ही हैं । श्रीरामचरितमानसजी में मुख्यतया रामजी का चरित है और श्रीहनुमानचालीसा में मुख्यतया श्रीहनुमानजी का चरित है ।



 शंकर जी राम जी के सेवक हैं, स्वामी हैं और सखा हैं । तथा गोस्वामी तुलसीदास जी के गुरू और माता-पिता हैं । शंकर जी तो जगतगुरू हैं और जगत के माता पिता हैं । गोस्वामीजी की शंकर जी में बहुत श्रद्धा है  जिसकी जैसी श्रद्धा और विश्वास हो उसको उसी के अनुरूप फल मिलता है । शंकर जी की और माता पार्वती की गोस्वामीजी के ऊपर बचपन से ही बहुत कृपा थी । शंकर जी ने कृपा करके गोस्वामीजी से श्रीरामचरितमानसजी की रचना करवाई । और इसलिए गोस्वामी जी ने शंकर जी को ही साक्षी बनाया । 


 शंकर जी ही वानर रूप में हनुमान हैं । लेकिन मुख्य रूप से तुलसीदास जी पर कृपा होने से और राम कथा के रसिक होने से गोस्वामीजी ने शंकर जी को साक्षी बनाया । जब बनारस में लोंगो ने श्रीरामचरितमानस जी की प्रमाणिकता जानने के लिए श्रीविश्वनाथ जी के मन्दिर में रखा तो शंकर जी ने श्रीरामचरितमानस जी पर सत्यं शिवं सुन्दरं लिखकर गोस्वामीजी की बात पर अपनी मुहर लगा दी ।


जिसके कहने से और जिसकी कृपा से कोई कार्य होगा उसका सबसे अच्छा साक्षी भी वही होगा ।  भगवान राम जी का चरित हो तो उसे सुनने और लिखवाने के लिए शंकर जी लालायित रहते हैं और कृपा करते हैं । चाहे वह श्रीरामरक्षास्तोत्र लिखने वाले श्रीविश्वामित्र जी हों और चाहे वह श्रीरामचरितमानस लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज हों । श्रीशंकर जी की कृपा श्रीराम भक्तों पर भी बरसती है ।


।। जय श्रीसीताराम ।।


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मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

भवरोग की औषधि और कुपथ्य

लोग भवसागर से तरना चाहते हैं लेकिन भवसागर से तरना बहुत कठिन है । लोग इसके लिए तरह-तरह के उपाय भी करते हैं । इसमें कथा सुनना, तीर्थ यात्रा करना व पूजा-पाठ प्रमुख हैं । इनके आलावा भी कई साधन हैं । इस कराल कलिकाल में तो राम कथा और राम नाम को ही भवरोग हेतु महौषधि कहा गया है 


 परन्तु ये साधन भवसागरसे पार उतारने के लिए तब तक पर्याप्त नहीं हैं जब तक अपना आंतरिक सुधार न किया जाय । कुपथ्य का त्याग न किया जाय ।


लोग तीर्थ यात्रा भी करते रहते हैं । थोड़ा-बहुत हर कोई पूजा पाठ भी करता है । लोग कथा कराते भी हैं । और सुनते भी हैं । लेकिन इसका समुचित फल नहीं मिल पाता । जैसा कल्याण होना चाहिए वैसा नहीं हो पाता । फल तो सबका है । लेकिन जितना होता है उतना नहीं मिल पाता ।


आंतरिक सुधार का मतलब क्या है ? मान लीजिए कोई व्यक्ति है जो रोज पूजा करता है लेकिन जीवन में असत्यता है । जैसे वह घूसखोरी भी करता है । ऐसे में समुचित कल्याण कैसे होगा ? कथा सुनता तो है लेकिन बाद में प्रपंच में लगा रहता है-जैसे झूठ, हिंसा, छल, ठगी आदि में । जब तक अपना अंतर्मन इन सबसे दूर नहीं होगा तब तक किसी भी साधना का समुचित लाभ नहीं होगा ।


जीवन में सत्यता और पवित्रता लाए बिना साधन और साधना से कल्याण कैसे होगा ? साधन और साधना का समुचित फल तभी मिलेगा जब अपना सुधार कर लिया जाएगा । जब कथा सुनने से, पूजा से, तीर्थ यात्रा से अपने में परिवर्तन आए तब समझना चाहिए कि दिशा सही है । अपने में सुधार हो रहा है ।


जैसे घूस लेते हैं तो घूस लेना बंद कर दें । माता-पिता का सम्मान नहीं करते हैं तो सम्मान करना शुरू कर दें । दूसरे को सताने की, परेशान करने की प्रवृति है तो इसे छोड़ दें । बिना टिकिट यात्रा करते हैं तो टिकिट लेकर यात्रा करने लगें । वेतन लेते हैंं लेकिन अपना कार्य ठीक से नहीं करते तो अपना कार्य ठीक से करना शुरू कर दें । इत्यादि । यही तो सुधार है । धीरे-धीरे ही सही पर सुधार किये बिना कल्याण नहीं है ।


 कथा, पूजा आदि साधन औषधि के समान हैं । और बुरी प्रवृति कुपथ्य के समान है । और भवसागर को भव रोग तो कहा ही जाता है । अतः औषधि ठीक से काम करे उसके लिए कुपथ्य का त्याग अति आवश्यक है । यह तो सबके अनुभव की बात है, सामान्य सोच की बात है, व्यवहार की बात है कि बिना कुपथ्य का त्याग किये औषधि ठीक से काम नहीं करती ।



  ।। जय श्रीसीताराम ।।


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सोमवार, 18 दिसंबर 2017

श्रीरामचरितमानसजी को पढ़ने सुनने की इतनी महिमा और प्रभाव क्यों है ?

श्रीरामचरितमानस जी को पढ़ने सुनने का अद्भुत प्रभाव है । अद्भुत महिमा है । विश्वास करके देखने की जरूरत है । इनसे जुड़ने की जरूरत है । जो जिस उद्देश्य से जुड़े उसे वही सुलभ हो जाता है । मन में सत्य और सदाचार आ जाता है और जीवन बदल जाता है ।


इनसे जुड़ने से मन धीरे-धीरे श्रीरामानुरागी बन जाता है । और जीवन के दुख और कष्ट भी धीरे धीरे कम हो जाते हैं । देर बस ईमानदारी से जुड़ने की है । विश्वास की कमी है । और दूसरी कोई बात नहीं है ।


अनेकों लोग मानस जी से जुड़े हैं । अनेकों लोग कथा करते  हैं । कहते हैं । सुनाते हैं और सुनते हैं । अनेकों लोग स्वयं पारायण करते हैं । अथवा किसी न किसी तरह से जुड़े रहते हैं ।


श्रीरामचरितमानसजी में राम जी की कथा और महिमा है । श्रीराम नाम महिमा है । राम जी दीनदयाल हैं । आरतपाल हैं और सर्व समर्थ एवं सरल हैं । इसलिए विश्वास करके जो लोग आगे बढ़ते हैं उनका कल्याण होता है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्वयं इन बातों का वर्णन किया है कि श्रीरामचरितमानस जी से जुड़ने से हर तरह से कल्याण ही होता है ।


सनातन धर्म के हर ग्रंथ में उसके पढ़ने व सुनने का फल दिया रहता है । श्रीरामचरितमानस जी में भी फल का वर्णन किया गया है । भगवान की कृपा से वर्णन कर देने मात्र से ही ग्रंथ का फल प्रगट हो जाता है । लेकिन गोस्वामी जी ने कलियुगी प्राणियों को समझाने के लिए साथ में यह भी कहा  है कि ये सभी बातें सत्य होंगी । क्यों सत्य होंगी ? प्रमाण क्या है ? गोस्वामी जी ने प्रमाण दिया है-‘सपनेहुँ साचेहुँ मोहिं पर जौ हर गौरि पसाउ’ ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


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शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

चौरासी लाख योनियाँ और चार प्रकार के जीव तथा मनुष्य जीवन

सनातन धर्म में कुल चौरासी लाख योनियाँ बताई गई हैं  उदाहरण के लिए मनुष्य योनि, कुत्ते की योनि, बिल्ली की योनि आदि । इस प्रकार कुल चौरासी लाख योनियाँ हैं  जिसमें जीव को जन्म लेना पड़ता है । जलथल (पृथ्वी) और नभ (आकाश) में कुल मिलाकर चार तरह के जीव होते हैं । इन्हें स्वेदजअण्डजउद्भिज्ज और जरायुज कहा जाता है  

आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ वासी-श्रीरामचरितमानस  ।। 

सबसे श्रेष्ठ योनि मानव योनि को बताया गया है । मानव जन्म में विकास की बहुत सम्भावनाएं होती हैं । इस जन्म में जीव भगवान को प्राप्त कर सकता है । 
                                  
  सामन्यतया प्रत्येक मनुष्य अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का होता है (माप लेने के लिए हाथ की कोहनी से मध्यमा अगुंली तक की माप लेना चाहिए )  और एक हाथ (की माप ) में चौबीस अंगुल होते हैं ( हाथ की चारों अंगुलियों को एक साथ रखकर ली गई माप चार अंगुल की होती है । इस माप में अंगूठा शामिल नहीं होता है ) । 

इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य का शरीर चौरासी अंगुल का होता है । जो इस बात का संकेत है कि चौरासी लाख योनियों में भटकने वाला जीव ईश्वर की कृपा से चौरासी अंगुल के मनुष्य का शरीर धारण करता है । और यदि सही-सत्य कर्म करता है और रामानुरागी होकर रहता है तो इसकी चौरासी छूट जाती है ।

इस प्रकार चौरासी अंगुल का शरीर होने का मतलब यह है कि इससे मनुष्य को चौरासी लाख योनियों का स्मरण होता रहे जिससे वह चौरासी से छूटने के लिए सत्य आचरण करे । राम जी का स्मरण करे  । सुमिरण करे  

  जब ईश्वर की कृपा से जीव (मनुष्य) गर्भ में आता है तो वहाँ नाना तरह के कष्ट भोगता है । उस समय यह गर्भ के कष्ट से शीघ्र मुक्त करने की पार्थना करता है 

पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी । अब जग जाइ भजौं चक्रपानी’- (विनयपत्रिका) ।। 


जब जीव इस प्रकार का निश्चय कर लेता है कि अब संसार में जाकर भगवान चक्रपानी का भजन करूँगा उसी समय भगवत कृपा से प्रसव वायु उसे बाहर संसार में ले आती है । 

प्रत्येक मनुष्य के हाथों की अगुलियों में शंख और चक्र अथवा शंख और चक्र दोनों में से किसी एक का निशान होता है । जब जीव चक्रपानी को भजने का संकल्प लेता है तभी से ये सनातनी चिंह उसे प्राप्त हो जाते हैं ।

सुबह जगते ही हाथ का दर्शन करने का एक भाव यह भी है कि संसार में खोया हुआ मनुष्य हाथ में अंकित शंखचक्र के चिन्हों को देखकर चक्रपानी को याद करे जिससे गर्भ में किये हुए संकल्प को पूरा कर सके ।

अतः मनुष्य जीवन ईश्वर कृपा से मिलता है । और इसलिए इसका सदुपयोग करना चाहिए । सत्य और सदाचार का आचरण रखना चाहिए और राम जी का सुमिरण करना चाहिए । जिससे चौरासी छूट जाए । भिन्न-भिन्न योनियों में भटकना न पड़े । चौरासी अंगुल का शरीर पाकर चौरासी से मुक्त हो जाने का लक्ष्य ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है ।


।। जय श्रीसीताराम ।।

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बुधवार, 13 दिसंबर 2017

साधु और सज्जन कौन है- एक सरल परिभाषा


कभी-कभी लोग आम बोलचाल में किसी-किसी को कहते हैं अथवा कह देते हैं कि वे बड़े सज्जन हैं अथवा वे बड़े साधु हैं । कभी-कभी विशेष वेश देखकर लोग किसी-किसी को साधु कह देते हैं अथवा मान लेते हैं ।


लेकिन श्रीरामचरितमानस के अनुसार साधु होने के लिए वेश प्रधान नहीं है । बिना विशेष वेश के भी कोई साधु हो सकता है । और कोई विशेष वेश धरकर भी साधु नहीं हो सकता है । साधु कौन है ? सज्जन कौन है ?

जो श्रीरामानुरागी है, रामनामानुरागी है वही साधु है । इसी तरह जो श्रीरामानुरागी है, रामनामानुरागी है वही सज्जन है । रामनामानुरागी होना साधु और सज्जन होना है ।

जामवंत जी और हनुमान जी वेश से साधु नहीं थे । लेकिन वे श्रीरामानुरागी और रामनामानुरागी हैं । इसलिए संसार में उन्हें साधु का सम्मान मिला और पूजनीय भी हो गए –

किएहुँ कुबेष साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनमानू ।


वहीं रावण और कालनेमि विशेष वेश-साधु वेश धारण करके भी साधु नहीं बन पाए । साधु नहीं कहलाए । उनका असली चेहरा उदघाटित हुआ । और उन्हें दंड भी मिला ।

इस प्रकार श्रीरामचरितमानसजी और गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के अनुसार साधु वही है जो श्रीरामानुरागी और श्रीरामनामानुरागी है- वह चाहे वानर हनुमान हों, भालू जामवंत हों और चाहे राक्षस विभीषण ही क्यों न हो ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


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सोमवार, 11 दिसंबर 2017

सत्य सनातन धर्म के दो महत्पूर्ण सिद्धांत: कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद

सत्य सनातन धर्म में कई सिद्धांत हैं जिसमें कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं । सनातन धर्म के ग्रंथों में कर्म और पुनर्जन्म की विशद चर्चा की गई है । कर्म का सिद्धांत बहुत ही जीवंत है । अनुभवगम्य भी है । अर्थात इसे आसानी से अनुभव किया जा सकता है । समझा जा सकता है । मनुष्य ही नहीं सभी चर-अचर कर्म में निरत हैं ।


 सर्वविदित है कि जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल भोगता है । कर्म करने पर कुछ फल अति शीघ्र तो कुछ फल थोड़ा विलम्ब से मिलता है । कुछ फल यहीं इसी जन्म में मिल जाते हैं । कुछ के लिए अगला जन्म भी लेना पड़ता है । इस प्रकार कर्म और पुनर्जन्म में भी एक रिश्ता है ।


सनातन धर्म में कुल चौरासी लाख योनियाँ बताई गई हैं । जिसमें जीव को जन्म लेना पड़ता है । तथा जल, थल (पृथ्वी) और नभ (आकाश) में कुल मिलाकर चार तरह के जीव-स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज बताये गए हैं- आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ वासी-श्रीरामचरितमानस  


सबसे श्रेष्ठ योनि मानव योनि को बताया गया है । मानव जन्म में विकास की बहुत सम्भावनाएं होती हैं । इस जन्म में जीव भगवान को प्राप्त कर सकता है ।


  कहते हैं कि सामन्यतया प्रत्येक मनुष्य अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का होता है (माप लेने के लिए हाथ की कोहनी से मध्यमा अगुंली तक की माप लेना चाहिए ) । और एक हाथ (की माप ) में चौबीस अंगुल होते हैं ( हाथ की चारों अंगुलियों को एक साथ रखकर ली गई माप चार अंगुल की होती है । इस माप में अंगूठा शामिल नहीं होता है ) ।  


  इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य का शरीर चौरासी अंगुल का होता है । जो इस बात का संकेत है कि चौरासी लाख योनियों में भटकने वाला जीव ईश्वर की कृपा से चौरासी अंगुल के मनुष्य का शरीर धारण करता है । और यदि सही-सत्य कर्म करता है और रामानुरागी होकर रहता है तो इसकी चौरासी छूट जाती है । इस प्रकार चौरासी अंगुल का शरीर होने का मतलब यह है कि इससे मनुष्य को चौरासी लाख योनियों का स्मरण होता रहे जिससे वह चौरासी से छूटने के लिए सत्य आचरण करे । राम जी का स्मरण करे  । सुमिरण करे  


  इतना ही नहीं कहते हैं कि ईश्वर की कृपा से जब जीव गर्भ में आता है तो वहाँ नाना तरह के कष्ट भोगता है । उस समय यह गर्भ के कष्ट से शीघ्र मुक्त करने की पार्थना करता है –‘पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी । अब जग जाइ भजौं चक्रपानी’- (विनयपत्रिका) ।। 


जब जीव इस प्रकार का निश्चय कर लेता है कि अब संसार में जाकर भगवान चक्रपानी का भजन करूँगा उसी समय भगवत कृपा से प्रसव वायु उसे बाहर संसार में ले आती है ।


प्रत्येक मनुष्य के हाथों की अगुलियों में शंख और चक्र अथवा शंख और चक्र दोनों में से किसी एक का निशान होता है । जब जीव चक्रपानी को भजने का संकल्प लेता है तभी से ये सनातनी चिंह उसे प्राप्त हो जाते हैं । सुबह जगते ही हाथ का दर्शन करने का एक भाव यह भी है कि संसार में खोया हुआ मनुष्य हाथ में अंकित शंख, चक्र के चिन्हों को देखकर चक्रपानी को याद करे जिससे गर्भ में किये हुए संकल्प को पूरा कर सके ।



संकल्प पूरा न करना ही पुनर्जन्म का कारण बनता है और जीव चौरासी लाख योनियों में जन्मता हुआ नाना कर्म करता रहता है । लेकिन कभी पूर्ण सुख का अनुभव नहीं कर पाता । जीव को पूर्ण सुख तो तभी मिलेगा जब वह सुखसागर से जुड़ेगा । तीनों लोकों में जितना सुख है वह सुखसागर के एक बूँद मात्र से ही आता है । पूर्ण सुख का मतलब सुख में सतत मग्न रहने से होता हैं । यह वह स्थिति है जहाँ दुःख का लेशमात्र भी नहीं होता । अतः सभी को गर्भ काल के संकल्प को पूरा करके जन्मजन्मांतर के दुःख से छूट जाना चाहिए ।




।। जय श्रीसीताराम ।।

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रविवार, 10 दिसंबर 2017

सत्य सनातन धर्म की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ

सत्य सनातन धर्म यानी आर्य धर्म, जिसे हिंदू धर्म भी कहते हैं, की कई विशेषताएँ हैं । यहाँ पर सत्य सनातन धर्म की केवल कुछ विशेषताएँ दी जा रही हैं ।  
           
  • सत्य सनातन धर्म आनादि धर्म है

  • सत्य सनातन धर्म शास्वत है, सनातन है ।

  • सत्य सनातन धर्म अनंतकाल से है ।

  • सत्य सनातन धर्म धरती का प्राचीनतम धर्म है ।

  • सत्य सनातन धर्म को शुरू करने वाला कोई विशेष व्यक्ति नहीं है ।

  • यह अनादि काल से ही चला आ रहा है ।

  • जब संसार नहीं होता है, जब कोई जीव धरती पर नहीं होता तब भी यह धर्म होता है ।

  •  आदि सृष्टि के समय से ही यह धर्म है ।

  • सत्य सनातन धर्म में कई देवी-देवता हैं । लेकिन मूल रूप में सब एक हैं ।

  • सनातन धर्म प्राणीमात्र की सुख-शांति की कामना करता है ।

  •  सनातन धर्म सारे विश्व को परिवार मानता है और पूरे विश्व के कल्याण की कामना करता है ।

  • सनातन धर्म के अनुसार परहित-परोपकार सबसे बड़ा पुण्य, धर्म है ।

  • सनातन धर्म के अनुसार दूसरे को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप-अधर्म है ।

  • इसके अनुसार अहिंसा परम धर्म है । जीव हत्या पाप है ।

  • इसके अनुसार किसी की निंदा, चुंगुली करना बड़ा पाप है ।

  • झूठ, असत्य, छल, चोरी आदि त्याज्य व पाप हैं ।

  • सबको सत्य का आचरण करना चाहिए ।

  • सनातन धर्म के अनुसार ईश्वर कण-कण में है ।

  • हर प्राणी में ईश्वर है ।

  • मानव जीवन का परम उद्देश्य परहित, परोपकार के रास्ते पर चलते हुए भगवान को प्राप्त करना है ।

  • किसी को भी किसी भी तरह से ठगना पाप है ।

  • सनातन धर्म के अनुसार परस्त्री माता के समान होती है ।

  • सनातन धर्म के अनुसार दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझना चाहिए । 

  • सबमें कृतज्ञता की भावना होनी चाहिए । कृतज्ञता मानवता का और कृतघ्नता दानवता की पहिचान है 

  • माता-पिता और गुरजन आदरणीय हैं । इनकी सेवा और आशीर्वाद से कल्याण होता है ।

  • जन्मभूमि माता के समान आदरणीय और स्वर्ग से बढ़कर होती है । आदि 



उपरोक्त से सहज ही स्पष्ट है कि सनातन धर्म की सीख-शिक्षाओं का ठीक से पालन किया जाय तो सबका कल्याण हो और देश समाज में कोई भी दुखी न रह जाए । विश्व और प्राणिमात्र का कल्याण और सुख-शांति की कामना करने वाला सत्य सनातन धर्म अनूठा धर्म है 




।। जय श्रीसीताराम ।।


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शनिवार, 9 दिसंबर 2017

पवनतनय के चरित सुहाए-११ (सीताजी को हनुमानजी का पर्वताकार रूप दिखाना )

हनुमानजी महाराज ने कहा कि यदि भगवान श्रीराम को खबर मिल गई होती तो वे देर नहीं करते । अर्थात अब तक राम जी के यहाँ न आने का एक मात्र कारण यह है कि उनको अब तक आपकी खबर ही नहीं लगी कि आप कहाँ हो ? और वे निरंतर आपकी खोज में लगे हैं ।

 हनुमानजी महाराज ने कहा कि हे माता जानकी राम वाण रुपी सूर्य के उदित होते ही अधंकार रुपी राक्षसी सेना का पता नहीं चलेगा । अर्थात हे माता जैसे सूर्य के उदित होने से रात्रि का अंधकार समाप्त हो जाता है । ठीक वैसे ही राम जी के वाण रुपी सूर्य से राक्षसों की सेना रुपी अंधकार समाप्त हो जाएगा । 

  हनुमानजी महाराज ने कहा कि हे माता मैं आपको अभी अपने साथ लेकर चलता लेकिन रघुनाथ जी की सपथ है, मुझे ऐसी आज्ञा नहीं मिली है । अर्थात राम जी ने ऐसा करने को नहीं कहा है । उन्होंने सिर्फ आपका कुशल समाचार लाने को कहा है, आपको लाने की आज्ञा नहीं दिया है । इसलिए हे माता आप कुछ दिन और धैर्य धारण कीजिए । वानरों के साथ रामजी यहाँ आयेंगे । और राक्षसों को मारकर आपको यहाँ से ले जाएँगे । नारद आदि ऋषि-मुनि रामजी का यश तीनों लोकों में गाएँगे ।

सीताजी ने हनुमानजी से कहा कि हे पुत्र सभी वानर तुम्हारे जैसे ही होंगे अर्थात जैसे छोटे आप हो ऐसे ही अन्य वानर भी होंगे । लेकिन राक्षस बड़े बलवान योद्धा हैं । इसलिए मेरे मन में संदेह हो रहा है कि छोटे-छोटे वानर इन बड़े-बड़े बलवान राक्षस योद्धाओं को कैसे जीतेंगे ?

ऐसा सुनकर सीताजी को धैर्य और विश्वास दिलाने के लिए हनुमानजी ने अपना शरीर प्रगट किया । हनुमानजी का शरीर सोने के पर्वत के आकार की थी । अर्थात सुमेरु पर्वत जैसे लग रही थी । जो युद्ध में भयंकर दिखने वाली (विपक्षी योद्धाओं में भय उत्पन्न करने वाली ) अत्यंत बल और बीरता से युक्त थी । हनुमान जी के ऐसे रूप को देखकर सीता जी को भरोसा हुआ कि समर क्षेत्र में अवयश्मेव वानर राक्षसों पर भारी पड़ेंगे । और तब हनुमानजी ने फिर से वही छोटा सा रूप धारण कर लिया ।

हनुमानजी महाराज ने सीताजी से कहा कि हे माता सुनिए वानरों में न ही बहुत बल होता है और न ही उनके बहुत वुद्धि ही होती है । लेकिन रामजी की कृपा से बहुत छोटा सा साँप भी गरुड़ को खा सकता है ।

अर्थात यदि रामजी की कृपा हो तो निर्बल और वुद्धिहीन भी बड़ा बलवान और वुद्धिमान बन जाता है । और राम जी के कृपा के बिना बड़ा से बड़ा बलवान और वुद्धिमान भी निर्बल और मूर्ख बन जाता है ।  गरुड़ जी में बड़ा बल है और वे बड़े-बड़े सर्प (जैसे कालिय नाग) को सहज ही मार सकते हैं । लेकिन राम जी के प्रताप से छोटा सा साँप भी गरुड़ को खा सकता है ।

अतः हे माता आप अपने मन में किसी भी तरह का संशय न कीजिए । क्योंकि भले ही राक्षस बड़े बलवान और योद्धा हैं और बड़े-बड़े युद्ध जीते भी हैं । यहाँ तक देवताओं को भी जीत लिया है । लेकिन वानरों पर राम जी की कृपा है । इसलिए वानर भले ही बल और वुद्धि हीन समझे जाते हों फिर भी राम जी के प्रताप से हम राक्षसों को परास्त करने में अवश्य ही सफल होंगे ।


                                                 (शेष भाग-१२ में ।)


।। जय श्रीसीताराम ।।



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गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

ऐसी मृत्यु आजतक किसी को नहीं मिली

इस संसार में हर किसी का अंत होना तय हैं । कोई भी चीज ले लो । जिसका आरंभ है उसका अंत भी है । सुबह दिन का आरंभ और शाम को अंत हो जाता है । ऐसे ही दिन के अंत में रात्रि शुरू होती है और सुबह रात्रि का अंत हो जाता है । ऐसे ही कोई कार्यक्रम हो, शादी-विवाह हो अथवा कथा-सत्संगति हो, पहले लोग कहते हैं कि अभी इतना दिन है, तैयारी में लगे रहते हैं और एक दिन नियत दिन आ जाता है और फिर कार्यक्रम के समाप्ति का भी दिन आ जाता है । इसी तरह सबके जीवन का अंत भी हो जाता है । सबकी मृत्यु होती है । यह अटल सत्य है । शास्वत सत्य है । लेकिन एक मृत्यु ऐसी है जैसी आजतक किसी की भी नहीं हुई है ।


  गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि अबतक कितने ही लोग मर चुके हैं, कितने मर रहे हैं और कितने भविष्य में थोड़े-थोड़े समय के अंतर से मरेंगे ही , परंतु आजतक जटायु जी जैसी सुंदर मृत्यु किसी ने नहीं पाई । चाहे वह कोई विरक्त, कर्मयोगी, भक्त, ज्ञानी, मुनि,सिद्ध, अथवा कोई ऊँच या नीच ही क्यों न हो ।


गीधराज जटायु धन्य हैं । जटायु जी सीताजी को छुड़ाने के लिए घायल हो गए और नीच-गीध देंह होने पर भी रामजी की गोद में उनके मुँख कमल को देखते हुए-निहारते हुए मनोहर मृत्यु और मुक्ति दोंनो प्राप्त की । कहते हैं कि जब यह समाचार विरक्त, कर्मयोगी, भक्त, ज्ञानी, मुनि,सिद्ध, ऊँच और नीच ने सुनी तो सबके सब गीधराज जटायु से ईर्ष्या करने लगे ।


गोस्वामी जी कहते हैं कि कोई मरने पर मुक्त होता है, कोई जीवित ही यानी जीवन मुक्त हो जाता है, मुक्त-मुक्त में भेद भी होता है लेकिन सभी मुक्तियों से बढ़कर गीधराज जटायु की मृत्यु ही है ।


इतना ही नहीं गीधराज की मृत्यु के बाद राम जी ने बड़े आदर के साथ उनका मृतकसंस्कार किया और भाई लक्ष्मणजी सहित उनके मृत्यु पर दुखी हुए-‘क्रिया किए निजकर रघुनायक जलज नयन जल लाए’


कहते हैं कि जन्मों-जन्मों तक नाना जतन करते रहने पर भी मृत्यु के समय  राम नाम मुँह से नहीं निकलता, गीधराज जटायु ने उन्हीं रामजी की गोद में मृत्यु पाई । और उन्हीं के हाथों से उनका अंतिम संस्कार भी हुआ । अतः सच  है-


मुए मरत, मरिहैं सकल घरी पहर के बीचु ।
लही न काहूँ आजु लौं गीधराज की मीचु ।। (गोस्वामी तुलसीदासजी- दोहावली )




।। जय श्रीसीताराम ।।


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रविवार, 3 दिसंबर 2017

पवनतनय के चरित सुहाए-१० (सीताजी से राम जी का वियोग वर्णन )

हनुमानजी महाराज के हृदय में स्थिति राम जी बोले कि हे सीते ! मुझको सबकुछ उल्टा लगने लगा है । वृक्षों की नए-नए कोपलें अग्नि के समान लग रहे हैं । रात्रि कालरात्रि के समान और चंद्रमा सूर्य के समान प्रतीत हो रहा है । 

कमल के वन काँटों के वन की तरह लग रहे हैं । और वारिश ऐसे लगती है मानों बादल जल के स्थान पर गर्म-गर्म तेल की वर्षा कर रहे हों ।  जो-जो वस्तुएँ पहले हितकारी लगती थीं वे ही अब कष्टकारी लग रही हैं । शीतल,मंद और सुगंधित जो त्रिविधि वायु कही गई है वो साँप के स्वास के समान गर्म और जहरीली प्रतीत हो रही है ।

 कहने से दुख थोड़ा कम हो जाता है । लेकिन किससे कहूँ कोई भी इस दुख को जानने वाला नहीं है । राम जी ने कहा कि मेरे और तुम्हारे प्रेम का सार यह है कि हे प्रिय तुम जानती हो कि मेरे एक ही मन है । और वह मन सदा आपके ही पास रहता है । इतने में ही अथवा इससे ही आप मेरी प्रीति के सार को जान लीजिए, समझ लीजिए । राम जी का ऐसा संदेश सुनकर सीता जी राम जी के प्रेम में मग्न हो गईं, खो गईं और उन्हें शरीर की कोई सुधि नहीं रही ।

तब हनुमानजी महाराज बोले कि हे माता आप हृदय में धैर्य धारण कीजिए और अपने भक्तों-सेवकों को सुख देने वाले भगवान श्रीराम को याद कीजिए । उनका सुमिरण कीजिए । आप अपने हृदय में राम जी की प्रभुता को लाइए । सोचिये, बैठाइए और मेरे बचनों को सुनकर कायरता को छोड़ दीजिए । 
भक्त अथवा भगवान के सेवक जब भगवान की प्रभुता को भुला देते हैं । अथवा परिस्थिति की विषमता देखकर अथवा दुख की भीषणता देखकर भगवान की प्रभुता विस्मृति हो जाती है तो अधीरता बढ़ती है । इससे दुख बढ़ता है । अथवा यूँ कहें कि यही दुख का कारण बनता है । अन्यथा यदि जीव को भगवान के गुण, उनकी दयालुता, सर्वव्यापकता, समर्थता, प्रभुता  आदि पर दृढ़ विश्वास रहे, सतत स्मरण रहे तो फिर दुख कहाँ ?
 लेकिन जब सीता जी को भगवान की प्रभुता विस्मृति हो सकती है तो साधारण जीव इससे कहाँ बच सकते हैं ।
 हनुमान जी महाराज ने कहा कि राक्षस पतिंगे के समान और भगवान श्रीराम के वाण अग्नि के समान हैं । अतः हे माता आप इन्हें जला हुआ ही समझिए और हृदय में धैर्य धारण कीजिए ।
 जैसे पतिंगे आग्नि के पास जाते ही समाप्त हो जाते हैं वैसे ही बस राम जी के आने की देरी है और राक्षस समाप्त । उनके अग्नि रुपी वाण की ओर राक्षस रुपी पतिंगे सहज ही खिचें चले आएँगे और स्वयं जलकर प्राणांत कर लेंगे । रामजी को कुछ करने की जरूरत नहीं है । बस यहाँ आना है और राक्षसों को उनके वाण का दर्शन होते ही सब जल मरेंगे ।
 अतः हे माता आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिए । और राम जी के सेवक सुख दायक वाने का सुमिरण कीजिए । यह सब सोचना छोड़ दीजिए कि राम जी कैसे आयँगे ? और इन पराक्रमी राक्षसों को कैसे मारेंगे ? क्योंकि ये पतिंगे हैं और इन्हें आप जला हुआ ही समझों ।

                                                    (शेष भाग-११ में ।)


।। जय श्रीसीताराम ।।


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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

माता-पिता को वृद्धाश्रम में रखने से सभी साधन निष्फल हो जाते हैं

माता-पिता का जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है । रामायण आदि ग्रंथों में माता-पिता की महिमा गाई गई है । आजके समय में कई लोग माता-पिता को वृद्धाश्रम में डाल देते हैं । और समझते हैं कि इससे उनका जीवन सुखमय रहेगा । लेकिन यह भूल है । बहुत बड़ी भूल है ।


कई लोग ऐसा करके भी कथा सुनते हैं, कराते हैं, सत्संग करते, कराते हैं और तीर्थ यात्रा भी करने चले जाते हैं । लेकिन इसका क्या फायदा ? कई लोग समझते हैं कि माता-पिता से अब क्या प्रयोजन ? इनके घर में रहने से झंझट ही रहेगा । इसलिए इन्हें दूर कर दो इसी में लाभ है ।


लेकिन ग्रंथों के अनुसार माता-पिता के आदर से, सेवा से सुख-शांति आती है । जीवन सुखमय रहता है । इसके विपरीत माता-पिता को दूर करके सुख का भले अनुभव हो लेकिन वास्तविक सुख नहीं मिलता । चैन नहीं मिलता और अशांति बनी रहती है । लोग समझ नहीं पाते लेकिन जीवन में उपद्रव आते रहते हैं । और किसी तरह से इनसे निजात नहीं मिलती ।


ऐसे लोंगो को किसी भी साधन अथवा साधना से लाभ नहीं होता है । इनका कोई भी धार्मिक कर्म बुझी हुई अग्नि में आहुति डालने के समान निष्फल हो जाता है । लेकिन इस कराल कलिकाल में सबके सोच-विचार बदल गए हैं । लोग अवगुण को गुण और गुण को अवगुण समझने लगे हैं –


रामदास कलिकाल में मति सबकी गै रूठ ।
ठूठे को समझत हरा हरे पेड़ को ठूठ ।। 

                          (दोहा संग्रह- ‘मानव माने होय’ से । )


ऐसे में सही और गलत का विवेक कैसे होगा ? गलत करके सही समझेगा और सुख का अनुभव करेगा । और कल्याण से वंचित हो जाएगा ।


जैसे कभी-कभी कुत्ते भूख के चलते सूखी हड्डी चबाने लगते हैं । और हड्डी के मुख में गड़ने से उसके ही मुख से रुधिर निकलने लगता है और उस रुधिर का पान करके कुत्ता सुख का अनुभव करता है । वह यह नहीं समझ पाता कि हड्डी में कोई रस नहीं है वह तो स्वयं का खून पी रहा है । स्वयं का नुकसान कर रहा है । ऐसे ही विवेक शून्य व्यक्ति अपना ही नुकसान करके सुख का अनुभव करते हैं और जीवन में कष्ट भोगते रहते हैं ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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विशिष्ट पोस्ट

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे

लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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