सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 19 सितंबर 2021

चित्रकूट विहारी साँवरे तुम सम कोऊ न दिखाय

चित्रकूट विहारिणी-विहारी जी और चित्रकूट धाम की बड़ी महिमा है   कामद गिरि का दर्शन करने से  मन के विषाद मिट जाते हैं   रामजी की ऐसी  कृपा है  मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं  

जीवन में कोई उथल-पुथल चल रही हो तो चित्रकूट दर्शन से उसका समाधान मिल जाता है  ग्रंथों में ऐसा वर्णन मिलता है कि राजा नल और दमयंती, पाँचो पांडव और द्रोपदी के जीवन की उथल-पुथल और दुख चित्रकूट दर्शन से दूर हो गए थे  


।।श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 


।। चित्रकूट विहारी साँवरे तुम सम कोऊ न दिखाय ।।

 

चित्रकूट विहारी साँवरे तुम सम कोऊ न दिखाय 

रघुकुलभूषण राम सियावर सीधे सरल सुभाय ।।१।।


जन हित कारण राम चले वन दशरथ मान बढ़ाय 

तात मातु गुरजन पुरवासी थोड़ी अवधि बताय ।।२


तिहुँपुर रघुकुल होत बड़ाई राम सरिस सुत पाय 

सीता अनुज सहित वन आए राजिवनयन हर्षाय ।।३।।


नीच निषाद भेंटि उर लायो दीनबंधु रघुराय ।

केवट जनम सुफल करि आयो चरण कमल धुलवाय ।।४।।


खग मृग वृंद पथिक मगवासी निरखे रूप लुभाय ।

कोल किरात भील वनवासी रहे जनम फल पाय ।।५।।


अगजग नायक श्रीरघुनायक बोलन मिलन सुहाय ।

कण-कण तृण गिरि भयो सुहावन महिमा सकै को गाय ।।६।।


आवत यहाँ होत मन भावन कामद दिह्यो बनाय ।

मंदाकिनि महिमा सुर गावत सेवत पाप नसाय ।।७।।


पाँवरी देइ भरत समुझायो दीन्हेउ अवध पठाय ।

सुर मुनि अभय कियो सुरनायक रावन करि वनराय ।।८


नीच जयंत सराहत राघव निज अघ कृत फल पाय ।

मुनिवर वेष विराजत सेवत लखन सिया मन लाय ।।९।।


राम समान राम जन गावत उपमा खोजि लजाय ।

दीन संतोष दीन जन राखत आरत दीन सहाय ।।१०।।

 

 

।। चित्रकूट विहारी की जय ।।

रविवार, 12 सितंबर 2021

अवधविहारी साँवरे मनमोहन दीनदयाल

 

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 


।। अवध विहारी साँवरे ।।

 

अवधविहारी साँवरे मनमोहन दीनदयाल ।

दशरथ सुवन कौसल्या नंदन दीनबंधु शरनागतपाल ।।१।।


भुवन विमोहनि महाछवि निरखत मदनहु के उर साल ।

कर पद नयन कंज जलजानन ओंठ बिम्बा जिमि लाल ।।२।।


सरजू तीरे धीरे-धीरे चलत मनोहर चाल ।

भरत लखन रिपुसूदन सोहत संग अंजनीलाल ।।३।।


धनुष वान कर सोहत नीके उर बैजंती माल ।

चरन चिन्ह अड़तालिस मनहर मुकुट तिलक सिर भाल ।।४।।


जानकी जीवन जगजीवन प्रभु जन मन करत निहाल ।

पतितपावन दुख दारिद दावन मेटत विपति कराल ।।५।।


रीति प्रीति जन दीन को आदर चौदह भुवन भुआल ।

दीनानाथ दीन जन राखत डूबत लेत निकाल ।।६।।


सीतानाथ रघुनाथ हिय उमड़त दयासिंधु विशाल ।

सुमिरत राम दया बस काटत जनम मरण को जाल ।।७।।


सबबिधि हीन विरद बल जीवत राघव आरतपाल ।

दीन संतोष ओर अब देखौ रघुवर सहज कृपाल ।।८।।


 

।। सियावर रामचंद्र की जय ।। 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

श्रीगणेशजी की स्तुति- जय गिरिजासुत जय गणनायक

 

। श्रीगणेशाय नमः 


जय गिरिजासुत जय गणनायक । 

विद्यानिधि सुंदर सब लायक ।।१।।


प्रथम पूज्य जय जयति विनायक । 

अष्ट सिद्धि नव निधि के दायक ।।२।।


सुर नर मुनि तेरे गुनगायक । 

जन रंजन गुननिधि वरदायक ।।३।।


जय लम्बोदर जयति गजानन । 

निरखत शम्भु उमा तव आनन ।।४।।


वेद शास्त्र आदिक के ज्ञाता । 

काव्य निपुण मानत पितु-माता ।।५।।


वदन कोटि रवि तेज बिराजै । 

सुमिरत सिद्ध होत सब काजै ।।६।।


मूषक वाहन मोदक भावै । 

जगतपूज्य जग तुमको ध्यावै ।।७।।


संतोष जथामति गुनगन गावै । 

विमल भगति रघुपति की पावै ।।८।।



। प्रथम पूज्य गणेशजी महाराज की जय 

बुधवार, 8 सितंबर 2021

रामजी के विरद की रीति आज भी क्यों चलती आ रही है ?

 

भगवान श्रीराम अनंत गुणगण निलय हैं । इसलिए शेष, महेश, गणेश, शारद, नारद, वेद आदि रामजी के गुणों का वर्णन नहीं कर सकते हैं । भगवान राम के गुण सदैव भगवान राम में स्थिति रहते हैं । इसलिए भगवान श्रीराम सदैव एकरस रहते हैं । उनके गुण कभी भी, कहीं नहीं जाते । अर्थात उनसे दूर नहीं होते-तेरो गुन कहियो न जाय

 

संसार के लोग और यहाँ तक देवता भी एकरस नहीं रहते । इनके लिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि ये लोग तो बहुत जल्दी जूड़ें और बहुत जल्दी गरम हो जाते हैं । अर्थात कब खुश होकर कुछ हित कर दें और कब नाराज होकर कुछ अहित कर दें अथवा अहित करने के बारे में सोचने लगें, कुछ कहा नहीं जा सकता है ।

 

लेकिन हमारे रामजी के गुण कभी नहीं जाते हैं । इसलिए रामजी के लिए थोड़े में ही जूड़ें और थोड़े में ही गरम होने की बात लागू नहीं होती । और भक्त के हित की, शरणागत के हित की क्या बात की जाय जब रामजी अपने शत्रु का भी हित ही चाहते हैं । रामजी गुणग्राही, छमानिधान और करुणानिधान हैं और इसलिए जिस पर एक बार कृपा कर देते हैं उस पर कृपा ही करते रहते हैं ।

 

चूँकि रामजी के गुण किसी भी दिन, कभी भी नहीं जाते हैं इसलिए ही उनके विरद की रीति आज तक पहले के ही भाँति चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी-

 

श्रीराम चरण अब भी जन को उतना ही सुखदाई है ।

करुणासागर की करुणा में, कहीं कमी नहीं कोई आई है ।।

न ही राघव ने अपने विरद की रीति भुलाई है ।

साधु संत सद्ग्रंथों ने किया झूठी नहीं बड़ाई है ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

 

 

रविवार, 5 सितंबर 2021

भगवान श्रीसीताराम के चरण चिन्ह: श्रीसीताराम के चरणों में सबसे अधिक-अड़तालीस चिन्ह हैं

 

सनातन धर्म में जितने भी देवी, देवता, भगवान और भगवान के अवतार हैं उनमें सबसे अधिक चरण चिन्ह भगवान श्रीसीताराम के चरणों में हैं ।

 

इतना ही नहीं भगवान श्रीसीताराम के दोनों चरणों में सम चिन्ह हैं । अर्थात दोनों चरणों में चिन्हों की संख्या बराबर है । भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में विषम चिन्ह हैं । अर्थात दोनों चरणों में चिन्हों की संख्या बराबर नहीं है । भगवान श्रीकृष्ण के दाएँ चरण में ग्यारह और वाएँ में आठ चिन्ह कहे गए हैं । इसी तरह राधाजी के वाएँ चरण में ग्यारह और दाएँ चरण में आठ चिन्ह कहे गए हैं ।

 

भगवान श्रीराम के दाएँ चरण में जो चिन्ह हैं वे श्रीसीताजी के वाएँ चरण में हैं । तथा जो चिन्ह भगवान श्रीराम के वाएँ चरण में हैं वे श्रीसीताजी के दाएँ चरण में हैं ।

 

श्रीमहारामायण के अनुसार भगवान श्रीराम के दाएँ चरण में चौबीस और वाएँ चरण में भी चौबीस अलग-अलग चिन्ह हैं । इस प्रकार भगवान श्रीराम के चरणों में कुल अड़तालीस चिन्ह हैं । श्रीसीताजी के चरणों में कुल अड़तालीस चिन्ह हैं । वाएँ चरण में चौबीस और दाएँ चरण में चौबीस ।

 

भगवान के चरण चिन्हों का चिंतन और ध्यान का बहुत महत्व हैं । बड़े-बड़े संत और भक्त भगवान के चरण चिन्हों का चिंतन करते रहते हैं । कलियुग के हम जैसे लोग बहुत आलसी और प्रमादी होते हैं । इसलिए इनके कल्याण के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने केवल चार चिन्हों पर ही बल दिया है ।

 

इसलिए जो अधिक नहीं कर सकते उन्हें अड़तालीस की जगह केवल निम्नलिखित चार चिन्हों का चिंतन करते रहना चाहिए ।

 

१.    कुलिश (वज्र) : इसके चिंतन से जन्म-जन्मांतर में किए हुए पाप जो पर्वत समूह के समान हैं उनका नाश होता है । और बल की बृद्धि होती है । इंद्र के वज्र की उत्पप्ति इसी वज्र चिन्ह से होती है 

२.    ध्वजा: इसके चिंतन से विजय और यश-कीर्ति की प्राप्ति होती है ।

३.    अंकुश (वर्छी ): इसके चितंन से मन रुपी मतवाले हाथी पर अंकुश लगता है । मनोमल का नाश होता है, ज्ञान में वृद्धि होती है ।

४.    कमल: इसके चिंतन से भगवद भक्ति की प्राप्ति होती है । यश बढ़ता है और मन में प्रसन्नता बनी रहती है । श्रीविष्णु कमल की उत्पप्ति इसी कमल चिन्ह से होती है 


उपरोक्त चारों चिन्ह भगवान श्रीराम के दक्षिण पद कमल में और माता सीता के वाएं पद कमल में स्थित हैं ।

 

श्रीसीतापति भगवान श्रीराम के चरणों में अड़तालीस चिन्ह सदैव विराजमान रहते हैं । ये चिन्ह अमंगल का नाश करने वाले और मंगल करने वाले हैं । भगवान श्रीराम के चरण चिन्ह संतों के, सज्जनों के सदा सहायक हैं-

 

सीतापति पद नित बसत, एते मंगलदायका ।

चरण चिन्ह रघुवीर के, संतन सदा सहायका ।।

 

।। भगवान श्रीसीताराम के चरण चिन्हों की जय ।। 

बुधवार, 1 सितंबर 2021

प्रभू जी मोहिं वेगि से वेगि उबारो

 ।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।


प्रभू जी मोहिं वेगि से वेगि उबारो ।

एक तुम्हारी आस है भगवन दूजा नहीं हमारो ।।१।।


निज बुधि बल कछु काम न आए निशि-दिन तोहिं पुकारों ।

तुम सम तुम प्रभु और न कोई महिमा अमित तुम्हारो ।।२।।


काम दोष दुख रोग सतावैं भगत बिपति सब टारो ।

शरनागत की भीर हरत प्रभु येही मोर सहारो ।।३।।


मातु-पिता गुर स्वामि सखा प्रभु बिगड़ी मोर सुधारो ।

संघर्ष बिपति भव डूबत जन प्रभु निज कर आइ सम्हारों ।।४।।


दीन संतोष मीत हित रघुवर अब नहि और विसारो ।

राम घनश्याम हो मुझ चातक के वेगि दया वृष्टि कारो ।।५।।


।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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