सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

सोमवार, 30 अगस्त 2021

वृंदावनवासी सांवरे मन मोहन मदन गोपाल

।। वृंदावनवासी सांवरे मन मोहन मदन गोपाल ।।


वृंदावनवासी सांवरे मन मोहन मदन गोपाल ।

मथुरा जाए गोकुल आए जशुमति कियो निहाल ।।१।।


घर-घर बाजने सुंदर बाजे सब भए मालामाल ।

देवकीनन्दन जगबन्दन भए नंद बाबा को लाल ।।२।।


गली-गली में नाच नचावैं गोपिन दै-दै ताल ।

माखन खातिर घर-घर डोलत गोपिन ऐंठत गाल ।।३।। 


लकुटी लेकर गाय चरावत बड़ा छ्वीलो ग्वाल 

कामरि वंसुरी सुंदर सोहै तिलक सजीलो भाल ।४


यमुना तीरे कंदुक खेलत संग सखा सब बाल 

अष्ट सखी संग राधा मोहन लीला करत रसाल ।५


टेढ़ी-टेढ़ी चितवन सोहै टेढ़े टेढ़े बाल ।

टेढ़ी कटि संतोष सुधारत जीवन टेढ़ी चाल ।।६।।


।। वृंदावनवासी सांवरे सरकार की जय ।।

शनिवार, 28 अगस्त 2021

ग्वारिया और मथुरेश भगवान: भगवान श्रीराम ही भगवान श्रीकृष्ण हैं

एक बार भगवान राम और माता सीता कामद गिरि पर विराज रहे थे । रामजी ने ऊपर से देखा कि एक ग्वारिया गायों को चरा रहा है । हाथ में लकुटी लिए हुए था और सिर पर पगड़ी रखा हुआ था ।

 

रामजी ने उसे देखा और हँसने लगे । सीताजी रामजी के हँसने का कारण पूछने लगीं ।

 

रामजी ने ग्वारिया को दिखाया और बोले मैं अपने अगले अवतार में ऐसे ही ग्वारिया बनकर गायों को चराऊँगा ।

 

 सीताजी ने कहा तब उस रूप में आप कैसे दिखोगे ? यह मैं देखना चाहती हूँ । तब रामजी ने एक पत्थर की शिला पर अपने उस रूप को उकेर दिया । और सीता जी ने उस रूप में भगवान राम को देखा ।

 

 संत जन कहते हैं कि आज भी भगवान कृष्ण की वह मूर्ति जिसे भगवान राम ने अपने हाथों से बनाया था, उड़ीसा प्रान्त के एक श्रीकृष्ण मंदिर में सुरक्षित है ।

 

इस प्रकार त्रेता के भगवान राम कई चतुर्युगी बीत जाने पर भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष के अष्टमी तिथि को भगवान श्रीकृष्ण के रूप में मथुरा में अवतरित हुए । और तभी से भक्त जन श्रीकृष्णजन्माष्टमी मनाते हैं । इस प्रकार रामजी ग्वारिया बनकर गाय चराए ।

 

 यहाँ कई चतुर्युगी शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि हर त्रेता के बाद द्वापर आता है । लेकिन जिस त्रेता में भगवान राम का अवतार होता है उसके तुरंत बाद वाले द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार नहीं होता है । कई बार त्रेता और द्वापर आते-जाते हैं और लाखों वर्ष बीत जाने पर भगवान श्रीकृष्ण का अवतार होता है । भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के बीच में डेढ़ करोड़ से भी अधिक वर्ष का अंतर होता है ।

 

 श्रीवाल्मीकि रामायण के अनुसार जब व्रह्माजी रावण वध के उपरांत रामजी की स्तुति करने आए तो राम जी को मथुरेश कहकर स्तुति किया । अर्थात कई लाख वर्ष पूर्व ही व्रह्मा जी ने कह दिया था कि हे भगवन आप ही  अपने अगले अवतार में  मथुरेश बनकर धरती का भार उतारेंगे  

 

इस प्रकार भगवान श्रीराम ही मथुरेश और ग्वारिया बनकर व्रह्मा जी की और अपनी वाणी को सत्य किया-

 

धनुष वाण या वेणु लो श्याम रूप के संग ।

मुझपे चढ़ने से रहा राम दूसरा रंग ।।

 

।। ग्वारिया और मथुरेश भगवान की जय ।।

 

 

 

 

 

शनिवार, 21 अगस्त 2021

अवधपुरवासी साँवरे तेरो गुन कहियो न जाय

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।


अवधपुरवासी साँवरे तेरो गुन कहियो न जाय

अमित गुनगन अमित महिमा, काहू के कहे न सिराय ।।१।।


महाछविधाम नयनाभिराम, रूप देखे मदन लजाय  

श्यामल सूरति मोहनी मूरति, चित मेरो लिह्यो चुराय ।।२।।


कर सर चाप मनोहर शोभा, मन मेरो देखे न अघाय ।

परम पावन चरित सुनि गुनि, मन मेरो सहज लुभाय ।।३।।


रूप चरित गुन सुमन सरीखे, मेरो मन भ्रमर ललचाय

परम विनीत सुशील सियावर, जदपि अखिल जग राय ।।४।।


बानर भालू गीध बनचारी, राखे सरल सुभाय

आरतपाल सुजान शिरोमणि, दीनन गुर पितु माय ।५ 


सुमुख सुलोचन आरति मोचन, चितवत जन मुसुकाय 

गई बहोरि थप उथपन पन, तुम बिनु कौन सहाय ।६


बल संबल अवलंब हमारो, जनि राखो मोहि बिसराय 

श्रीरघुनाथ सुफल करो नैना, सुंदर वदन दिखाय ।।७।।


परम उदार दीन जन गाहक, राखत धाम बसाय

दीन संतोष नाथ अब राखो, विरद की लाज बचाय ।।८।।

 

 

। अवधपुरवासी साँवरे की जय । 

रविवार, 15 अगस्त 2021

कलियुग गोस्वामीतुलसीदासजी को क्यों परेशान करता था...

महान भारत की महान संत परंपरा में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सदा अविस्मरणीय हैं और रहेंगे । गोस्वामीजी ने सनातन हिंदू समाज को जो रास्ता दिखाया है उस पर चलकर वह अपने देश-समाज का भला भी कर सकता है और साथ ही रामजी से जुड़कर अपना परम कल्याण भी कर सकता है ।

 

गोस्वामीजी लाखों लोगों के प्रेरणास्रोत हैं । साधारण जन से लेकर संतों तक सभी लोग गोस्वामी जी से प्रेरणा लेते हैं । आज इस कराल कलिकाल में संत जन गोस्वामीजी की रहनी, दीनता, सरलता, भक्ति और वैराग्य से सीख लेकर अपने साधना पथ पर मजबूती से चलते जाते हैं । धन्य हैं गोस्वामीजी जिनकी कृपा करुणा से अनेकों लोग तर गए, अनेकों लोग भक्ति और भगवान को समझने और प्राप्त करने के पथ पर अग्रसर हो सके और हो रहे हैं ।

 

गोस्वामीजी के सुंदर-सुंदर  छंद, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण हैं, भक्तों के लिए संबल का कार्य करते हैं । साधारण जन से लेकर साधु-संत की वाणी में  गोस्वामी जी की उक्तियाँ, जो दोहे, सोरठे, अथवा चौपाइयों के रूप में हैं, अनायास ही, बरबस ही आ जाते हैं । कोई भी कथा, प्रवचन और सत्संगति की बात गोस्वामीजी के उक्तियों के बिना परिपूर्ण नहीं होती ।

 

  यदि तुलसीदासजी न होते, बारह ग्रंथ रत्न न दे जाते तो अब तक कलियुग और हावी हो जाता । कलियुग को यह पता था कि इस संत की वाणी, इस संत के ग्रंथ आगे भी लोगों के पथपदर्शक बने रहेंगे । और मुझे पाँव जमाने में मुश्किल होगी । इसलिए कलियुग गोस्वामीजी को परेशान किया करता था । वह चाहता था कि गोस्वामीजी अपने ग्रंथ लुप्त कर दें, गंगाजी में प्रवाहित कर दें । लेकिन गोस्वामीजी ने ऐसा नहीं किया । कलियुग को इस बात की पीड़ा थी कि यह बाबा स्वयं राम-राम जपता है और दूसरों से भी जपवाता है, जपने को कहता है । राम विमुख प्राणियों को राम सम्मुख कर रहा है । ऊपर से ग्रंथ पे ग्रंथ लिखे जा रहा है जो इसके परमधाम पधारने के बाद इसका काम करते रहेंगे- 

गुरू तुलसीदास जो श्रीरामचरितमानस न गाते ।

परम मनोहर सहज कथा बिनु लोग अधिक भरमाते ।।१।।

भवसागर से तरने का सरल सुगम मारग न सुझाते ।

साधु सुजन जन प्रेरणादायक सुंदर उक्ति कहाँ पाते ।।२।।

बरबस ही लोंगो के मुख में पावन छंद कहाँ आते ।

सच में मानस न होती तो धरम-करम बहु मिट जाते ।।३।।

दीन संतोष हीन जन मोसे राम चरन नहि लगि पाते ।

मूढ़ मलीन बिबस कलिकाल जनम-जनम लगि फँसि जाते ।।४।।  

 

।। गोस्वामी तुलसीदासदासजी महाराज की जय ।।

 

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

होनी को भी बदल देने वाले भगवान शंकरजी-भाविव मेटि सकँइ त्रिपुरारी

महादेव भगवान शंकर जी की अतुलित महिमा है । शंकरजी भावी अर्थात होनी को भी बदल सकते हैं । कथा आती है कि मार्कंडेय ऋषि को केवल पाँच वर्ष की ही आयु मिली थी । लेकिन शंकर जी ने इस होनी को भी बदल दिया था । मार्कण्डेय ऋषि भगवान शंकर की कृपा से इतनी आयु प्राप्त कर लिए कि लगभग अमर हो गए ।

 

व्रह्माजी पार्बती माता से कहते हैं कि जिन लोगों के भाग्य में मैंने सुख की निशानी भी नहीं लिखी थी ऐसे लोगों के लिए भी सुख के साधन की व्यवस्था करते-करते मुझे नाको चने चबाने पड़ते हैं क्योंकि आपके पति भोले शंकर औढरदानी जब देने पे आ जाते हैं तो किसी को भी कुछ भी दे डालते हैं । देने में कुछ बिचार नहीं करते कि किसे और कितना देना है ।

 

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान शंकर माँगने वाले से कहते हैं कि देखो कम मत माँगना । इस लोक में कोई सुखी हो और परलोक में भी उसे इंद्र के समान सम्मान मिले तो यही समझना चाहिए कि जरूर इसने कभी न कभी शंकरजी को या तो मदार के चार पत्ते या धतूर के दो फूल अर्पण कर दिए होंगे ।

 

  इस प्रकार शंकरजी थोड़े में ही बहुत कुछ दे देते हैं । जिसके भाग्य में कुछ नहीं है उसको भी बहुत कुछ दे देते हैं । और तो और भावी को भी बदल देते हैं –

 

औढरदानि द्रवत पुनि थोरे । सकँइ न देखि दीन कर जोरे ।।

जो तप करइ कुमारि तुम्हारी । भाविव मेटि सकँइ त्रिपुरारी ।।

 

संत और ग्रंथ बताते हैं कि जब शंकरजी किसी से विशेष प्रसन्न हो जाते हैं तो उसे भगवान राम की भक्ति दे देते हैं । भगवान राम के चरणों में प्रेम दे देते हैं । इसलिए अध्यात्मिक दृष्टि में शंकरजी का यह कहना कि थोड़ा मत माँगना का मतलब है कि माँग ही रहा है तो राम जी के चरणों में प्रेम माँग ले । रामजी की भक्ति ही माँग ले-

 

जापर कृपा न करँइ  पुरारी । सोउ न पाउ मुनि भगति हमारी ।।

बिनु छल विश्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन ऐहू ।।

 

।। औढरदानी भगवान महादेव की जय ।।

 

सोमवार, 9 अगस्त 2021

श्रीविनयपत्रिका के बारह पद जिनका श्रावणमास में और व्रत के दौरान पाठ करना चाहिए

श्रावणमास और मलमास, जिसे अधिकमास भी कहा जाता हैं, में लोग शंकरजी की विशेष पूजा और अर्चना करते हैं । और करना भी चाहिए ।

 

  श्रावणमास में अपनी-अपनी श्रद्धा और विश्वास से जो पूजा, अर्चना, व्रत, उपवास आदि किया जाता है उसके अतिरिक्त और क्या करना चाहिए ।

 

  कई लोग संस्कृत में लिखे हुए श्लोक अथवा स्तुति आदि को ठीक से नहीं पढ़ पाते । पढ़ने में परेशानी होती है । उच्चारण गलत होने का डर रहता है ।

 

  ऐसे में जो लोग कर सकें उन्हें नियमित और जो न कर सकें उन्हें सोमवार के दिन ही श्रीविनयपत्रिका जी के बारह पदों का पाठ करना चाहिए ।

 

  श्रीविनयपत्रिकाजी के पद संख्या तीन से चौदह तक भगवान शंकर जी को समर्पित हैं । पद संख्या तीन से चौदह तक अर्थात कुल बारह पद हुए । इन बारह पदों का पाठ कर लेना चाहिए ।

 

 श्रीविनयपत्रिकाजी की पुस्तक गीता प्रेस से प्रकाशित है और मूल्य बहुत कम है । कोई भी खरीद सकता है और अपना कल्याण कर सकता है ।

 

।। हर हर महादेव ।।

मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दासों को मित्र बनाने वाले भगवान राम- केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई

भगवान राम का स्वभाव इतना सरल है कि जो उनका दास बनना चाहता है उसे वे अपना मित्र बना लेते हैं और मित्रता का निर्वाह भी करते हैं ।

 

कई लोग कहते हैं कि मित्रता बराबर वालों से करनी चाहिए ।  लेकिन राम जी के बराबर का तो कोई तीनों कालों, तीनों लोकों और चौदहों भुवनों में भी नहीं है । और रामजी ने दीन हीनों को अपना मित्र बनाया है । जो उनके दासों के दास भी नहीं बन सकते थे उन्हें भी मित्र बना लिया । धन्य हैं रामजी । धन्य है उनका स्वभाव ।

 

 कहाँ निषाद और कहाँ राम जी ? लेकिन रामजी ने उन्हें भी अपना मित्र बना लिया- ‘तुम मम सखा भरत सम भ्राता । सदा रहेहु पुर आवत जाता’ ।। रामजी ने निषाद जी से कहा कि आप मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो । आप कभी संकोच मत करना । राजधानी अयोध्या में आते-जाते रहना ।

 

  वह केवट जिसने रामजी को गंगा से पार कराया था । उसे रामजी ने सुर दुर्लभ  भक्ति का वरदान दिया । और वनवास समाप्त करके अयोध्या जाते समय मिलने पर रामजी केवट से मित्रवत मिले । अपनी छाती से लगाया और कुशल छेम पूछा । 

 

वन में जितने भी कोल, किरात, भील आदि  मिले रामजी ने सबका सम्मान किया । और सबसे मित्रवत व्यवहार किया । ये लोग जब अयोध्यावासियों से मिले तो सबने कहा भी कि रामजी से मिलकर हम लोगों की दिशा और दशा दोनों बदल गई है ।

 

  वानरों-भालुओं को भी राम जी ने अपना सखा बनाया । जब कोई कहता है कि वानर और भालू रामजी के भाई बंधु हैं तो रामजी इसमें अपनी बड़ाई मानते हैं । जब ऐसा कहा जाता है कि निषाद, केवट, कोल, किरात और भील रामजी के सखा हैं- तो राम जी को प्रसन्नता होती है- केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ।

 

जब हनुमान जी सुग्रीवजी के कहने पर राम जी का भेद जानने आए तो पहचानने के 

बाद हनुमानजी ने कहा-'नाथ शैल पर कपिपति रहई । सो सुग्रीव दास तव अहई'लेकिन रामजी ने सुग्रीवजी को सखा बनाया-'सखा सोच त्यागहु बल मोरे । सब बिधि घटब काज मैं तोरे 


विभीषण जी, जो रावण के भाई थे, राक्षस थे । शरण में आने पर रामजी ने उनको भी अपना सखा बना लिया । 


इस प्रकार जो चाहता है कि रामजी मुझे अपने शरण में ले लें, अपना दास बना लें रामजी सामान्यतया उसे अपना सखा बना लेते हैं ।

 

।। केवट मीत और बानर बंधु रघुनाथ जी की जय ।।

 

 

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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