सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

भगवान को किसने बनाया- WHO CREATED GOD ?

आज के समय में अधिकांश लोग नास्तिक होते जा रहे हैं । जो लोग आस्तिक हैं, उनमें से कई नास्तिकों के मध्य रहते हुए, उनके प्रभाव से बातचीत से प्रभावित हो जाते हैं । इसप्रकार कई आस्तिक भी नास्तिकता और आस्तिकता के मध्य ही जीते हैं ।

   एक सामान्य नास्तिक एक छोटे पौधे की तरह होता है । जिसे नास्तिक रुपी बकरियों से खतरा होता है । इन पौधों को इन बकरियों से बचना होगा । और जब ये परिपक्व हो जायेंगे अर्थात जब वृक्ष बन जायेंगे । तो इन्हें बकरियों से कोई खतरा नहीं रह जायेगा । बल्कि कई बकरियाँ भी इनके छाया और फल के प्रभाव से लाभान्वित हो सकेंगी ।

   नास्तिकता एक वहम है । मन का रोग है । ईश्वर की सत्ता सार्वभौम है । इसे कोई नकार नहीं सकता । उच्च गणित और उच्च विज्ञान चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि ईश्वर है । लेकिन उनकी चिल्लाहट को हर कोई नहीं समझ सकता । इसके लिए उच्च गणित और उच्च विज्ञान के साथ-साथ सनातन धर्म के सदग्रंथो का ज्ञान होना चाहिए । और ज्ञान होने के बाद उनमें गोते लगाने चाहिए ।
 
   जैसे किसी को रोग हो जाय तो उसे उचित दवा की जरूरत होती है । उचित परामर्श व देखरेख की जरूरत होती है । ठीक ऐसे ही एक नास्तिक को भी जरूरत होती है । यहाँ पर नास्तिकों द्वारा उठाए जाने वाले कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को एक नास्तिक और आस्तिक के बातचीत के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है । किसी को भी इससे लाभ हो जाय तो यही इसकी सार्थकता होगी-

  एक नास्तिक और एक आस्तिक की मुलाकात हुई । दोनों में बातचीत होने लगी । बातचीत के दौरान आस्तिक को लगा कि सामने वाला नास्तिक है । इसलिए उसने सोचा कि मैं इससे इस बिषय में जरूर बातचीत करूँगा और इसके अविश्वास को विश्वास में बदल दूँगा ।

   हर आस्तिक को लगता है कि उसका विश्वास बड़ा है । और इसी विश्वास के बल पर आस्तिक ने ऐसा निर्णय लिया था । लेकिन इन्हें यह नहीं मालुम था कि हर नास्तिक को भी लगता है कि उसका अविश्वास सबसे बड़ा है । और वह सोचता है कि हिमालय को तो डिगाया जा सकता है पर मेरे अर्थात एक पक्के नास्तिक के अबिश्वास को नहीं ।
  
  असम्भव सम्भव हो सकता है पर नास्तिक का अविश्वास डिगे यह कभी सम्भव नहीं हो सकता । दुनिया के अजूबों में यह भी एक अजूबा है लेकिन आस्तिक अज्ञानतावश नास्तिक से प्रश्न कर ही बैठा ।

 आस्तिक ने पूछा क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं ?
नास्तिक ने जबाब में प्रश्न किया कि ईश्वर में विश्वास करने से आपका क्या मतलब है ?

प्रश्नकर्ता जो जबाब की प्रतीक्षा में था, जबाब के बदले प्रश्न सुनकर थोड़ा आश्चर्यचकित हो गया । सोचने लगा कि क्या इन्हें विश्वास का मतलब ही नहीं मालुम है ।
 
  प्रश्नकर्ता यानी आस्तिक फिर सोचने लगा कि यदि जबाब मिला होता भले ही नहीं ही सही तो भी ठीक था । लेकिन यहाँ मामला गम्भीर है क्योंकि इन्हें विश्वास का मतलब ही नहीं मालुम है ।

खैर नास्तिक को समझाने के गरज से आस्तिक बोला मेरा मतलब है कि क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि भगवान हैं ?

नास्तिक ने फिर जबाब में प्रश्न ही किया- मुझे ऐसा क्यों लगना चाहिए ?

जबाब में फिर ऐसा प्रश्न सुनकर आस्तिक को थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा कि नास्तिक भी क्या चीज होते हैं ?
    
   आस्तिक ने कहा मेरे समझ से आपके अंदर भी बिचार आते होंगे । आप भी बहुत कुछ अनुभव करते होंगे । क्योंकि यह केवल सामान्य मानव का ही नहीं बल्कि पशुओं का भी गुण है । यह सभी जानते हैं कि मनुष्य अपने को पशुओं से श्रेष्ठ मानते आये हैं । और आप भी देखने में मनुष्य ही लगते हैं ।

   आस्तिक बोला मैं जो कहने जा रहा हूँ, वह हवा-हवाई नहीं है । हर आदमी जानता है अथवा जान या समझ सकता है कि कार्य और कारण में अनूठा रिश्ता है । बिना कारण के और बिना किसी के किए इस संसार में कुछ भी नहीं होता है ।

 सोच कर देखिये हर चीज, घटना आदि के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । आप कह सकते हैं कि आखिर मैं क्यों सोचूँ ? यह तो कोई बात नहीं हुई ।

  यह सड़क देखिये यह अपने आप नहीं बन गई है । और न ही आशमान से टपकी है । इसे किसी ने बनाया है । यह बाग किसी ने लगाया है । अपने आप नहीं लग गया है । यह बिलडिंग अपने आप नहीं बन गई है । इसे भी किसी ने बनाया है । ऐसे ही यह संसार किसी ने बनाया है । यह धरती, आशमान, चाँद और सितारे आदि के होने के पीछे कोई कारण है । और इसे बनाने वाला अथवा उत्पन्न करने वाला भी कोई न कोई है ।
 
 यह सुनकर नास्तिक मुस्कराया । क्योंकि उसे अपने अग्रजों का जाना माना अकाट्य प्रश्न, जिसके बल पर वे अपने को कई बार बिजई और गौरवान्वित समझ चुके थे, पूछने का उचित अवसर मिल गया था ।

वह बोला कि ठीक है । हर चीज को बनाने वाला कोई न कोई होता है । सो दुनिया भी किसी ने बनाई ही होगी । लेकिन अब मेरा प्रश्न यह है कि-

 दुनिया बनाने वाले को किसने बनाया ? क्या आप बता सकते हैं कि भगवान को किसने बनाया ?
  
  आस्तिक बिचार करने लगा कि मूर्ख और विद्वान में एक समानता होती है । मूर्ख विद्वान को मूर्ख समझता है । और विद्वान मूर्ख को । दोनों में एक असमानता भी होती है । विद्वान ज्ञान का पुजारी होता है । और मूर्ख अज्ञान का । इसी से गुरुदेव जी को यह कहना पड़ा कि ‘मूरख हृदय न चेत जो गुर मिलँय बिरंच सम’ ।

  आस्तिक बोला कि ईश्वर को बनाने वाला कोई नहीं है । क्योंकि वह इकाई है जहाँ से शुरुआत होती है । जिससे सब कुछ बनता है ।

 ईश्वर अजन्मा और अबिनाशी है । भला ईश्वर को कौन बना सकता है ? ईश्वर तो सबको बनाता है । हर किसी को बनाने वाला कोई न कोई होता है । यह सत्य है । किसी भी चीज को ले लीजिए और देखते जाइये कि इसको किसने बनाया । और जिसने इसको बनाया उसको किसने बनाया .....  ।  जहाँ पर यह श्रृंखला बंद होती है वही ईश्वर है ।

हर चीज का अंत होता है । यह सत्य है । लेकिन एक चीज ऐसी है जिसका अंत नहीं होता है । वही ईश्वर है, शुरुआत है ।

  आस्तिक आगे बोला कि पूछा जाय कि तुमको किसने बनाया । तो कह सकते हो को पिता जी ने । फिर उनको उनके पिताजी ने..... । लेकिन एक बिंदु पर रुकना ही पड़ेगा । वही ईश्वर है । गणित और विज्ञान इन तथ्यों का पूर्ण समर्थन करते हैं । हम एक उदाहरण दे रहे हैं-

 पियानो नामक गणितज्ञ ने पियानो एक्जिम्स में प्राकृतिक संख्याओं के बारे में कहा है कि दो कहाँ से आया एक में एक जोड़ने से, तीन कहाँ से आया- दो में एक जोड़ने से, चार कहाँ से आया तीन में एक जोड़ने से, पांच कहाँ से आया चार में एक जोड़ने से........ । इसी प्रकार हर संख्या अपने पूर्ववर्ती संख्या में एक जोड़ने से मिल जाती है अथवा बन जाती है ।

 लेकिन एक इकाई है, यहीं से शुरुआत होती है । एक का कोई सक्सेसर नहीं है । एक को बनाने वाली कोई संख्या नहीं है क्योंकि यह सभी संख्याओं को बनाती है । यह तो एक छोटा सा उदाहरण था जिसे मूर्खश्रेष्ठ भी आसानी से समझना चाहें तो समझ सकते हैं । गणित और विज्ञान ऐसे ही सिद्धांतों पर आधारित हैं । इसप्रकार ईश्वर शुरुआत है । अतः उसको बनाने वाला कोई नहीं है ।
  
  नास्तिक बोला होगा । जिसे हमने कभी नहीं देखा अथवा जो दिखाई नहीं पड़ता । उसका अस्तित्व है । सोचकर भी हँसी आती है ।

 आस्तिक बोला आत्मा या प्राण भी तो नहीं दिखाई पड़ता । तो क्या इसका भी अस्तित्व नहीं है ? तो वह क्या है जिसके निकल जाने पर कुछ शेष नहीं रह जाता ?

विज्ञान के अनुसार काला द्रव्य श्वेत द्रव्य से कई गुना अधिक है । फिर भी दिखाई नहीं पड़ता । तो क्या हम कह देंगे कि काला द्रव्य नहीं है ?

   परमाणु के मूल कण नहीं दिखते । जबकि मूल कण का सिद्धांत और प्रयोग दोनों से पुष्टि होती है । लेकिन वह नहीं दिखता, केवल उसका प्रभाव दिखता है । आज तक किसी वैज्ञानिक ने नहीं देखा । और न ही किसी मशीन के जरिये यह सम्भव हो सका । तो क्या हम कह दें कि वह नहीं होता ?

   नास्तिक को कुछ सूझ नहीं रहा था सो बोला विज्ञान भी तो कहता है कि ईश्वर नहीं है । आस्तिक को थोड़ी हँसी आई । बोला विज्ञान के वाणी नहीं है । न ही वह दिखता है । हम जो देखते हैं वह विज्ञान का प्रभाव है । यह कुछ वैज्ञानिकों का प्रलाप मात्र है । यह उनका अज्ञान है । सच्चे यानी महान वैज्ञानिकों ने, न ऐसा कभी कहा है और न ही कहेंगे । क्योंकि वे विज्ञान, अज्ञान और मानव ज्ञान की सीमा को पहचानते हैं । और जीवन के अंत समय में मेटाफिजिकल थियरी की बात करने लगते हैं ।

  कुछ सोचकर नास्तिक बोला कि हमारे भाई कहते हैं कि ईश्वर को मनुष्यों ने बनाया है । मनुष्यों ने ईश्वर बनाकर पूजना शुरू कर दिया । लेकिन पशु ईश्वर नहीं बनाए । इसलिए पशु न ईश्वर को मानते हैं और न पूजते हैं ।
 
आस्तिक मुस्कराया । और व्यंगात्मक लहजे में बोला इस बात पर मैं तुमसे कुछ सहमत हूँ ।

   इस तरह से अनेक बातें हुईं । नास्तिक कि अडिगता को देखकर आस्तिक की समस्या बढ़ गई । सोचने लगा कि यह अडिगता भले ही निराधार और अज्ञान व अंहकार वश ही है । पर इतनी बड़ी है कि सामान्य आस्तिक को बिचलित कर सकती है और कर भी देती है ।  उसने कई आस्तिकों के विश्वास को डिगते हुए देखा था । कई आस्तिक न चाहते हुए भी इसी अविश्वास की अचलता को देखकर नास्तिक बन जाते हैं । लेकिन इनमें से कई ऐसे हैं जो मंदिर जाया करते हैं । कहते हैं कि मैं ईश्वर को नहीं मानता फिर भी मंदिर चला जाता हूँ । जब मानते ही नहीं तो आयें अथवा न आयें क्या फर्क पड़ता है ? 

  इधर नास्तिक भी कुछ तनावग्रस्त हो चला । आस्तिक के तर्क से उसके अंदर कुछ चल रहा था । लेकिन वह प्रकट नहीं कर रहा था । आखिर में बोला सुनों मैं नास्तिक हूँ । नास्तिक । और इसलिए ही मैं भगवान को नहीं मानता हूँ ।

  नास्तिक का यही मतलब होता है कि जो भगवान को न मानें । मैं न मानता हूँ और न ही मानूँगा । दुनिया बनाने वाला कोई है भी तो मैं क्या करू । उससे मेरा क्या वास्ता ? वह क्या कर लेगा ? क्योंकि मैं नास्तिक हूँ ।
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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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विशिष्ट पोस्ट

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे

लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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