सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

एक साधे सब सधै श्रीराम नाम से चरितार्थ हो जाता है


भगवान श्रीराम का राम नाम बहुत ही सरल और सरस है । ग्रंथों और संतों के अनुसार राम नाम ही ऐसा है जो उल्टा और सीधा चाहे जैसे कहो फलदाई है । ग्रंथों में उदाहरण भी मिलता है । जैसे वाल्मीकि जी उल्टा राम नाम जपकर ही धन्य हो गए–‘कहत मुनीस महेश महातम उल्टे सीधे नाम को’-विनयपत्रिका


 इतना ही नहीं श्रीराम नाम से एक साधे सब सधै चरितार्थ हो जाता है । अर्थात सारी दौड़-धूप समाप्त हो जाती है । न और कुछ करने की और न और किसी से कुछ कहने की जरूरत रह जाती है । किसी के पीछे लगने की अथवा किसी से आशा करने की जरूरत नहीं रह जाती है ।


 जो रामनाम का आश्रय लेता है उसे कुछ भी अगम नहीं रह जाता है । सभी देवी-देवता उस पर कृपा करने लगते हैं । और ग्रह अनुग्रह करने लगते हैं ।


उससे हर कोई प्रसन्न भी हो जाता है । उससे श्रीसीताराम जी प्रसन्न हो जाते हैं । उससे हनुमानजी महाराज प्रसन्न हो जाते हैं ।


भगवान महादेव तो राम नाम के आभास मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं । ऐसे में जो राम नाम का आश्रय लेगा उससे तो शंकर जी प्रसन्न हो ही जाएँगे । शंकरजी प्रसन्न हो गए तो गणेश जी और पार्वती जी भी प्रसन्न हो जाएँगी ।


 कुल मिलाकर जो रामनाम का आश्रय लेता है उससे हर कोई यानी सभी देवी-देवता प्रसन्न हो जाते हैं । ग्रह अनुग्रह करने लग जाते हैं । उसे कुछ भी प्राप्त कर पाना शेष नहीं रह जाता । और एक साधे सब सधै चरितार्थ हो जाता है ।


।। जय श्रीराम ।।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

भगवान शंकर का ‘र’-रकार प्रेम


भगवान राम शंकर जी को बहुत प्रिय हैं । और राम नाम शंकर जी को अत्यंत प्रिय है । भगवान शंकर जी के राम नाम प्रेम से कौन अपरिचित होगा ? भगवान शंकर के राम नाम प्रेम से सम्बंधित कथाएँ संतों, ग्रंथों और भक्तों के मध्य प्रचिलित हैं ।


  भगवान शंकर रात-दिन राम-राम जपा करते हैं-‘तुम पुनि राम-राम दिन राती’ । शंकर जी को रामजी, राम नाम तो प्रिय हैं ही लेकिन शंकर जी को ‘र’ से बहुत प्रेम है ।


शंकर जी पद्म पुराण में पार्वती जी को राम नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जब किसी के मुँह से ‘र’ का उच्चारण होता है तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है । ‘र’ सुनते ही मैं प्रसन्न हो जाता हूँ । शायद बोलने वाला राम बोलने जा रहा है ऐसा सोचकर शंकर जी प्रसन्न हो जाते हैं ।


 राम शब्द के उच्चारण के आभास मात्र से भगवान शंकर को प्रसन्नता होती है । ऐसा पद्म पुराण में लिखा है । तब राम सुनकर शंकर जी कितने प्रसन्न होते होगें ? इसका कोई वर्णन कैसे कर सकता है ?


 धन्य हैं शंकर जी जिन्हें रामजी से और राम नाम से इतना प्रेम है ।



।। जय श्रीराम ।।



रविवार, 10 फ़रवरी 2019

वेंकटेश्वर भगवान श्रीराम- तिरुपति बालाजी के रूप में रामजी विराजते हैं


तिरुपति बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर, वेंकटेश्वर स्वामी, वेंकटेश्वर रामन और श्रीनिवास आदि भी कहा जाता है । दक्षिण की भाषा में रामजी को रामन कहा जाता है । इसप्रकार वेंकटेश्वर रामन का मतलब हुआ वेंकटेश्वर राम ।




ग्रंथों के अनुसार रावण ने जिस सीता जी का हरण किया था वे असली सीताजी नहीं थीं । असली सीताजी तो अग्नि में निवास कर रही थीं । माया की सीताजी के रूप में वेदवती जी का रावण के द्वारा हरण हुआ था ।


 जब रावण वध के पश्चात असली सीताजी को अग्नि से वापस लेने के लिए अग्नि परीक्षा कराई गई तो अग्नि देव ने रामजी से वेदवती को वरदान देने के लिए कहा । वेदवती पहले से ही भगवान को पति रूप में प्राप्त करने हेतु तपस्या कर चुकी थी । सीता जी ने भगवान राम से कहा कि वेदवती मेरा प्रिय करने वाली है इसलिए आप इसे अंगीकार करें । 

 तब भगवान श्रीराम ने बचन दिया कि मैं कलियुग में इनकी इच्छा पूरी करूँगा । इसलिए वेदवती पद्मावती अथवा पद्मालया के रूप में प्रकट हुईं । इनका जन्म भी हल चलाने से पृथि्वी से हुआ था । और पद्मावती से विवाह करने के लिए भगवान राम वेंकटेश्वर अथवा श्रीनिवास के रूप में प्रगट हुए ।


  इस प्रकार रामजी वेंकटेश्वर रामन बनकर तिरुपति में बिराजते हैं ।


वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन का बड़ा महत्व है । इनकी बड़ी महिमा है । प्रत्येक हिंदू को कम से कम एक बार वेंकटेश्वर भगवान का दर्शन जरूर करना चाहिए ।  वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन के पूर्व अथवा दर्शन के बाद कोल्हापुर के श्री माता लक्ष्मी मंदिर का दर्शन करने से विशेष लाभ होता है और दर्शन की पूर्णता समझी जाती है ।


।। जय श्रीवेंकटेश्वर रामन ।।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

कलाकोष भगवान राम


भगवान राम सर्व समर्थ पूर्ण परमात्मा और सनातन व्रह्म हैं । वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी । वे अगम भी हैं और सुगम भी । वे निराकार भी हैं और साकार भी हैं । वे व्यापक भी हैं और व्याप भी । आदि । लेकिन जिन्हें ग्रंथों का ज्ञान नहीं है, जो ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते वे अज्ञानता के कारण कुछ भी कहा करते हैं अथवा कह देते हैं ।


उदाहरण के लिए कई लोग अज्ञानता बस ऐसा कहते अथवा कह देते हैं कि भगवान श्रीराम कम कला से और भगवान श्रीकृष्ण अधिक कला से युक्त हैं ।


  जबकि ऐसा नहीं है । ग्रंथ इसके प्रमाण हैं । ग्रंथों में भगवान राम की अकल और सकल दोनों कहकर स्तुति की गई है । जैसे भगवान राम निर्गुण भी हैं और सगुण भी ठीक ऐसे ही वे अकल भी हैं और सकल भी हैं ।


  इतना ही नहीं विनयपत्रिका जी में भगवान राम की स्तुति करते हुए उन्हें कलाकोष कहा गया है । अर्थात राम जी सभी कलाओं से युक्त हैं । कोई भी कला देखनी हो तो वे राम जी में मिल जायेंगी । कोष का मतलब ही यही होता है ।


  कुलमिलाकर यही कहना है कि सद्ग्रंथो के अनुसार राम जी सभी कलाओं से युक्त हैं । वे कलाकोष हैं । अतः अज्ञानता बस कुछ भी नहीं बोलना चाहिए । वस्तुतः भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण एक ही हैं उनमें अंतर नहीं है । जो अंतर दिखता है वह लीला की दृष्टि से ही है । जब जैसी लीला की जरूरत पड़ती तब भगवान वैसी ही लीला करते हैं ।

  रामजी की महिमा कोई नहीं जान सकता है । उनकी महिमा का गायन कोई नहीं कर सकता है । इसीतरह उनके गुण और चरित का भी गायन कोई नहीं कर सकता है । न कोई समझ ही सकता है । हाँ कुछ हद तक गाया जा सकता है, समझा जा सकता है । संत और ग्रंथ भी कुछ हद तक ही रामजी के गुणगनों का गायन करते हैं । अतः अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए । और जहाँ तक हो सके रामजी से जुड़ने का प्रयास करना चाहिए । इसी में वास्तविक कल्याण है 

 
  
।। जय श्रीराम ।।


गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

संगीत प्रेमी भगवान श्रीराम -संगीत-गायन, वादन आदि में भगवान राम की निपुणता


भगवान राम अपने गुणों को सामन्यतया प्रगट नहीं करते हैं । भगवान राम के गुण बहुत गूढ़ हैं । संत और सदग्रंथ ऐसा कहते हैं । भगवान राम गंधर्व विद्या में बहुत कुशल हैं । लेकिन उनका यह गुण अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है । और इसलिए कई लोग कहते अथवा कह देते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण वाद्य विद्या में निपुण हैं जैसे बाँसुरी भी बजाते हैं । और राम जी के बारे में लोग समुचित जानकारी ही नहीं रखते ।



 अधिकाशं लोग नहीं जानते कि जब राम जी वशिष्ठजी के यहाँ पढ़ने गए तो थोड़े ही समय में सारी विद्याएँ राम जी के पास आ गईं । राम जी में आ गईं । अर्थात रामजी सारी विद्याओं में पारंगत हो गए ।


  राम जी पारंगत तो पहले से ही थे । उन्हें कुछ सीखना थोड़े ही था । हाँ जगत की दृष्टि से वे सीख रहे थे । सबको सिखाने वाले होकर भी सीख रहे थे । गुरू के भी गुरू परम गुरू, जगदगुरु भगवान राम पढ़ रहे थे । तो अल्पकाल में ही सब सीख जाएँ तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।


वाल्मीकि जी महाराज रामायण में लिखते हैं कि राम जी ने गुरू वशिष्ठ जी के यहाँ गंधर्ब विद्या में विशेष योग्यता हासिल किया था । अर्थात संगीत-वादन-गायन  आदि में रामजी निपुण हैं ।


  वस्तुतः भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण एक ही हैं । और रामजी गंधर्ब विद्या में पारंगत हैं । इसलिए जानकारी के अभाव में अज्ञानता बस कुछ भी नहीं कहना चाहिए । सब कुछ राम जी से है । सबकुछ राम जी से ही उत्पन्न है । संगीत-गायन-वादन की बात ही क्या है ?


 ।। जय श्रीराम ।।





बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

योगेश्वर भगवान श्रीराम


भगवान श्रीराम के चरित्र और गुण बहुत ही गूढ़ हैं । इसलिए आसानी से समझ में नहीं आते और लोग भ्रमित हो जाते हैं । 


  भगवान श्रीकृष्ण के लिए लोग कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं । लेकिन राम जी के बारे में लोगों को जानकारी ही नहीं है ।

           
  इसलिए अधिकांश लोग सोचते हैं अथवा मानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं । और भगवान राम को तो योगेश्वर नहीं कहा जाता है । लेकिन ऐसा सोचना अथवा मानना गलत है । क्योंकि भगवान श्रीराम महान योगी हैं । और शास्त्रों के अनुसार भगवान राम योगेश्वर हैं । ऐसा शास्त्रों में वर्णन है ।



  सनत्कुमार संहिता में भगवान राम की वंदना करते हुए, उनकी महिमा का गायन करते हुए कहा गया है कि रामजी योगशास्त्रों में अभिरत हैं । योगेश्वर तथा योग को देने वाले हैं-‘योगशास्त्रेष्वभिरतं योगेषं योगदायकम्’


पद्म पुराण में भगवान श्रीराम को महायोगी कहकर वंदना की गई है । भगवान राम के एक सौ आठ प्रमुख नामों का वर्णन करते हुए भगवान शंकरजी पार्वती जी से कहते हैं कि राम जी महायोगी हैं । अर्थात पद्म पुराण के अनुसार रामजी का एक नाम महायोगी है 



  कुलमिलाकर यही कहना है कि जानकारी के अभाव में लोग कुछ भी कह देते हैं । वास्तव में रामजी में और कृष्णजी में भेद नहीं है । और शास्त्रों के अनुसार राम जी योगेश्वर हैं । तथा योग को देने वाले हैं ।



।। जय श्रीराम ।।


शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

हनुमानजी की भक्ती और रामजी से द्रोह: एक असम्भव


हनुमानजी महाराज भगवान राम के श्रेष्ठ सेवक और  उपासक हैं । हनुमानजी राम दूत हैं । राम भक्त हैं । हनुमानजी की बड़ी महिमा है । हर युग में हनुमानजी की महिमा रहती है । हनुमानजी साधु-संत-भक्त के रक्षक हैं । और दुष्टों को दंड देने वाले हैं ।

आजकल कई लोग हनुमानजी की उपासना करते हैं । पूजा करते हैं । और कई लोग मंगलवार का व्रत भी रहते हैं । यह बहुत अच्छी बात है । लेकिन कई लोग अज्ञानता अथवा मूर्खता वश यह नहीं समझते कि हनुमान जी का अस्तित्व राम जी से है । हनुमानजी की महिमा राम सेवक होने से है । राम दूत होने से है । राम प्रिय होने से है । हनुमानजी राम जी के हैं ।


 और इसलिए कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भगवान राम को नहीं मानते अथवा भगवान राम की बुराई करते हैं । और ऐसा करके भी अपने को हनुमानजी का भक्त कहते अथवा समझते हैं । भला राम द्रोही हनुमान भक्त हो सकता है क्या ? यह असम्भव है । यह असम्भव है । यह असम्भव है ।


 ऐसा करने वालों को हनुमानजी की प्रसन्नता कैसे मिलेगी ? उनकी पूजा और व्रत आदि हनुमानजी को कैसे स्वीकार्य हो सकता है ?


  वहीं दूसरी ओर यदि कोई हनुमानजी की पूजा नहीं करता लेकिन रामजी को मानता है । रामजी की पूजा करता है तो उसे हनुमानजी की प्रसन्नता मिल जाती है ।


  जो राम जी को अपना स्वामी मानता है । रामजी से प्रेम करता है । हनुमानजी उससे प्रेम करते हैं । लेकिन राम द्रोही से हनुमानजी कभी प्रेम नहीं करते ।


    अतः किसी भी हनुमान भक्त को राम द्रोही नहीं होना चाहिए । राम जी की बुराई नहीं करना चाहिए । यह हमेशा याद रखना चाहिए कि जो राम जी का है वह हनुमान जी का भी है । लेकिन जो रामजी का नहीं है वह हनुमानजी का कभी नहीं हो सकता ।


।। जय श्रीहनुमानजी ।।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

वास्तविक मूर्खों का प्रश्न: क्या तुलसीदास जी ने रामजी को भगवान बनाया है ?


इस कलिकाल में वास्तविक मूर्खों की बहुलता है । इसमें से कई अपने को विद्वान, पढ़ा-लिखा आदि भी समझते हैं । लेकिन वास्तव में ये वास्तविक मूर्ख होते हैं जिन्हें विमूढ़ भी कहा जाता है । ये कहीं भी और कुछ भी बकने लगते हैं । बिना तथ्य के, बिना किसी आधार के ।


ऐसे लोग कहते अथवा समझते हैं कि रामजी भगवान नहीं थे । कोई कहता है कि तुलसीदासजी ने रामजी को भगवान बना दिया । वे तो राजकुमार थे । मुगलकाल में हिंदुओं के लिए कोई आदर्श नहीं था और इसलिए तुलसीदासजी ने राम को भगवान बना दिया । और जनता के सामने एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया ।


लेकिन ऐसे महामूर्खों को कौन समझाए कि तुलसीदास जी तो पाँच सौ से छ सौ वर्ष पहले ही हुए थे । और इनके पहले भी राम जी की भगवान के रूप में पूजा होती थी । संत-मुनि और सदग्रंथ युगों-युगों से रामजी की यश-गाथा को गाते आ रहे हैं ।


 पुराणों और उपनिषदों की पुस्तक रूप में रचना तो तब हुई है जब तुलसीदास जी नहीं थे । एक दो नहीं कई हजार वर्ष पहले हुई है । तब न आज के महामूर्ख ही थे और न तुलसीदास जी ही । लेकिन वास्तविक मूर्ख को तो व्रह्माजी भी नहीं सिखा सकते, समझा सकते तो सामान्य व्यक्ति क्या कर सकता है ?


  पद्मपुराण, स्कंदपुराण आदि में राम जी का संपूर्ण चरित्र वर्णित है । पुराणों, उपनिषदों, संहिताओं आदि में राम नाम और राम जी की महिमा मुक्त कंठ से गाई गई है । व्यास, वाल्मीक, विश्वामित्र, वशिष्ठ, गर्ग इत्यादि ऋषियों ने राम जी के चरित्र और महिमा का अपने-अपने ग्रंथों में गायन किया है । फिर भी अज्ञानी वास्तविक मूर्ख कुछ भी बकते रहते हैं ।


  रामजी और रामजी के चरित्र सनातन धर्म के आधार स्तंभ हैं । इनके बिना सनातन धर्म अपूर्ण हो जायेगा । और इतना ही नहीं श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत आदि जैसे ग्रंथ और श्रीकृष्णावतार भी अपूर्ण हो जाएगा । क्योंकि एक ग्रंथ दूसरे से और एक अवतार दूसरे से जुड़कर ही पूर्ण होता है । चूँकि रामजी कृष्णजी के पूर्वज (पूर्व के ) हैं इसलिए कृष्ण चरित्र रामजी के बिना अपूर्ण है । कृष्ण जी से जुड़े हुए ग्रंथ राम चरित्र के बिना अपूर्ण हैं । इस बात की गंभीरता को संत और भक्त समझते हैं ।


इसलिए मूर्खता की सीमा को पार नहीं करना चाहिए और अनर्गल प्रलाप नहीं करना चाहिए । रामजी धर्म स्वरूप, नित्य पूर्ण परमात्मा और सनातन व्रह्म हैं । संत, भक्त और ग्रंथ इस बात को जानते, मानते, समझते और समझाते हैं ।



।। जय श्रीराम ।।

 



चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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