सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 22 मार्च 2020

जिमि जिमि राम जनम नियराए ...


देवता और संत आदि सभी राम जन्म महोत्सव गाते और मनाते हैं । सदग्रंथ-वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, श्रीरामचरितमानस आदि सब राम जन्मोत्सव मुक्त कंठ से गाते हैं । 

 रावण के आंतक से उस समय चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी । बहुत बड़ी समस्या थी । लेकिन समस्या से निजात दिलाने वाले कोई नहीं था । रावण का सामना करने में देवता भी असमर्थ थे । भगवान विष्णु, व्रह्माजी और शंकरजी के पास भी कोई समाधान नहीं था 

  ऐसे में दीन-हीन के भगवान दीनबंधु भगवान श्रीराम प्रगट हुए । भगवान के प्रगट होने के पहले ही संसार में और अन्यान्य लोकों में सुख की लहर दौड़ गई । दुःख की बदली छटने लगी । और सुख के बादल छा गए और आनंद की वर्षा होने लगी । सबके दुःख जाते रहे 


जैसे-जैसे भगवान राम के जनम का समय नजदीक आने लगा । वैसे-वैसे दुःख के वादल छटने लगे । सुंदर हवा चलने लगी । पेड़ पौधों में पुष्प और फल आ गए ।


  न ज्यादा जाड़ा, न ज्यादा गर्मी थी । अति उत्तम और सुहावना मौसम हो गया । भक्तों और संतों के मन से चिंताएं दूर होने लगीं । सबका मन हर्षित हो गया । मंगलवार दिन को, दोपहर में, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के नौमी तिथि को दीन-दुखियों के तारनहार, अग-जग के पालनहार, भक्तन के रूचि  के राखनहार मेरे भगवान श्रीराम प्रगट हो गए 

  इस बार दो अप्रैल को श्रीराम नवमी है । जो धीरे-धीरे नजदीक आ रही है । श्रीराम नवमी आते-आते सर्वत्र मंगल हो यही कामना है-


जिमि जिमि राम जनम नियराए । तिमि तिमि दुःख घन ब्योम बिलाए ।। 

हरष आनंद मेघ  नभ छाए ।। बरशि सुवारि सकल अन्हवाए ।।

मंगल मूल भगत सुखदाई । प्रगटे अवध श्री रघुराई ।।

चौदह भुवन लोक तिहुँ साजे । मंगल गान बाजने बाजे ।।

रामचंद्र शिशु रूप बिराजे । मंगल राज अमंगल भाजे ।।

दीन-हीन विशेष सुखदाई । संतोष के नाथ राम रघुराई 



। जय श्रीराम 

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

सेवक-दास हित के लिए सदैव तत्पर रहने वाले दीनबंधु भगवान श्रीराम

भगवान राम कहते हैं कि जबकि सारा संसार मेरा है । मेरा ही उपजाया हुआ है । फिर भी निष्कपट प्रीति करने वाले दास के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है । ऐसा मेरा सहज स्वभाव है । मेरा वाना है ।


जो सब बिधि हीन है, दीन है, बहुत ही जड़मति है और जिसे कहीं कोई दूसरा ठिकाना नहीं है । ऐसा व्यक्ति चाहे कोई भी हो जब मेरी शरन में आ जाता है तो उसे मैं त्यागता नहीं हूँ । उसकी हर प्रकार से सार-संभार करता हूँ ।


 जिनके चित में एक मात्र मैं ही सब प्रकार से हित करने वाला हूँ । और जिसे कोई उपाय नहीं सूझता, जिसे कोई दूसरा समाधान नहीं है । उनके लिए शरीर धारण करके वो सब कुछ करता हूँ जो आवश्यक होता है और अपने सुयश के नष्ट होने से भी नहीं डरता हूँ ।


  अर्थात जिसके लिए एक गति मैं ही हूँ उसके हित के लिए जो करना पड़ता है वो मैं सब करता हूँ । चाहे ऐसा करने से मेरा सुयश ही नष्ट क्यों न हो जाय ।


  इस प्रकार भक्त-हित, दास-हित भगवान राम के लिए सर्वोपरि है । भक्त-हित, दास-हित के लिए दीनबंधु भगवान श्रीराम कुछ भी करने में संकोच नहीं करते । लेकिन भक्त भी निष्कपट होना चाहिए-


सत्य कहौं मेरो सहज सुभाउ ।

सुनहु सखा कपिपति, लंकापति, तुम्ह सन कौन दुराउ ।।

सब बिधि हीन-दीन, अति जड़मति, जाको कतहुँ न ठाउँ ।

आयो सरन भजौं, न तजौं तेहि, यह जानत रिषिराउ ।।

जिन के हौं हित सब प्रकार चित, नाहिन और उपाउ ।

तिन्हहिं लागि धरि देंह करौं सब, डरौं न सुजस नसाउ ।।

पुनि-पुनि भुजा उठाइ कहत हौं, सकल सभा पतिआउ ।

नहि कोऊ प्रिय मोहि दास सम, कपट-प्रीति बहि जाउ ।।

सुनि रघुपति के बचन बिभीषन प्रेम-मगन, मन चाउ ।

तुलसिदास तजि आस-त्रास सब, ऐसे प्रभु कहँ गाउ ।।

                                -गीतावली ।



।। दीनबंधु भगवान श्रीराम की जय ।।

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

हनुमान से सेवक हैं केहि केरे


संसार में कोई भी कार्य ऐसा नहीं है जिसे हनुमान जी न कर सकें । हनुमान जी अगम को भी सुगम और असंभव को भी संभव बना देने की सामर्थ्य रखते हैं ।


  गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीहनुमानजी की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिसे हनुमानजी बसा दें उसे फिर कौन उजाड़ सकता है ? और जिसे हनुमानजी उजाड़ दें उसे फिर बसा ही कौन सकता है ?


  लंका वासियों ने जब हनुमानजी महाराज के महान पराक्रम को देखा तो जहाँ-तहाँ पूरे लंका में एक ही चर्चा थी-‘जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आए पुर कौन भलाई’ ।।


 सही बात है । जिसके सेवक में ऐसा बल, पराक्रम और सामर्थ्य हो तो उस स्वामी की सामर्थ्य की कल्पना कौन कर सकता है ? उसके समान दूसरा कौन हो सकता है ?


  गोस्वामी जी कहते हैं कि कोई भी संकट और कहीं भी आ जाय तो परम कृपालु राम जी अपने सेवकों को उबार लेंगे । राम जी परम समर्थ और परम कृपालु हैं । जिनके हनुमान जी जैसे सेवक हैं । जो सदा राम जी के इशारे की प्रतीक्षा में रहते हैं । और रामजी का इशारा मिलते ही जन की सारी बिगड़ी बना देते हैं ।


  हनुमानजी महाराज रामजी के सेवकों के लिए कल्पवृक्ष के समान हैं । अर्थात रामजी के सेवकों की मनोकामनाओं की पूर्ति हनुमानजी कर देते हैं । इतना ही नहीं हनुमानजी श्रीराम भक्तों  को रामजी से जोड़ने में भी सहायता करते हैं । रामजी तक पहुँचने में सहायता करते हैं । श्रीराम धाम में वास देने में सहायता करते हैं ।


कोई समस्या जो सेवक ही निपटा सकते हों तो उसके लिए स्वामी को कष्ट उठाने की क्या जरूरत है । और रामजी के पास एक से बढ़कर एक सेवक हैं । अतः रामजी के भक्तों की रक्षा और सहायता में राम जी के सेवक ही पर्याप्त हैं- ‘राखिहैं राम कृपालु तहाँ हनुमान से सेवक हैं जेहिं केरे’


इस प्रकार किसी भी देवी-देवता के पास हनुमान जी के समान वीर, बलवान, समर्थ, ज्ञान और गुणवान सेवक नहीं है । एक मात्र रघुनाथ जी ही ऐसे हैं जिनके सेवक हनुमान जी हैं । और अन्य के पास ऐसा कोई सेवक नहीं है । क्योंकि हनुमानजी के समान केवल हनुमानजी ही हैं । अतः सच ही कहा गया है कि- ‘हनुमान से सेवक हैं केहि केरे’



।। श्रीराम सेवक हनुमानजी की जय ।।



गुरुवार, 5 मार्च 2020

जिसके स्वामी-सुसाहिब रामजी हों उसे किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए


   गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जिन्होंने पांच जड़ पदार्थों- पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु से इस शरीर को निर्मित किया है और जो इस पृथ्वी को भी धारण करते हैं उन भगवान राम की करनी-लीला को देखिए । विचार कीजिए  

  वे भगवान जो सारे संसार-समस्त व्रह्मांड का पालन-पोषण, सार-संभार करते हैं वे अपने जन-भक्त, दास का संभार क्यों नहीं करेंगे । तुलसीदास जी कहते हैं कि राम जी के समान दूसरा कौन है जिसके घर की लक्ष्मीजी सेविका हों ।


  इस संसार में जिसके एक मात्र गति भगवान श्रीराम हैं अर्थात जो ‘एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास’ के सिद्धांत को जीवन में उतार चुका है उसका कोई क्या विगाड़ सकता है ? इसलिए वह न तो किसी के कुछ कहने की परवाह करता है और न ही किसी का परवाह करता है ।


   तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसके साहिब रामजी हों उसे किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए । क्योंकि रामजी परम सरल और सबल सुस्वामी हैं । राम जी उचित समय पर अपने दास की सारी बिगड़ी बना देते हैं । और इसलिए तुलसीदास राम जी के भरोसे सुख से सोता है- ‘तुलसी सुख सोवै एक राम भरोसे’ ।


   रामजी सुसाहिब हैं वे अपने भक्त की बिगड़ी स्वयं बनाते हैं । इसलिए रामजी पर सदैव विश्वास करना चाहिए और किसी बात की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए-


 जड़ पंच मिलै जेहि देह करी, करनी लखु धौ धरनीधर की ।

जन की कहु, क्यों करिहैं न संभार, जो सार करै सचराचर की ।।

तुलसी कहु राम समान को आन है, सेवकि जासु रमा घर की ।

जग में गति जाहि जगतपति की परवाह है ताहि कहा नर की ।



।। जय श्रीसीताराम ।।


रविवार, 1 मार्च 2020

रामजी की सही पहिचान उनका स्वभाव है : अस सुभाउ कहुँँ सुनउँ न देखउँ


संत और सदग्रंथ कहते हैं कि भगवान राम जैसा स्वभाव किसी का भी नहीं है । तथा ऐसा स्वभाव न कहीं देखने में आता है और न ही कहीं सुनने में आता है । यहाँ कहीं का मतलब तीनों लोकों, चौदहों भुवनों तथा तीनों कालों से है ।

                 
  जिसके चरणों की पूजा शंकर जी और व्रह्मा जी भी करते हों-‘शिव अज पूज्य चरण रघुराई’, जिसने शंकरजी, व्रह्माजी, और विष्णुजी को भी महिमावान बनाया हो- ‘शिवहिं शिवता विधिहिं विधिता हरिहिं हरिता जो दई’ । जिसकी इतनी महिमा हो, वह परम सरल हो, अपनी महिमा को प्रगट करके न दिखाए, नियम-नीति का सदा पालन करे, दीन-हीन पर विशेष कृपा करे, परम दयालु हो, परम उदार हो, कोल-किरात, भील, केवट वानर और भालू आदि को भी अपनाकर मित्र बनाकर सम्मान करे, गीध का भी आदर-सत्कार करे, पिता के समान माने तो उसकी समता दूसरा कौन कर सकता है ? ऐसा करने वाला राम जी के सिवा दूसरा कौन है ? ऐसा स्वभाव और किसका है ? 


  गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस संपदा को शंकरजी ने दश सिर अर्पित करने पर रावण को दिया था । उसी संपदा को राम जी ने विभीषण जी को सकुचाते हुए दिया । कहा कि हे विभीषण मेरे दर्शन का फल अमोघ होता है इसलिए जद्यपि आपकी इच्छा नहीं है फिर भी लंका के राज्य को मेरे देने से स्वीकार करो ।


कागभुसुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी रामजी के समान उदार और सहज कृपालु स्वभाव वाला कौन है ? उनकी बराबरी का भला दूसरा कौन है ? उनसे समता करने वाला दूसरा कौन है ? किसे राम जी के समान कहा जाय ? क्योंकि ऐसा स्वभाव किसी का भी नहीं है । ऐसा स्वभाव न कहीं दिखने में आता है और न ही सुनने में आता है-


अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ । केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ।


 जनकपुर के दूतों से राजा दशरथ ने पूछा कि क्या आप लोगों ने राम लक्ष्मण को ठीक से देखा है ? क्या आप राम जी को पहचानते हैं ? क्योंकि राम जी की सही पहिचान उनका स्वभाव ही है । यहीं उन्हें सबसे अलग करता है । सभी देवी-देवता आदि से रामजी को अलग करने वाला राम जी का स्वभाव ही है ।


  कैसा स्वभाव है मेरे राम जी का ? परम सरल स्वभाव है दीन-हीन और मलीन पर विशेष कृपा करने का स्वभाव है  अपने प्रभाव को प्रगट न करने का स्वभाव है । अपनी महिमा को प्रगट न करने का स्वभाव है । सबका यथा योग्य आदर सत्कार और मान-बड़ाई देने का स्वभाव है । आदि । इसलिए दशरथ जी दूतों से कहते हैं कि यदि आप रामजी को पहचानते हैं तो उनका स्वभाव बताइए- पहिचानहुँ तुम कहउ सुभाऊ ।


शंकरजी ने पार्वती जी से यहाँ तक कह दिया कि हे उमा जो मेरे रामजी का स्वभाव जान जाता है उसे राम जी के सिवा त्रिलोकी में और कोई तथा कुछ और भाता ही नहीं है । भाता है तो राम जी का भजन, चरित्र और राम जी स्वयं-


उमा राम सुभाउ जेहि जाना । ताहि भजन तजि भाव न आना ।



।। जय श्रीराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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