सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

बच्चों को क्या सिखाएँ जिससे बुढ़ापे में वृद्धाश्रम न जाना पड़े


एक बार एक शहर में लोग मदर्स-फादर्स डे मना रहे थे ।  लोगों ने कई कार्यक्रम  रखा हुआ था ।  इसमें भाग लेने वाले एक से एक लोग थे ।  धन और पद में बड़े लोग थे ।  बाद में पता चला कि कार्यक्रम में ऐसे लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे जिनके खुद के माता-पिता वृद्धाश्रम में रह रहे हैं ।


 कुलमिलाकर बहुत ही खराब समय चल रहा है । और दिनों-दिन स्थिति और बिगड़ती जा रही है । इसलिए जहाँ तक हो सके बच्चों को उचित संस्कार देने का प्रयास करना चाहिए ।


 छ साल से चौदह साल तक में बच्चे जो सीखते हैं उसका प्रभाव जीवन भर रहता है । इस उम्र के बच्चों को नैतिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा के माध्यम से देनी चाहिए । यदि बच्चे में छ से चौदह साल तक की आयु में धार्मिक रुझान-लगाव पैदा हो जायेगा तो इसकी छाप आजीवन रहेगी ।


  इससे बच्चा आस्तिक बनेगा । और धर्म-कर्म का मतलब समझेगा । और किसी भी स्थिति में अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में नहीं डालेगा ।


  इसके लिए बच्चों को श्रीरामचरितमानस पढ़ाना चाहिए । भक्तों की और प्राचीन महापुरुषों की कहानियाँ पढ़ानी व सुनानी चाहिए । इससे जीवन में बहुत बदलाव आता है ।


  आज के समय में स्कूली शिक्षा में नैतिक शिक्षा का स्थान नहीं रह गया है । आजकल का वातावरण ही ऐसा बन गया है कि बच्चे और बड़े मौज-मस्ती, रुपया-पैसा और ऐशोआराम को ही जीवन समझने लगे हैं । इसलिए घर पर ही सही धार्मिक-नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए । इससे बच्चे का चरित्र निर्माण होगा और माता-पिता को वृद्धाश्रम में नहीं जाना पड़ेगा ।


एक कहावत है कि ‘बूढ़ा तोता पढ़ाए नहीं पढ़ता’ अर्थात बड़ी उम्र हो जाने पर धार्मिक-नैतिक शिक्षा का ज्यादा असर नहीं पड़ता । इसलिए छ साल से चौदह साल में जो सीख गए वह ही हृदय पटल पर अंकित हो पाता है और आगे प्रभाव दिखा पाता है ।


कुछ समय पूर्व एक कविता में मैंने लिखा था-


देश समाज की स्थिति दिन-दिन और बिगड़ती जाती है ।

हिंसा, शीलहरण लूट डकैती रोज सुनने में आती है ।।

शुरू से अपने बच्चों को जो मानस पाठ पढ़ाए हम ।

अपने-आप बहुत सीमा तक समस्याएं हो जाएँ कम ।।

स्कूलों और कॉलेजों में जो मानस भी पढ़ी जायेगी ।

जन-जन से प्रेम, बड़ों को मान, सत्य अहिंसा की शिक्षा से क्या
                            निरपेक्ष छवी मिट जायेगी ।।


जन-जन से प्रेम करने, बड़ों को मान देने, सत्य का आचरण करने और अहिंसा का पालन करने वाली शिक्षा से निरपेक्ष छवी पर कोई आँच थोड़े आएगी । इसलिए स्कूलों में भी मानस जी की शिक्षा दी जानी चाहिए । क्योंकि मानस जी की यह शिक्षा हर व्यक्ति के लिए, देश के लिए, समाज के लिए जरूरी और महत्वपूर्ण है ।


 स्कूल करें या न करें लेकिन हम-सब तो अपने घर पर अपने बच्चों के लिए इसकी व्यवस्था तो कर ही सकते हैं । और अपने तथा उनके जीवन में परिवर्तन लाने का प्रयास कर सकते हैं ।


।। जय श्रीसीताराम ।।

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

जन्मदिन दो ही मनाना चाहिए


लोग आज किसी का तो कल किसी और का जन्म दिन मनाते रहते हैं । और जो नहीं करना चाहिए करते हैं । जैसे केक काटते हैं । मोमबत्ती जलाकर बुझाते हैं । आदि ।


कुछ भी हो दो जन्मदिन ही ऐसे हैं जिन्हें मनाने से और जन्मदिन मनाने की जरूरत नहीं रहती । 


इसलिए मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाता हूँ । न ही मुझे इसकी जरूरत ही समझ में आती है । क्योंकि जन्मदिन दो ही मनाना चाहिए ।


  मेरी समझ से केवल दो ही जन्म दिन मनाने योग्य हैं । बाकी सब तो मन बहलाने की बात है । आयोजन मात्र हैं । कोई मतलब समझ में नहीं आता है ।


  मनाने योग्य जन्मदिन दो ही हैं-एक भगवान श्रीराम का जन्मदिन और एक भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन । बाकी क्या मनाना और क्या न मनाना । लेकिन यह बात समझ में आ जाय तब तो 


   यदि यह दो जन्म दिन मना लिया जाय तो फिर और जन्मदिन मनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है ।



।। जय श्रीराम ।।


बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

वह दिन जब लोग विवाह नहीं करेंगे- जब विवाह होना बंद हो जाएगा


सनातन धर्म में विवाह एक संस्कार है । सोलह संस्कारों में से एक है । लेकिन धर्म हानि से जैसे धीरे-धीरे एक-एक संस्कार, मान्यताएं अपना दम तोड़ रहीं हैं एक दिन विवाह जैसी पवित्र परंपरा भी अपना दम तोड़ देगी । पुराणों का ऐसा ही मत है ।


धर्म की हानि से धार्मिक मान्यताएं धीरे-धीरे क्षीण होने लगती हैं । संस्कार और परम्पराएँ अनावश्यक समझी जाने लगती हैं । लोग हँसी उड़ाने लगते हैं ।


  सनातन धर्म के अनुसार विवाह एक पवित्र बंधन है । इस बंधन से बंधकर फिर अलग नहीं हुआ जा सकता है । सनातन धर्म में विवाह के बाद स्त्री-पुरुष सदा के लिए पति-पत्नी बन जाते हैं । किसी भी कारण से अलग रहें तो भी पति-पत्नी बने रहते हैं क्योंकि यह सम्बंध अटूट माना गया है । सनातन धर्म में तलाक की कोई व्यस्वथा नहीं है ।


  लेकिन धीरे-धीरे लोग भगवान में अविश्वास करने लगे । संतों और ग्रंथों की बातों की उपेक्षा करने लगे । इससे मनमाना होने लगा । लोग विवाह करके अलग भी रहने लगे । जिसे तलाक कहा जाने लगा । इतना ही नहीं लिव इन रिलेशन का कांसेप्ट आया जिसमें बिना विवाह किए भी लोग पति-पत्नी की तरह रहने लगे । अभी यह सब आगे आने वाली बड़ी घटना की बानगी मात्र हैं ।


  धीरे-धीरे एक दिन ऐसा आ जाएगा कि लोग इतने आधुनिक हो जाएँगे कि विवाह को बिना मतलब और फालतू समझने लगेंगे । जो लोग विवाह नहीं करेंगे वे ज्यादा श्रेष्ठ समझे जाएँगे । विवाह स्वतंत्रता में- स्वतंत्र जीवन में बाधक समझा जाने लगेगा ।


  मनुष्य की स्थिति भी कुछ भेंड़ जैसी ही है । एक को पुरानी परंपरा-रीति-रिवाज को तोड़ते, धर्म विरुद्ध आचरण करते देख और लोग भी कूद पड़ते हैं । कौन अपने को पिछड़ा कहलवाये ? इसलिए आधुनिक और समझदार कहे जाने के लिए लोग आगे आते हैं और भेंड़ बन जाते हैं ।


  ऐसा ही एक दिन आगे आएगा जब विवाह करने वाले लोग पिछड़े और पुरानी मान्यताओं को मानने वाले माने जायेंगे । बस देखते ही देखते इस पुरातन परंपरा का अंत हो जाएगा । और विवाह नहीं होंगे । ऐसी स्थिति में सब पशुवत रहने लगेंगे । 


  पुराणों में ऐसा संकेत मिलता है । अभी से कई लोग विवाह को स्वतंत्रता में बाधक मानने लगे हैं । और इसे अनावश्यक कहने लगे हैं । धीरे-धीरे और लोग इस मुहिम से जुड़ते जाएँगे । और परम आधुनिक बन जाएँगे । यदि यही आधुनिकता है तो लोग पीछे क्यों रहेंगे । कलियुग जो न करा ले वही कम है-

रामदास कलिकाल में, मति सबकी गय रूठ  । 
ठूठे को समुझत हरा, हरे पेड़ को ठूठ  । 

पहले का कहते गलत, अब आया नवचार 
दिशा बिना है दुर्दशा, खोजि रहे उपचार 

अंकुश नहि जब धर्म का, नहीं नीति का मान  । 
रामदास वन पशु सरिस, कहैं कहाँ भगवान । 



।। जय श्रीसीताराम ।।

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

एक नारि (पत्नी ) व्रत की महिमा


सनातन धर्म में स्त्रियों के लिए पति व्रत धर्म तो पुरूषों के लिए भी एक नारि व्रत धर्म होता है । पति व्रत धर्म के बारे में लोग जानते हैं और अधिकांश लोग इसकी महिमा की बड़ाई करते रहते हैं । जबकि एक नारि व्रत धर्म के बारे में लोग कम जानते हैं । कई लोग जानते हैं लेकिन शायद इसे जरूरी नहीं मानते ।

                
 पति व्रत धर्म के बारे में लोग ज्यादा बात करते हुए पाए जाते हैं । लेकिन एक नारि व्रत की चर्चा या तो होती नहीं है अथवा बहुत कम होती है । कई लोग समझते हैं कि यह स्त्रियों के लिए ही जरूरी होता है । जबकि सनातन धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए मर्यादाएं स्थापित की गई हैं । फिर भी किसी कारण बस लोग एक नारि व्रत की चर्चा कम और पति व्रत की चर्चा ही ज्यादा करते हैं ।


भगवान श्रीराम ने एक नारि व्रत की नीव रखकर सभी को इसका संदेश दिया है । और जब राम राज्य की स्थापना हुई तो सभी पुरुष एक नारि व्रत का पालन करते थे । और सभी स्त्रियाँ पति व्रत धर्म का पालन करती थीं-'एक नारि व्रत रत सब झारी । ते मन बच कर्म पति हितकारी' 


  एक नारि व्रत का पालन करने की भी बहुत महिमा है । एक बार युद्ध में अर्जुन जी ने एक राजा को मारने के लिए प्रण किया । उन्होंने कहा कि यदि तीन वाण के प्रहार से इनको नहीं मार पाऊंगा तो चिता में प्रवेश कर जाऊँगा ।


  युद्ध आरंभ हो गया । राजा ने अर्जुन का पहला वाण काट दिया । तब भगवान श्रीकृष्ण ने कृष्णावतार में किए गए अपने सभी पुण्यों को अर्जुन के वाण पर रख दिया । लेकिन राजा जो भगवद भक्त था दूसरा वाण भी काट दिया ।


  अब अर्जुन के पास तीसरा ही वाण शेष था । और इसके भी असफल हो जाने में संदेह कम ही रह गया था । तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं त्रेता युग के अपने रामावतार के एक नारि व्रत का पुण्य इस वाण पर रखता हूँ । तब राजा ने कहा कि यदि मैं सच्चा भगवद भक्त हूँगा तो तीसरा वाण भी कट जाएगा ।


  अब दो बाते थीं । एक तो राजा सच्चा भक्त था । दूसरे भगवान राम की एक नारि व्रत का पुण्य था । बड़ी महिमा थी । अर्जुन यदि तीसरे वाण से राजा को नहीं मार पाते तो चिता में जल जाते ।  राजा ने तीसरा वाण काट तो दिया क्योंकि वह सच्चा भक्त था लेकिन कटे हुए वाण का फलक तेजी से बढ़ा और राजा का शिर काट दिया  । यह थी रामजी के एक नारि व्रत के पुण्य की महिमा  

  कृष्णावतार के सभी पुण्यों से रामावतार के एक नारि व्रत का पुण्य बहुत बड़ा था । इससे अर्जुन के प्राण की रक्षा हो गई 


  इस प्रकार पति व्रत धर्म की तरह एक नारि व्रत धर्म की भी बड़ी महिमा है  इसका पालन करना बड़ा पुण्य होता है । इसलिए पुरुषों को एक नारि व्रत धर्म का पालन करना चाहिए 


।। जय श्रीसीताराम ।।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

गोस्वामी तुलसीदासजी का अंतिम (श्रीरामधाम पयान करते समय का) उपदेश


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज भारतीय सनातन धर्मी संत परंपरा रुपी आकाश में उदित ऐसे सूर्य हैं जिनके ज्ञान और विचार रुपी प्रकाश से सनातन धर्म और धर्मी अनंत काल तक प्रकाशित होते रहेंगे


  गोस्वामीजी बिना किसी लाग-लपेट के सीधी बात बोलते और बताते थे । यह उनकी सरलता थी । ज्ञान था । अनुभव था । सनातन धर्म के मरम को उन्होंने भली भाँति समझ लिया था । इसलिए उनके उपदेश गुमराह करने वाले नहीं बल्कि राह दिखाने वाले हैं । भटकाने वाले नहीं हैं बल्कि भटके हुए जीवों को राम जी से जोड़ने और मिलाने वाले हैं ।


  गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज जैसे संत और उनके द्वादश ग्रंथों जैसे ग्रंथ पाकर यदि सनातन धर्मी भटकें, गुमराह हों और यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ तरने का उपाय खोजें तो यह दुर्भाग्य ही है । इससे ज्यादा और क्या कहा जा सकता है ?


  गोस्वामीजी का जब श्रीरामधाम जाने का समय आ गया तो गोस्वामी जी, जो कुछेक प्रेमी-भक्त वहाँ थे, उनसे कहा कि भगवान श्रीरामचंद्रजी की यश-गाथा का वर्णन करके यह तुलसीदास अब मौन होना चाहता है । अब मेरे मुँख में जल्दी से तुलसीदल दे दीजिए । गोस्वामीजी तो मौन हो रहे थे और संसारिक दृष्टि से मौन भी हो गए । लेकिन उनके ग्रंथ मौन नहीं हुए हैं । उनके ग्रंथ संतों और प्रेमी भक्तों को सदराह दिखा रहे हैं और आगे भी दिखाते रहेंगे । श्रीरामधाम में आज भी तुलसीदासजी विराजते हैं ।


  प्रेमी-भक्त जन थोड़ा अधीर हुए और गोस्वामीजी से कहा कि आप तो जा रहे हैं हम लोगों के लिए सार रूप में क्या उपदेश है । जिससे सहज ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो ।


तब गोस्वामीजी ने कहा कि जीव के लिए संसार में थोड़ा समय होता है । जिसमें ऊपर से अनके निकृष्ट सोच-चिंताएं घेरे रहती हैं । करने के लिए भी बहुत कुछ होता है । क्या-क्या करें ? ग्रंथों का अंत नहीं है । कविता की अनेकों कलाएं हैं जिनके रसीले राग हैं लेकिन कितना पढ़ा जाय और कितने का रसास्वादन किया जाय ? वेदों का कोई पार नहीं है और पुराणों के भी कई भेद हैं । इसके अलावा संतों के नाना उपदेश-वाणियाँ हैं । किसी ने कुछ कहा है तो किसी ने कुछ और कहा है । ऐसे में किस-किस को चित में धारण किया जाय । अर्थात नाना ग्रंथ, नाना मत हैं और नाना रास्ते हैं ? ऐसे में क्या-क्या किया जाय ? इसलिए यह तुलसीदास लाखन में एक बात बताकर जा रहा है कि यदि जीवन सुधारना चाहते हो तो राम नाम लीजिए-


अलप तो अवधि तामें जीव बहु सोच पोच


            करिबे को बहुत है कहा-कहा कीजिए ।


ग्रंथन को अंत नाहिं काब्य की कला अनंत


             राग है रसीलो रस कहाँ-कहाँ पीजिए ।।


वेदन को पार न पुरानन को भेद बहु


             वाणी है अनेक चित कहाँ-कहाँ दीजिए ।


लाखन में एक बात तुलसी बताए जात


             जन्म जो सुधारा चाहो रामनाम लीजिए ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।



मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

किसी भी देश-समाज को कमजोर करना हो तो उसे धर्म से दूर कर देना ही पर्याप्त होता है


धर्म मनुष्य जीवन का अभिन्न अंग है । धर्म जीवन है । सनातन धर्म जीवन जीने की कला है । धर्म मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए जरूरी है । मनुष्य को धर्म बंधन में बँधे रहने की जरूरत है । धर्म बंधन में बँधे मनुष्य के जीवन में सत्य और सदाचार की प्रधानता होती है ।


सत्य, सदाचार और नैतिकता का मूल धर्म है । धर्म रहित जीवन सत्य, सदाचार और नैतिकता से रहित हो जाता है । धर्म से बंधन जितना दृढ होता है सत्य, सदाचार उतनी ही अधिक दृढ़ता से मनुष्य के साथ होते हैं ।


  जिसके जीवन में सत्य और सदाचार है वह कभी दूसरे का हक नहीं मारता । कभी किसी के साथ छल नहीं करता । अपने लाभ के लिए दूसरे को हानि नहीं पहुंचाता । आजकल हर जगह अधर्म और अनीति का बोलबाला है । क्योंकि  जीवन में धर्म या तो है नहीं अथवा बहुत कमजोर है । धर्म बंधन नहीं है । अथवा इसमें दृढ़ता नहीं है ।


 इससे सत्य और सदाचार का हर जगह अभाव दिखने लगा है । आज लोग अपने लाभ के लिए, स्वार्थ के लिए क्या-क्या नहीं करते ? दूसरे का जीवन तक लेने में संकोच नहीं करते ? क्योंकि जीवन में धर्म नहीं है, सत्य नहीं है, सदाचार नहीं है ।


 अभी कुछ समय पूर्व ही देश समाज में वीर शिवाजी, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक आदि जैसे लोग थे, होते थे । इनके जीवन में धर्म था, सत्य था, सदाचार था । बचपन से ही इन्हें धर्म, सत्य, सदाचार सिखाया गया और इससे इनके जीवन में निखार आया, सत्य आया और देश-समाज के लिए बहुत कुछ करके दिखाया । तिलक जी ने गीता जी पर भाष्य लिखा था । कैसा जुड़ाव था इन लोगों का धर्म से । देश से । समाज से । आज विल्कुल बिपरीत हो रहा है । धर्म से विमुखता देश-समाज की दुर्दशा का कारण है ।


किसी भी देश-समाज को कमजोर करना हो तो उसे धर्म से दूर कर देना ही पर्याप्त होता है । धर्म विमुख मनुष्य सत्य, सदाचार से भी विमुख हो जाता है । और देश-समाज में मनमाने आचरण होने लगते हैं । और उस देश समाज की सभ्यता, संस्कृति भी समाप्त हो जाती है । अनीति, अनाचार बरजोरी और भ्रष्टाचार का साम्राज्य स्थापित हो जाता है ।


 
।। जय श्रीसीताराम ।।


शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

धर्म के अभाव से व्यक्ति, घर, समाज और देश का न रुकने वाला पतन


आजकल हम लोग अपने को पढ़ा-लिखा, आधुनिक और पता नहीं क्या-क्या समझते हैं । लेकिन जो समझना चाहिए वह नहीं समझते हैं ।

      
 इसीतरह आजकल लोग बहुत कुछ मनाते भी रहते हैं । जैसे पिता दिवस, माता दिवस, महिला दिवस और न जाने क्या-क्या ? मैं अक्सर कहता हूँ कि आजकल लोग मनाते तो बहुत कुछ हैं लेकिन मानते नहीं हैं ।


 मानना जरूरी है मनाना नहीं । जो जरूरी है उसे करते नहीं, मानते नहीं  और जो जरूरी नहीं है वही करते हैं, मानते हैं, उसी के पीछे भागते हैं । इससे पतन होता है । विडम्बना यह है कि लोग पतन को उन्नति समझते हैं ।


प्रत्येक व्यक्ति को वह चाहे जिस क्षेत्र से जुड़ा हो धार्मिक होना चाहिए । घर-गाँव, समाज, देश की सबसे बड़ी जरूरत है धर्म-धार्मिक होना । और आजकल लोग धर्म से दूर होते जा रहे हैं । यह सबसे बड़ी अवनति है ।  इसकी भरपाई कोई भी उन्नति नहीं कर सकती है । बिना धार्मिक हुए घर-गाँव, समाज, देश का पतन नहीं रुक सकता ।


धर्म क्यों जरूरी है । धार्मिक होना क्यों जरूरी है ? क्योंकि बिना धर्म बंधन के सत्य से दूरी बढ़ती जाती है-‘धर्म बंधन के बिना सत्य से बढ़ती जाती दूरी है’। और यदि जीवन में सत्य नहीं है, नैतिकता नहीं है तो पतन कोई रोक सकता है क्या ?


   जितनी भी व्यक्ति जनित समस्याएं दिखती हैं वे केवल और केवल सत्य और नैतिकता की कमी से घटित हो रही हैं । और बिना धर्म बंधन में बँधे सत्य और नैतिकता से दृढ जुड़ाव नहीं हो सकता है । और न पतन रुक सकता है । यह चाहे चारित्रिक पतन हो, नैतिक पतन हो, राजनैतिक पतन हो आदि । 

 जितने भ्रष्टाचार हैं सबके मूल में सत्य और नैतिकता से दूरी है । इसलिए धर्म बंधन जरूरी है । 


धार्मिक शिक्षा, धार्मिक रुझान जरूरी है । क्योंकि धर्म रहित घर, गाँव, समाज व देश पतन के रास्ते पर जाते हैं । और भ्रष्टाचार में डूब जाते हैं । चरित्र, संस्कार, सत्य, ईमानदारी आदि का लोप हो जाता है-

न्याय शांति सुख समता हित नैतिकता बहुत जरूरी है 
धर्म बंधन के बिना सत्य से बढ़ती जाती दूरी है 
मानस गीता से जीना सीखो अच्छी न इनसे दूरी है 
धर्म बिना मानव मानव न मानवता सदा अधूरी है 
                  

।। जय श्रीसीताराम ।।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी.......


 पहले के समय में ग्रंथ आज की तरह उपलब्ध नहीं होते थे । क्योंकि ग्रंथ योग्य (विद्वान) लोगों के पास ही होते थे । इसका एक प्रमुख कारण था कि योग्य लोगों के माध्यम से ग्रंथों की समुचित शिक्षा देश-समाज में फैले और लोगों का समुचित कल्याण हो सके ।  अन्यथा उचित समझ के अभाव में लोग गलत अर्थ लगायेगें और दुष्प्रचार करेंगे ।  जो अकल्याणकारी होगा ।


सनातन धर्म के ग्रंथों को समझने के लिए हर कोई योग्य नहीं है । अर्थात उतनी समझ सबके पास नहीं है ।  इसीसे ऐसा कहा जाता है कि ग्रंथों को समझने के लिए योग्य व्यक्ति के पास जाना चाहिए ।

 
  आजकल बाजार से लेकर इंटरनेट तक ग्रंथ मिल जाते हैं और लोग पढ़कर मनगढंत अर्थ लगाते रहते हैं । खुद उल्टा समझकर दूसरों को भी उल्टा समझाते रहते हैं और दुष्प्रचार करते हैं । और अकल्याण के भागी बनते हैं ।


  श्रीरामचरितमानसजी को समझने के लिए भी हर कोई योग्य नहीं है । इनकी व्याख्या का एक दायरा है । बिना समझे-बूझे लोगों ने प्रचारित करना शुरू कर दिया कि श्रीरामचरितमानस जी में लिखा है कि ढ़ोल, गवाँर, शूद्र, पशु और नारी ए सब पीटे जाने के योग्य होते हैं । जबकि ऐसा अर्थ करना श्रीरामचरितमानस जी की मूल भावना के बिपरीति है । ऐसा कहने वाले अकल्याण के भागी बनते हैं ।


  श्रीरामचरितमानस जी की मूल भावना के अनुसार किसी को भी पीड़ा देना अधर्म है, पाप है ।  श्रीरामचरितमानस जी के अनुसार सबसे बड़ा अधर्म क्या है-‘परपीड़ा’ । कहा गया है कि-‘परपीड़ा सम नहि अधमाई’ । ऐसे में किसी को पीटने की बात कैसे कही जा सकती है ?  लेकिन मूर्खों को कौन समझाए ?  


अवध क्षेत्र में मेरे गाँव में जब कोई किसी को विशेष ध्यान देते हुए कहीं देखता है तो कहता है कि-‘काव ताड़त हौ’ ।  अर्थात क्या ताड़ रहे हो ?  कोई विशेष बात है क्या ? श्रीरामचरितमानस जी की भाषा अवधी है । और अवधी में ताड़ने का मतलब विशेष ध्यान देना भी होता है । और यह अर्थ श्रीरामचरितमानस जी की मूल भावना के अनुसार होने से सही है । एक उदाहरण के माध्यम से समझाना चाहेंगे ।


  मान लीजिए कोई गवाँर है । उसे नहीं मालुम कैसे चलना चाहिए । और उसे सड़क पार करनी है ।  तो यहाँ विशेष ध्यान की जरूरत है ।  उसे यदि हम सड़क पार करा दें तो यह हमारे और उसके लिए अच्छा होगा । धर्म होगा ।  यदि यहाँ विशेष ध्यान न दिया जाय तो गवाँर का अहित हो सकता है । उसे चोट लग सकती है ।  इसलिए गवांर विशेष ध्यान दिए जाने का अधिकारी है ।


   इसी तरह ढ़ोल, पशु, शूद्र और नारी भी विशेष ध्यान दिए जाने के अधिकारी हैं । क्योंकि इसके बिना इनका अहित हो सकता है । इस प्रकार ‘ढ़ोल गवाँर शूद्र पशु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी’ ।। का सही अर्थ है कि ढ़ोल, गवाँर, शूद्र, पशु और नारी ए सब विशेष ध्यान दिए जाने के अधिकारी हैं ।


  श्रीरामचरितमानस जी की अतुलित महिमा है और भगवान शंकरजी की इन पर सही और नारद, शारद आदि बड़े-बड़े विशारद की इन पर सम्मति है । और जो लोग ठीक से समझकर पढ़ते-सुनते हैं वे कल्याण के भागी बनते हैं । इसमें दो राय नहीं है ।  इसलिए श्रीरामचरितमानस जी को  समझकर कहना और सुनना चाहिए । मनगढंत उल्टा सीधा अर्थ नहीं लगाना चाहिए ।


हमने कई बार कहा है कि सनातन धर्म के ग्रंथ गणित जैसे हैं । जब गणित में मूल तथ्य के बिपरीत परिणाम आ जाता है तो कहना पड़ता है कि यह परिणाम मान्य नहीं है । और इसका मतलब है कि मेरी परिकल्पना ही गलत है । इसीतरह श्रीरामचरितमानस जी में जब कोई अर्थ  मूल भावना-सिद्धांत के बिपरीत हो तब यह समझना चाहिए कि हम ठीक नहीं समझ पा रहे हैं और यह अर्थ गलत है । मान्य नहीं है । क्योंकि यह मूल सिद्धांत के बिपरीत है ।  





।। जय श्रीराम ।।

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

भगवान और भगवान की कृपा उतनी दुर्लभ नहीं है जितना हम समझते हैं


भगवान उतना दुर्लभ नहीं हैं जितना हम समझते हैं । इसी तरह भगवान की कृपा भी उतनी दुर्लभ नहीं है जितना हम समझते हैं । श्रद्धा और विश्वास से भगवान और उनकी कृपा का अनुभव होता है ।


युग-युग से जिस-जिस ने भगवान को चाहा उन्हें भगवान मिले और जिस-जिस ने भगवान की कृपा चाही उसे भगवान की कृपा मिली है ।


आजकल तो कई लोगों को भगवान पर विश्वास ही नहीं है । ए लोग कहते हैं कि भगवान कहीं नहीं हैं । लगता है हर जगह, हर व्रह्मांड में जाकर देख आए हैं । पहले श्रद्धा और विश्वास तो पैदा करो । कर्तापन का अभिमान तो छोड़ो ।


जब न श्रद्धा है, न विश्वास है और सब कुछ करने वाले बने बैठे हो तो भगवान का और उनकी कृपा का अनुभव कैसे होगा ?


वस्तुतः भगवान और उनकी कृपा दोनों अनुभव की चीज हैं । भगवान की कृपा तो सब पर होती है । अंतर इतना है कि कोई अनुभव करता है और कोई अनुभव नहीं कर पाता । इसी तरह भगवान हर जगह हैं कोई अनुभव करता है कोई नहीं कर पाता है ।


जिन्हें अपने आप का बल और दूसरे का बल है उन्हें भगवान की कृपा का अनुभव सामान्यतः नहीं हो पाता । उन्हें लगता रहता है कि मैंने यह कर लिया अथवा उन्होंने ऐसा करा दिया । मैं सब कर सकता हूँ अथवा करा सकता हूँ ।


वहीं दूसरी ओर जिन्हें न अपना बल है और न किसी दूसरे का उन्हें पल-पल पर भगवान की कृपा का अनुभव होता रहता है । और जब पल-पल पर भगवान की कृपा का अनुभव होगा तो भगवान का अनुभव लाजिमी ही है ।


  जो लोग भगवान को अपना स्वामी और अपने को भगवान का सेवक मानते हैं उन पर भगवान की विशेष कृपा होती है तथा ऐसे लोग भगवान को ज्यादा प्रिय होते हैं-


सबको प्रिय सेवक यह नीती । मोरे अधिक दास पर प्रीती  

 




।। जयश्रीराम ।।



मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

शरणागति और परम कल्याण : शरणागत हो जाने से जरूरत पड़ने पर जरूरी बात भी बनती रहती है


भगवान राम शरणागतवत्सल हैं । असरन सरन है । शरणागत होना सरल साधना है । भगवान से जुड़ने का एक सर्वोत्तम माध्यम है । कुछ आता हो अथवा न आता हो, कुछ पता हो अथवा न पता हो, कुछ कर पाते हों अथवा न कर पाते हों कोई फर्क नहीं है । बस जैसे हैं वैसे ही शरणागत हो जाइए । शरणागति भक्ति का एक सहज स्वरूप है । इससे परम कल्याण होता है 


राम जी शरणागत की महतारी के समान देख-रेख और पालन करते हैं । ऐसा श्रीरामचरितमानसजी में लिखा है । और शरणागत होकर यह देखा जा सकता है । जिस स्तर की शरणागति होगी वैसा ही अनुभव होगा, लाभ होगा, कल्याण होगा ।


 प्रयाग में एक तिवारीजी ने मुझसे कहा कि आपको देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि आपके जैसा व्यक्ति भी इस समय-इस व्यवस्था में जीवन जी रहा है । मैंने कहा कि राम जी की कृपा से ही रह रहे हैं, जी रहे हैं । उनका भाव था कि न आप किसी से ज्यादा संपर्क रखते हो और न ही लोग । संसार में लोग तो उन्हीं से संपर्क रखना चाहते हैं जिनके पास उनकी आशा पूर्ति का कोई न कोई साधन होता है । दूसरे खुशामद और चापलूसी का जमाना है जो रामजी की कृपा से आती नहीं है ।


कुछ दिन बाद अधिकारी ने एक सभा बुलाई । उसमें कई लोगों को कुछ खरी-खोटी भी सुनाई । लेकिन मेरी प्रसंशा किया । जिस बात के लिए प्रशंसा किया गया वह मुझसे सम्बंधित थी लेकिन उसमें मेरा कोई योगदान नहीं बन पाया था । योगदान न दे पाने पर फिर भी बात बन गई थी । सभा के बाद तिवारीजी बाहर निकले और दोनों हाथ जोड़कर बोले आज मुझे विश्वास हो गया कि आप पर राम जी की कृपा है ।


 मैंने यह भी अनुभव किया है कि शरणागत हो जाने से  जरूरत होने पर जरूरी बात बनती है । एक बार एक जरूरी कार्य एक बड़े अधिकारी से होना था । एक सप्ताह से भी कम समय था । खुशामद और चापलूसी करने वालों के काम जल्दी हो जाते थे । मेरी पकड़ न अधिकारी से और न ही उसके अंडर के सहायकों से थी । अर्जी दे दिया । बाद में मन में आया कि कार्य होना मुश्किल है क्योंकि दो सप्ताह तो लगते ही हैं और दूसरे अपनी पकड़ भी नहीं है ।


ऐसी स्थिति में अर्जी देने के तीसरे दिन अपने मन की बात रामजी और हनुमानजी के समक्ष रख दिया । बात रखते ही अप्रत्याशित (क्योंकि बड़े अधिकारी और उसके सहायक जल्दी और सबको रिस्पोंड नहीं देते तथा एक चैनल भी होता है) घटना घटी । उसी दिन और लगभग उसी समय जबाब सीधे मेरे पास आ गया कि आपका कार्य हो गया है । 

 एक बार विश्व स्तरीय समस्या पर शोध का काम चल रहा था । जिसमें उच्च गणित और भौतिकी का बिषय था । समय बीतता जा रहा था और कोई प्रगति नहीं हो रही थी । कई वर्ष बीत चुके थे । बाद में एक समीकरण के हल को समझ लेने से कुछ काम बन जाने का अनुमान था । लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था । निराशा बढ़ती जा रही थी । इसमें असफल हो जाने से सबसे ज्यादा हानि मेरी थी । तब राम जी ने सपने में एक वृद्ध के भेष में आकर समझाया जिससे समस्या का निराकरण हुआ । बाद में यह शोध फ़्रांस में प्रकाशित हुआ 

   ऐसे एक-दो नहीं अनेकों अनुभव हैं । लेकिन यह सब सबसे साझा नहीं करना चाहिए  फिर भी श्रीरामचरितमानसजी में और भगवान श्रीराम में लोगों का विश्वास और दृढ हो इस उदेश्य से इस लेख को साझा कर रहे हैं ।


कुलमिलाकर शरणागति से परम कल्याण तो होता ही है और जरूरत पड़ने पर जरूरी काम भी बनते रहते हैं 




।। जय श्रीसीताराम ।।



सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

सहज कल्याण का राजपथ- भगवान श्रीराम की शरणागति


गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने ग्रंथों, संतों के नाना मतों व गूढ़ सिद्धांतों पर चिंतन-मनन करके उनका सार ग्रहण करके सहज और सरल रूप में सबके लिए सुलभ करके जन-जन का बड़ा उपकार किया है ।


हर कोई अपना कल्याण चाहता है और इसके लिए तरह-तरह का उपाय भी करता है । इधर-उधर भटकता भी है । किसी को कोई समाधान मिलता है तो किसी को नहीं । किसी-किसी का भटकाव और बढ़ जाता है ।


 गोस्वामीजी के ग्रंथों के माध्यम से और रामजी की कृपा से मेरी समझ से सहज कल्याण का राजपथ भगवान राम की शरणागति है । यह सीधा और सरल मार्ग है । इससे इस लोक में कल्याण होता है । इसमें कोई दो राय नहीं है । और परलोक में भी कल्याण होगा ही । देर केवल विश्वास करके रामजी की शरण ग्रहण करने की है ।


मैंने अनुभव किया है कि गोस्वामीजी की कही हुई एक-एक बात गणित के सूत्र जैसी है । जैसे गणित के सिद्धांत को, सूत्र को प्रयोग करके सिद्ध करके देख लिया जाता है । ठीक ऐसे ही गोस्वामीजी के दिए गए सूत्र को अपनाकर विश्वास करके जीकर देखा जा सकता है ।


रामजी शरणागत की बिगड़ी सवाँर देते हैं । सार-संभार करते हैं । और निम्न चौपाई को चरितार्थ करते हैं-


करउँ सदा तिन कर रखवारी । जिमि बालक राखय महतारी ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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