सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 30 अक्तूबर 2022

चित करो राम कहे ग्रंथन की

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 


चित करो राम कहे ग्रंथन की । 

कीजे लाज विरद अरु पन की ।।१।  

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । 

हारत भीर सदा दीनन की ।।२। 

कूर कपूत सकल दुर्जन की । 

नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।३। 

सरन राम पद सब असरन की । 

सादर बाँह गहत निबरन की ।४।   

सार संभार राम दीनन की । 

करत सदा जोगवत जन मन की ।।५।  

सुनत राम सबबिधि हीनन की । 

कोल किरात आदि बनरन की ।।६।  

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । 

राखो लाज नाथ अब जन की ।।७।  

दीन संतोष नहीं तन मन की । 

जप तप बल नहिं और जतन की ।।८। 

मोरे आश राम चितवन की । 

पतितपावन अरु शील सदन की ।।९। 

 

।। जय श्रीराम ।।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

कौशल्या के लाल तेरी जय जय हो

। श्रीसीतारामाभ्याम नमः


कौशल्या के लाल तेरी जय जय हो

सहज कृपाल तेरी जय जय हो ।।१।।

दशरथ के लाल तेरी जय जय हो ।

दीनदयाल तेरी जय जय हो ।।२।।

दीनन प्रतिपाल तेरी जय जय हो ।

जन मानस मराल तेरी जय जय हो ।।३।।

श्रीरघुनायक तेरी जय जय हो ।

दीन सहायक तेरी जय जय हो ।।४।।

अगजग नायक तेरी जय जय हो ।

गुणनिधि सब लायक तेरी जय जय हो ।।५।।

असरन सरन तेरी जय जय हो ।

जन दुख हरन तेरी जय जय हो ।।६।।

राजिवनयन तेरी जय जय हो ।

करुणा अयन तेरी जय जय हो ।।७।।

शील के निधान तेरी जय जय हो ।

पुरुष पुरान तेरी जय जय हो ।।८।।

महा छविवान तेरी जय जय हो ।

राम भगवान तेरी जय जय हो ।।९।।

सीतानाथ तेरी जय जय हो

श्रीरघुनाथ तेरी जय जय हो ।।१०।।

सुग्रीवेश तेरी जय जय हो ।

पूर्ण परेश तेरी जय जय हो ।।११।।

हनुमद ईश तेरी जय जय हो ।

राम जगदीश तेरी जय जय हो ।।१२।।

दीनन के भाई तेरी जय जय हो

श्रीरघुराई तेरी जय जय हो ।।१३।।

शारंग धरैया तेरी जय जय हो ।

दीन हीन रखैया तेरी जय जय हो ।।१४।।

 

 ।। भगवान श्रीराम की जय ।। 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

गुमराह करने वाली कथा और उपदेश से बचना चाहिए- भाग तीन

एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से कहा कि भगवन ! लोक बड़ा है या वेद-‘लोक की वेद बड़ेरो’ । अर्थात आप तो वेद रक्षक हैं । वेद प्रतिपादित धर्म का पालन करने वाले हैं । फिर भी आपने लोक के कहने से ही सीताजी को दूसरा वनवास दे दिया । अर्थात आपने केवल वेदों को महत्व नहीं दिया है बल्कि लोक को भी महत्व दिया है । इसका मतलब वेद और लोक दोनों महत्वपूर्ण हैं ।

 

कहने का मतलब है कि परलोक बनाने के चक्कर में लोक बिगाड़ नहीं लेना चाहिए । लोक बिगड़ गया तो परलोक बन जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है ।


आज कल कई लोग अपने सिद्धांत बना लेते हैं । और ग्रंथों के बातों को या तो नहीं मानते या मनमाने तरीके से पेश करते हैं । गोस्वामी जी ने कहा है कि भक्ति में मूर्खता के लिए कोई स्थान नहीं है- ‘भगति पक्ष हठि नहिं शठताई’ । भक्ती में कुतर्क तो नहीं करना चाहिए लेकिन भक्ती में तर्क के लिए स्थान होता है । ऐसा गोस्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस जी में कहा है । इसलिए भक्ती तो करना चाहिए लेकिन मूर्खता नहीं करनी चाहिए । मूर्खता का एक उदाहरण दे रहे हैं 


एक लोग हैं । इनकी पत्नी को गुरू जी की चिंता सताती रहती है । कई लोगों का नम्बर ले लिया है जिसमें से कुछ महाराज जी से जुड़े हुए लोग हैं और दो-तीन महाराज जी के आस-पास अथवा उनके साथ ही रहते हैं । कभी किसी से पूछती है कि और महाराज कैसे हैं । ठीक तो हैं । महाराज जी का कोई समाचार मिला क्या । मैं चाहती हूँ गुरूजी ठीक रहें । उनको कोई समस्या न हो । आदि । कई बार तो ग्यारह बजे रात को जब बच्चे और पति सो रहे होते हैं तब भी किसी से बात होने लगती है । गुरू जी का समाचार मिलता रहे इसलिए लोगों को मोबाईल भी दिला देती है । स्वयं क्या दे दे और दूसरों से क्या-क्या दिला दे इसी में परेशान रहती है  यह मूर्खता भी है और आसक्ति की चरम सीमा है । जिसको इतनी आसक्ति होगी उसका क्या कल्याण होगा ?

 एक दिन इन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि गुरू तो हर कोई बनाता है लेकिन तुम्हारे जैसे कोई गुरू के पीछे पागल नहीं होता है । समझाने के लिए भी कोई बात होती है तो वह इतनी हर्ट हो जाती है कि कभी वेहोश हो जाती है । तो कभी उसका सिर जोरो के साथ दर्द करने लगता है । इससे घर का पूरा माहौल खराब हो जाता है । आए दिन झगड़ा हो ही जाता है ।

 

  कभी वह कहती है कि मैंने वैसे ही लोगों से फोन पर बात करना कम कर दिया है । नहीं चाहिए फोन मुझे । मुझे माया-मोह में नहीं पड़ना है । निकाल लो सिम । जिनके पास फोन नहीं रहता उनका काम नहीं चलता क्या ? इन्होंने कहा कि तुम्हारे गुरूजी फोन नहीं रखते हैं इसलिए तुम भी फोन नहीं रखना चाहती हो क्या ? इतने पर ही भड़क गई और बोली कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारे गुरूजी की ओर आँख उठाने की । मैं सारे रिश्ते नाते समाप्त कर दूँगी ।

 

  इन्होंने कहा कि फोन रखना तो जरूरी है । तुम्हारे गुरूजी के पास कोई न कोई फोन रखने वाला हमेशा रहता है । उनका मैसेज हर जगह पहुँचता रहता है । फिर फोन की उन्हें जरूरत क्या है ?

 

  किसी का भी अंधे होकर अनुसरण नहीं करना चाहिए । तुम गृहस्थ धर्म में हो- बेटी है, बेटा है । दोनों स्कूल जाते हैं और बहुत सारी जरूरते रहती हैं । तुम कहीं जाओगी तो तुम्हारे साथ हमेशा फोन लेकर कौन रहेगा ? वह बोली मुझे कहीं नहीं जाना है । मैं सब कुछ छोड़ रही हूँ । मैं भोजन-पानी भी छोड़ दूँगी ।

  

ये बता रहे थे कि एकात बार जब इनकी पत्नी ने नाराज होकर कहा कि आज से मैं कथा में भी नहीं जाऊँगी । मैं दवा भी नहीं खाऊँगी । मैं यह नहीं करूँगी । मैं वह नहीं करूँगी तो ये खुद मनाकर गुमराह करने वाली कथा में ले गए । जिससे घर का माहौल नार्मल हो जाए । उसके बाद वो कहती है कि मैं तो छोड़ रही थी तुम्ही तो लेकर गए ।

 

   एक व्यापारी जो उसके गुरू का ही फालोवर है, रात में ग्यारह बजे भी इनके पास फोन कर देता है । कुछ गुरूजी की बात कर देता है । तो वह खुश हो जाती हैं । और ये बताते हैं कि कहेगा कि माताजी सब मोह माया है-‘राणा जी संभारो घर-बार मैं तो चली वृंदावन’ । कहता है मुझे ज्यादा मोह माया में नहीं पड़ना है । मैं तो कुछ दिनों में सब छोड़-छाड़कर जा रहा हूँ । फिर अपने सामान की भी बात करेगा कि यह भिजवा दूँ, वह भिजवा दूँ । तो ये स्वयं तो खरीदती हैं अगल-बगल वाले को भी ग्राहक बना देती हैं । अब माया-मोह कहाँ गया ? इस तरह के लोग भी दूसरों को गुमराह करते हैं ।

 

मैंने भी समझाने का प्रयास किया । श्रीरामचरितमानसजी से चौपाई बताई-‘सास ससुर गुर सजन सहाई । सुत सुंदर सुसील सुखदाई’ । आदि । कहा कि पति के साथ के लिए तो सास, ससुर, गुरू, माता-पिता, भाई आदि सभी रिश्ते को भी छोड़ देने की बात आई है मानस जी में । राम-राम जपो घर में, कहीं आने-जाने की क्या जरूरत है । तब वह बोली कि अपना उपदेश अपने पास रखो ।

 

लेकिन जब मंथरा ने कैकेयी जी को समझा दिया तो फिर उन्होंने न तो किसी की सुनी, न सोचा न समझा । राम जी का वनवास हो गया, और दशरथ जी का मरण भी हो गया । इनकी समस्या है कि कब तक सुन और सह पाएंगे कि मैं सारे रिश्ते नाते समाप्त कर दूँगी ।

  जो भोले भाले लोग हैं । भावुक प्रकृत के हैं । जिनको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है । धर्म-अध्यात्म की अच्छी समझ नहीं है वे किसी के बातों में आ जाते हैं । वे ये नहीं समझते कि भगवान कोई वस्तु नहीं हैं कि कोई अपने जेब से निकाल कर दे देगा कि लो यह भगवान हैं । अथवा ऐसे किसी के पीछे पड़ जाने से भगवान मिल जाएँगे 

 

लेकिन जब सामने वाला बोलता है कि जब तक भगवान का अनुभव-दर्शन न हो जाय तब तक किसी को कथा नहीं कहनी चाहिए । यह सुनकर भावुक भक्त यही सोचता है कि ये ऐसा बोल रहे हैं इसका मतलब इनको जरूर भगवत प्राप्ति-दर्शन आदि  हो चुका  है । क्योंकि उसके पास इतनी समझ नहीं होती है कि भगवान के दर्शन के बाद जीव की स्थिति बदल जाती है-‘मम दर्शन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज स्वरूपा’

 

   जब कोई जिसमें लोगों की श्रद्धा है बोलेगा कि आज से पिछले बीस-पच्चीस वर्ष में कोई अच्छा संत-भक्त नहीं हुआ है । अब एक दो वर्षों में कोई बड़ा चमत्कार होने वाला है । लेकिन आप लोग इसे मेरा अभिमान नहीं समझना । तब भावुक भक्त यही सोचता है और सोचता क्या है मान लेता है कि इनके जैसा कोई नहीं । ये ही हैं ।

 

लेकिन यह कितनी गुमराह करने वाली बात है । और संतों-भक्तों का घोर अपमान है कि आज से पिछले बीस-पच्चीस वर्ष में कोई अच्छा संत-भक्त नहीं हुआ है । अरे भाई रामजी के लिए कहा गया है कि-‘घट घट वासी’ । तुमको कैसे पता है कि कोई अच्छा-संत-भक्त पिछले बीस-पच्चीस वर्ष में नहीं हुआ है । आपने तो सबको फेल कर दिया ।

 

इतने तीर्थ स्थान हैं, गिरि, खोह, पर्वत हैं कहाँ कौन महापुरुष विराजमान थे और कहाँ विराजमान हैं क्या पता ?  कोई नहीं हुआ है पिछले बीस पच्चीस वर्षों में । आप तो सबको नकार रहे हैं । सबका अपमान कर रहे हैं । ऐसे सत्संग से क्या होगा ? 

इसी तरह कुछ लोग स्त्रियों को पति की आज्ञा और इच्छा के विपरीति कल्याण के नाम पर अकेले आने-जाने के लिए प्रेरित करते हैं । और तीर्थ आदि में पति के स्पष्ट मना कर देने के बावजूद स्त्रियों को बार तीर्थ आदि में जाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं । इसीलिए वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित मनमानी करने वाले गुरू की आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिए । इसी तरह से यमल तंत्र में दोष युक्त गुरू का त्याग करके दूसरा गुरू बनाने की अनुमति दी गई है तथा ग्रंथों में गुरू बनाने से पहले उसके गुण-दोषों पर भली भांति बिचार करके निर्णय करने को कहा गया है 

   

कुल मिलाकर मूर्खता, आसक्ति और चरम आसक्ति छोड़कर भक्ती में आगे बढ़ना चाहिए । न गुमराह होना चाहिए न किसी को गुमराह करना चाहिए । आजकल कई लोग कल्याण, भक्ती, भगवत प्राप्ति, दर्शन और लीला में प्रवेश के नाम पर मनमाना उपदेश दे रहे हैं । जब कल्याण राम-राम रटने से हो सकता है तो फिर भटकने की क्या जरूरत है ?

 

।। जय श्रीराम ।।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

गुमराह करने वाली कथा और उपदेश से बचना चाहिए- भाग दो

कथा कहना और उपदेश देना बहुत जिम्मेदारी का कार्य होता है । इसलिए कथा और उपदेश में केवल प्रमाणिक बातों को ही बोलना चाहिए । प्रमाणिक बातों का मतलब जो प्रमाणिक ग्रंथों में वर्णित तथ्य हों उन्हें  ही बोलना चाहिए । वाल्मीकि जी, व्यासजी, और तुलसीदास जी आदि के ग्रंथों से लिए गए तथ्य होना चाहिए ।

 अपने प्रति श्रद्धा बढ़ाने के लिए किसी दूसरे के प्रति श्रद्धा कम करने की, दूसरे की बुराई करने की जरूरत नहीं होती है । किसी रेखा को छोटी करनी हो तो उसे इरेज करके छोटी करने की जरूरत नहीं होती । बल्कि बड़ी रेखा खींच देने से पहले वाली रेखा अपने आप छोटी हो जाती है ।

 

एक संत जी कथा कहने आए थे उनसे कोई किसी बड़े संत की बात करे तो वे कहते कि हाँ वे- वे फँसे हैं उनको फिर जन्म लेकर आना पड़ेगा । ऐसे ही कहते कि वो- वो भी फँसे हैं उनको भी संसार में आना पड़ेगा । और उनकी तो गप्प मारने की आदत है । और उनके साथ जो संत रहते हैं वे माल-पूड़ी काटने और मोटी दक्षिणा के लिए आते हैं ।

 

  भगवान की माया बड़ी दुस्तर है । कौन फँसा है और कौन मुक्त यह कहना मुश्किल है । जो फँसे होते हैं उनको भी पता नहीं चलता कि वे फँसे हैं और वे दूसरों को कहते रहते हैं कि वे तो फँसे हैं ।

 

   कुछ लोग प्रत्यक्ष कुछ नहीं लेते तो उनको लगता है कि वे मुक्त हैं बाकी लोग फँसे हैं । लेकिन इनके सम्बंध से लोग देते रहते हैं । उदाहरण के लिए इनके साथ रहने वाले को जो दिया जाता है वह इनके सम्बंध से ही दिया जाता है । जैसे समाज में कई लोग हैं जिनके पास कई चीजों का अभाव होता है । लेकिन उनको तो कोई कुछ नहीं दिला देता । इनके साथ वाले को लोग क्यों दिलाते हैं ? क्यों देते रहते हैं ? इनके सम्बंध से ही देते हैं न । वो इनके पास से हट जायें, इनसे बिगाड़ कर ले तो लोग उनसे बात तक नहीं पूंछेंगे । 

कोई नहीं-नहीं करके लेता है । और कोई बिना नहीं-नहीं किए लेता है । कोई कम लेता है और कोई ज्यादा लेता है । अंतर यही है । और दूसरों को कहते हैं कि वे सब फँसे हैं । ऐसा सुनकर व देखकर भावुक भक्त सोचते हैं और मान लेते हैं कि बहुत पहुँचे हुए गुरू जी मिले हैं ।

 एक बार अपने सत्संगियों को जिनमें ज्यादा महिलाएँ थीं ये बता रहे थे कि हम लोग जब भगवान के यहाँ जाएँगे तो वहाँ भी बहुत आनंद करेंगे । वहाँ भी सत्संग करेंगे । हम वहाँ भी आप लोगों को कथा सुनाते रहेंगे । और सत्संग करने वाले बहुत प्रसन्न थे । ताली बजा रहे थे । सोच रहे होंगे कि कितने पहुँचे हुए गुरू जी मिले हैं ।


  इनको कौन बताए कि भगवान के यहाँ सत्संग नहीं होता है । वहाँ कथाएं नहीं होती हैं । एक बार मैंने इनसे कहा कि भगवान के यहाँ तो कथा नहीं होती है तो आप वहाँ कैसे कथा सुनायेंगे । ये बोले होती क्यों नहीं है । होती है । हम लोग वहाँ भी सत्संग करेंगे । मैंने समझाया कि हनुमानजी महाराज कथा सुनने के लिए तो यहाँ रुके हैं । भगवान के धाम में इसलिए ही नहीं गए क्योंकि वहाँ कथा नहीं होती है । तब ये बोले अच्छा ऐसी बात है ।


कुल मिलकर अपनी लाइन बड़ी करने के लिए किसी दूसरे की लाइन छोटी करने का प्रयास नहीं करना चाहिए । और जो शास्त्र सम्मत हो वही बोलना चाहिए । ऐसा नहीं होना चाहिए कि सामने वाला नहीं जानता हो तो जो मन में आए वही बोलते जाइए । बोल दो कि आप लोग भी मीराबाई बन सकती हो । और कोई अपने घर आकर कहने लगे कि मैं सारे रिश्ते नाते तज दूँगी । अब मुझे लोक लाज की परवाह नहीं है । जैसा कि पहले भाग में बताया गया है । मीराबाई किसी के बनाने से मीराबाई नहीं बनीं थीं । वे भगवान के समय की गोपी थीं और उनके साथ उनके भक्ति का प्रारब्ध भी आया था । इसलिए वे महान भक्ता थीं । अधिक जानकारी के लिए पहला भाग देख सकते हैं ।

 

।। जय श्रीराम ।।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

गुमराह करने वाली कथा और उपदेश से बचना चाहिए- भाग एक

सबको पता होगा कि पहले अपने यहाँ अर्थात सनातन परंपरा में नियम, संयम, ज्ञान, संस्कार आदि गुरू शिष्य परंपरा से आगे की पीढ़ियों में आते थे । इसके लिए शिष्य को कठोर परिश्रम करना पड़ता था । कई वर्षों तक गुरुजनों और साधुओं की सभाओं का सेवन करना पड़ता था । और स्वयं का स्वाध्याय और आत्म चिंतन भी होता था । तब कहीं जाकर भगवान की कृपा से परिपक्कवता आती थी ।

 लेकिन आज कराल कलिकाल है तो ‘जिन्ह गुरु साधु सभा नहिं सेई’ ऐसे लोग भी कथा और उपदेश कहने और देने लगते हैं । ऐसे लोगों के मुँह से कोई अशास्त्रीय बात निकले अथवा गुमराह करने वाली कथा कहें या उपदेश करें तो कोई आश्चर्य नहीं है ।

 

आज के समय में कोई किसी पुरुष को कहे कि आप तुलसीदास जी और किसी स्त्री को कहे कि आप भी मीराबाई बन सकती हो । तो यह गुमराह करने वाली बात है । यह कहना कि पूजा-पाठ करो, भजन करो, जितना हो सके नाम जप करो, भगवान का स्मरण करो तो ठीक है । लेकिन किसी को तुलसीदासजी अथवा मीराबाई बनाने की बात कहना गुमराह करना है ।

 

जो बड़े-बड़े भक्त हुए हैं वे किसी के बनाए नहीं बने थे । वे बने-बने आए थे । जो बड़े-बड़े भक्त हुए हैं उनके रूप में कोई पहले का बड़ा भक्त ही आया था और उनका जन्म और कर्म आरंभ से ही उत्तम होता है ।

 

 गोस्वामी तुलसीदास जी जब प्रगट हुए तो राम-राम बोले । आम बालकों की भाँति रोये नहीं थे । हर जीव के साथ उसका प्रारब्ध आता है । उसी के अनुसार वह आगे बढ़ता है । गोस्वामी तुलसीदासजी कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे स्वयं श्रीराम भक्त श्रीवाल्मीकि जी ही श्रीतुलसीदास जी बनकर आए थे ।

 

  इसी तरह से मीराबाई भी जन्म से भक्ता थीं । वे किसी के बनाने से भक्त नहीं बनी थीं । उनका जन्म और कर्म दोनों उत्तम था । उनका भी भक्त का प्रारब्ध साथ आया था । वे कोई साधारण स्त्री नहीं थीं । वे पूर्व जन्म की भगवान के समय की गोपी थीं ।

 

 एक लोग कथा कह रहे थे । ऐसे ही मीराबाई बनने वाली बात बताई । बोले कि आप लोग भी मीराबाई बन सकती हो  इनकी कथा सुनने वाली एक स्त्री एक दिन अपने पति से बोली कि आज से मेरा और आपका कोई सम्बंध नहीं रहेगा । मैं घर छोड़कर चली जाऊँगी ।  और बोली कि रोटी और कपड़ा की समस्या है नहीं तो मैं यहाँ एक दिन न रुकती । 

  फिर एक दिन पति से बोली कि मुझे गुरू जी से मिला लाओ । पति ने समझाया कि अभी बेटा छोटा है, बेटी की पढ़ाई चल रही है । संत जी कहीं न कहीं आते जाते रहेंगे । हर जगह हम लोग थोड़े पहुँच सकते हैं । अभी मुझे नौकरी भी करनी है । जिनके बच्चे सेटल हो गए हैं अथवा जो रिटायर हो गए हैं उनसे अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए । वे समय दे सकते हैं । हम लोगों के लिए समस्या है । और संत जी को गए अभी दो महीने ही हुए हैं । इतने जल्दी फिर मिलने की क्या जरूरत है ।

 उनकी प्रबलतम इच्छा देखकर पति अपनी पत्नी को पत्नी के गुरूजी के पास ले गया । और पत्नी के गुरूजी से कहा कि ये घर छोड़ने की बात कर रही हैं । तब संत जी ने कहा कि घर छोड़ देंगी तो रहेंगी कहाँ ?

 

 उन्होंने कोई बिधि-निषेध की बात नहीं की । केवल इतना कहा कि रहेंगी कहाँ ? कोई शास्त्रज्ञ होता तो बिधि-निषेध की बात बताकर समझाता  

  एक शास्त्रज्ञ संत बता रहे थे कि मीराबाई भक्ता थीं उनसे कोई अशास्त्रीय कार्य हो ही नहीं सकता था और मीरा जी ने कोई अशास्त्रीय कार्य नहीं किया था । जब तक उनके पति जीवित थे उन्होंने घर से बाहर पैर नहीं निकाला । और पति आज्ञा में रहीं । पति के मृत्यु के पश्चात वे घर के लोगों से सताए जाने के बाद बाहर निकलीं ।

 

एक दिन उस स्त्री ने अपने पति से कहा कि मैं लोक-लाज तजि दूँगी । और गुरू जी के साथ रहूँगी तो उनकी बदनामी होगी । इसलिए जहाँ वे रहेंगे । उनके आस-पास रहूँगी ।एक दिन उस स्त्री ने कहा कि गुरू जी के पास जाते ही मेरा स्त्री भाव समाप्त हो जाता है अर्थात मैं भूल जाती हूँ कि मैं स्त्री हूँ ।


लेकिन यदि लोक-लाज तजने से भगवान मिलने लगते तो अब तक कई पुरुष और स्त्री भगवान को प्राप्त कर चुके होते । मीरा जी ने जब कहा कि ‘करि सिंगार बाँध पग गुघुरू लोक लाज तजि नाची’ तब उनकी स्थित और परिस्थिति दूसरी थी । वे लोक-लाज तजने से भक्त नहीं बनी थीं । वे जन्म से भक्त थीं । आज के समय में कोई सोचे कि लोक लाज तजने से कोई मीराबाई बन सकता है । तो यह गलत है ।

 

एक बार संतजी ने एक दूसरी स्त्री से पूछा कि माता जी भजन चल रहा है । वह बोली महाराज जी थोड़ा-बहुत जो कर पाती हूँ करती हूँ । अभी बेटियों की शादी करनी है । तो ये बोले तब भगवान नहीं मिलेंगे, कर लो बेटियों की शादी । क्या यह सोचने वाली बात नहीं है कि अगर कोई बेटियों की शादी नहीं करेगा तो लोक व्यवहार का क्या होगा ? क्या गृहस्थ का यह धर्म नहीं है ? इस बात से भी लोग गुमराह हो सकते हैं ।

 

संत जी उपदेश देते हुए कह रहे थे कि बेटियों की शादी होते ही उनसे सारे रिश्ते समाप्त कर लो । वह सुखी रहे, दुखी रहे । इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए । बेटियों को शादी के बाद उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और उनसे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए । ये उपदेश किस शास्त्र का है, आज तक कम से कम मुझे पता नहीं है ।

 

 कुल मिलाकर किसी को न तो गुमराह करने वाला उपदेश देना चाहिए और न ही ऐसी कथा कहनी चाहिए कि लोग गुमराह हो जाएँ । लोग भजन-साधना में लगें यह बड़ी अच्छी बात है लेकिन मीराबाई और तुलसीदास बनने की जिद करने की जरूरत नहीं है । भक्ति-भाव होगा तो भगवान स्वयं आकर घर में भी मिल जाएँगे और यदि भक्ति-भाव नहीं है तो घर छोड़ने से तीर्थ में भी भगवान नहीं मिलेंगे ।


।। जय श्रीराम ।।

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

रामायण का पाठ और कथा कब और कितने दिनों में करना और सुनना चाहिए

रामायण की कथा पढ़ने और सुनने का बड़ा महत्व है । रामायण की कथा का बड़ा महात्म्य है । रामायण की कथा का महात्म्य श्री वाल्मीकि जी और स्वयं भगवान वेद व्यास ने बिस्तार से कहा है ।

 

वेद व्यास जी ने स्कंदपुराण में लिखा है कि नारद जी ने सनकादिक ऋषियों को बताया है कि रामायण की कथा नौ दिन में सुननी चाहिए । अर्थात रामायण की कथा का नवाह-पारायण कराना और करना चाहिए ।

 

  वेद व्यास जी ने कहा है कि वैसे तो रामायण की कथा कभी भी सुन सकते हैं । लेकिन तीन महीने विशेष हैं । 

  

स्कंद-पुराण के अनुसार  नवाह-पारायण का पाठ करना चाहिए और नौ दिन की कथा सुननी चाहिए ।

 

कार्तिक मास, चैत्र मास और माघ मास में रामायण की कथा सुनने का विशेष महत्व है । इन महीनों के शुक्ल पक्ष में रामायण की कथा सुनने का विशेष महत्व है । और नौ दिन में कथा सुनने पर जोर दिया गया है

 

 इन महीनों में स्वयं रामायण का पाठ किया जाय, नवाह-पारायण किया जाय तो बहुत लाभकारी होता है । इन महीनों के शुक्ल पक्ष की पंचमी से आरंभ करके नौ दिन की कथा सुननी चाहिए या स्वयं नवाह-पारायण करना चाहिए । ऐसा नारद जी ने  सनकादिक ऋषियों को बताया है और व्यास जी ने स्कंद पुराण में वर्णन किया है 

  

। जय श्रीराम 

शनिवार, 15 अक्तूबर 2022

भगवान श्रीराम की एक अनूठी सीख- विवाह के लिए पिता की आज्ञा का महत्व

सीता जी के स्वयंवर की शर्त थी कि जो शिव जी का महान धनुष तोड़ेगा उसी के साथ सीताजी का विवाह होगा ।

 

 बड़े-बड़े बलवान राजा आए लेकिन कोई भी राजा धनुष को हिला भी नहीं सका । सबको पहले मौका भी दिया गया । नहीं तो बाद में कहते कि मुझे मौका ही नहीं मिला नहीं तो मैं ही तोड़ देता । जब सब हार चुके और राजा जनक ने भी बोल दिया कि लगता है पृथ्वी वीरों से खाली हो गई है । इसके बाद ही विश्वामित्रजी ने रामजी को आज्ञा दिया कि हे रामजी अब आप उठिए और धनुष तोड़कर जनकजी के संताप को दूर कर दीजिए ।

 

  तब रामजी ने गुरू जी की आज्ञा से सहज भाव से ही धनुष तोड़ दिया । और सारे जनकपुर वासियों को सुखी कर दिया-

 

‘सबकर सोच मिटायेउ स्वामी भंजेउ शिव धनु भारी ।

राजा रानी सिया सहेली हर्षे पुर नर नारी’ ।

 

परशुरामजी आए और राम जी का बल देखकर नतमस्तक होकर चले गए । रामजी ने गुरूजी की आज्ञा से धनुष तो तोड़ दिया लेकिन जब सीता जी को स्वीकार्य करने की बात आई तब रामजी ने कहा कि इस सम्बंध में मैं पिताजी की आज्ञा के अधीन हूँ ।


जब मेरे पिताजी महाराज दशरथ जी की आज्ञा मिल जाएगी तब ही मैं इन्हें स्वीकार कर पाऊँगा । 


वनवास के दौरान सती अनुसूया जी ने माता सीता से इनके विवाह की लीला,धनुर्भंग लीला आदि के सम्बंध में माता सीता से पूछा था । तब माता सीता ने उन्हें यह बात भी बताया था 


फिर जनकपुर से अयोध्या जी के लिए दूत भेजा गया और दशरथ जी को बुलाया गया । दशरथजी अयोध्याजी से बरात लेकर जनकपुर आए और फिर बिधि पूर्वक- शुभ मूहूर्त में लौकिक और वैदिक बिधि से श्रीसीताराम जी का विवाह सम्पन्न हुआ ।

 

रामजी की यह लीला आज के समय में सभी के लिए अनुकरणीय है । और माता-पिता, पुत्र-पुत्री सबके लिए लाभकारी है और सीख लेने योग्य है । इससे कई समस्याओं का समाधान भी हो सकता है । धन्य हैं रामजी और उनकी लीला । धन्य है रामजी की मर्यादा ।

 

।। श्रीसीताराम भगवान की जय ।।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

साधु, संत, भक्त, सदग्रंथ, धर्म और कलिकाल

संतों और भक्तों के गुण स्वयं भगवान गाते हैं । संतों की महिमा स्वयं भगवान कहते हैं । संतों और भक्तों की महिमा गाने वाले श्रीभक्तमाल ग्रंथ से कौन परिचित नहीं होगा । लेकिन कलियुग में साधु, संत, भक्त, सदग्रंथ और धर्म की बुराई करने वाले दिनों-दिन बढ़ते जाते हैं ।

 

भक्तमाल की कथाएँ भी होती रहती हैं । और भक्तमाल की पुस्तक लेकर भी पढ़ा जा सकता है । इससे बहुत लाभ होता है । यहाँ लाभ का मतलब मुख्यतः भजन-साधना में लाभ से है ।

 

 श्रीरामचरितमानस जी में संत और असंत का वर्णन कई बार आया है । भगवान श्रीराम ने स्वयं अरण्यकांड में नारद जी से संत महिमा कही है । इसी तरह  उत्तरकाण्ड में भी संत और असंत के लक्षण भगवान श्रीराम ने कहा है ।

 

  भगवान श्रीराम ने स्वयं दिखाया है कि साधु-संत का आदर और सत्कार करना चाहिए । इसलिए सभी को साधु-संत का आदर और सत्कार करना चाहिए ।


कलियुग का प्रभाव बढ़ने से सबका प्रभाव कम होने लगता है । अथवा प्रभाव जल्दी समझ में नहीं आता है । और इसलिए साधु, संत, सदग्रंथ और धर्म की बुराई करने वाले और इनको न मानने वाले बढ़ने लगते हैं ।

 

लेकिन जब कोई संत ही संतों की बुराई करने लग जाए तब इससे बड़ी बिडम्बना और क्या होगी ? पिछले पोस्ट में जिन संत से गोरे राम जी की चर्चा के बारे में बताया गया था ।  वे बड़े से बड़े संत की भी बुराई बड़ी आसानी से कर देते हैं ।

 

एक बार तो इन्होंने यहाँ तक कह दिया कि बड़ी-बड़ी कथाओं में जो संत-वक्ता के साथ कई संत आते हैं वे माल-पुआ काटने और मोटी दक्षिणा पाते हैं इसलिए आते हैं । शायद ऐसा कोई साधरण व्यक्ति भी नहीं कहेगा । अथवा वही कहेगा जिसने साधुओं और गुरजनों की सभाओं का ठीक से सेवन नहीं किया है-‘जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई’ ।

 

  लेकिन यह सोचने वाली बात है कि जो बीस-तीस-चालीस वर्ष से भजन में लगा है, बड़े संत का संग कर रहा है वह क्या माल-पूड़ी काटने के लिए अथवा दक्षिणा के लिए सत्संग करने जाएगा ? ऐसा बिचार मन में आ जाए तो वाणी में नहीं लाना चाहिए । कम से कम किसी से कहना नहीं चाहिए ।  यह कलिकाल का ही प्रभाव है ।

 

 इन्होंने एक बार कहा कि बड़े-बड़े आश्रमों में जाकर देखों कितना राग-द्वेष भरा है । मैंने इनको बताया कि वहाँ हजारों-लाखों की संख्या में लोग जुड़े हैं वहाँ ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं है । लेकिन आप से तो अभी बहुत कम लोग जुड़े हैं फिर भी लोगों में कितना राग-द्वेष है । तब इन्होंने मेरी बात को हँसी में टाल दिया ।

 

   उपरोक्त बातों का उल्लेख इसलिए किया गया है कि केवल नास्तिक प्रकृत के लोग जो वेद-भगवान को नहीं मानते केवल वे लोग ही साधु-संत की निंदा नहीं करते बल्कि कुछ साधु-संत भी बड़े-बड़े साधु-संतों की बुराई व निंदा करते हैं । कारण कुछ भी हो ।

 

इसलिए इस कराल कलिकाल में बहुत बच कर रहने की जरूरत होती है । कौन कब और कहाँ तथा किसलिए गुमराह कर दे अथवा गुमराह करने का प्रयास करे कुछ कहा नहीं जा सकता है । और ऐसे लोगों से बच कर रहना चाहिए-'जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई'  

 

।।  जय श्रीराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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