सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

श्रीरामचरितमानस जी से जीवन में सुख शांति आ जाती है-एक उदाहरण

आजकल लोंगो के मन में हाहाकार है । मन में अशांति है  । घर में अशांति है । जीवन में अशांति है । ऐसे में क्या करें ? समस्या बड़ी है ।  बढ़ी है और बढ़ती जा रही है ।


 समाधान क्या है ? समाधान कई हो सकते हैं । लेकिन सहज समाधान श्रीरामचरितमानस जी से प्राप्त किया जा सकता है । कई लोंगो ने प्राप्त किया है और कई लोग प्राप्त कर रहे हैं । यहाँ हम एक उदाहरण दे रहे हैं ।


मैं किराये के मकान में अपने छोटे-मझले भाई के साथ रह रहा था । वहाँ एक और किरायेदार रहते थे । कुछ दिन बाद वे वहाँ से दूर चले गए । और मैंने भी कमरा बदल दिया लेकिन  पास के मकान में ही शिफ्ट हो गये थे । विद्यार्थी जीवन था ।


एक दिन दूसरे किरायेदार पूछते हुए मुझसे मिलने आए । कभी ज्यादा बातचीत भी नहीं हुई थी । वे बहुत दुखी थे । घर में अशांति थी । मारपीट, गालियाँ, भोजन न बनना, दिन के दिन भूंखे रह जाना होता था । कारण बच्चों से समस्या थी । एक बहुत ही उदंड हो गया था । उससे माता-पिता बिल्कुल परेशान हो गए थे । कहीं कोई आत्महत्या न कर ले इतनी समस्या थी ।


मैंने एक दिन उनके बच्चों को बुलाकर समझाया । समझाने का आधार श्रीरामचरितमानस जी को ही बनाया था । उनको श्रीरामचरितमानस पढ़ने के लिए कहा । रोज अगर नहीं पढ़ सकते तो रविवार को रोज पढ़ना है । उनके घर में श्रीरामचरितमानस जी उपलब्ध नहीं थे । उन्होंने मँगवाया । और भगवान की कृपा से जो मैंने कहा था उस पर अमल करना शुरू कर दिए । इनके घर में मांस भी भोजन के रूप में लिया जाता था । मैंने छोड़ने के लिए इनसे कहा ।


कुछ दिन बाद वे मेरे भाई को मिले और बोले कि अब घर में सब ठीक चल रहा है । वे बोले हम एक जगह भोजन के लिए गए थे तो वहाँ हमने मांस खाने से मना कर दिया । लोग पूछने लगे क्या हुआ ? तब ये बोले कि अब हमारे घर में श्रीरामचरितमानस जी आ गए हैं और इसलिए हम लोंगो ने मांस खाना छोड़ दिया है ।


एक बार इनकी मुलाकात मुझसे भी हुई थी । इन्होंने बताया था कि अब हमारा घर और जीवन दोंनो बदल गया है । इस घटना में मैं तो एक निमित्त मात्र बना था, राम जी किसी बहाने से, माध्यम से ही कृपा करते हैं । श्रीरामचरितमानस जी पर मेरे कहने से इन्हें श्रद्धा और विश्वास हुआ जिसका  लाभ इनके परिवार को हुआ  



।। जय श्रीसीताराम ।।



शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

सनातन धर्म और गाय: गाय पशु नहीं है

रो-रो कहती गाय बेचारी देखो मेरा हाल ।
दूध रहे जब पास हमारे हर कोई लेता पाल ।।
दूध नहीं तो कहते इसको दूर करो तत्काल ।
कहाँ मैं जाऊँ क्या मैं खाऊँ देते मुझे निकाल ?

चरने को है घास नहीं न पीने को ही जल ।
रहने को भी ठौर नहीं दुनिया गयी बदल ।।
दया धरम सब कल की बातें दिन-दिन बाढ़ें खल ।।
माँस भी मेरा जो खा जाएँ कर दें मेरा कतल ।।

राम कृष्ण की पूज्या जो, जग की माता कहलाई 
घर कर बैठे देव देंह में, गोमय में लक्ष्मी आई ।।
मूत्र में गंगा वसती जिसके वेदों ने महिमा गाई 
जग का मूल सूल हरती जो रोती है गैया माई ।।

नदी बहुत पर नदी नही जिमि, गंगा है गंगा माई 
वानर बहुत नहीं वानर ज्यों, बजरंगबली हैं कपिराई ।।
पौधे बहुत नहीं पौधा जिमि, तुलसी है तुलसी माई 
ऐसे ही गैया मैया है, पशु न इन्हें समझो भाई ।।


वृक्ष अनेकों पीपल महिमा गीता में हरि ने गाई ।
पाथर जहँ तहँ पड़े अनेकों शालिग्राम जन सुखदाई ।।
देश अनेकों दुनिया में ज्यों भारत भू नहि है माई ।
ऐसे ही गैया मैया है, पशु  इन्हें समझों भाई ।।


सत्य सनातन धरम हमारा गैया को कहता माई 
पशु कहने वाले गोमर हैं, ऐसा ही समझो भाई ।।
गो हित आए राम धरा पे कृष्ण चराए वन-वन गाई 
जग जीवन गैया मैया से गाय गए दुनिया जाई ।।


।। जय श्रीसीताराम ।।


( इस कविता को कहीं पोस्ट करना हो तो ब्लॉग का लिंक जरूर दें, ऊपर की दो कविता
२०१० में ही लिखी गई थी जिसे लोगों ने बिना किसी लिंक के अथवा रचनाकार का नाम दिए बिना अनेकानेक जगहों पर पोस्ट कर रखा है  । )  





गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

श्रीरामचरितमानस पढ़ने-सुनने और पाठ करने का सही फल किसको मिलता है ?

श्रीरामचरितमानस जी की असीम महिमा है । लाखों-करोडों लोग कथा, प्रवचन, स्वाध्याय आदि के जरिए श्रीरामचरितमानस जी से जुड़े भी हैं और लाभ भी पा रहे हैं । अखंड रामायण अथवा श्रीरामचरितमानस जी के पाठ का कितना महात्म्य है यह किसी से भी छुपा नहीं है ।

                          
अनेकानेक फल श्रीरामचरितमानस जी के माध्यम से सहज ही लोगों को सुलभ हैं जिनका वर्णन स्वयं गोस्वामी जी ने किया है ।  उदाहरण के लिए एक फल का उल्लेख करें तो गोस्वामीतुलसीदास जी ने कहा है कि इस कलिकाल में श्रीराम कथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली गाय है ।



सभी को सही लाभ यानी अधिक से अधिक लाभ हो उसके लिए जरूरत है कि श्रीरामचरितमानस जी में श्रद्धा और विश्वास हो, प्रेम हो । गोस्वामी तुलसीदास जी में श्रद्धा (पूज्य वुद्धि) हो । भगवान शिव और माता पार्वती जी में श्रद्धा हो ।  भगवान राम और माता सीता जी में श्रद्धा विश्वास हो । तथा भरत जी, लक्ष्मण जी शत्रुघ्न जी और हनुमान जी में श्रद्धा हो ।  बिना श्रद्धा और विश्वास के बात नहीं बनती । इतना तो बहुत जरूरी है । आरम्भ में इतना ही करें तो भी काम बन जाता है । फिर भी यदि और आगे बढ़ना हो तो दूसरी अवस्था में-‘जो यह कथहिं सनेह समेता । कहिहैं सुनिहैं समुझि सचेता’ का अभ्यास करने से और फल मिलता है और मन श्रीरामानुरागी बन जाता है ।


 इस प्रकार श्रद्धा और विश्वास से युक्त होकर जब हम श्रीरामचरितमानस जी की शरण में जाएँगे तब हमें अवश्य ही समुचित फल मिलेगा । जितनी श्रद्धा होगी, जितना विश्वास होगा और जितना प्रेम होगा उसी के अनुरूप लाभ होगा ।


आज के समय में लाभ सबको चाहिए, फल सबको चाहिए लेकिन बिना श्रद्धा और विश्वास के ही मिल जाय तो बात ही क्या ? सबको चमत्कार चाहिए । अभी कोई घोषणा कर दे कि मैं यह चमत्कार कर सकता हूँ अथवा कर चुके हैं और यह कर देंगे अथवा वह कर देंगे तो लोग भीड़ लगा लेते हैं । सबको जल्दी है ।


कई लोग जो न तो श्रीरामचरितमानस जी में श्रद्धा और विश्वास रखते हैं न गोस्वामीजी में ही श्रद्धा और विश्वास रखते हैं, कई तो राम जी में भी नहीं रखते और इसके बावजूद रामशलाका प्रश्नावली से भाग्य अथवा कोई प्रश्न करके उसका उत्तर देखने लग जाते हैं । ऐसे लोंगो को सही उत्तर कैसे मिलेगा ? इसलिए निराशा ही हाथ लगती हैं ।  उसके बाद कहेंगे कि प्रश्नावली वैसे ही दे दी गई है ।

पहले श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न करना चाहिए और श्रीरामचरितमानस जी से जुड़ना चाहिए फिर राम जी की कृपा देखनी चाहिए जिसके बाद भाग्य और उत्तर जानने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी । नहीं रह जाती । मैंने सुना है, देखा है और मेरा स्वयं का अपना अनुभव है कि श्रीरामचरितमानस जी से जीवन बदल जाता है  


                                                   
।। जय श्रीसीताराम ।।

_________________________________







बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

सत्य सनातन आदि धर्म के एक छुपे हुए रहस्य का श्रीरामचरितमानस में उदघाटन

भगवान शंकर जी त्रिदेवों में से एक और महादेव हैं । ये भोले नाथ हैं । भोले हैं इसलिए सहज ही कृपा किया करते हैं । कहते हैं कि बिना इनकी कृपा के जीव श्रीरामानुरागी नहीं बनता है । क्यों न हो शंकर जी स्वयं बहुत बड़े श्रीरामानुरागी हैं । वैष्णव हैं । यह सिद्धांत है । काशी में मरने वालों को भी श्रीराम तारक मंत्र का उपदेश देकर शंकर जी तारते हैं ।


कई लोग कहते हैं अथवा कह देते हैं कि शैव और वैष्णव को एक करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में पहले भगवान शंकर जी की कथा को कहा है और बाद में भगवान राम की कथा को कहा है । लेकिन ऐसा नहीं कहना चाहिए । क्योंकि ऐसा कहना गलत है । और गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य सनातन आदि धर्म के एक छुपे हुए रहस्य को श्रीरामचरितमानस जी में उदघाटित किया है ।


यह छुपा हुआ रहस्य क्या है ? यह रहस्य यही है कि श्रीराम जी के भक्त को शिव विरोधी नहीं होना चाहिए और श्रीशिव जी के भक्त को श्रीराम विरोधी नहीं होना चाहिए । और बिना शिव जी की कृपा के राम जी की भक्ति नहीं मिलती । इस बात को गोस्वामीजी ने स्पष्ट किया है ।


जब कोई राम भक्ति के मार्ग में बढ़ता है तो इसमें कहीं न कहीं शिव जी की कृपा होती है । यहाँ तक जब कोई राम भक्ति से सम्बंधित अथवा राम जी के लिए कोई काव्य रचना करता है तो उसे भी श्री शंकर जी का अनुग्रह प्राप्त होता है । हो सकता है कि उसे राम जी का अनुग्रह बाद में मिले लेकिन शंकर जी का अनुग्रह पहले ही मिल जाता है । शास्त्र में इसका प्रमाण है । और मैंने स्वयं इस बात का अनुभव कर लिया है ।


सब लोग जानते हैं कि श्रीरामरक्षा स्त्रोत की रचना श्रीविश्वामित्र जी ने किया है । लेकिन विश्वामित्र जी ने स्वयं लिखा है कि जैसा शंकर जी ने स्वप्न में कहा प्रातः काल जगने पर मैंने वैसा ही लिख दिया । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- ‘सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौ हर गौरि पसाउ’ । अर्थात स्वप्न में भी और प्रत्यक्ष भी माता पार्वती और भगवान शंकर जी की कृपा गोस्वामी तुलसीदास जी पर हुई थी । इतना ही नहीं शंकर जी की कृपा से ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस जी के कवि बने हैं- शंभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी । रामचरितमानस कवि तुलसी 


शंकर जी वैष्णव हैं इसलिए इनका प्रेम श्रीविष्णु जी से है और श्रीकृष्ण जी से भी है लेकिन इनका राम जी से अनूठा प्रेम है । 



शंकर जी राम प्रेम के वश होकर ही स्वयं वानर बन गए । अपने शिव स्वरूप में वे पिता, पति और शिव गणों के स्वामी आदि हैं । इसलिए शंकर जी ने विचार किया कि ऐसा कुछ करें कि केवल और केवल राम जी के बनके रहें इसलिए ही शंकर जी वानर बन गए और हनुमान कहलाए-



जेहि शरीर रति राम से सोइ आदरहिं सुजान ।
रुद्र देंह तजि नेह बस वानर भे हनुमान ।।




।। जय श्रीहनुमानजी ।।


मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

साधु और बहुरूपिया (नाममात्र को साधु) को कैसे पहिचाने ?

आजकल साधु वेष में कई बहुरूपिये चारों दिशाओं में छाए हुए हैं । ऐसे में प्रश्न उठता हैं कि कैसे पहिचानें कि कौन साधु है और कौन बहुरूपिया है । बहुरूपिया चारों दिशाओं में छाए हुए हैं और ऐसे-ऐसे कृत को अंजाम देते हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता -


नाम मात्र को साधु बहु रहे चहूँ दिस छाय ।

रामदास करनी करैं सो बरनी नहि जाय ।।


बहुरूपिये केवल नाम मात्र को साधु होते हैं । ये साधू होते नहीं हैं साधू बने होते हैं । इन्हें बना साधू कहते हैं । इनमें साधुता नहीं होती है और ये छल कपट से परिपूर्ण होते हैं-

नाम मात्र को साधु जो बना साधु कहलाँय 
रामदास बिनु साधुता कपटी छली अघाय ।।

ये जप, तप भी केवल नाम के लिए करते हैं और खुश होकर फोटो खिचवाते हैं जिससे लोंगो को दिखा सकें, बता सकें कि ये बहुत जप तप करने वाले हैं ।अथवा कर चुके हैं । मतलब राम जी के बजाय दुनिया को रिझाने पर इनका ज्यादा जोर होता है । राम जी रीझें या नहीं बस दुनिया के लोग रीझ जाएँ तो इनका काम बन जाता है -


जप तप करते नाम को छाया मुदित खिचाय ।
रामदास नहि राम को दुनिया रहे रिझाय ।।


बहुरूपिया लोग रात-दिन छल और कपट में लगे रहते हैं । तरह-तरह के छल-कपट करते हैं । ये मायावी होते हैं । इनकी नाना तरह की माया को देखकर लोग मूर्ख बन जाते हैं । अर्थात ये जो लोंगो को फसाने के लिए तरह-तरह के तिकडम करते है उससे प्रभावित होकर लोग इन्हें बड़ा भक्त और साधु मानने लग जाते हैं और इस प्रकार इनके द्वारा ठगे जाते हैं -


रामदास छल कपट बहु करत दिवस अरु रात ।
देखि देखि माया घनी जग मूरख बनि जात ।।


साधू और संतों की अनंत महिमा है । सदग्रंथ इनकी महिमा को बताते हैं । ये स्वयं तरे होते हैं अथवा स्वयं तो तरते ही हैं । दूसरों को भी तारते हैं । और जो लोग जाकर मिलते हैं । इनकी चरण सन्निधि प्राप्त करते हैं उन्हें ये राम जी को दिखला देते हैं अथवा मिलने का उपाय बता देते हैं -


साधु संत महिमा अमित ग्रंथ रहे बतलाय
तरे तारते जा मिले रामहिं देत लखाय ।।


जो लोग साधू से जुड़ते हैं । साधू उन्हें रामजी से जोड़ देते हैं । इन्हें रामजी के अलावा और किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं होता है । इनको और किसी से कुछ लेना देना नहीं होता है । जो लोग बेराम होते हैं उन्हें साधु से मिलने पर आराम मिल जाता है । अर्थात जो लोग राम जी से बिमुख हैं , दूर हैं उनके जीवन में भी राम जी आ जाते हैं और राम जी के आ जाने से उनका जीवन भी आनंदमय हो जाता है –


साधु जोड़ते राम से नहीं और से काम ।
रामदास बेराम को साधु मिले आराम ।।


साधु के गुण, उनकी रहनी का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता हैं । इनका हर काम राम जी से जुड़ा होता है । बहुरूपियों का ठीक इसके विपरीति होता है । धन, धाम और काम से जुड़ा होता है । जैसा इनका नाम बहुरूपिया है ठीक इसी के अनुरूप इनके पास रुपया-पैसा भी बहुत अधिक होता है । जबकि साधु जन के पास रुपया पैसा ज्यादा होता नहीं है । इसप्रकार बहुरूपिए साधुता और साधु जन दोंनो को लज्जित करने का काम करते हैं-


रहनी साधू की कही काहू से नहिं जाय
रामदास साधू बने साधुन रहे लजाय ।।


बहुरूपिए अपने को ही सब कुछ कहते हैं बताते हैं । अपने भक्तों से कहते हैं कि किसी और से तुम्हें कोई काम नहीं है, जरूरत नहीं है क्योंकि सबकुछ मैं ही हूँ । लेकिन इनको संसार से ही काम होता है  साधु अपने से जुड़े हुए लोंगो से कहते हैं कि तुम्हें और किसी से कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए । होना चाहिए तो राम जी से । लेकिन बहुरूपिए कहते हैं कि प्रयोजन सिर्फ मुझसे होना चाहिए । इतना ही नहीं बहुरूपिए कहते हैं कि हम राम जी से भी, सारे संसार से बड़े हैं अथवा हम ही राम हैं, तूँ सदा इस तरह ही हमें देखा कर तो तेरा कल्याण हो जाएगा-


अपने को सर्बस कहैं जग से इनको काम ।
रामदास साधू बने जगत बड़े हम राम  ।।


बहुरूपियों को राम जी से कोई लेना देना नहीं होता है । इन्हें लेना देना सिर्फ धरा, धन और धाम से होता है । अपने भक्तों का सबकुछ-घर,खेत, धन आदि अपना कर लेना चाहते हैं । इनके चक्कर से वो ही लोग बच सकते हैं जिन्हें राम जी स्वयं कृपा करके बचा लें अन्यथा बचना मुश्किल होता है-



नहि मतलब कछु राम से चहैं धरा धन धाम ।
रामदास वो ही बचैं जिन्हें बचावैं राम ।।


साधु भी धरा, धन और धाम चाहते हैं और बहुरूपिए भी । लेकिन अंतर यह है कि साधु राम जी की धरा (जैसे अयोध्या, चित्रकूट और वृंदावन आदि ) चाहते हैं । साधु राम रतन धन (पायों री मैंने राम रतन धन पायों ) चाहते हैं, राम जी को अपना जीवन धन बनाना चाहते हैं । साधु राम जी का धाम जैसे अयोध्या धाम चाहते हैं और शरीर संसार से विदा लें तो साकेत धाम चाहते हैं । लेकिन बहुरूपिए सारे संसार की धराको, धन और धाम को अपने नाम करा लेना चाहते हैं-

साधु चहैं सब राम का धरा और धन धाम ।
रामदास साधू बना जग का अपने नाम ।।


बहुरूपिए अर्थात जो साधू नहीं हैं पर साधू बने हैं, जब मरने के बाद ऊपर जाएँगे तब देवता लोग कहेंगे कि मनुष्य जीवन सत्कर्म करने के लिए मिला था । रामजी की भक्ति करने के लिए मिला था । लेकिन तुमने तो सब कुछ बेकार कर दिया । अनमोल जीवन ऐसे ही गवां कर चले आए । तब ये लोग देवताओं को भी डांटकर बोंलेगे कि तुम्हें कुछ दिखता भी है पता भी है-


अंत समय सुर बोलिहैं जीवन दियो गवाँय ।
रामदास तब डांटिहैं तुमको नहीं लखाय ।।


हम मूर्ख थोड़े हैं  । हमारे हाथ में सबूत है । हमने बहुत जप और तप किए हैं । किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई झूठ कह दे । क्योंकि हम जब भी जप, तप करते थे तो चित्र खिचवाने की पूरी व्यवस्था रखते थे-


रामदास मूरख नहीं हमरे हाँथ सबूत ।
पूजा जप तप बहु किये झूठ कहै को बूत ।।


छल-कपट से, माया से, तिकड़म से, चित्र खिचवाने से दुनिया भले ही रीझ जाए लेकिन राम जी रीझने वाले नहीं हैं । ऐसे में बिना राम जी के रीझे क्या होने वाला है ? क्या यही जीवन का उद्देश्य है ? बहुरूपिए यह जानते हैं कि राम जी ऐसे नहीं रीझेंगे फिर भी वे दुनिया को रिझाने में लगे रहते हैं । एक रास्ता राम की ओर जाता है और एक दाम की ओर (दुनिया को रिझाने से धरा, धन. धाम और  दाम ही तो मिलता है) । लेकिन बहुरूपिए राम जी की ओर जाने की बजाय दाम की ओर जाते हैं । राम और दाम के बीच दाम का चुनाव करते हैं । जबकि साधु जन राम जी का ही चुनाव करते हैं । क्योंकि वे उस रास्ते पर चलते हैं जो राम जी की ओर जाता है-


जग रीझा तो क्या हुआ रीझे नहि जो राम ।
रामदास चुनने लगे राम दाम बिच दाम ।।



।।  जय श्रीसीताराम ।।



(सभी दोहे दोहा संग्रह-‘मानव माने होय’ से लिए गए हैं । )




रविवार, 15 अक्तूबर 2017

सेवा धरम के ह्रास और गोकशी होने से गाय की दुर्दशा

गाय की दुर्दशा  

         
मनुज नहीं अब मानते गो आदिक भगवान 
रामदास बस हो गए मान और अभिमान ।।


बड़ी दुर्दशा गाय की गाय रही बिलखाय 
रामदास सेवा धरम दिन-दिन रहे नसाय ।।


गौ माता रो-रो कहैं देखो मेरा हाल ।
रामदास जब दूध हो तब लेते सब पाल ।।


रामदास जब दूध नहिं दूर करैं ततकाल ।
जाऊँ तो जाऊँ कहाँ देते लोग निकाल ।।


पीने को नहिं जल मिलै चरने को नहिं घास ।
रामदास भरे नयन जल कहती गाय निरास ।।


रामदास बिनु ठौर के रहूँ जाय किस ओर ।
जंगल भी अपना लिए गोचर भू बरजोर ।।


धरम बिरोधी गाय के बसे नहीं किस ठोर ।
रामदास अब गोकसी रात-दिवस चहुँ ओर ।।


दया धरम सुनते नहीं खल देते हैं काट ।
रामदास रो-रो लखैं राम कृष्ण की बाट ।।


अजा सरिस गति गाय की अब वरनी नहि जाय ।
रामदास कहते कई भेद नहीं दिखलाय ।।


भारत जैसे देश में गोवध बड़ा कलंक 
रामदास मिटते मिटै भारत भाल कुअंक ।।

राम कृष्ण की पूज्य है ग्रंथ रहे सब गाय ।
रामदास महिमा अमित गाय गए जग जाय ।।


।।  जय श्रीसीताराम ।।


(सभी दोहे दोहा संग्रह-‘मानव माने होय’ से लिए गए हैं । )


लगभग ८-१० वर्ष पूर्व ‘गाय की पीड़ा’ नामक एक छोटी कविता भी लिखा था जिसे सोशल साईटस पर व अन्यत्र लोंगो ने पोस्ट कर रखा है ।

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

अयोध्याजी में राजा दशरथजी के यहाँ पुत्र रूप में प्रगट होने से पहले रामजी और कहाँ प्रगट हुए थे

भगवान अनादि हैं नित्य हैं । उनका नाम नित्य है । गुण नित्य हैं । और लीला नित्य हैं । भगवान कण-कण में हैं । भगवान व्यापक हैं । व्याप्य हैं । अर्थात भगवान व्यापक होकर भी व्याप्य हैं । वेद, पुराण, रामायण, श्रीरामचरितमानस और अन्यान्य सद्ग्रंथों में वर्णन है कि राम जी अयोध्याजी में राजा दशरथ के यहाँ प्रगट हुए थे । प्रगट होकर साधु, संत, सुर, नर, मुनि आदि के लिए रामजी ने लीला किया । लेकिन अयोध्याजी में राजा दशरथ के यहाँ प्रगट होने के पूर्व भी राम जी भारत में प्रगट हुए थे । चूँकि राम जी अनादि हैं, नित्य हैं, व्यापक और व्याप्य हैं और इसलिए कहीं भी और कभी भी प्रगट हो सकते हैं ।



  अयोध्याजी में राम जी दशरथ-कौशल्या जी के पुत्र के रूप में प्रगट हुए  । और अयोध्याजी को रामजी की जन्म भूमि होने का गौरव प्राप्त हुआ । श्रीरामचरितमानस जी में राम जी ने स्वयं कहा है कि सुंदर अयोध्या पुरी मेरी जन्म भूमि है जिसके उत्तर दिशा में पवित्र सरयू नदी बहती है ।



जनम भूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिशि बह सरजू पावन ।।



अयोध्या जी में जन्म लेने से पूर्व राम जी सीता जी के साथ मनु जी और शतरूपा जी को वरदान देने के लिए नैमिषारण्य में प्रगट हुए थे । नैमिषारण्य जो आज के उत्तर प्रदेश के सीतापुर जनपद में हैं, मनु जी और शतरूपा जी राम जी को पुत्र रूप में प्राप्त करने के लिए यहाँ तपस्या कर रहे थे । तब सीताजी के साथ प्रगट होकर राम जी ने वरदान दिया था कि जब आप अयोध्या जी में दशरथ जी और कौशिल्या जी के रूप में जन्म लोगे तब मैं आपका पुत्र बनूँगा ।



इस प्रकार अयोध्या जी में जन्म लेने से पूर्व राम जी मनु जी और शतरूपा जी को वरदान देने के लिए नैमिषारण्य में  प्रगट हुए थे ।



।।  जय श्रीसीताराम ।।


____________________________________  



शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

श्रीरामचरितमानस में कृत्रिम वर्षा का सूत्र :बादल की संरचना व निर्माण का वर्णन

आज के समय में आर्टिफिशियल रेनिंग (कृत्रिम वर्षा) के बारे में पढ़े-लिखे लोग जानते हैं अथवा कभी-कभार सुनते हैं । कृत्रिम वर्षा के लिए बादल की संरचना व निर्माण विधि जानना जरूरी है बिना इसके कृत्रिम वर्षा संभव नहीं है । यहाँ हम यह बताना चाहते हैं कि बादल की संरचना व निर्माण का वर्णन श्रीरामचरितमानस जी में दिया गया है ।



हमने इस ब्लॉग के कई लेखों में कई वैज्ञानिक अथवा गणितीय तथ्य का जिक्र किया है और साथ ही बताया है कि सनातन धर्म के सद्ग्रंथो में भी इन बातों का उल्लेख है । अपनी पुस्तक –‘भगवान की खोज’ में कई वैज्ञानिक तथ्यों और उसके अध्यात्मिक पहलू को समाहित कर चुके हैं । यह पुस्तक इस ब्लॉग के कुछ लेखों का ही संकलन है । कहने का मतलब यह है कि सनातन धर्म के मूल सिद्धांत वैज्ञानिक हैं जैसा कि ब्लॉग के परिचय में ही कहा गया है ।



श्रीरामचरितमानस जी के अनुसार धूम्र ( आज की भाषा में कार्बन डाई आक्साइड-कार्बन ), हवा (आज की भाषा में ऑक्सीजन), अग्नि (आज की भाषा में ताप-टेम्प्रेचर) और पानी बादल के घटक हैं । अर्थात इनसे मिलकर ही बादल का निर्माण होता है ।



श्रीरामचरितमानस जी में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है कि बादल इन्ही चार तत्वों का संघनित रूप है । इनके संघनन से बादल बनकर वर्षा करते हैं और सारे संसार को जीवन देते हैं-



सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ।।





।।  जय सियाराम ।।







रविवार, 1 अक्तूबर 2017

रामजी किसका संग्रह करते हैं ?

साधु और सदग्रंथ कहते हैं कि जिसे निराशा ने घेर लिया हो, उदास हो गया हो, कहीं से भी और कोई भी आशा न रह गई हो उसे भी राम जी मान और सम्मान देते हैं और दया करके अपने पास रख लेते हैं । जबकि सामान्यतया ऐसे व्यक्ति को कोई पास नहीं रखना चाहता । पास रखना तो दूर कोई बोलना तक, बात करना तक नहीं चाहता और न ही उसका अथवा उससे कुछ सुनना ही चाहता है । लेकिन इस स्थिति में भी राम जी उस पर दया करते हैं- ‘निराश उदास नहीं जेहिं आस । राखत राम दया करि पास ।।



दीन हीन पर दया करना राम जी का स्वभाव है, वाना है । यह उनकी रीति है । क्योंकि दीनों पर उनकी सहज प्रीति है । करुणा है । दीन हीन पर सहज प्रीति के कारण, शील गुण के कारण राम जी दीन जन का संग्रह करते हैं और उन्हें अपने धाम में बसा लेते हैं-


प्रीति पुनीति रीति रघुवर को साधु सदग्रंथ बतावत हैं ।
दीन मलीन नहीं जग गाहक निज पुर राम बसावत हैं ।।
दीन संग्रही श्रीरघुनायक कबहुँ न नेह घटावत हैं ।
दीन मलीन संतोष सरीखे गुनगन सुनि बल पावत हैं ।।



 इस प्रकार अपने प्रीति, रीति और शील गुण के चलते रामजी दीन जन का संग्रह करते हैं ।




।।  जय श्रीसीताराम ।।








चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

______________________________


।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

______________________________


लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

___________________________________________

विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

_________________________________________

प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

_________________________________

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

____________________________________________

भगवान की तलाश

___________________________________

सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

___________________________________

भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

___________________________________

भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

___________________________________

संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

__________________________________




रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

__________________________________________

।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

_________________________

।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

______________________________


श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

______________________