सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शनिवार, 31 दिसंबर 2022

संसार साथ छोड़ देता है लेकिन रामजी सदा साथ निभाते हैं

 संसार का सब कुछ अर्थात सारा संसार एक दिन बिछुड़ जाता है, नहीं बिछुड़ते हैं तो एक मात्र रामजी । राम जी जन्म से लेकर मरण तक और उसके बाद भी साथ निभाते हैं । इस प्रकार संसार तो बिछुड़ जाता है लेकिन मेरे रामजी कभी नहीं बिछुड़ते हैं 

 

इतना ही नहीं कोई पहले तो कोई बीच में साथ छोड़ जाता है । और अंत में तो कोई साथ में नहीं ठहरता है और न ही कोई ठहरता है अर्थात सबको संसार छोड़कर जाना पड़ता है । 


रामजी सभी के आदि, मध्य और अंत के साथी हैं लेकिन मन राम जी के चरण को न पकड़कर संसार को ही पकड़ता है । संसार को जबरन पकड़ता है और लोभ, मोह की रस्सियों में जकड़ लिया जाता है । संसार में जिसे पकड़ो वह वैसे ही छूट जाता है, निकल जाता है जैसे मुट्ठी में पकड़ा हुआ जल ।

 

संसार रूपी चक्की के दो पाटे हैं एक का नाम सुख और दूसरे का नाम दुख है । इंही दो पाटों के बीच में पिस-पिस कर जीव चौरासी का चक्कर लगाता रहता है ।

 

ऐसी स्थिति में कोई बिना कृपासिंधु भगवान रघुनाथ जी की कृपा के और किस बिधि से निकल सकता है ? अतः हे मेरे मन अब तो तूँ सीताराम जी के सुखदायक चरणों को मत भुला ।


ऐसा कौन है जो रामजी के गुणों और उनकी करनी को याद कर-करके भवसागर से पार न हो जाए अर्थात कोई भी ऐसा नहीं है जो रामजी के गुणों और उनके चरित्र का चिंतन करके भव सागर से पार न उतर जाए । दीन जनों की बिगड़ी तो रामजी की कृपा से ही सुधरती आई है और सुधरती है । ऐसे में मुझ दीन की भी बिगड़ी रामजी की कृपा से बन जायेगी- 


जग बिछुरै एक राम न बिछुरैं

आदि मध्य अरु अंत के साथी राम चरन नहिं पकरै ।।१।।

कोउ पहले कोउ बीच में छोड़ै अंत संग नहिं ठहरै 

जग में जाइ जगत हठि पकरै लोभ मोह रजु जकरै ।।२।।

जो पकरै सो हाथ से जाए मूठी जल जिमि निसरै ।

भवचक्की सुख दुख दो पाटे पिस-पिस चौरासी टहरै ।।३

कृपासिंधु रघुनाथ कृपा बिनु केहि बिधि कोउ पुनि निकरै ।

सीताराम चरन सुखदायक अब जनि रे मन बिसरै ।।४

सुमिर-सुमिर रघुपति गुन करनी कोउ नहिं भवनिधि उतरै 

दीन संतोष राम कृपा ते दीन जनन की सुधरै ।।५।।

 

।। जय श्रीसीताराम ।।

सोमवार, 26 दिसंबर 2022

रावण की मूर्खता- ‘मूरख रघुपति शत्रु कहावत’

 रावण को लोग भले ही विद्वान कहते और समझते हों लेकिन वह बड़ा मूर्ख भी था । यहाँ पर रावण की मूर्खता को सूरसागर के माध्मय से बताया जा रहा है । प्रसिद्ध संत और भक्त श्रीसूरदास जी महाराज अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सूरसागर जी में कहते हैं कि अंगद जी ने रावण से कहा कि तूँ तो बड़ा मूर्ख है । और इतना बड़ा मूर्ख है कि स्वयं को रघुपति भगवान श्रीराम का शत्रु कहता और कहलवाता है ।

 

   सूरदास जी कहते हैं कि अंगद जी ने कहा कि जिन रामजी के नाम-जप से, ध्यान से तथा स्मरण से करोड़ों यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है । तूँ उन रामजी का शत्रु कहलाता है ।

 

  देवर्षि नारद, सनकादि महामुनि, असुर श्रेष्ठ प्रहलाद तथा भक्त बलि जिनका स्मरण करते हैं, मन-वाणी से जिनका ध्यान करते हैं, वेद जिनके यश का गान ‘नेति-नेति’ कहकर करते हैं उन रामजी को अपना शत्रु कहलाता है ।

 

सूरदास जी आगे कहते हैं कि अंगद जी ने कहा कि तूँ अपने को लंकेश कहलाता है । और आगे भी कहलाता रहे इसके लिए केवल एक ही रास्ता है- ‘भगवान श्रीराम की शरणागति’ । तुम जाकर उन कोशलपति भगवान से मिलो, जो शरणागतों के मनोभिलाषा को पूर्ण करते हैं । श्रीसीताजी को देकर उन श्रीअवधेश के चरणों पर जा पड़ों । इस प्रकार लंकेश कहलाते रहो । और कोई उपाय नहीं है ।

 

  अर्थात जो तुम मूर्खता वश रामजी का शत्रु कहलाते हो अब लंकेश भी नहीं कहलाओगे । अगर चाहते हो कि आगे भी लंकेश कहलवाते रहो तो मूर्खता छोड़कर भगवान श्रीराम के चरणों की शरण ले लो ।

 

यहाँ पर सूरदास जी महाराज ने इस सिद्धांत को बताया है कि जो भगवान के विमुख है वह चाहे विद्वान कहलवाता हो पर मूर्ख ही है-

 

मूरख रघुपति-सत्रु कहावत ?

जाके नाम, ध्यान, सुमिरन तें, कोटि जग्य-फल पावत ।।

नारदादि, सनकादि महामुनि सुमिरत मन-बच ध्यावत ।

असुर-तिलक प्रहलाद, भक्त बलि, निगम नेति जस गावत ।।

 

।। जय श्रीराम ।।   

रविवार, 11 दिसंबर 2022

हे रामजी स्वयं कह दीजिए अथवा किसी के द्वारा कहलवा दीजिए कि मैं आपका हूँ

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज भगवान श्रीरामजी से कहते थे कि हे नाथ आप केवल एक बार कह दो कि तुलसीदास मेरा है । बस इतने से ही मेरी बिगड़ी बन जायेगी । मुझे और कुछ पाना शेष नहीं रह जायेगा ।

 पिछले पोस्ट में-कह्यो सो बहुरि कह्यो नहिं रघुवर  में बताया गया है कि रामजी कोई बात एक बार ही बोलते हैं । और रामजी जो बोलते हैं वह हो जाता है । इसलिए गोस्वामी जी कहते थे कि हे नाथ आप बस एक बार कह दो कि तुलसीदास मेरा है ।

 

 जिसे राम जी कह देंगे कि यह मेरा है वह तो रामजी का हो ही जाएगा । और जो रामजी का हो जायेगा उसे फिर क्या पाना शेष रह जायेगा ।

 गोस्वामीजी कहते थे कि हे नाथ यदि मेरे दोषों, अवगुणों, पाप आदि को देखकर, जानकर आप को मुझसे कहने में संकोच हो रहा हो तो आप स्वंय न कहकर किसी और से कहलवा दीजिए कि तुलसीदास मेरा है ।

 अब रामजी स्वयं कहें अथवा किसी और से कहलवा दें तो बात तो एक हुई । रामजी के कहने से भी बात बन जाएगी । ठीक इसी तरह से  किसी दूसरे से कहलवा देने से कि तुलसीदास मेरा है तो भी बात बन जाएगी ।

रामजी किसी को कह दे अथवा किसी और से कहलवा दें कि तूँ मेरा है तो इसका मतलब है कि रामजी ने उसे अपना लिया है, अपना बना लिया है । जिसे रामजी अपना बना लें उसे और फिर क्या चाहिए ? रामजी ने गोस्वामीजी की प्रार्थना स्वीकार करके उन्हें अपना बना लिया था ।

 

  जीवन में भजन, साधन, सत्संग, जप, तप आदि का फल क्या है ? यही तो कि राम जी हमें अपना बना लें । यदि यह नहीं हो पाया तो समझो कुछ नहीं हुआ । कुछ नहीं हो पाया । केवल परिश्रम ही हाथ लगा 

हम सबकी भी यही पार्थना होनी चाहिए कि हे रामजी आप हमें भी अपना बना लो ।

 

मेरी अपने नाथ श्रीरघुनाथ जी के चरणों में यही पार्थना है कि हे नाथ आप स्वयं कह दीजिए अथवा किसी और से ही कहलवा दीजिए कि दीन संतोष मेरा है ।

 

  ।। जय श्रीराम ।। 

रविवार, 4 दिसंबर 2022

कह्यौ सो बहुरि कह्यौ नहिं रघुबर (सूरसागर)- रामो द्विर्नाभिभाषते (वाल्मीकि रामायण)

 भगवान श्रीराम के गुण अनेकों ग्रंथों में वर्णित हैं । एक बात बहुत प्रसिद्ध है कि राम जी कोई बात दो बार नहीं बोलते । इसका मतलब क्या है ? इसका मतलब है कि रामजी के एक बार बोलने से ही जो बोलते हैं वह हो जाता है । इसलिए रामजी को एक बात दो बार बोलने की जरूरत नहीं पड़ती है ।

  जो अज्ञानी हो अथवा जो सोच-बिचार कर न बोलता हो उसे दो बार या अधिक बार बोलने की जरूरत हो सकती है । कही हुई बात में संशोधन करने की जरूरत पड़ सकती है । लेकिन जो ज्ञान-विज्ञान स्वरूप ही है उसे दो बार बोलने की जरूरत ही नहीं है ।

 

  ऐसे ही जो सामर्थ्य हीन है उसे एक बात को एक बार से अधिक बार बोलने की जरूरत पड़ती है । लेकिन जो सर्व सामर्थ्यवान है उसे एक बात को दो बार बोलने की जरूरत नहीं पड़ती ।

 

 इसी तरह से जो झूठ बोलता हो उसे अपनी बात घुमा-फिराकर अथवा एक बात को  एक बार से अधिक बार बोलने की जरूरत पड़ सकती है । लेकिन जो सत्य स्वरूप ही है उसे एक बात को दो बार बोलने की जरूरत कहाँ है । राम जी ने सत्य बोलने का व्रत ले रखा है । वे सदैव सत्य ही बोलते हैं । रामजी सत्य का दृढ़तापूर्वक पालन करते है । और रामजी को सत्य बहुत प्रिय है । रामजी को सत्य बोलने वाले भी बहुत प्रिय होते हैं । सत्यसंध, सत्यव्रत, सत्यविक्रम, सत्यप्रिय आदि भगवान श्रीराम के नाम हैं । राम जी का एक नाम सत्यवाक् अर्थात सत्यवादी भी है । इसीतरह रामजी का एक नाम सत्यसंकल्प भी है । अर्थात राम जी जो संकल्प कर लेते हैं वह सत्य हो जाता है । वह कभी निष्फल नहीं होता है । इसलिए रामजी को एक बात दो बार बोलने की जरूरत नहीं पड़ती ।

 

  जिसने जो बोल दिया और वह हो गया तो फिर उसे दो बार बोलने की जरूरत कहाँ है । रामजी जो बोल देते हैं वह हो जाता है इसलिए भी राम जी एक बात को दो बार नहीं बोलते हैं । श्रीवाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि जी कहते हैं कि- ‘रामो द्विर्नाभिभाषते’ ।

 

   इसी बात को सूरदासजी महाराज सूरसागर में कहते है कि-

 

आइ बिभीषन सीस नवायौ ।

देखतहीं रघुबीर धीर, कहि लंकापती बुलायौ ।।

कह्यौ सो बहुरि कह्यौ नहिं रघुबर, यहै बिरद चलि आयौ ।

भक्त-बछल करुनामय प्रभु कौ, सूरदास जस गायौ ।।

 

 अर्थात जब विभीषण जी ने आकर राम जी को प्रणाम किया, तब उन्हें देखते ही धीर बीर रघुबीर रामजी ने उन्हें लंकापति कहकर बुलाया सूरदास जी कहते हैं कि रामजी का यह विरद चला आ रहा है कि उन्होंने जो एक बार कह दिया उसे दुबारा कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी अर्थात एक बार कहते ही वह कार्य पूर्ण हो गया । विभीषण जी को रामजी ने लंकपति कहकर बुलाया और लंका बिभीषण जी की हो गई । सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे भक्तवत्सल करुणामूर्ति स्वामी भगवान श्रीराम का मैं यशोगान करता हूँ ।

 

 ।। जय श्रीराम ।।

 

सोमवार, 28 नवंबर 2022

मंगल मूल सगुन दिन आवा- सूर अमित आनंद जनकपुर

अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को विवाह पंचमी भी कहा जाता है । क्योंकि आज के दिन ही भगवान श्रीसीताराम जी का विवाह सम्पन्न हुआ था ।

 

 सबको पता है कि जनकपुर में बरात पहले पहुँच चुकी थी । लेकिन जब मंगल मूल और समस्त सगुनों से परिपूर्ण हेमंत रितु के अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि आई तब भगवान श्रीसीताराम का विवाह सम्पन्न हुआ-

मंगल मूल सगुन दिन आवा । हिम रितु अगहन मास सुहावा ।।

-    श्रीरामचरितमानस ।

 

तभी से आज के दिन संत और भक्त विवाह महामहोत्सव मनाते हैं । मिथिला-जनकपुर में तो विशेष उत्सव होता ही है । पूरे देश में भगवान श्रीराम के मंदिरों में विवाह पंचमी का आयोजन होता है ।

 

 सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्रीसीताराम के विवाह के समय जनकपुर में बहुत-अमित आनंद हुआ जिसका गायन श्री सुकदेव जी ने पुराणों में किया है-

 

सूर अमित आनंद जनकपुर, सोइ सुकदेव पुराननि गायो ।

-    सूरसागर ।

 

सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्रीराम ने दूल्हा बनकर श्रीजनकनंदिनी का  पाणिग्रहण करके उन्हें सुख प्रदान किया । यह सुनकर देव गण जय हो, जय हो ऐसा जय घोष करने लगे । जनकपुर के सभी नर नारी प्रेम में मग्न हो गए-

पानि-ग्रहन रघुवर बर कीन्ह्यौ, जनकसुता सुख दीन ।

जय-जय धुनि सुनि करत अमरगन, नर-नारी लवलीन ।।

-    सूरसागर ।

 

विवाह के उपरांत दशरथ जी चारों पुत्रों, चारों पुत्र बधुओं आदि के साथ आनंद मग्न होकर अवधपुर आ गए । सभी को बहुत सुख मिला रहा है । कौसल्यादि माताएँ थाल सजाकर आरती कर रही हैं । यह सुख देखकर देवता, मनुष्य, मुनिगण सभी आनंदित हो रहे हैं । सूरदास जी महाराज इस सुख पर स्वयं बलिहार हो रहे हैं-

 

कौसिल्या आदिक महतारी, आरति करहिं बनाइ ।

वह सुख निरखि मुदित सुर नर मुनि, सूरदास बलि जाइ ।।

-    सूरसागर ।

 

।। विवाह पंचमी की बधाई ।।

रविवार, 20 नवंबर 2022

श्रीकष्टभंजन देव हनुमानजी- जय जय जय कष्टभंजन हनुमान

भारत के गुजरात राज्य के बोटाद नामक जनपद में सारंगपुर नामक स्थान है । जिसे सालंगपुर भी कहा जाता है । यहाँ पर हनुमानजी महाराज ‘श्रीकष्टभंजन देव हनुमानजी’ के रूप में बिराजते है । यहाँ पर दूर-दूर से लोग श्रीकष्टभंजन देव के दर्शन और कष्ट से मुक्ति पाने के लिए आते हैं ।

  यहाँ पहुँचना बहुत आसान है । अहमदबाद से लगभग १७५ किलोमीटर की दूरी पर अहमदाबाद-भावनगर मार्ग पर सारंगपुर स्थित है । बोटाद से यह स्थान लगभग १५ किमी दूर है । बोटाद से सारंगपुर रात्रि में जाने पर रास्ता थोड़ा सुनसान पड़ता है । 

   अहमदाबाद से बस द्वारा तीन-चार घंटे में सारंगपुर पहुँचा जा सकता है । मंदिर के गेट पर ही बस दर्शनार्थियों को उतार देती है ।

  मंदिर कम्पाउंड के भीतर मंदिर के पास ही रहने-ठहरने के लिए उचित व्यवस्था है ।  एसी और नॉन एसी रूम उपलब्ध हैं । एक बहुत बड़ी भोजनशाला भी है । जहाँ सबको फ्री भोजन मिलता है । एक साथ कई सौ लोग भोजन करते हैं 


मंदिर प्रांगण में एक अच्छी कैंटीन भी है । जहाँ पेमेंट करके भोजन आदि प्राप्त किया जा सकता है । 

 

मंदिर प्रागंण बड़ा विस्तृत और सुंदर है । यहाँ का वातावरण दिव्य और शांत है । श्रीकष्टभंजन देव का दिव्य मंदिर दर्शनीय है । श्रीकष्टभंजन देव का दर्शन करके सुख प्राप्त होता है । सुबह की आरती का दर्शन भी करना चाहिए । मंगलवार और शनिवार को भीड़ अधिक होती है । बाकी दिनों में भी अनेकों लोग रोज दर्शन के लिए आते हैं-


जय जय जय कष्टभंजन हनुमान ।

क्रूर ग्रह भूतादि नियंता समरथ कृपानिधान ।।१।।

रामदूत सुंदर सब लायक महाबीर बलवान ।

हरि हर विधि सुनि गुन सुख पावत राम प्रेम धनवान ।२

महिमा अमित पार कोउ पावै सकै न कोई जान 

चारों युग प्रगट जश जागै तिहुँ पुर होत बखान ।।३।।

अंजना सुवन केसरीनंदन देत विमल मति ज्ञान ।

दुर्जन को जिमि काल कहावत राखत जन मन आन ।४

दिन प्रति लोग दरश हित आवत मन महुँ लिए अरमान ।

रोग दोष दुख सोच मिटावत जन हित परम सुजान ।।५

राम चरण अविरल रति दायक भवसागर जलजान 

दीन संतोष पवनसुत रीझे रीझत श्रीभगवान ।।६।।

 

 कष्टभंजन देव की जय   

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी की भगवद भक्ति

इस कलियुग में दो भगवद भक्त गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदास जी ऐसे हुए हुए हैं जिनके बारे में सामान्यतया सबको पता है ।

 

 यह बात भी सबको पता है कि ये दोनों भक्त अलग-अलग भगवद स्वरूपों को अपना ईष्ट मानते थे । गोस्वामी जी के ईष्ट भगवान श्रीराम और सूरदासजी के ईष्ट भगवान श्रीकृष्ण थे ।

 

  आजकल कई संत और भक्त ऐसे पाए जाते हैं जो तथ्य हीन बातें बताकर लोगों को गुमराह करते हैं । लेकिन न ही तुलसीदास जी ने और न ही सूरदास जी ने कभी किसी को गुमराह किया ।

 

दोनों भक्त अपने-अपने ईष्ट में अनुराग तो रखते थे लेकिन दूसरे को कम नहीं बताते थे । गोस्वामी जी ने लगभग ६१ पद ऐसे लिखे हैं जो पूर्णतया भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित हैं । इन ६१ पदों का संग्रह ही श्रीकृष्ण गीतावली नामक ग्रंथ के रूप में उपलब्ध हैं ।

 

  कुछ लोग मूर्खता वश ऐसा प्रचार करते हैं अथवा बोलते हैं कि जो लोग राम जी की भक्ति करते हैं वे बाद में कृष्णजी के भक्त बन जाते हैं । लेकिन यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि श्रीकृष्ण गीतावली गोस्वामी जी की अंतिम कृत नहीं है । गोस्वामी जी की अंतिम कृत विनय पत्रिका है । इसमें आया भी है कि ‘जिवन अवधि अति नेरे’

 

  गोस्वामी जी के ईष्ट तो रामजी थे लेकिन वे कृष्ण जी को भी राम जी का ही स्वरूप मानते थे । भेद नहीं करते थे । विनय पत्रिका जी में गोस्वामी जी रामजी से कहते हैं कि - ‘सुर मुनि बिप्र बिहाय बड़े कुल गोकुल जन्म गोप गृह लीन्हयो’ । 


हर कोई जानता है कि सूरदास जी आरंभ से ही भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे । लेकिन सूरदास जी ने भगवान श्रीराम को समर्पित २५० से अधिक पद लिखे हैं । अब कोई कहने लगे कि बाद में सूरदासजी राम जी के भक्त बन गए थे तो यह मूर्खता है । मूल बात क्या है कि सूरदास जी भी कृष्ण जी को राम जी को एक ही मानते थे ।


इसलिए ही सूरदास जी ने भगवान श्रीराम के लिए २५० से भी अधिक पद लिखे जो तुलसीदास जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति लिखे गए पदों से चार गुने से भी अधिक है । सूरदासजी द्वारा लिखे हुए भगवान श्रीराम को समर्पित पद सूर रामायण अथवा सूर राम चरितावली नाम से भी प्रसिद्ध हैं ।


 इस प्रकार तुलसीदासजी और सूरदासजी दोनों श्रेष्ठ भगवद भक्त थे । वे रामजी में और कृष्ण जी में भेद नहीं मानते थे । किसी को छोटा-बड़ा नहीं मानते थे । लेकिन आजकल मूर्खता वश कई लोग अनर्गल प्रलाप करते हैं ।

 

लेकिन यह सोचने और समझने वाली बात है कि आजकल क्या कोई तुलसीदासजी और सूरदासजी से भी बड़ा भक्त और संत है ? इसका एक ही जबाब है-नहीं । तो फिर अनर्गल प्रलाप करने की क्या जरूरत है ? लोगों को गुमराह करने की क्या जरूरत है ?

 

।। जय श्रीराम ।।

गुरुवार, 10 नवंबर 2022

कल्प-कल्प भरि एक एक नरका परहिं...

सनातन हिंदू धर्म में वेद सर्वोपरि हैं । वेद के सिद्धांत अर्थात वेद को मानने वाले को आस्तिक और जो वेद न माने उसे नास्तिक कहा गया है ।

 वेद आजकल भले ही पुस्तकाकार रूप में मिल जाते हों लेकिन वेदों की रचना किसी ने नहीं किया है अर्थात वेद किसी की कृति नहीं हैं । वेदों को स्वयं भगवान ने प्रगट किया है ।

 

  इसलिए वेदों की, वेद के सिद्धांतों की निंदा करना ऐसा पाप है जिसका फल भोगते रहे समाप्त ही नहीं होता है ।

 कई बार कुछ लोग वेद में वर्णित तथ्यों का गलत अर्थ लगा लेते हैं अथवा अज्ञानता बस कुछ उल्टा प्रचारित करने लगते हैं अथवा ऐसा कुछ बोलने लग जाते हैं जो वेद विरुद्ध होता है । जो कि गलत है ।

 पुराणों के अनुसार एक-दो नहीं अनेकों नर्क हैं । और जो लोग वेदों की निंदा करते हैं अथवा वेद विरुद्ध कुछ प्रचारित करते हैं उन्हें एक-एक नर्क में एक-एक कल्प तक रहना पड़ता है । एक कल्प का समय बहुत बड़ा होता है ।

 एक कल्प में एक हजार बार सतयुग, एक हजार बार त्रेता, एक हजार बार द्वापर और एक हजार बार कलियुग आता है । ऐसे में सोचने वाली बात है कि जिसको एक-एक कल्प एक-एक नर्क में रहना पड़ेगा उसका क्या होगा ? उसे कब मुक्ति मिलेगी कहना मुश्किल है । श्रीरामचरितमानसजी में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-

 

कल्प-कल्प भरि एक-एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

शनिवार, 5 नवंबर 2022

बड़े और छोटे भक्त क्रमशः छोटे और बड़े वृत्त की तरह और भगवान केंद्र विंदु की तरह होते हैं

बहुत पहले एक पोस्ट में समझाया गया था कि हम भगवान को एक विंदु मान सकते हैं । और इस विंदु को केंद्र विंदु मानकर हम अलग-अलग त्रिज्या के एक-दो नहीं बल्कि अनंत वृत्त बना सकते हैं । यह सामान्य गणित की बात है 

 

 जिस वृत्त की त्रिज्या जितनी बड़ी होगी वह वृत्त उतना ही बड़ा होगा और जो वृत्त जितना बड़ा होगा वह केंद्र विंदु से उतना ही दूर होगा ।

 

  इसी तरह जिस वृत्त की त्रिज्या जितनी कम होगी वह वृत्त उतना ही छोटा होगा और जो वृत्त जितना छोटा होगा वह उतना ही केंद्र विंदु के पास होगा ।

 

 कक्षा पाँच स्तर की गणित का ज्ञान रखने वाले भी इस बात को ठीक से समझ जाएँगे और अनुभव कर लेंगे कि जो वृत्त जितना बड़ा होता है केंद्र से उसकी दूरी भी उतनी ही अधिक होती है और जो वृत्त जितना छोटा होता है केंद्र से उसकी दूरी भी कम होती है । वृत्त का बड़ा अथवा छोटा होना उसकी त्रिज्या पर निर्भर करता है । जिसकी त्रिज्या बड़ी वह वृत्त बड़ा और जिसकी त्रिज्या छोटी वह वृत्त छोटा ।

 

इसमें एक रहस्य वाली बात यह है कि जिसकी त्रिज्या शून्य हो जाती है वह वृत्त केंद्र से एकाकार कर लेता है । अर्थात वह वृत्त केंद्र विंदु से मिलकर विंदु ही हो जाता है । यह भी सामान्य गणित की बात है 

 

जिस प्रकार यहाँ केंद्र विंदु भगवान है ठीक उसी तरह अलग-अलग त्रिज्या के वृत्त कुछ और नहीं पर भगवान के भक्त हैं । और त्रिज्या संसार-जंजाल है ।

 

 ऊपर आया है कि जो वृत्त जितना बड़ा होता है वह केंद्र विंदु से उतना ही अधिक दूर होता है अर्थात वह छोटा भक्त होता है । इसी तरह जो वृत्त जितना छोटा होता है वह केंद्र विंदु के उतना ही पास होता है अर्थात वह बड़ा भक्त होता है ।

 

इस प्रकार बड़ा भक्त छोटा बनकर भगवान के पास रहता है और छोटा भक्त बड़ा बनकर भगवान से दूर रहता है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

रविवार, 30 अक्तूबर 2022

चित करो राम कहे ग्रंथन की

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 


चित करो राम कहे ग्रंथन की । 

कीजे लाज विरद अरु पन की ।।१।  

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । 

हारत भीर सदा दीनन की ।।२। 

कूर कपूत सकल दुर्जन की । 

नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।३। 

सरन राम पद सब असरन की । 

सादर बाँह गहत निबरन की ।४।   

सार संभार राम दीनन की । 

करत सदा जोगवत जन मन की ।।५।  

सुनत राम सबबिधि हीनन की । 

कोल किरात आदि बनरन की ।।६।  

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । 

राखो लाज नाथ अब जन की ।।७।  

दीन संतोष नहीं तन मन की । 

जप तप बल नहिं और जतन की ।।८। 

मोरे आश राम चितवन की । 

पतितपावन अरु शील सदन की ।।९। 

 

।। जय श्रीराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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