सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शनिवार, 3 दिसंबर 2016

दुख से सदा-सर्वदा के लिए कैसे छूटें

हर कोई दुख से छूटना चाहता है । सुख के तलाश में रहता है । लेकिन सुख बाजार में मिलने वाली चीज थोड़े है जिसे पैसा देकर खरीदा जा सके-'सुख खोजन को जग चला सुख नहि हाट बिकात' सुख के लिए प्रयास करते रहने पर भी सुख नहीं मिलता । अथवा कम मिलता है । जितना चाहिये उतना नहीं मिलता । और दुख के लिए कोई प्रयास नहीं करता फिर भी दुख मिलता ही रहता है । हर कोई दुखी होता है ।


  कहते हैं गर्भ में जीव को बहुत कष्ट मिलता है । और उसके बाद जन्म के समय असहनीय पीड़ा होती है । इसी तरह मृत्यु के समय भी असहनीय पीड़ा होती है । गोस्वामीजी ने कहा भी है- जनमत मरत दुसह दुख होई । गर्भ के समय और जन्म के समय की पीड़ा किसी को याद नहीं रहती और मर जाने के बाद मरते समय की पीड़ा भी चली जाती है ।


 लेकिन जन्म और मृत्यु के बीच का समय जो जीवन कहलाता है । इसमें जीव को कितनी पीड़ा होती है । कभी काम न बनने से, कभी बने हुए काम के बिगड़ जाने से पीड़ा होती है । मनोनुकूल काम न होने से पीड़ा होती है । कभी किसी के बिछुड़ने से तो कभी किसी के मिलने से पीड़ा होती है । कभी रोग से, कभी शोक-संताप से पीड़ा होती है । जीवन में पीड़ा अथवा दुख के कितने अवसर हैं ।


 यदि जीवन के सुख, शांति के अवसरों की तुलना दुख और अशांति के अवसरों से की जाए तो यही सामने आएगा कि सुख-शांति के अवसर कम और दुख-अशांति के अवसर ही ज्यादा है । जीवन में भटकाव बहुत है । स्थिरता कम है ।


ऐसा लगता है जीवन पीड़ा सहने का ही दूसरा नाम है । बचपन से लेकर अंत तक जीव कितनी बार दुखी होता है क्या कोई गिन सकता है ? कितनी बार रोता है ? कितनी बार कुछ पाने के लिए तरसता है ? या कुछ खोकर रोता है । आशांति में जीता हुआ शांति की आसा में जीवन समाप्त होता जाता है । फिर बुढ़ापे की पीड़ा जिसे कोई भी नहीं चाहता । फिर जीवन मिलता है । फिर ऐसे ही जीवन जाता है । इन दुखों से सदा-सदा के लिए छुटुकारा कैसे मिलेगा ?


  दुख से सदा-सदा के लिए छूट जाने के लिए ही भगवान के शरणागति की जरूरत है । भक्ति की जरूरत है । साधु, संत और सदग्रंथ कहते हैं कि बिना राम जी से जुड़े जीवन में दुख का अंत नहीं है । भटकाव रुकने वाला नहीं है । सच्ची शांति मिलने वाली नहीं है । इसलिए भगवान राम से जुड़ने की जरूरत है । सच्चे मन से यदि कोई राम जी से जुड़ जाय तो फिर अशांति कहाँ ? और दुख कहाँ ?


 राम जी सारे संसार को विश्राम देने वाले हैं । सही विश्राम तो रामजी की शरणागति से ही मिल सकती है और कोई उपाय नहीं है ।


।।  जय श्रीसीताराम ।।


मंगलवार, 1 नवंबर 2016

भवसागर और इससे तरने का मतलब तथा मनुष्य जीवन की आवश्यकता

कई लोग समझते हैं कि भवसागर नाम का कोई सागर है जिसको मरने के बाद पार करना पड़ता है । हर किसी को मरना है ही क्योंकि हर किसी को मरना पड़ता है ।  साधारण जीव की क्या बात किया जाय जब देवताओं को भी मरना पड़ता है ।  ऐसा नियम है और सत्य है । ऐसे में हर किसी का भवसागर से सामना होगा । और जो धर्म-पुण्य करेगा वह इससे तर जाएगा ।  सामान्यतः ऐसा ही समझा जाता है । 


  भवसागर की चर्चा प्रत्येक कथा और प्रवचन में अक्सर होती है ।  साधु-संत और सदग्रंथ इसकी चर्चा करते हैं और इससे तरने के लिए उपाय करने को कहते हैं ।  लेकिन सुनते सब हैं और उपाय कोई-कोई करता है । 


  पहली बात भवसागर नाम का कोई भी सागर यानी समुद्र नहीं है जिसमें सचमुच का अथाह जल भरा हुआ है ।  दूसरी बात मरने के बाद इससे सामना होता है या मरने के बाद रास्ते में भवसागर पड़ता है ऐसा समझना भी सही नहीं है । 


  वास्तव में जैसे कोई प्राणी जन्म लेता है उसका भव सागर से सामना होता है और जब तक जीवित रहता है भवसागर में ही रहता है और इसका सामना करता है क्योंकि सद्ग्रंथो में इस संसार को ही भवसागर कहा गया है ।


 रही बात इससे तरने का तो इसका मतलब है सतत आनंद मय हो जाना, दुखों से सदा सर्वदा के लिए छूट जाना । 


संसार में कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो कहे कि मैं दुखी होना चाहता हूँ ।  और न ही कोई दुख प्राप्त करने कि लिए अथवा दुखी होने के लिए प्रयत्न ही करता है ।  वही दूसरी ओर कोई ऐसा नहीं मिलेगा जो सुख न चाहता हो अथवा सुखी न होना चाहता हो ।  और सुखी होने के लिए अथवा सुख प्राप्त करने के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते ?  सारा प्रयास सुख के लिए ही तो किया जाता है । 


यह बिडम्बना है कि दुख न चाहते हुए भी लोग दुख प्राप्त करते हैं ।  दुखी होते हैं ।  दुख न चाहने पर भी दुख मिलता है ।  वहीं दूसरी ओर सारा प्रयास सुख के लिए करने पर भी कोई भी कभी भी सुख से संतुष्ट नहीं होता । कोई ऐसा नहीं कहेगा कि हमें अब कोई सुख नहीं चाहिए ।  आनंद नहीं चाहिए ।  जिस चीज से कभी आनंद मिलता है उसी से कभी दुख भी मिलता है । आनंद की खोज में लोग दर-दर भटकते हैं लेकिन कभी भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते । 


आनंद की पूर्णता प्राप्त कर लेना यानी वास्तविक आनंद प्राप्त कर लेना ही भव सागर से पार होना है । आनंदमय हो जाना ही भवपार करना है । 


वास्तविक आनंद क्या है ?  वह अवस्था कौन सी है जहाँ दुख का लेश मात्र नहीं है ।  जहाँ आनंद ही आनंद है ।



सदग्रंथ कहते हैं कि भवसागर से पार होने के लिए यानी आनंदमय हो जाने के लिए ही मनुष्य शरीर की जरूरत होती है और इसके लिए ही दर-दर एक योनि-से दूसरे योनि में भटकते हुए जीव पर कृपा करके ईश्वर द्वारा मनुष्य शरीर प्रदान किया जाता है । 



कहते हैं कि भय, निद्रा, अहार और विहार के अधीन तो सभी प्राणी रहते हैं । रहते क्या हैं इसी में लगे रहते हैं और मर जाते हैं । लेकिन मनुष्य तो अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है इसलिए यदि मनुष्य भी भय, निद्रा, अहार और विहार के अधीन रहे और इसी में लगा रहे तो फिर इनकी क्या विशिष्टता है ? क्या श्रेष्ठता है ? और फिर मनुष्य जीवन की आवश्यकता ही क्या है ? जरूरत ही क्या है ? इसलिए मनुष्य जीवन तभी सार्थक है जब जीव राम जी से जुड़ जाय अन्यथा शूकर और कूकर भी तो एन्जॉय करते ही हैं और भय, निद्रा, अहार और विहार के अधीन रहते हैं । कहते हैं कि-'भूमि भार और अन्न संहार । यह नहीं मनुज जनम का सार।। मौज-मस्ती ही यदि करना है तो मनुष्य देह की जरूरत नहीं है  




  हर प्राणी विश्राम चाहता है, आनंद चाहता है । जीव आनंद के लिए तरसता है, पाने के लिए नाना उपाय करता है, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ, इसमें-उसमें खोजता रहता है पर अभाव ग्रस्त ही रहता है । भला आनंद से तृप्ति कहाँ होती है ? 



  जीव सतत आनंद खोजी है । जीवन का उद्देश्य भी परमानंद प्राप्त करना ही है ।जो पदार्थों में नहीं है । पदार्थों में क्षणिक आनंद है । फिर अभाव है । भटकाव है । विश्राम नहीं है । शांति नहीं है  इसलिए सतत आनंद का खोजी जीव इससे तृप्ति नहीं होता । इसके भटकाव, अशांति, अभाव आदि को दूर करने के लिए इसे मनुष्य जीवन मिलता है । क्योंकि परमानंद का रास्ता मनुष्य जीवन से होकर जाता है  अतः मनुष्य जीवन पाकर आनंद सिंधु, सुख राशि, आनंद स्वरूप भगवान राम से जुड़कर परमानंद प्राप्त करना ही भवसागर से पार होना है ।





।।  जय श्रीसीताराम ।।





रविवार, 2 अक्तूबर 2016

हर स्थिति और परिस्थिति में सेवक सहायक का वाना राम जी सार्थक करते हैं

सीताराम जी से नाता जोड़कर दृढ़ विश्वास रखना चाहिए । गोस्वामीजी कहते हैं  कि एक बार राम जी से जुड़ जाइए और विश्वास कभी कम न होने दें । और फिर राम जी की कृपा देखिए । क्योंकि सीताराम जी जैसा अपने सेवकों का देखभाल करने वाला तीनों लोकों और तीनों कालों में कोई भी नहीं है । और राम जी के सेवकों का लोक और परलोक में कुछ भी कभी भी बिगड़ता नहीं है । क्योंकि रामजी सेवकपाल हैं-‘तुलसी सीताराम सो दृढ़ कीजे विश्वास । कबहूँ बिगरी न सुने रामचन्द्र के दास’ ।।



हर स्थिति और परिस्थिति में राम जी अपने सेवकपाल होने का वाना निभाते हैं चाहे जंगल हो या पर्वत अथवा समुन्द्र या आँधी-तूफान, महा बिष या कोई भी ब्याधि अथवा किसी रोग ने घेर लिया हो । तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि अनेकों संकट आ पड़े हों । और पुत्र, माता-पिता, और हित-बन्धु पास न हों । तो ऐसी परिस्थिति अथवा स्थिति में कृपा के सागर भगवान श्रीराम ही मुझको रखेंगे जिनके हनुमानजी महाराज जैसे सेवक हैं । हर जगह भूतल, देवलोक, या फिर रसातल हो हर जगह राम जी अपने सेवक के सहायक हैं-


         कानन, भूधर वारि बयारि महा बिष व्याधि दवा अरि घेरे 
         संकट कोटि जहाँ तुलसी सुत-मातु-पिता हित बन्धु न नेरे 
         राखिहैं राम कृपालु तहाँ हनुमान से सेवक हैं जेहि केरे 
         नाक, रसातल, भूतल में रघुनायक एक सहायक मेरे 



   राम जी अपने विरद की लाज रखते हैं, अपने वाने को कभी लजाते नहीं हैं । इसलिए राम जी सबसे अलग हैं । राम जी के चरण-कमलों में प्रेम दृढ़ करना चाहिए और फिर उनकी कृपा देखनी चाहिए । श्रीरामचरितमानस और विनयपत्रिका आदि ग्रंथों में कही हुई बातों का प्रभाव देखना हो तो राम जी से जुड़कर उनके चरणों में प्रेम और विश्वास रखना चाहिए । फिर सबकुछ अनुभव में आने लगता हैं । रामजी जैसा सेवक सहायक और प्रेम की रीति को निभाने वाला कोई नहीं है ।



।। जयश्रीसीताराम।।



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सोमवार, 5 सितंबर 2016

धनुष से छूटा हुआ वाण वापस नहीं आता- कहना गलत है

कई लोग बोलचाल में ‘मुख से निकली हुई बोली और धनुष से निकला हुआ वाण वापस नहीं आता’ कहावत का उपयोग करते हैं जो कि बिल्कुल गलत है । कई लोग तो सुनी-सुनाई बात को सत्य मान लेते है और यदा-कदा उसका प्रयोग भी करते रहते हैं । ग्रामीण अंचल में कुछ कहावत या ऐसे गीत गाए जाते हैं जो वास्तव में सही नहीं होते अथवा अर्थ पूर्ण नहीं होते ।


  उपरोक्त कहावत का सही रूप इस प्रकार है अथवा होना चाहिए-‘मुख से निकली हुई बोली और बंदूक से निकली हुई गोली वापस नहीं आती’ ।


   धनुष से छूटा हुआ वाण वापस नहीं आता ऐसा कहना बिल्कुल गलत है । इसलिए इसे कहावत के रूप में प्रयोग करना गलत है ।  क्योंकि धनुष से छूटा हुआ वाण वापस आता है । किसी के धनुष से छूटा हुआ वाण वापस आता हो अथवा नहीं लेकिन हमारे राम जी के धनुष से छूटा हुआ वाण वापस आ जाता है । इसके कई प्रमाण हैं ।



   कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं- ‘अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग’ । ‘पुनि रघुवीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच’ । ‘प्रबिसे सब निषंग  महु जाई’ । आदि ।



अतः यह कहना बिल्कुल गलत है कि धनुष से छूटा हुआ वाण वापस नहीं आता ।




।।  जय श्रीसीताराम ।।




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गुरुवार, 25 अगस्त 2016

श्रीकृष्ण वन्दना

           


            ।। श्रीकृष्ण वन्दना 




श्रीकृष्णचन्द्र देवकीनन्दन माँ जशुमति के बाल गोपाल ।


रुक्मणीनाथ राधिकावल्लभ मीरा के प्रभु नटवरलाल ।।


मुरलीधर बसुदेवतनय बलरामानुज कालिय दहन ।


पाण्डवहित सुदामामीत भक्तन के दुःख दोष दलन ।।


मंगलमूरति श्यामलसूरति कंसन्तक गोवर्धनधारी ।


त्रैलोकउजागर कृपासागर गोपिनके बनवारि मुरारी ।।


कुब्जापावन दारिददावन भक्तवत्सल  सुदर्शनधारी 



दीनदयाल शरनागतपाल संतोष शरन अघ अवगुनहारी ।।




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# इस पद की रचना मैंने कई वर्ष पूर्व की थी और skpvinyavali(google site)

पर पोस्ट कर दिया था । वहाँ से कई लोगों ने सोशल मीडिया और अन्य जगहों 
पर इस पद को पोस्ट किया 



बुधवार, 10 अगस्त 2016

इन संत-ग्रंथ दो रत्नों ने कितनों को दिया उजाला है

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने जन-जन को भगवान श्रीराम से जोड़ने के लिए सरलतम रास्ता दिखाया है । जिस पर चलकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य सहज ही सुलभ हो जाते हैं । गोस्वामी जी ने हमें बारह ग्रंथ दिए । जिनका सुजन समाज में बड़ा ही आदर है । सब बड़े ही पठनीय और अनुकरणीय हैं ।


   इनमें से ही एक श्रीरामचरितमानस जी हैं । जिन्हें कहीं वेद की तो कहीं पुराण की संज्ञा दी जाती है । संत जन इन्हें भगवान श्रीराम जी का ग्रंथावतार ही समझते हैं । मैं स्वयं इन्हें वेद के समान और श्रीरामचरितमानस महापुराण कहता हूँ । और भगवान श्रीराम जी का ही स्वरूप मानता हूँ ।


 जैसे राम जी के शरण में जाने से जीव का हर तरह से कल्याण हो जाता है ठीक इसी तरह से श्रीरामचरितमानस जी के शरण में जाने से भी होता है । इसमें दो राय नहीं है कि श्रीरामचरितमानस जी इस कलयुग में कल्पवृक्ष के समान हैं । इनके पास जो जिस उद्देश्य से जाता है उसे वही सुलभ हो जाता है ।


  श्रीरामचरितमानस जी के संपर्क में रहने से मन सहज ही सत्य का अनुसरण करने लग जाता है । और धीरे-धीरे श्रीराम चरनानुरागी बन जाता है ।


    संतों में गोस्वामी तुलसीदासजी और ग्रंथों में श्रीरामचरितमानस जी अनुपम रत्न के समान हैं जिनसे कितनों का ही कल्याण हुआ है । कितनों को ही इनसे उजाला मिला है । प्रकाश मिला है ।
कितने ही लोगों ने गोस्वामी तुलसीदास जी और श्रीरामचरितमानस जी से प्रभावित होकर रास्ता पाकर अपने जीवन को धन्य कर लिया है । कितने ही लोगों ने  इनके माध्यम से कविता करने का हुनर सीख लिया है । कितने ही लोगों ने इनसे साधुता सीखा है । कितने ही लोगों ने इनसे विद्द्वता और पांडित्व प्राप्त किया है ।


  गोस्वामी तुलसीदास जी और श्रीरामचरितमानस जी से सनातन हिंदू समाज को बड़ी जीवटता मिली है और आगे भी मिलती रहेगी । श्रीरामचरितमानस जी में प्राणि मात्र का कल्याण निहित है । इनसे जुड़कर हर देश-जाति के लोग परम सुख को प्राप्त कर सकते हैं । जीव मात्र को उजाला देने वाले इन संत-ग्रंथ दो रत्नों का सुजन समाज सदा ही ऋणी रहेगा –


तुलसीदास गुरु ने सौंपी जन-जन को ऐसी थाती है ।
देख जिसे सब साधु-सुजन की  हर्षित होती छाती है ।।
भवसागर से पार जो होना सीधा राह बताती है ।
श्रीरामनाम का जाप करो गति अनायास मिल जाती है ।।
सत पंच चौपाई मधुर मनोहर चुन लो यह सिखलाती है ।
प्रेम से धर लो उर अंतर प्रभु राम कृपा  हो जाती है ।।

***

आर्य-धर्म के सदग्रन्थों में मानस ऐसा गहना है ।
संत, साधारण, विद्वानों ने  जिसे हर्षित होकर पहना है ।।
अपने-अपने समझ-वुद्धि से सब नाना अर्थ लगाते हैं ।
बहुतेरे उलटा समझ रहे अरु उल्टा ही समझाते हैं ।।
रामकृपा से मुझको भी  कभी अपने मन का करना है ।
कल्याण छुपा है प्राणि-मात्र का मुझको इतना कहना है ।।

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कैसे, क्या मैं कहूँ रचा गुर मानस ग्रन्थ निराला है 
धरम-करम के सभी मरम को मानस में कह डाला है ।।
आर्य-संस्कृतके सारे रस को मानस सर में डाला है ।
साधु-सुजन मन-मधुकर रस पी होता अति सुखवाला है ।।
कुछ लोग भी ऐसे हैं जिसने दोनों पे कीच उछाला है ।
उल्टा समझाकर नासमझों ने कुछ लोगों का मन घाला है ।।
समझ-समझ की बात है अपने नासमझों का मन काला है ।
इन संत-ग्रन्थ दो रत्नों ने कितनों को दिया उजाला है ।।





।।  जय श्रीसीताराम ।।







सोमवार, 1 अगस्त 2016

एक देवता, एक व्रत, एक मंत्र और एक शास्त्र

जहाँ कई रास्ते हों और सही रास्ता दिखाने वाला कोई न हो वहाँ मन में भ्रम अथवा संशय की स्थिति बनी रहती है कि कौन सा रास्ता सबसे उपयुक्त है । वह कौन सा रास्ता है जिस पर चलने से मंजिल मिल जाएगी ? अथवा जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं या फिर चलना चाहते है क्या इस पर चलने से कल्याण हो जाएगा ? यह उहापोह की स्थिति है ।


  ऐसे ही एक बार एक महात्मा जी के मन में प्रश्न आया कि वह एक मात्र देवता कौन है जिसके शरण में जाने से फिर कहीं और जाने की जरूरत नहीं रह जाती ? वह एक मात्र व्रत कौन सा है जिसके करने से और व्रत करने अथवा रखने की आवश्यकता नहीं रहती ? वह एक मात्र मंत्र कौन सा है जो महा मंत्र है और जिससे सभी सिद्धियाँ करगत हो जाती हैं ?  और वह एक मात्र शास्त्र कौन सा है जिसके चिंतन-मनन से, पढ़ने से और कुछ पढ़ने की जरूरत नहीं रह जाती है ?


  कितना अच्छा प्रश्न है ? एक देवता, एक व्रत, एक मंत्र और एक शास्त्र जिससे सब कुछ मिल जाय और फिर इधर-उधर भटकने की जरूरत न रहे । लेकिन यह बताए कौन ? इसका पता कैसे चले ? महात्मा जी इसी उधेड़बुन में थे लेकिन कोई जबाब नहीं मिला । उन्होंने कई लोगों से संपर्क भी किया लेकिन काम नहीं बना ।


  उनकी खोज चलती रही । एक दिन संयोग बस वे लोमश ऋषि के पास पहुँचे । उन्होंने अपनी समस्या बताई । लोमश जी महाराज बहुत ही दीर्घजीवी ऋषि हैं ही उन्होंने कहा कि आपके सभी प्रश्नों का समाधान हमारे पास है । बड़े-बुजुर्गों के पास में जाने से बहुत से काम बन जाते हैं लेकिन आजकल लोग तो उनसे दूरी बनाए रखना चाहते हैं ।


खैर लोमश जी महाराज ने उनकी शंका का समाधान किया और बोले-


एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम ।
मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।।

                              -पद्मपुराण ।


अर्थात एक ही देवता हैं-श्रीराम, एक ही व्रत है-उनका पूजन, एक ही मंत्र है-उनका नाम तथा एक ही शास्त्र है – उनकी स्तुति ।



।। जय श्रीराम ।।



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मंगलवार, 5 जुलाई 2016

मनुस्मृति के कुछ जीवनोपयोगी संदेश

सनातन धर्म के सद्ग्रंथो में कई स्मृतियाँ हैं जिनमें मनुस्मृति प्राचीनतम है । मनुस्मृति में कई जीवनोपयोगी संदेश/सिद्धांत हैं । जिसमें से कुछ निम्नवत हैं-


·         जहाँ (जिस कुल-घर-परिवार में ) स्त्रियां सम्मानित होती हैं उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं


·         जहाँ स्त्रियों का अपमान होता है वहाँ सभी यज्ञादि कर्म निष्फल होते हैं ।


·         जिस कुल में बहू-बेटियाँ क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है ।


·         जहाँ स्त्रियों को कोई कष्ट नहीं दिया जाता वह कुल-घर-परिवार सवर्दा बढ़ता है


·         जिस घर-कुल को बहू-बेटियाँ (कष्ट दिए जाने से) कोसती हैं वे घर नाश को प्राप्त होते हैं ।


·         स्त्रियों को हमेशा भूषण, वसन और भोजन से संतुष्ट रखना चाहिए ।


·         जिस कुल में पत्नी से पति और पति से पत्नी प्रसन्न रहती है उस कुल का सदा कल्याण होता है ।


·         परलोक में माँ-बाप, स्त्री , पुत्र या हित-परिजन कोई भी सहायता नहीं करता ।
 केवल धर्म ही सहायक होता है ।


·         यह जीव अकेला आता है और अकेला ही जाता है और अकेला ही पुण्य-पाप का फल भी भोगता है ।


·         सबको धर्म का संचय करना चाहिए ।


·         भोजन को नित्य पूज्य दृष्टि से देखें और बिना निंदा किए हुए भोजन करें । भोजन को देखकर संतुष्ट और प्रसन्न होवे तथा सदा अन्न का अभिनन्दन करे ।


·         नित्य आदर के साथ किया हुआ भोजन बल और तेज देता है और अनारादर से किया हुआ भोजन बल और तेज दोनों का नाश करता है ।





इसी तरह अनेकानेक जीवनोपयोगी संदेश/सिद्धांत मनुस्मृति में दिए गए है





    जय श्रीराम 



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बुधवार, 1 जून 2016

आध्यात्मिक-कर्म भूमि तथा भोग भूमि:भारत और शेष विश्व

आज के समय के भारत का विस्तार प्राचीन समय के वृहद भारत-आर्यावर्त के विस्तार से बहुत कम है । आज के समय में प्राचीन भारत के विस्तार का सही आकलन कर पाना मुश्किल है । सनातन धर्म दुनिया का प्राचीनतम धर्म है । इसमें सम्पूर्ण व्रह्मांड की उत्पत्ति और अंत का तार्किक व वैज्ञानिक वर्णन है । सनातन धर्म सारे संसार के हित की बात करता है और सम्पूर्ण जगत के चर-अचर को परमात्मा का ही अंश मानता है ।


  इस पृथ्वी पर अथवा इससे परे जो कुछ भी है सब कुछ भगवान की रचना है । भगवान का है । ऐसे में सनातन धर्म के ग्रंथों-शास्त्रों में भारत भूमि की भूरि-भूरि प्रशंसा क्यों की गई है ? महिमा क्यों गाई गई है ? तथा सनातन धर्म के सभी देवी-देवताओं का अवतरण पृथ्वी के इसी भाग यानी भारत में क्यों हुआ है-कहते हैं कि देवता भी भारत भूमि पर जन्म लेना चाहते हैं । यहाँ की सभ्यता-संस्कृति इतनी संस्कार युक्त क्यों है ? यहाँ पर आचार-विचार की इतनी प्रधानता क्यों है ? यहाँ त्याग-तपस्या की ज्यादा बात क्यों की जाती है ? आदि ।

  संत और ग्रंथ कहते हैं कि एक तो मनुष्य का जन्म दुर्लभ है और दूसरा भारत में जन्म । मनुष्य का जन्म राम जी की कृपा से होता है और और भारत में जन्म  पुण्य से होता है 

  शास्त्र कहते हैं कि धरती पर भारत भूमि का विशेष महत्व है । विशेष प्रयोजन है । इसे वैसे ही ऋषियों और मुनियों की भूमि नहीं कहा जाता है । इसका भी विशेष कारण है ।

  शास्त्र कहते हैं कि भारत (वृहद भारत) कर्म भूमि है । योग भूमि है । तथा शेष धरती भोग भूमि है । ऐसी व्यवस्था आदि समय में ही कर दी गई थी ।  इसलिए ही भारत में ध्यान, योग, यज्ञ, पूजा, जप-तप की प्रधानता रही है । इसलिए ही यहाँ की सभ्यता-संस्कृति पाश्चात्य देशों से बिल्कुल अलग है । यहाँ के संस्कार अलग हैं । यहाँ वेदों और पुराणों के द्वारा दिए गए नियम हैं जिनके द्वारा मनुष्य देवत्व प्राप्त कर सकता है । यहाँ अपने ही शरीर को प्रयोगशाला बनाकर तरह-तरह के प्रयोग हमारे पूर्वजों द्वारा किए गए हैं और  व्रत, नियम तथा संयम आदि के पाठ को पढ़ाया गया है ।

यहाँ से योग पाश्चात्य देशों में जाता है । और पाश्चात्य देशों में भोग की प्रधानता है । ऐसा आरंभ से ही है क्योंकि ऐसा ही सुनिश्चित किया गया है । आज वहाँ के भोग और भोग के साधन यहाँ के योग को प्रभावित कर रहे हैं । ऐशोआरामके अधिकांश साधनों का विकास भी भोग भूमि की ही देन है । भोग भूमि में इंद्रिय आनंद की बात होती है और आध्यात्मिक-कर्म भूमि में परमानंद-व्रह्मानंद की बात होती है ।

   वहाँ का दर्शन है कि जीवन एन्जॉय करने के लिए है । क्या करना है-एन्जॉय । कुछ भी करना है-बस एंजोयमेंट होना चाहिए । भोग भूमि में पतिव्रत और पत्नीव्रत जैसे शब्द ही नहीं होते । वहाँ शरीर को कसने-तपाने की बात बेमानी है । जबकि यहाँ व्रत, नियम और संयम के माध्यम से शरीर के साथ प्रयोग जप-तप के साधन हैं ।

  भोग भूमि और अध्यात्मिक-कर्म भूमि दोनों के दर्शन में मूलभूत अंतर हैं । भोग भूमि में भोग से आनंद और आध्यात्मिक कर्म भूमि में त्याग से आनंद पर बल दिया गया है । यहाँ भोग को रोग के समान बताकर संयमित जीवन को श्रेष्ठ कहा गया है। मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता इसलिए जितना एन्जॉय कर सकते हो कर लो यह भोग भूमि का दर्शन है । तथा मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता इसलिए इसका सदुपयोग करो और राम जी से जुड़कर मनुष्य जीवन को सार्थक करो यह कर्म-भूमि का दर्शन है । 

  भय, निद्रा, अहार और विहार के अधीन तो सभी प्राणी रहते हैं । रहते क्या हैं इसी में लगे रहते हैं और मर जाते हैं । लेकिन मनुष्य तो अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है इसलिए यदि मनुष्य भी भय, निद्रा, अहार और विहार के अधीन रहे और इसी में लगा रहे तो फिर इनकी क्या विशिष्टता है ? क्या श्रेष्ठता है ? और फिर मनुष्य जीवन की आवश्यकता ही क्या है ? जरूरत ही क्या है ? इसलिए मनुष्य जीवन तभी सार्थक है जब जीव राम जी से जुड़ जाय अन्यथा शूकर और कूकर भी तो एन्जॉय करते ही हैं और भय, निद्रा, अहार और विहार के अधीन रहते हैं । कहते हैं कि-'भूमि भार अरु अन्न संहार । यह नहीं मनुज जनम का सार' । मौज-मस्ती ही यदि करना है तो मनुष्य देह की जरूरत नहीं है । 


  हर प्राणी विश्राम चाहता है, आनंद चाहता है । जीव जिस आनंद के लिए तरसता है, जिसे पाने के लिए नाना उपाय करता है, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ, इसमें-उसमें खोजता रहता है पर अभाव ग्रस्त ही रहता है । भला आनंद से तृप्ति कहाँ होती है ?  

  जीव सतत आनंद खोजी है । जीवन का उद्देश्य भी परमानंद प्राप्त करना ही है जो पदार्थों में नहीं है । पदार्थों में क्षणिक आनंद है । फिर अभाव है । भटकाव है । विश्राम नहीं है । शांति नहीं है  इसलिए सतत आनंद का खोजी जीव इससे तृप्ति नहीं होता । इसके भटकाव, अशांति, अभाव आदि को दूर करने के लिए इसे मनुष्य जीवन मिलता है । क्योंकि परमानंद का रास्ता मनुष्य जीवन से होकर जाता है  अतः मनुष्य जीवन पाकर आनंद सिंधु, सुख राशि, आनंद स्वरूप भगवान राम से जुड़कर परमानंद प्राप्त करने का सार्थक प्रयास करना चाहिए 

धरती पे है देश यक भारत जिसका नाम ।
बहती है गंगा जहाँ प्रगटे जहँ श्रीराम ।।                                        
करम भूमि भारत कहे ग्रन्थ संत सुर लोग ।
रामदास बाकी सभी भूमि बनी हित भोग ।।

(दोहा संग्रह 'मानव माने होय' से उदधृत दोहे । )


।। जय सियाराम ।।


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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विशिष्ट पोस्ट

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे

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कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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