सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

मंगलवार, 21 जून 2022

श्रीराम और्ध्वदैहिक स्तोत्र-पाठ और महिमा

भगवान श्रीराम की अतुलित महिमा है । वेद-उपनिषद, रामायण, पुराण, संहिताओं इत्यादि में रघुकुल शिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीराम की महिमा गाई गई है-

महिमा निगम नेति कहि गाई । अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ।।

 

श्रीराम रक्षास्तोत्र, श्रीराम स्तवराज स्तोत्र आदि से लोग परिचित ही हैं । ऐसे ही एक श्रीराम और्ध्वदैहिक स्तोत्र है जिसे अभ्युदय स्तोत्र के नाम से भी जाना जाता है

इस स्तोत्र को व्रह्मा जी ने कहा है । इस स्तोत्र को व्रह्मा जी ने नारद जी से कहा है और शंकरजी ने माता पार्वती जी को सुनाया है ।

 

रावण वध के पश्चात सभी देवता भगवान श्रीराम की स्तुति करने के लिए आए । इस समय व्रह्मा जी ने भगवान श्रीराम के हाथ को पकड़कर जिस स्तोत्र से भगवान श्रीराम की स्तुति किया उसे ही और्ध्वदैहिक स्तोत्र कहा गया है

 

इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है । इसके प्रेम पूर्वक पाठ से पाप का शमन होता है । तथा पाठ करने वाले का अभ्युदय होता है ।

 

 भगवान श्रीराम के चरण कमलों में इस स्तोत्र के निवेदन से सफलता मिलती है । जो किसी काम में बार-बार असफल हो रहा हो उसे इसके प्रेम व नियम पूर्वक पाठ से सफलता मिलती है ।

 

।। भक्तवत्सल रघुनाथ जी की जय ।।

सोमवार, 20 जून 2022

प्रद्युम्न और अर्जुन का नल-नील के वंशजो से युद्ध और हनुमानजी की सहायता से विजय

एक बार द्वारिकापुरी में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन होना था । इसके पहले प्रद्युम्न जी दिग्विजय के लिए निकले । प्रद्युम्न जी भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र हैं और भगवान के अवतार हैं । श्रीकृष्णावतार के चतुर्व्यूह स्वरूप में इनकी गणना होती है ।

 

 दिग्विजय करते हुए प्रद्युम्न जी एक नगर में पहुँचे जहाँ नल-नील के वंशजों का राज्य था । बड़े-बड़े बानर बीर थे ।

 

 युद्ध शुरू हो गया । प्रद्युम्न जी के साथ अर्जुन जी भी थे । प्रद्युम्न जी और अर्जुन जी दोनों युद्ध कर रहे थे । लेकिन विजय का कोई संकेत नहीं था ।

 

वहाँ के बानर बीर इतने बली थे कि प्रद्युम्न और अर्जुन के रथों को अपनी पूँछ में लपेटकर पटक देते थे ।

 

 इस समय भी हनुमानजी महाराज अर्जुन के रथ के पताके में विराजमान थे । हनुमानजी पताके से निकलकर युद्ध क्षेत्र में उतर गए और अपनी पूँछ में समस्त बानरों को समेट लिया ।

 

अब बानरों को पता चला कि ये तो बजरंगबली हनुमान जी महाराज हैं । फिर क्या था युद्ध समाप्त हो गया । बानरों ने हनुमानजी, प्रद्युम्न जी और अर्जुन जी का पूजन किया । और बहुत से उपहार भेंट में दिए ।

 

  इस प्रकार प्रद्युम्न जी के दिग्विजय में हनुमान जी ने प्रद्युम्न जी और अर्जुन जी की सहायता किया था ।

 

।। बीर बजरंगबली हनुमान जी की जय ।।

रविवार, 19 जून 2022

होइ न बाँको बार भगत को जो कोउ कोटि उपाय करै

जो भगवान श्रीराम के वास्तविक भक्त हैं उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है ? वास्तविक भक्त अर्थात शरणागत भक्त । उदाहरण के लिए जैसे विभीषण जी महाराज भगवान श्रीराम के वास्तविक भक्त हैं । शरणागत भक्त हैं ।

 

सुबह थोड़ी सी पूजा कर लेने से, कथा सुन लेने से, कुछ माला जप लेने से कोई वास्तविक भक्त नहीं हो जाता है ।  इसका मतलब यह नहीं है कि इन चीजों का कोई महत्व नहीं है ।  इनका भी बहुत महत्व है । यह शुरुआत है । यह भी एक अवस्था है और इससे और आगे बढ़ने की आवश्यकता रहती है ।

 

यदि कोई रामजी का वास्तविक भक्त है और कोई उस भक्त से बैर कर ले अथवा बैर करना चाहे । तो ऐसी स्थिति में बैर करने वाले के हाथ क्या लगेगा ? अर्थात बैर करने से कोई लाभ होने वाला नहीं है । उल्टे हानि हो सकती है ।

 

 एक व्यक्ति हो अथवा अनेक, वास्तविक श्रीराम भक्त का बाल भी बाँका नहीं कर सकते । कोशिस चाहे जितनी करें । उपाय चाहे जो करें । एक नहीं चाहे अनेक उपाय कर लें लेकिन भक्त का बाल भी बाँका नहीं हो सकता है-

 

जो पै कृपा रघुपति कृपाल की बैर और को कहाँ सरै ।

होइ न बाँको बार भगत को जो कोउ कोटि उपाय करै ।।

 

इस प्रकार जो भगवान श्रीराम के वास्तविक भक्त हैं उन पर भक्तवत्सल भगवान श्रीराम की ऐसी कृपा बरसती हैं कि उनका कोई करोड़ों उपाय करके भी बाल भी बाँका नहीं कर पाता ।

 

।। भक्तवत्सल भगवान श्रीराम की जय ।।


गुरुवार, 16 जून 2022

राक्षस भयेउ रहा मुनि ज्ञानी- रावण के गुप्तचर शुक का उद्धार

प्राचीन काल में एक शुक नाम के ज्ञानी महात्मा रहते थे । ये देवों के उत्थान और राक्षसों के विनाश के लिए यज्ञ किया करते थे ।

 

देवताओं के हितचिंतक होने से राक्षस इनके बिरोधी हो गए । और वज्रदंष्ट्र नामक एक राक्षस इनका अपकार करने के लिए लग गया ।

 

एक बार महात्मा अगस्त्य इनके आश्रम पर पधारे   आदर-सत्कार करके शुक मुनि ने अगस्त्य जी को भोजन के लिए आमंत्रित किया ।

 

जब अगस्त्य जी स्नान करने चले गए तो वह राक्षस अगस्त्य जी का रूप धरकर आश्रम में आया और बोला यदि तुम मुझे भोजन कराना चाहते हो तो भोजन में बकरे के मांस का प्रबंध करो ।

 

अगस्त्य जी जब भोजन करने बैठे तो वह राक्षस मुनि की पत्नी का रूप धारण करके तरह-तरह के मांस युक्त भोजन परोसकर गायब हो गया । इस राक्षस ने मुनि की पत्नी को आश्रम में ही पहले ही मूर्छित कर दिया था ।

 

अगस्त्य जी को भोजन देखते ही क्रोध आ गया और मुनि को शाप दे दिया कि तूँ मांस भक्षी राक्षस बन जा ।

 

मुनि ने कहा कि आपकी आज्ञा से ही ऐसा भोजन बनाया गया है । अगस्त्य जी ने ध्यान करके देखा और बोले यद्यपि तुम्हारा अपराध नहीं है फिर भी तुम्हें राक्षस बनना पड़ेगा ।

 

अगस्त्य जी बोले कि तुम रावण की सेवा में चले जाओ । जब भगवान श्रीरामचन्द्रजी रावण वध के लिए समुद्र तट पर बानरों और भालुओं की सेना लेकर आएँगे तब रावण का दूत बनकर राम जी की सेना में जाने से और वापस आकर रावण को समझाने के बाद भगवान श्रीरामचंद्र जी का दर्शन करके तुम पूर्ववत अपने मुनि स्वरूप को प्राप्त कर लोगे-

 

ऋषि अगस्त्य की साप भवानी । राक्षस भयेउ रहा मुनि ज्ञानी ।।

 बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ।।

 

इस प्रकार रावण के गुप्तचर शुक का भगवान श्रीराम की कृपा से उद्धार हुआ ।

 

 ।। जय श्रीराम ।। 

बुधवार, 15 जून 2022

जब रावण के गुप्तचरों के नाक और कान कटते-कटते बचे

भगवान श्रीराम की सेना के बानरों और भालूओं को सुपर्णनखा की नाक और कान काटे जाने की घटना शायद बहुत रास आई । इसलिए ही बानर और भालू अक्सर राक्षसों के नाक और कान भी काट लेते थे । कुम्भकर्ण जैसा पराक्रमी राक्षस भी अपनी नाक और कान नहीं बचा पाया था  

 

जब विभीषण जी भगवान श्रीराम की शरण में आए तो उसी समय रावण ने अपने दो  गुप्तचरों को भगवान श्रीराम की सेना और भगवान श्रीराम का भेद जानने आए । जिनका भेद शेष, महेश, गणेश, शुक, सनकादिक, नारद, शारद इत्यादि बड़े-बड़े विशारद नहीं जानते, नहीं जान पाते और वेद नेति-नेति कहकर मौन हो जाते हैं उनका भेद भला कौन जान सकता है ? लेकिन राक्षस तो राक्षस ही ठहरे । इन्हें क्या पता था कि भेद मिले या न मिले ऊपर से नाक और कान भी जा सकते हैं ।

 

 भगवान श्रीराम जी का स्वभाव, रामजी की भक्तवत्सलता, सरलता, शरणागत वत्सलता, दयालुता और परम उदारता आदि गुणों को देखकर ये भूल गए कि हम रावण के गुप्तचर हैं । भूलते ही इनका छद्म बानर भेष दूर हो गया और ये अपने वास्तविक राक्षस रूप में आ गए । और राक्षस रूप में भी भगवान श्रीराम के गुणों की चर्चा करते रहे ।

 

बानरों ने पहचान लिया और बाँध लिया । पिटाई भी किया । और सेना के चारों ओर चक्कर भी लगवाए । फिर नाक और कान की बारी आई । रावण के पास नाक-कान कटवाकर कैसे जाते ? इधर बानर-भालू कहाँ छोड़ने वाले थे । तब नाक और कान बचते हुए न देखकर इन राक्षसों ने कहा कि जो हम दोनों की नाक और कान काटे उसे कोशलाधीस भगवान श्रीराम की शपथ है-‘जो हमार हर नासा काना । तेहिं कोसलाधीस कै आना ।। और दीनता पूर्वक छोड़ने के लिए पुकार कर ही रहे थे । लक्ष्मणजी को दया आई और लक्ष्मणजी ने इनको छुड़ा दिया ।

 

 इस प्रकार रावण के गुप्तचरों की नाक और कान कटते-कटते बचे और गुप्तचर रावण से जाकर बोले-

 

रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ।।

श्रवन नासिका काटन लागे । राम शपथ दीन्हे हम त्यागे ।।

 

 ।। कोशलाधीश श्रीरामचंद्र भगवान की जय ।।

रावण की नानी, बहन, भाई से लेकर अनके राक्षसों के नाक और कान काटे गए थे

रामायण में सुपर्णनखा के नाक और कान काटे जाने की कथा बहुत प्रसिद्ध है और सभी लोग इस कथा से परिचित भी हैं । लेकिन रामायण में अनेक राक्षसों के नाक और कान काटे गए थे । और लंका में नाक और कान कटे हुए एक-दो नहीं बल्कि कई राक्षस थे ।

सर्वप्रथम ताड़का की, जो रिश्ते में रावण की नानी थी, नाक और कान दोनों काटे गए थे । लक्ष्मणजी ने ताड़का की नाक और कान काट लिए थे । रावण का मामा मारीच इसी ताड़का का बेटा था ।

                           

सुपर्णनखा के बारे में सबको पता ही है ।

 

रावण के पराक्रमी भाई कुम्भकर्ण की नाक और कान सुग्रीव जी ने युद्ध क्षेत्र में काट लिया था ।

 

इसके अलावा युद्ध क्षेत्र में और कई राक्षसों के नाक और कान काट लिए गए थे ।

 

बानर और भालू रामजी की जय जयकार करने वाले और राक्षस रावण की जय जयकार करने वाले थे  जब बानर और भालू  लंका में किसी राक्षस को पकड़ते थे तब बानर और भालू उनके नाक और कान काटकर और भगवान श्रीराम की जय जयकार करके, भगवान श्रीराम का सुयश कहकर वापस भेज देते थे ।

 

इस प्रकार लंका में नाक और कान से रहित कई राक्षस थे और कई नाक और कान कटने के बाद युद्ध क्षेत्र से वापस ही नहीं लौट सके थे-

दसनन्ह काटि नासिका काना । कहि प्रभु सुयश देहिं तब जाना ।।

 

जो राम विमुख हैं उनकी नाक और कान तो कट ही जाते हैं । लोक में नहीं तो परलोक में कटना तय ही हैं । क्योंकि-

 

कबहुँक करि करुना नर देहीं । देत ईश बिनु हेतु सनेही ।।

एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

 

मंगलवार, 14 जून 2022

श्रीसरजू माता जयंती

आज अर्थात जेष्ठ मास की पूर्णिमा को सरजू माता की जयंती मनाई जाती है । आज ही के दिन सरजू माता का अवतरण हुआ था । ग्रंथों के अनुसार सरजू जी की उत्पत्ति भगवान के नेत्र से हुई है । और इनका उदगम स्थान मानसरोवर है ।

 

सरजू जी के दर्शन करने का, सरजू जी में स्नान करने का, सरजू जी का स्पर्श करने का और सरजू जी के जल का पान करने का बड़ा महत्व है और चौरासी को छुड़ाने वाला है-‘दरश परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह वेद पुराना’ ।।

 

ग्रंथों में सरजू जी की बड़ी महिमा गाई गई है । देवता, सुर नर, मुनि आदि सभी सरजू जी में स्नान करते हैं, दर्शन और जलपान करते हैं । कई भक्त-संत रोज सर्व प्रथम सरजू जी के जल का पान करते हैं । गंगाजी, यमुनाजी आदि की अपेक्षा सरजू जी आज भी अयोध्याजी में अधिक निर्मल और स्वच्छ हैं ।

 

सरजू जी विश्व की प्रथम नदी हैं । और गंगाजी, यमुनाजी आदि से पहले अवतरित हुई हैं । धन्य हैं सरजू जी जिनकी महिमा सुर, नर, मुनि, साधु, सदग्रंथ आदि सभी गाते हैं । और  तो और भगवान श्रीराम स्वयं अपने श्रीमुख से सरजू जी की महिमा गाते हैं- ‘जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा । मम समीप नर पावहिं बासा’ ।।

 

    ।। सरजू मैया की जय ।।

बुधवार, 8 जून 2022

भगवान श्रीराम को अयोध्याजी बहुत प्रिय हैं-‘सूरदास जो बिधि न संकोचै, तो बैकुंठ न जाउँ’

भगवान श्रीराम को परम पावनी अयोध्या नगरी बहुत प्रिय है । भगवान श्रीराम अपने सखाओं से कहते कि यह-अयोध्या पुरी बहुत पवित्र और यह देश बहुत ही सुंदर है-'पावन पुरी रुचिर यह देसा'  


रामजी कहते हैं कि केवल अयोध्या जी ही नहीं यहाँ के बासी भी मुझे बहुत प्रिय हैं और यह नगरी सुख की राशि है और मेरे परम धाम को देने वाली है-

 अति प्रिय मोहि यहाँ के बासी । मम धामदा पुरी सुख रासी ।।

 

भगवान श्रीराम कहते हैं कि अयोध्या जी परम सुहावनी हैं और मेरी जन्मभूमि हैं । इनके उत्तर दिशा में परम पावनी सरजू प्रवाहित हो रही हैं जिनमें स्नान करने से सहज ही लोग  मेरे समीप-धाम में निवास प्राप्त कर लेते हैं-

 

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ।।

जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा । मम समीप नर पावहिं बासा ।।

 

भगवान श्रीराम अपने सखाओं से कहते हैं कि जद्यपि सबने बैकुंठ का गुण गान किया है । बड़ाई किया है । बैकुंठ की महिमा बेद और पुराण में प्रसिद्ध है-वर्णित है  और संसार जानता भी है । फिर भी मुझे अयोध्याजी इतना बैकुंठ भी प्रिय नहीं है । इस रहस्य को कोई-कोई अर्थात कुछ लोग ही जानते हैं-

 

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना । बेद पुराण बिदित जग जाना ।।

अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ । यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ।।

 

 

चूँकि अयोध्याजी और यहाँ के बासी दोनों भगवान श्रीराम को बहुत प्रिय हैं इसलिए भगवान श्रीराम अयोध्याजी में ग्यारह हजार वर्ष तक प्रत्यक्ष रह गए । जबकि और किसी अवतार में भगवान इतने समय तक प्रत्यक्ष बास नहीं किए थे ।

 

  रामजी ने सखाओं को बतलाया कि यदि ब्रह्मा जी को संकोच न हो तो मैं अयोध्या जी को छोड़कर कभी भी बैकुंठ न जाऊँ । सबके लोक अलग हैं और भगवान लीला करने के लिए यहाँ आए थे । यदि भगवान यहीं रह जाते तो व्रह्मा जी को संकोच होता कि भगवान तो वहीं रह गए जबकि लीला पूरी करके भगवान को अपने धाम आ जाना चाहिए । भगवान की इच्छा के विपरीत व्रह्मा जी संकोच ही कर सकते थे । लेकिन उन्हें संकोच न हो इसलिए मर्यादा बस जाना जरूरी है-

 

हमारी जन्मभूमि  यह गाउँ ।

सुनहु सखा सुग्रीव-बिभीषन ! अवनि अजोध्या नाउँ ।।१।।

देखत बन-उपवन सरिता सर परम मनोहर ठाउँ ।

अपनी प्रकृति लिए बोलत हौं, सुरपुर मैं न रहाउँ ।।२।।

यहाँ के बासी अवलोकत हौं  आनंद उर न समाउँ ।

सूरदास  जो बिधि न सँकोचै तो बैकुंठ न जाउँ ।।३।।

 

          -श्रीसूरदास जी रचित सूर रामायण से

 

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि  यह अयोध्या नगरी धन्य है जिसकी  सराहना, जिसकी  बड़ाई अपने श्रीमुख से स्वयं भगवान श्रीराम ने किया है-'धन्य अवध जो राम बखानी'  

वेद, पुराण और शाश्त्र अयोध्या जी की महिमा का गायन करते हुए कहते हैं कि जो किसी भी जन्म में अयोध्याजी का बास पा जाता है वह किसी न किसी जन्म में श्रीराम परायण-श्रीराम चरनानुरागी अवश्य बन जाता है  

अयोध्याजी और अवधवासी भगवान राम को बड़े प्रिय हैं तभी तो राम जी अयोध्याजी में ग्यारह हजार वर्ष तक प्रत्यक्ष रहे और परम धाम गए तो सबको अपने साथ ले गए 

 

।। अयोध्यापति भगवान श्रीरामचंद्र जी की जय ।।

रविवार, 5 जून 2022

जब शनि देव हनुमानजी से युद्द करने के लिए आए

एक बार हनुमानजी महाराज रामेश्वरम क्षेत्र में बैठे राम नाम का जप कर रहे थे । शनिदेव वहाँ आ पहुँचे और हनुमानजी से युद्ध करने के लिए कहने लगे । हनुमानजी बोले कि मैं तो रामनाम जपने में लगा हूँ आप किसी और को खोज कर अपनी युद्ध की इच्छा पूरी कर लो ।

 

  हनुमानजी ने बहुत समझाया पर शनिदेव नहीं माने । और युद्ध करने के लिए डटें रहे । हनुमानजी ने सोचा ऐसे ये मानेगें नहीं और हनुमानजी अपनी पूँछ बढ़ाना शुरू कर दिए ।

देखते ही देखते शनिदेव हनुमानजी की पूँछ में जकड़ लिए गए । इधर हनुमानजी का श्रीराम सेतु परिक्रमा का समय हो गया । हनुमानजी उठे और बारह सौ किलोमीटर लम्बे और एक सौ बीस किलोमीटर चौड़े श्रीराम सेतु की परिक्रमा करने लगे ।

 

हनुमानजी ने अपना वेग बढ़ा दिया । शनि देव पत्थरों आदि से टकराते रहे और हनुमानजी से बंधन ढ़ीला करने की प्रार्थना करते रहे । हनुमानजी ने शनि देव को परिक्रमा पूरी कर लेने के बाद ही छोड़ा ।

 

  अब तक शनिदेव को काफी चोटें आ चुकी थीं । छूटते ही शनिदेव शरीर पर लगाने के लिए तेल माँगने लगे ।

 

हनुमानजी महाराज से शनि देव ने कहा कि आपके भक्तों को मैं कभी परेशान नहीं करूँगा ।

इस प्रकार सहज में ही बिना युद्ध किए हनुमान जी ने शनि देव की युद्ध की चाह को समाप्त कर दिया । कहा जाता है कि तभी से शनि देव को तेल प्रिय हो गया और आज भी शनि देव को तेल अर्पित किया जाता है ।

 

 ।। बजरंगबली हनुमानजी की जय ।।

बुधवार, 1 जून 2022

भक्तवत्सलता में भगवान श्रीराम के आगे कोई नहीं ठहरता

 भगवान श्रीराम कई बातों में अनूठे हैं । साधु-सदग्रंथ तो कहते हैं कि भगवान श्रीराम निरुपम हैं । अर्थात भगवान राम की कोई उपमा नहीं है । किसी से रामजी की उपमा नहीं की जा सकती है । राम जी के सामने जैसे कोई युद्ध में नहीं ठहरता ठीक वैसे ही रूप, गुण, स्वभाव, प्रभाव और भक्तवत्सलता आदि में भी कोई नहीं ठहरता- ‘निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहैं’

 

   भगवान के सभी रूप-अवतार एक हैं । फिर भी रूप, लीला और गुण में थोड़ी भिन्नता तो रहती है । भक्तवत्सलता भगवान का परम गुण है । भगवान के सभी  अवतार भक्तवत्सल हैं । लेकिन भगवान श्रीराम इस बात में भी अनूठे हैं । और भगवान श्रीराम के आगे भक्तवत्सलता में कोई नहीं ठहरता ।

 

भगवान श्रीराम ऐसे भगवान हैं जो अपने भक्तों के बीच पृथ्वी पर सबसे अधिक समय तक प्रत्यक्ष रहे ।

 

 जब भगवान वाराह बनकर आए तो थोड़े समय में ही लीला समाप्त करके चले गए । इसी तरह नरसिंह रूप में भी थोड़े समय में लीला समाप्त करके चले गए ।

 

 जब भगवान श्रीकृष्ण बनकर आए तो भी बहुत कम समय में ही लीला समाप्त करके चले गए । मथुरा से लेकर वृंदावन, द्वारका आदि की समस्त लीला भगवान श्रीकृष्ण केवल एक सौ पच्चीस वर्ष में ही पूरी करके चले गए ।

 

 लेकिन भगवान राम को कोई जल्दी नहीं थी । भगवान श्रीराम ने अपने भक्तों को बहुत समय दिया । भगवान श्रीराम पृथ्वी पर प्रत्यक्ष अनेकों वर्षों तक रहे ।

 

 ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीराम अपने भक्तों के बीच पृथ्वी पर प्रत्यक्ष सौ-दो सौ वर्ष नहीं बल्कि ग्यारह हजार वर्ष तक लीला करते रहे ।

 

इस प्रकार भगवान श्रीराम अपने भक्तों के बीच पृथ्वी पर अधिक समय तक रहने में भी अनूठे हैं । यह बात तो सभी जानते ही हैं कि रामजी प्रत्यक्ष लीला समाप्त करके गए भी तो अपने भक्तों को साथ लेकर गए । भक्तों को छोड़कर नहीं गए । और तो और पशु-पक्षी आदि को भी अपने साथ अपने धाम ले गए । ऐसी भक्तवत्सलता न देखने में आती है, न सुनने में और न ही रामजी के अतिरिक्त किसी और के लिए ग्रंथों में वर्णित ही है ।

 

इससे पता चलता है कि भगवान राम अपने भक्तों से कितना प्रेम करते हैं भगवान राम कितने भक्तवत्सल हैं । धन्य हैं रामजी । इसीसे संत, सदग्रंथ और भक्त कहते हैं कि- मेरे राम जैसा कोई नहीं ।

 

 लंका में राम-रावण युद्ध में जो वानर-भालू मारे गए थे उनको भी राम जी ने जीवन दान दिया । रामजी के अतिरिक्त और किसी ने भी ऐसा नहीं किया । यह रामजी की परम कृपालुता, भक्तवत्सलता और कृतज्ञता का ही उदाहरण है ।

 

भगवान के सभी अवतार भक्त वत्सल हैं । लेकिन उपरोक्त बातों से स्पष्ट है कि भक्तवत्सलता में भी राम जी अनूठे हैं । भक्तवत्सलता में भी कोई भी रामजी के आगे नहीं ठहरता ।

 

 

।। भक्तवत्सल भगवान श्रीराम की जय ।। 

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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