सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

बुधवार, 26 सितंबर 2018

मन और तन का वैराग्य: कौन सा वैराग्य श्रेष्ठ होता है ?


वैराग्य अध्यात्मिक जीवन की एक अवस्था है । उच्च अवस्था है । इस अवस्था को प्राप्त कर पाना आसान नहीं है । हर कोई इस अवस्था को नहीं प्राप्त कर सकता है ।


 कई लोग बल पूर्वक वैराग्य को धारण करना चाहते हैं । हठात वैरागी बनने से प्रायः शरीर से वैरागी बना जा सकता है । लेकिन तन से वैरागी बनना श्रेष्ठ नहीं है । क्योंकि यह ज्यादा दिन तक ठहरता नहीं है । स्थाई नहीं होता है ।


  आजकल ऐसा सुनने में आता रहता है कि अमुक व्यक्ति जो वैरागी अथवा संत वेष में थे जेल भेज दिए गए हैं । इसका कारण मुख्य रूप से यही होता है कि ऐसे लोग हठात वैरागी बने होते हैं । तन से तो वैरागी बन गए लेकिन मन से वैरागी नहीं बन पाए । और एक दिन विषयों के शिकार हो गए ।


इसलिए मन से वैरागी होना ज्यादा श्रेष्ठ होता है । जो मन से वैरागी होगा वह अपने आप तन से भी वैरागी बन जायेगा । मन से वैरागी होना शुद्ध वैराग्य है । जो मन से वैरागी नहीं होगा वह कब और कहाँ और कैसे गिर जाय कहा नहीं जा सकता ।



 जो केवल तन से वैरागी होता है उसका मन विषयों की ओर आकर्षित होता रहता है । वह हठात अपने को विषयों से दूर रखने का प्रयास भले करता रहे तो भी मन के वैरागी न होने से विषयों के जाल में फँस ही जाता है ।


इस प्रकार वह अपने स्वयं को तथा साथ ही अन्य लोगों को धोखा देता हुआ जीता है । यह एक प्रकार का अपने और दूसरे से किया हुआ छल ही होता है । इसलिए हठात वैरागी न बनकर मन से वैरागी होना ही श्रेष्ठ है ।



।। जय श्रीसीताराम ।।



गुरुवार, 20 सितंबर 2018

श्रीरामचरितमानसजी की कथा कहने और सुनने का अमोघ फल : समुचित लाभ न मिलने का कारण और निवारण


श्रीरामचरितमानस जी की कथा का फल अमोघ है । यह कथा सबका कल्याण करने वाली है । और यह सबके लिए उपलब्ध भी है । इसलिए हर किसी को इस कथा से जुड़कर कल्याण का भागी बनना चाहिए । और सबको इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए । फल श्रोता और वक्ता दोनों पर निर्भर करता है । श्रोता कैसे हैं और वक्ता कैसा है दोनों का महत्व होता है ।


  कई बार कथा सुन चुके हैं, पढ़ चुके हैं, कह चुके हैं लेकिन कोई अनुभूति नहीं हो रही है । तो इसका कोई न कोई कारण तो होगा ही । इसलिए यह एक विचारणीय प्रश्न है कि कथा का समुचित लाभ सबको कैसे मिले ? सबका समुचित कल्याण कैसे हो ?


 कथा का फल अमोघ है इसमें कोई दो राय नहीं है ।  कथा से  वांछित लाभ होता है । क्योंकि यह कामधेनु के समान कही गई है । कथा का फल होता है तथा फल होने के लिए साक्षी स्वयं भगवान शंकर जी हैं ।


  ऐसे में कथा से समुचित लाभ न होने का कारण जो समझ में आता है वह यह है कि कहीं न कहीं कोई कमी रह जाती है । इस कमी को दूर करने के लिए यथा संभव प्रयास करना होगा । इससे कल्याण हो सकेगा ।


गोस्वामीजी ने कथा कहने व सुनने के लिए कुछ शर्तें रखी हैं । उन शर्तों को ध्यान में रखकर और उनका यथा संभव पालन करके समुचित कल्याण के भागी बन सकते हैं । ये शर्तें कहने वाले व सुनने वाले सभी के लिए समान हैं । और ये इसी तरह पढ़ने वाले के लिए भी लागू होती हैं । वक्ता और श्रोता दोनों को यथासम्भव इन शर्तों का पालन करना चाहिए ।


कथा कहने वाले को कथा प्रेम पूर्वक कहनी चाहिए तथा सुनने वालों को कथा प्रेम पूर्वक सुननी चाहिए । कथा को समझकर कहना चाहिए तथा कथा को समझकर सुनना भी चाहिए । कथा को सचेत होकर कहना चाहिए तथा कथा को सचेत होकर सुनना चाहिए ।


अतः श्रोता और वक्ता दोनों के लिए कथा के प्रति प्रेम होना चाहिए । जो मन में आए वह ही नहीं कह देना चाहिए । कथा को समझना चाहिए और समझकर कहना चाहिए । सुनने वाले के लिए समझने का मतलब यह है कि जो सुने उसे समझकर ग्रहण करे । सचेत होकर कहने और सुनने का मतलब है सावधानीपूर्वक कहना और सुनना । सावधान होकर कथा कहना और सुनना चाहिए ।


  जो लोग इस प्रकार कहते और सुनते हैं उन्हें भगवान राम के चरणों में प्रेम मिल जाता है । कलियुग के पाप से निष्प्रभावी हो जाते हैं और जीवन में सुमंगल का उदय हो जाता है । ऐसा करने वाले सुमंगल भाग्य के अधिकारी बन जाते हैं ।


  इस प्रकार केवल उपरोक्त तीन शर्तों को ध्यान में रखकर और उनका पालन करके कहने वाले और सुनने वाले अपना कल्याण कर सकते हैं-


जे यहि कथहिं सनेह समेता ।  कहिहैं सुनिहैं समुझि सचेता ।।
होइहैं राम चरन अनुरागी । कलिमल रहित सुमंगल भागी ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।


मंगलवार, 18 सितंबर 2018

भगवान और भगवान की कृपा की प्राप्ति सहज है और इसमें बाहर और भीतर का अंतर बाधक है


भगवान और भगवान की कृपा प्राप्त करने का का पथ अनोखा है । आध्यात्मिक जगत ही अनोखा है । और हर कोई भगवान और उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है । भगवान और उनकी कृपा का अनुभव कर सकता है । बशर्ते रास्ता सही हो । सामान्य अनुभव की बात है कि गलत रास्ते से मंजिल थोड़े मिलती है । और यदि  रास्ता सही हो तो देर-सबेर मंजिल मिल ही जाती है ।


 संसार में यदि कोई भीतर और बाहर से अलग है तो भी संसारिक सफलताएँ प्राप्त करता रहता है । जैसा कर्म करता है उसके अनुरूप फल मिलता रहता है । लेकिन भगवान और उनकी कृपा की अनुभूति के रास्ते में ऐसा करने से लाभ नहीं होता है । यदि कोई बाहर से कुछ है और अंदर से कुछ और है तो इससे भक्ति पथ का मार्ग बाधित हो जाता है ।


  उदाहरण के लिए कोई अच्छी कथा व प्रवचन कर लेता है और करता है लेकिन भगवान में प्रेम नहीं है । विश्वास नहीं है । जीवन में बाहर से बहुत साधनारत दिखता है, लेकिन अंदर से प्रेम व विश्वास नहीं है तो इससे समुचित लाभ नहीं मिलता है ।


  यदि भीतर से प्रेम व विश्वास है, भाव है और बाहर से भले कम दिखे अथवा न दिखे तो भी लाभ होता है ।


 भगवान के बारे में अच्छा-अच्छा लिख लेने से, बोल लेने से तभी समुचित लाभ होता है जब अंदर से भी प्रेम, विश्वास, अच्छी समझ व भाव हो । उदाहरण के लिए मान लीजिए कोई एक भक्ति पद अक्सर गाता और गुनगुनाता है- ‘राम बिना मोहि नीद न आवै’ । दुनिया वाले -सुनने वाले समझेंगे कि यह तो बड़ा भक्त है । लेकिन यदि इसके साथ-साथ रात में जी भर कर सोता है और दिन में भी मौका हाथ लग जाय तो चूकता नहीं है । तो ऐसे में इस पद गायन का फल कैसे मिलेगा ? रामजी तो अन्तर्यामी हैं । उन्हें बाहर और भीतर सबकी खबर रहती है । इसलिए बाहर के साथ भीतर से भी प्रेम और भाव चाहिए ।


 कुलमिलाकर बाहर के सभी साधन तब तक प्रभावी नहीं होते हैं, जब तक अंदर से उसके अनुरूप प्रेम, विश्वास और भाव न हो । इस प्रकार भगवान और उनकी कृपा की प्राप्ति में बाहर से कैसे हैं की अपेक्षा भीतर से कैसे हैं ज्यादा महत्वपूर्ण होता हैं । और भीतर से अच्छे और सच्चे बनकर भगवान और उनकी कृपा का अनुभव किया जा सकता है ।



।। जय सीताराम ।।



शनिवार, 15 सितंबर 2018

श्रीगणेशजी विघ्नों के नाशक नहीं नाथ यानी स्वामी हैं


गणेश जी की अतुलित महिमा है । सनातन हिंदू-आर्य धर्म के प्रथम पूज्य देवता हैं । पंच देवों में से एक हैं । गणेशजी मंगल करने वाले, आनंद देने वाले, विद्या   और वुद्धि के भंडार हैं, शिव गणों के अधिपति हैं । 


 गणेश जी का पूजन करके, गणेशजी का नाम लेकर कोई भी शुभ कार्य शुरू किया जाता है । ऐसी परंपरा है । ऐसा करने से कार्य निर्विघ्न पूर्ण होते हैं ।


  लेकिन गणेश जी विघ्नों के नाशक नहीं हैं । जैसे भगवान शंकर भूतों के नाशक नहीं हैं । भूत नाथ हैं । ऐसे ही गणेश जी विघ्नों के नाथ हैं । स्वामी हैं  इसीलिए इन्हें विनायक भी कहा जाता है और इनके स्मरण से विघ्न दूर हो जाते हैं । और कार्य सिद्ध हो जाते हैं-


जय गिरिजासुत जय गणनायक । विद्यानिधि सुंदर सब लायक ।।१।।

प्रथम पूज्य जय जयति विनायक । अष्ट सिद्धि नव निधि के दायक ।।२।।

सुर नर मुनि तेरे गुनगायक । जन रंजन गुननिधि वरदायक ।।३।।

जय लम्बोदर जयति गजानन । निरखत शम्भु उमा तव आनन ।।४।।

वेद शास्त्र आदिक के ज्ञाता । काव्य निपुण मानत पितु-माता ।।५।।

वदन कोटि रवि तेज बिराजै । सुमिरत सिद्ध होत सब काजै ।।६।।

मूषक वाहन मोदक भावै । जगतपूज्य जग तुमको ध्यावै ।।७।।

संतोष जथामति गुनगन गावै । विमल भगति रघुपति की पावै ।।८।।


                             
                               -विनयावली-१५ ।



।। जय श्रीगणेशजी ।।



शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

भगवान श्रीराम का अवतार प्रत्येक त्रेता युग में नहीं होता है


भगवान श्रीराम का अवतार त्रेता युग में ही होता है । लेकिन कई बार त्रेता युग आकर चला जाता है और रामजी का अवतार नहीं होता है । क्योंकि रामजी का अवतार हर त्रेता में नहीं होता है । 


त्रेता युग आता और जाता रहता है लेकिन भगवान का अवतार प्रत्येक त्रेता युग में नहीं होता है ।


  एक कल्प में एक हजार चतुर्युग होते हैं और एक चतुर्युग में एक बार त्रेता युग आता हैं । इस प्रकार एक कल्प में एक हजार त्रेता युग आते हैं ।


भगवान राम का अवतार एक कल्प में एक बार ही होता है । एक कल्प के किसी एक त्रेता युग में होता है । और एक कल्प में त्रेता युग एक हजार बार आता है ।



इस प्रकार राम जी का अवतार हर त्रेता युग में नहीं होता है  



।। जय श्रीसीताराम ।।


मंगलवार, 11 सितंबर 2018

श्रीराम सहस्त्र नाम महिमा और श्रीगणेशजी के बचपन की उदंडता


श्रीविष्णु सहस्त्र नाम, श्रीशिव सहश्त्र नाम आदि के बारे में सबने सुना ही होगा । इसी तरह श्रीराम सहश्त्र नाम भी है । जैसे राम नाम की अतुलित महिमा है । वैसे ही राम जी के सहश्त्र नाम की भी बड़ी महिमा है । केवल एक राम नाम की महिमा ग्रंथों और संतों ने श्रीविष्णु सहश्त्र नाम के समान बताई है । ऐसे में श्रीराम सहश्त्र नाम की महिमा जितनी कही जाय उतनी कम है ।


  पुराणों में कथा आती है कि बचपन में श्रीगणेशजी बड़े उदंड थे । श्रीराम सहस्त्र नाम के प्रभाव से ये मंगलमूर्ति गणेश हो गए ।


  इनकी उदंडता बढ़ती ही जा रही थी । और हद तो तब हो गई जब गणेश जी ने एक साथ कई ऋषियों का वध कर दिया । इससे परेशान होकर भगवान शंकर जी ने भगवान श्रीराम का ध्यान किया । भगवान राम ने प्रकट होकर श्रीराम सहश्त्र नाम का पाठ करने को कहा ।


  इससे धीरे-धीरे गणेशजी मंगलमूर्ति हो गए । और प्रथम पूज्य भी हो गए । इस प्रकार श्रीराम सहश्त्र नाम बड़ा ही मंगलकारी है । बड़ी महिमा है । साथ ही बालकों की बढ़ी हुई उदंडता को छुड़ाकर उनको सही मार्ग पर लगाने वाला है । संस्कारी बनाने वाला है । सबका कल्याण करने वाला है ।


 
।। जय श्रीसीताराम ।।



शनिवार, 8 सितंबर 2018

भगवान व्यापक और व्याप्य दोनों हैं - हरि व्यापक सर्वत्र समाना


भगवान व्यापक हैं और व्याप्य भी हैं । व्यापक का मतलब है सर्वदेशीय और व्याप्य का मतलब सीमित देशीय है । ऐसी कोई भी जगह नहीं है, स्थान नहीं है जहाँ भगवान नहीं हैं । कण-कण में भगवान हैं । हर जगह समान रूप से हैं-‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना’

            
एक बार एक व्यक्ति ने पूछा कि यदि भगवान व्यापक हैं तो वे व्याप्य कैसे हो सकते हैं ? दोनों कैसे हो सकते हैं ? यह व्यक्ति सदग्रंथों की निंदा करने वाला था । मैंने पूछा पढ़ाई किए हो ? बोला विज्ञान की पढ़ाई किए हैं । फिजिक्स में एमएससी  किया हूँ । तब मैंने कहा कि फिजिक्स पढ़कर भी तुम्हें संशय है कि भगवान व्यापक और व्याप्य दोनों कैसे हैं ?


उसने कहा इसका क्या मतलब ? मैंने कहा आपने क्वांटम मेकेनिक्स भी पढ़ा होगा क्योंकि इसके बिना फिजिक्स में एमएससी नहीं हो सकती ?


मैंने उसे समझाया कि विज्ञान में तो यह पढ़ाया जाता है कि जो व्यापक है वह व्याप्य भी हो सकता है । इलेक्ट्रोन की वेव अवस्था उसकी व्यापक अवस्था और उसकी पार्टिकिल अवस्था व्याप्य अवस्था है । वह दोनों अवस्था में रह सकता है जब वहाँ संशय नहीं होता तो यहाँ संशय क्यों होता है ?


वह बोला कि विज्ञान की बात छोड़िये । मैंने कहा कि अभी आप कह रहे थे कि आपने विज्ञान पढ़ा है । और अब कह रहे हो कि विज्ञान की बात छोड़िये ।


  जिसे न मानना हो उसे कौन मना सकता है ? जिसे न समझना हो उसे कौन समझा सकता है ? श्रीव्रह्मा जी भी नहीं समझा सकते क्योंकि- ‘मूरख ह्रदय न चेत जो गुर मिलहिं विरंचि सम’


सनातन धर्म की ईश्वर के सम्बंध में कही हुई बातें और सिद्धांत किसी न किसी रूप में उच्च गणित और विज्ञान में बहुतायत मिलते हैं । जरूरत है बस समझने की । लेकिन आजकल अधिकांश लोग कुछ समझना थोड़े चाहते हैं    क्योंकि उनकी सनातन धर्म पर ऊँगली उठाने की नीयति होती है । समझें या ना समझें ऊँगली उठाना ही उद्देश्य होता है । ऐसे में कल्याण कैसे होगा ?


 जो भगवन श्रीराम समान रूप से सर्वत्र व्याप्त हैं । वे ही अपने भक्तों के लिए व्याप्य होकर लीला करते हैं और भक्त जन उनके चरित्र को गाकर, प्रेरणा लेकर  सदमार्ग का अनुसरण करते हुए भगवान श्रीराम को ही प्राप्त हो जाते हैं ।



।। जय श्रीराम ।।


सोमवार, 3 सितंबर 2018

भगवान राम का भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अवतार


गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज विनयपत्रिका जी में भगवान श्रीराम की विनय करते हुए लिखते हैं कि हे राम जी आप देवता, मुनि, व्राह्मण आदि बड़े कुल को छोड़कर  गोकुल में गोप के घर अवतार लिया


कुरूपति दुर्योधन के बड़े वैभव को ठुकुराकर विदुर जी के घर में भोजन ग्रहण किया आप अपने अनन्य भक्तों की भलाई करना ही अच्छा समझते हैं । आपने अपनी यह रीति कुछ-कुछ अर्जुन जी को बताई थी । हे रामजी आप सहज प्रेम के बस हैं बाकी साधन तो जल की चिकनाई की तरह हैं ।


अर्थात प्रेम न होने से भगवान ने दुर्योधन के घर के मेवा-मिष्ठान को छोड़कर विदुर जी के घर साग खाकर संतुष्ट हो गए क्योंकि विदुर जी प्रेमी भक्त थे ।


अन्य साधन थोड़े समय ही ठहरने वाले होते हैं । इनसे थोड़े समय के लिए हित हो सकता है । रामजी और कृष्ण जी प्रेम के वश में हैं । प्रेम सब साधनों से बड़ा है । भगवान से प्रेम करके सुख को प्राप्त कर सकते हैं और दुःख रूप संसार से मुक्त हो सकते है -



सुर-मुनि विप्र बिहाय बड़े कुल,

          गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो

वायों दियो विभव कुरुपति को,

           भोजन जाय विदुर-घर कीन्हो ।।

मानत भलहि भलो भगतनि तें,

            कछुक रीति पारथहि जनाई ।

तुलसी सहज सनेह राम बस,

           और सबै जल की चिकनाई ।।




              -श्रीविनयपत्रिका / २४०  



।। जय श्रीकृष्ण ।।




रविवार, 2 सितंबर 2018

घोर कलियुग और श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु आदि में अभेद तथा गोस्वामी तुलसीदासजी की लाखन में एक बात


(१)

नाना मत पंथ ग्रंथ, कहे न सिरात हैं

दिन-दिन नए-नए देवता फुरात हैं ।।

संतोष है कराल काल कछू न सुझात है ।

बहती गंगा में सब हाथ धोए जात हैं ।।

(२)


छल प्रपंच दिन-दिन अधिकात हैं 

ज्ञान विराग भगति हाट में बिकात हैं ।।

नए-नए ज्ञानी बढ़े बढ़ते ही जात हैं ।

दीन संतोष लोग जहँ-तहँ भरमात हैं ।।

(३)

राम कृष्ण नारायण, देव अनेक हैं ।

निरखे ते ज्ञान नयन, देव सब एक हैं ।।

राम मय जग सारा कण प्रत्येक है ।

राम कृष्ण विष्णु एक, संतोष सही टेक है ।।

(४)

शास्त्र पुराण पढ़े और पढ़े वेद हैं ।

ज्ञान को राशि मनो, लिए मन भेद हैं ।।

भेद ते सिधि कहाँ खेल को ज्यों गेंद हैं ।

राम कृष्ण विष्णु में संतोष अभेद है ।।

(५)

लाखन में एक बात तुलसी बताए हैं ।

समझे न लोग बार-बार समुझाए हैं ।।

जीवन है थोर मत बहु भरमाए हो

दीन संतोष फिरत राम को भुलाए हो ।।

(६)

राम नाम जाप करो ग्रंथन को सार है ।

कलि में जतन और सही में बेसार हैं ।।

दीन को दयालु राजा राम जी उदार हैं ।

दीन संतोष गहे शरन उद्धार है ।।



।। जय सियाराम ।।



शनिवार, 1 सितंबर 2018

कराल कलिकाल और नए-नए भगवान: सुख आदि लाभ का प्रलोभन देकर गुमराह करने की साजिश


घोर कलिकाल है । ऐसी स्थिति और परिस्थिति में अपने धर्म पर, अपनी आस्था पर सामान्य लोगों का कायम रह पाना थोड़ा मुश्किल है । क्योंकि धार्मिक आस्था को बलवती करने वाली बातें व चीजें बहुत कम और इसे डिगाने के हजारों उपक्रम चल व चलाए जा रहे हैं ।


 अभी हाल में रात के समय बाजार से आ रहा था तो एक व्यक्ति ने मुझे एक पुस्तिका थमा दी । आवरण पृष्ठ पर एक चित्र बना था जिसमें भगवान श्रीकृष्ण जी सारथी के रूप में और अर्जुनजी रथ में सवार थे । मैंने पुस्तक ले लिया ।


  बाद में पुस्तक थोड़ा पढ़ना चाहा तो उसमें सार्थक कोई बात नहीं थी । केवल आस्था डिगाने वाली बातें थीं । सब उल्टी-पल्टी । उसमें संतों की निंदा से लेकर भगवान श्रीविष्णु, भगवान श्रीकृष्ण की निंदा थी । और इन्हें भगवान मानने से इनकार किया गया था । पुस्तक के प्रचार-प्रसार करने वाले ने अपने गुरु को ही भगवान का अवतार बताया है और उनके मूल भगवान त्रिदेव और भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण से अलग हैं ।


सामान्य लोगों को भ्रमित करने के लिए अनेक तर्क दिए हैं । जैसे पूजा-पाठ भी  करते हो तो दुखी क्यों रहते हैं ? समाज में इतने अपराध क्यों हैं ? आदि । कुलमिलाकर सबका कारण बताया गया है कि सब लोग गलत भगवान की पूजा कर रहे हैं । ऐसे में सुखी कहाँ से रहेंगे । जब गलत भगवान की पूजा करोगे तो दुखी ही रहोगे । आदि ।


  श्रीमद्भगवतगीता, वेद-पुराण आदि को लोगों ने नहीं समझा है ऐसा उस पुस्तक में कहा गया है । इसीलिए लोग दुखी हैं । और उस पुस्तिका के अनुसार नया भगवान बना लें तो सारे दुःख दूर हो जायेंगे । आदि ।


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने  कई सौ साल पहले ही लिखकर बता दिया था कि कलिकाल में दंभी लोग बढ़ जाएँगे और नाना मत बनाकर अनेक पंथ गढ़ लेंगे । और वेद सम्मत मत का त्याग करेंगे ।  आजकल वही हो रहा है तथा आगे और होगा ।


 गोस्वामीजी ने यह भी कहा है कि जो लोग वेद सम्मत तर्क  की आलोचना करेंगे , उसे बुरा भला कहेंगे वे एक एक नर्क में एक-एक कल्प तक पडेंगे । तो फिर ऐसे लोगों का क्या होगा ? ये खुद तो डूब ही रहे हैं पता नहीं और कितनों को ले डूबेंगे ?


इसलिए किसी भी दुष्प्रचार का शिकार न होकर प्राचीन संतों के दिखाए हुए मार्ग पर चलना चाहिए । इसके लिए गोस्वामी तुलसीदासजी को चुन लेना चाहिए । उन्होंने जो रास्ता दिखाया है उसी पर चलना चाहिए । किसी के भी बातों में आकर गुमराह नहीं होना चाहिए । और दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ नहीं करना चाहिए । यदि इस तरह के दुष्प्रचार के शिकार हो गए तो पता नहीं कितने जीवन बेकार हो जाएँगे । अतः केवल प्रमाणिक ग्रंथों और संतों की बातों पर ही विश्वास करना चाहिए । और किसी धोखे में नहीं आना चाहिए । रामजी, कृष्णजी, विष्णुजी, शंकरजी आदि ही सनातन धर्म के देवता हैं । इन पर ही विश्वास करना चाहिए और इनकी ही भक्ति करनी चाहिए । दुःख और सुख तो सबके जीवन में आते हैं और आते रहेंगे । क्योंकि यह संसार दुःख रूप ही है । इसलिए दुखों से बिचलित नहीं होना चाहिए । भगवान की भक्ति से, विश्वास से दुःख आकर दूर होते रहते हैं और जीवन में सुख का अनुभव अनायास होता रहता है । और कभी कुछ बिगड़ता नहीं है -

तुलसी सीताराम सो दृढ कीजे विश्वास 
कबहूँ बिगरी न सुनी रामचन्द्र के दास 



।। जय श्रीराम ।।



चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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