किए हुए कर्म का फल प्रत्येक प्राणी को स्पर्श करता है । वह चाहे संत हो, चाहे भक्त हो । इसलिए शाश्त्र मर्यादा के अनुरूप कर्म करने को कहा गया है । फिर भी आजकल कई लोग कहते हैं कि भक्तों के लिए और संतों के लिए शास्त्र के अनुरूप चलना जरूरी नहीं है । इसी बात को कुछ लोग इस तरह कहते हैं कि सारे शास्त्र एक तरफ और गुरू आज्ञा एक तरफ । अर्थात ऐसे लोगों को शास्त्र से कोई मतलब नहीं है ।
अब प्रश्न यह उठता है
कि क्या आधुनिक संत और भक्त शंकर जी से भी बड़े संत और भक्त हैं ? यह सोचने वाली
बात है कि क्या शंकरजी से बड़ा वैष्णव कोई है ? क्या शंकरजी से बड़ा भक्त कोई है ?
क्या शंकरजी से बड़ा कोई संत है ? क्या शंकर जी से बड़ा कोई ज्ञानी है ? क्या शंकरजी
से बड़ा कोई वैरागी है ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर एक ही है- ‘नहीं’ । इसमें कोई
दो राय नहीं है ।
जब शंकर जी परम संत हैं
तो उन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा कि वे शास्त्र से परे हैं इसलिए उन्हें व्रह्मा जी
का एक सिर काटने पर व्रह्म हत्या का पाप कैसे लग सकता है ? और उन्हें प्रायश्चित
करने की क्या जरूरत है ? वे क्यों व्रह्म हत्या के निवारण के लिए भिक्षाटन करें और
तीर्थ भ्रमण दर्शन-स्नान इत्यादि करें ।
लेकिन ऐसा कहे बिना उन्होंने प्रायश्चित किया । इससे सिद्ध होता है कि परम संत और परम भक्त होने के बावजूद शंकर जी ने शाश्त्र की मर्यादा के अनुरूप व्रह्म हत्या की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित किया । और परम भक्त और परम संत शंकर जी ने नहीं कहा कि वे व्रह्म हत्या से परे हैं । फिर आजकल के कुछ संत और भक्त शाश्त्र से परे कैसे हो गए ? क्या अपने को शास्त्र से परे समझना उचित है ? यदि कोई परे हो भी गया हो तो सार्वजनिक रूप से ऐसा कहना, बताना अथवा ऐसा उपदेश देना उचित नहीं माना जाता है ।
।। जय श्रीराम ।।