सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

सोमवार, 25 दिसंबर 2023

कर्म फल और शास्त्र मर्यादा

 

किए हुए कर्म का फल प्रत्येक प्राणी को स्पर्श करता है  वह चाहे संत हो, चाहे भक्त हो । इसलिए शाश्त्र मर्यादा के अनुरूप कर्म करने को कहा गया है । फिर भी आजकल कई लोग कहते हैं कि भक्तों के लिए और संतों के लिए शास्त्र के अनुरूप चलना जरूरी नहीं है । इसी बात को कुछ लोग इस तरह कहते हैं कि सारे शास्त्र एक तरफ और गुरू आज्ञा एक तरफ । अर्थात ऐसे लोगों को शास्त्र से कोई मतलब नहीं है ।

 

 अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आधुनिक संत और भक्त शंकर जी से भी बड़े संत और भक्त हैं ? यह सोचने वाली बात है कि क्या शंकरजी से बड़ा वैष्णव कोई है ? क्या शंकरजी से बड़ा भक्त कोई है ? क्या शंकरजी से बड़ा कोई संत है ? क्या शंकर जी से बड़ा कोई ज्ञानी है ? क्या शंकरजी से बड़ा कोई वैरागी है ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर एक ही है- ‘नहीं’ । इसमें कोई दो राय नहीं है ।

 

  जब शंकर जी परम संत हैं तो उन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा कि वे शास्त्र से परे हैं इसलिए उन्हें व्रह्मा जी का एक सिर काटने पर व्रह्म हत्या का पाप कैसे लग सकता है ? और उन्हें प्रायश्चित करने की क्या जरूरत है ? वे क्यों व्रह्म हत्या के निवारण के लिए भिक्षाटन करें और तीर्थ भ्रमण दर्शन-स्नान इत्यादि करें ।

 

   लेकिन ऐसा कहे बिना उन्होंने प्रायश्चित किया । इससे सिद्ध होता है कि परम संत और परम भक्त होने के बावजूद शंकर जी ने शाश्त्र की मर्यादा के अनुरूप व्रह्म हत्या की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित किया । और परम भक्त और परम संत शंकर जी ने नहीं कहा कि वे व्रह्म हत्या से परे हैं । फिर आजकल के कुछ संत और भक्त शाश्त्र से परे कैसे हो गए ? क्या अपने को शास्त्र से परे समझना उचित है ? यदि कोई परे हो भी गया हो तो सार्वजनिक रूप से ऐसा कहना, बताना अथवा ऐसा उपदेश देना उचित नहीं माना जाता है । 

 

।। जय श्रीराम ।।  

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

कृष्ण कन्हैया तेरी जय जय हो

 । श्रीकृष्णचंद्राय नमः 


कृष्ण कन्हैया तेरी जय जय हो ।

बलदाऊ जी के भैया तेरी जय जय हो ।।१।।

गाय चरैया तेरी जय जय हो ।   

मुरली बजैया तेरी जय जय हो ।।२।।

माखन चोरैया तेरी जय जय हो ।

नाग नथैया तेरी जय जय हो ।।३।।

गिरिराज धरैया तेरी जय जय हो ।

वृंदावन के बसैया तेरी जय जय हो ।।४।।

रास रचैया तेरी जय जय हो ।

राधारमण कहैया तेरी जय जय हो ।।५।।

जन लाज बचैया तेरी जय जय हो ।

दुष्ट दलैया तेरी जय जय हो ।।६।।

चक्र धरैया तेरी जय जय हो ।

द्वारकाधीश कहैया तेरी जय जय हो ।।७।।

जन भीर हरैया तेरी जय जय हो ।

गीता ज्ञान देवैया तेरी जय जय हो ।।८।।

भुवि भार दलैया तेरी जय जय हो ।

भव पार लगैया तेरी जय जय हो ।।९।।

जन मान रखैया तेरी जय जय हो ।

निज धाम देवैया तेरी जय जय हो ।।१०।।

 

।। श्रीकृष्णचंद्र भगवान की जय ।।

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

सनातन धर्म में भगवान भी स्वतंत्र नहीं है- भगवान भी शास्त्र के बंधन में रहते हैं

 

जो शास्त्र को न माने वह न तो भक्त होता है और न ही संत । कई लोग जो बातें अपने मन के अनुकूल हो उसे मानते हैं शेष नहीं मानते और मनमाना उपदेश देते हैं । जबकि सनातन धर्म में भगवान भी शास्त्र के वन्धन में रहते हैं । इसलिए भगवान स्वतंत्र होकर भी स्वतंत्र नहीं हैं ।

  शास्त्र मर्यादा तो बड़ी चीज है, सनातन धर्म में लोकाचार का भी बड़ा महत्व है । इसलिए लोक मर्यादा का भी पालन जरूरी होता है । श्रीरामचरितमानस जी में यह बात बार-बार आई है । उदाहरण के लिए- ‘करि लौकिक वैदिक सब रीती’ । भगवान श्रीराम की स्तुति करते हुए कहा जाता है-‘लोक वेद रक्षक जनत्राता’

 

   इसलिए भगवान स्वयं शास्त्र मर्यादा के अनुकूल व्यवहार करते हैं । भगवान के लिए कहा गया है- ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ । अर्थात आप परम स्वतंत्र हैं और आपके ऊपर कोई अथवा कुछ नहीं है । लेकिन भगवन परम स्वतंत्र होकर भी शास्त्र के अनुकूल ही रहते हैं । एक कथा के माध्यम से समझाने का प्रयास कर रहे हैं ।

  एक बार राक्षसों को शरण देने के कारण भृगु ऋषि की पत्नी का भगवान नारायण ने अपने चक्र से वध कर दिया । क्योंकि इसके बिना राक्षसों का वध नहीं हो पाता, जो कि बहुत जरूरी था ।

  भृगु ऋषि ने इसके लिए भगवान को शाप दिया । भगवान यह दिखाने के लिए कि परम स्वतंत्र होकर भी मैं स्वतंत्र नहीं हूँ, बोले कि मैं आपके शाप को स्वीकार नहीं करता । मैं नहीं मानता । भृगु जी ने कहा कि आपको स्वीकार करना पड़ेगा । भृगु जी तपस्या करने लगे । और अंततः भगवान ने भृगु ऋषि के शाप को स्वीकार किया और दिखाया कि मैं भी स्वतंत्र नहीं हूँ ।

 

  ऐसे अनेकों उदाहरण हैं । जैसे जब भगवान शंकर ने व्रह्मा जी का एक सिर काटा तो व्रह्म हत्या उन्हें भी लगी । और जब स्वयं व्रह्मा जी को शाप मिला तो उनको भी उसके अनुरूप रहना पड़ा ।

 

 इस प्रकार सनातन धर्म में किसी को भी मनमानी करने की स्वतंत्रता नहीं है । जब भगवान को ही नहीं है तो भक्त और संत कहाँ ठहरते हैं ? इसलिए चाहे भक्त हो और चाहे संत सभी को शास्त्र के अनुरूप ही चलना चाहिए । और सारे शास्त्र एक तरह और महापुरुष की आज्ञा एक तरफ से बचना चाहिए । क्योंकि इस कलियुग में महापुरुषों की कमी नहीं है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

 

रविवार, 17 दिसंबर 2023

भगवान श्रीराम जैसा विवाह भगवान नारायण और भगवान श्रीकृष्ण का भी नहीं हुआ

 

श्रीसीताराम जी के विवाह जैसा श्रीसीताराम विवाह ही है ।  न ऐसा विवाह पहले किसी का हुआ था, न इनके सिवा किसी का हुआ है और न आगे होगा ।

 

विवाह का जैसा सौभाग्य-उत्सव-सुख आदि भगवान श्रीराम को मिला उस तरह का सौभाग्य आज तक किसी को नहीं मिला । यहाँ तक भगवान नारायण और भगवान श्रीकृष्ण को भी नहीं मिला ।

 

  भगवान नारायण दूल्हा बनकर जाएँ ।  बरात जाए ।  सबका आदर-सत्कार हो । रोज नए-नए आनन्दोत्सव हों और जल्दी वापस आने की अनुमति न मिले ।  यह सुख सौभाग्य भगवान नारायण को भी नहीं मिला ।

 

भगवान श्रीकृष्ण ने विवाह तो बहुत किए आठ पटरानियों सहित सोलह हजार एक सौ आठ लेकिन दूल्हा बनने का और ससुराल में आदर मान सम्मान और आनंदोत्सव का सुख-सौभाग्य जो भगवान श्रीराम को मिला वह नहीं मिल पाया । लड़ाई-युद्ध ऊपर से करना पड़ा ।  

 

सारे सगुनों को किसी भी विवाह में एक साथ झूमने का खुश होने का उदित होने का कभी सौभाग्य ही नहीं मिला । इसलिए ये सोचते थे कि विधाता ने हम लोगों को झूठे ही बना दिया । आज तक हम लोग एक साथ कभी किसी विवाह जैसे मांगलिक कार्य में अपनी उपस्थिति नहीं देख पाए । लेकिन जब सगुनों ने सुना कि श्रीसीताराम जी का विवाह होने जा रहा है तो सब खुशी में झूम उठे और कहने लगे कि आज हम लोग धन्य हो गए । आज विधाता-व्रह्मा ने हम लोगों को सत्य कर दिया क्योंकि आज पहली बार किसी विवाहोत्सव में हमें एक साथ उदित होने का मौका मिला रहा है-

सुनि अस व्याह सगुन सब नाचे । आज कीन्हे विरंचि हम साँचे ।।

 

।। श्रीसीताराम विवाह महामहोत्सव की जय ।।

  

शनिवार, 16 दिसंबर 2023

सारे शास्त्र एक तरह और गुरू आज्ञा एक तरह कहने वालों से सावधान रहने की जरूरत

आज कल घोर कलियुग का समय है । और इसलिए शास्त्र विरुद्ध बाते कहने वालों, बताने वालों की संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है । लेकिन शास्त्र विरुद्ध आचरण निषिद्ध है । इसलिए शास्त्र विरुद्ध बात यदि गुरू भी बताए तो या तो ऐसे गुरू को छोड़ देना चाहिए अथवा उसके शास्त्र विरुद्ध बात को नहीं मानना चाहिए ।

  कई लोग जो स्वयं गुरू बन चुके हैं, और गुरू रूप में अपनी प्रसिद्ध चाहते हैं, अधिक से अधिक लोगों को अपने से जोड़ना चाहते हैं, अपने मानने वालों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं अथवा अपने को पुजवाने, सम्मानित होने आदि की प्रबल इच्छा रखते है ऐसे लोग भी सारे शास्त्र एक तरफ और गुरू आज्ञा एक तरह ऐसा बोलते और बताते रहते हैं । ऐसे लोगों से सावधान रहने की जरूरत है ।

  जैसे आजकल किसी देश को चलाने के लिए संबिधान होता है, किसी संस्था आदि को चलाने के लिए नियम होते हैं । ठीक ऐसे ही सनातन धर्म को बचाने के लिए, सनातन मर्यादा की रक्षा के लिए शास्त्र होते हैं । यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि देश का संबिधान और संस्था को चलाने के लिए नियम परिवर्तनीय होते हैं । लेकिन शास्त्र अपरिवर्तनीय हैं । शास्त्रों को कोई अपनी सुविधा के अनुसार अथवा मनमानी करने के लिए बदल भी नहीं सकता । क्योंकि ये त्रिकाल दृष्टा प्राचीन ऋषियों द्वारा रचित अथवा संरक्षित और अनुमोदित हैं ।

  आजकल लोग कही सुनी बातों में भी आ जाते हैं और दूसरी ओर जिसके प्रति जिस किसी की श्रद्धा होती है उसकी बातों को वह अंतिम सत्य मान लेता है । लोग जिसे बड़ा गुरू अथवा साधु-संत समझते हैं उसकी बात को भी आसानी से मान लेते हैं । लेकिन शास्त्र विरुद्ध बात बताने वाला चाहे गुरू हो, चाहे साधु-संत हो तो उनकी बातों को आँख मूँदकर मानना उचित नहीं होता । क्योंकि संतान धर्म में शाश्त्र ही सर्वोपरि हैं ।

 

  आजकल कई लोग वीडियों वीर भी होते हैं । रोज विडियों के माध्यम से भी लोगों को उपदेश देते रहते हैं । अच्छी-अच्छी, बड़ी-बड़ी बातें बताते हैं तो लोग प्रभावित हो जाते हैं । ऐसे लोग भी शास्त्र विरुद्ध बातें बताएँ तो भी उनकी ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए ।

 इस प्रकार कोई भी यदि ऐसा बोलता अथवा बताता है कि सारे शास्त्र एक तरफ और गुरू आज्ञा एक तरफ तो उसकी इस बात को नहीं मानना चाहिए । और ऐसे लोगों से सावधान रहने की भी जरूरत होती है । क्योंकि सनातन धर्म में शास्त्र ही सर्वोपरि हैं और शास्त्र ही प्रमाण हैं ।

 

।। जय श्रीराम ।।

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

सीतापति रघुनाथ भजो

 

   ।। राम राम ।।

 

सीतापति रघुनाथ भजो ।

मंगलमूल अमंगलहारी अग जग के जो नाथ भजो ।।१।।

दीनबंधु दीनन के रक्षक रघुवर दीनानाथ भजो ।

सुंदर कर सर चाप धरे रविकुल रवि कटि भाथ भजो ।।२।।

कोल किरात आदि कपि भालू राखत जो निज साथ भजो ।

परम पुनीत जासु पद पंकज सुर मुनि नावत माथ भजो ।।३।।

दीनदयाल उदार शिरोमणि करत जो जन कृतार्थ भजो ।

परधाम परात्पर पूर्ण पुरुषोत्तम राम परम परमार्थ भजो ।।४।।

परम पुनीत सुर नर मुनि गावत जासु सदा गुनगाथ भजो ।

दीन मलीन संतोष के ऊपर सदा धरे जो हाथ भजो ।।५।।

 

  ।। सीतापति रघुनाथ जी की जय ।।

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

भव सरिता को नाव संतन को नहीं शुद्ध संतन के चरण

 

भोले-भाले लोग समझते हैं कि किसी संत की सेवा करने लग जायेंगे, उनका संग करने लग जायेंगे तो अपना बेड़ा पार हो जाएगा । अर्थात वे संसार सागर से पार हो जाएँगे । कई लोग तो यहाँ तक समझने लगते हैं कि उनको भगवद प्राप्ति हो जायेगी । भगवान के दर्शन हो जाएँगे ।

 एक बात और है भोले-भाले लोग कथा वाचक और संत में अंतर भी नहीं समझते । जो कथा कह रहा हो, संस्कृत के दो-चार श्लोक बोल रहा हो उसी को संत मान लेते हैं । कथा वाचक और संत में क्या अंतर है ? संत कथा वाचक हो सकता है लेकिन कथा वाचक का संत होना जरूरी नहीं है । यह समझना आवश्यक है ।

 

 सुंदरकाण्ड में चौपाई आती है ‘अब मोहिं भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।। कई कथा वाचक और संत इस चौपाई पर बहुत जोर देते हैं और जोर देकर समझाते भी हैं जिससे सुनने वालों को समझ में आ जाए कि उन पर भगवान की कृपा हुई है-हो चुकी है तभी ये हम लोगों को मिले हैं और कथा सुना रहे हैं

 

इसी तरह अरण्यकाण्ड में चौपाई आती है जिसमें कहा गया है- ‘प्रथम भगति संतन कर संगा’ । इस पंक्ति पर भी कथा-वाचक और संत बहुत जोर देते हैं और जोर देकर समझाते भी हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि कई भोले-भाले लोग कथा वाचक का संग करने लगते हैं अर्थात उनके साथ लग जाते है । अथवा साथ के लिए लालायित रहते हैं या रहने लगते हैं ।

 

इसी तरह विनय पत्रिका जी में एक पद आता है कि ‘जब द्रवहिं दीनदयाल राघव साधु संगति पाइए’ । इस पद पर भी कई कथा वाचक और संत बहुत जोर देते हैं और जोर देकर समझाते भी हैं । जिससे लोग समझ जाएँ कि रामजी द्रवित हुए हैं तभी हम लोगों को इनकी संगति मिली है ।

 

  लेकिन सच बात तो यह है कि ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता’, ‘प्रथम भगति संतन कर संगा’, और ‘साधु संगति पाइए’ में संत और साधु का अर्थ यह नहीं है कि कोई भी जो साधु अथवा संत के वेश में हो अथवा जो कथा कह लेता हो ।  यहाँ पर साधु और संत का मतलब शुद्ध साधु और शुद्ध संत से है । और इसलिए विनय पत्रिका जी में ही गोस्वामी जी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि- ‘भव सरिता को नाव शुद्ध संतन को चरण’ । लेकिन यह पद कथा-वाचकों और संतों द्वारा थोड़ा उपेक्षित है । जिसपर ज्यादा जोर नहीं दिया जाता । इसको लोग कथा-प्रवचन में प्रायः गाते नहीं हैं ।

 

  चूँकि कराल कलिकाल का समय है । इसलिए ऐसे लेख की आवश्यकता है । इसी को ध्यान में रखकर इस लेख को लिखा गया है । यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि शुद्ध संतन के चरण ही भव सागर से पार लगा सकते हैं ।

 

।। जय श्रीसीताराम ।।

शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

बसौ मेरे नयनन में रघुवीर- अवध बीथिन बिच विचरत रघुवर, खेलत सरजू तीर

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

 

बसौ मेरे नयनन में रघुवीर 

रूप अनूप मदन लखि लाजै, सुंदर श्याम शरीर ।।१।।

अंग अंग सुभग मनोहर चितवन, सुंदर धनु कर तीर ।

बालोचित पट सोहत नीके, भूषण लसत तुणीर ।।२।।

मंद मंद मुस्कान सुशोभित, नाभी रुचिर गंभीर ।

भूपति मगन मुदित सब रानी, निरखत जन मन हीर ।।३।।

चारों भ्रात सखा संग सोहत, सकल सुभग वर वीर ।

अवध बीथिन बिच विचरत रघुवर, खेलत सरजू तीर ।।४।।

सुर नर मुनि निरखत सुख पावत, मुदित सकल मतिधीर ।

दीन संतोष ओर प्रभु देखो, धारो कर मम सीर ।।५।।


। जय रघुवीर 

सोमवार, 6 नवंबर 2023

पर उपदेश कुशल बहुतेरे...

 

दूसरों को उपदेश देना सरल होता है । चाहे ज्ञान, वैराग्य की बातें हों चाहे भक्ति की दूसरों को बताना आसान होता है । आजकल महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी पावर पॉइंट प्रेजेन्टेशन के माध्यम से भी लेक्चर लिए जाते हैं । प्रेजेन्टेशन देने वाला पढ़कर बोलता जाता है और स्लाइड बढ़ाता जाता है । उसका काम हो जाता है वो भी आसानी से । भले ही प्रेजेंटेशन देने वाला स्वयं कन्टेंट को न समझ रहा हो लेकिन वह बोलकर और एक के बाद दूसरी स्लाइड दिखाकर अपना काम बना लेता है ।

 

  आजकल कई लोग बताते हैं कि ऐसा करोगे तो लीला में प्रवेश हो जाएगा । ऐसा करोगे तो भगवद प्राप्ति हो जायेगी । ऐसा करोगे तो भगवान का दर्शन हो जाएगा । आदि ।

 

  लेकिन यह नहीं बताते कि ऐसा करके हमने देख लिया है । मैंने लीला में प्रवेश कर लिया है । हमें भगवद प्राप्ति हो चुकी है । हमें भगवान के दर्शन हो चुके हैं । कोई पूछे कि क्या आपको भगवान के दर्शन हो चुके हैं तो कई लोग गोल-मटोल जबाब देते हैं । कई लोग प्रश्न सुनकर मौन भी हो सकते हैं । जिससे लोग समझें कि इनको हो तो चुका है लेकिन ये बताना नहीं चाहते हैं । कई लोग स्पष्ट बोल, कह और लिख भी देते हैं कि हमें दर्शन हो चुका है ।

 

कई लोग ऐसा भी बोल देते हैं कि मुझे तो नहीं हुआ लेकिन इसलिए बताते हैं कि हो सकता है सामने वाले को हो जाए ।

 

कई लोग ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, साधन और साधना की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन उस स्तर का ज्ञान-वैराग्य-भक्ति और साधना आदि उसके भीतर होती नहीं है । सुनी-सुनाई बातें, पढ़ी हुई बातें बोलते जाते हैं लेकिन उन बातों को स्वयं के भीतर नहीं उतारते और ‘आपुन मंद कथा शुभ पवन’ को चरितार्थ करते रहते हैं । लेकिन सही लाभ ठीक-ठीक लाभ तो तभी मिलता है जब ये बातें अपने भीतर भी उतरने लगें और उतर जाएँ । गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि उपदेश देने वाले  तो बहुत से कुशल लोग हैं । लेकिन जिनके आचरण में भी उपदेश घटित होता हो ऐसे लोग बहुत कम हैं –

 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

बुधवार, 1 नवंबर 2023

भजौ रे मन रघुवर राघव राम

 

         ।। राम राम ।।

 

भजौ रे मन रघुवर राघव राम

पूरणचंद राम रघुनंदन, जन चकोर अभिराम ।।१।।

ज्ञान विराग भगति वरदायक, जन मन पूरणकाम ।

शेष महेश गणेश बखानत, लीला ललित ललाम ।।२।।

रूप अनूप सुंदर सुखदायक, दया शील गुन धाम

दास सो प्रीति रीति मुनि गावत, युग युग ते अविराम ।।३।।

दीन हीन के भीर हरैया, रामचन्द्र बहुनाम ।

दीन संतोष की लाज बचैया, रविकुल के रवि राम ।। ४।।

 

         ।। जय श्रीराम ।।

सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

गावो रे मन गुनगन रघुवीर

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

 

गावो रे मन गुनगन रघुवीर ।

दशरथ सुवन कौशल्यानंदन, विश्वविदित बर वीर ।।१।।

दीनबंधु दीन जन रक्षक, धारत धनु कर तीर ।

पीतबसन मनहर छवि सोहत, काँधे रुचिर तुणीर ।।२।।

सुंदर श्याम सलोने रघुवर, अंग अंग सुभग शरीर ।

कोटि मदन निरखत छवि लाजे, जन मन मीनन नीर ।।३।।

राजीवविलोचन सुमिरन कीजे, जब लग साथ शरीर ।

दीन मलीन राखि सुख पावत, हारत जन मन पीर ।।४।।

देत दिवावत मान दीन को, हारत भव भय भीर ।

दीन संतोष के नाथ सियावर, बसिये ह्रदय कुटीर ।।५।।

 

।। जय श्रीसीताराम ।

रविवार, 8 अक्तूबर 2023

भजौ रे मन दशरथ राज किशोर

 

भजौ रे मन दशरथ राज किशोर ।

मंगलमूरति श्यामलसूरति, मुनि जन मन चितचोर ।।१।।

राम भरत दोउ श्यामल सुंदर, रिपुहन लक्षिमन गोर ।

राम-लखन भरत-रिपुसूदन, जोरी दोउ वर जोर ।।२।।

राम शील गुन विरद उजागर, सुनि सुनि उठत हिलोर ।

दीन मलीन तिमिर मय जीवन, रघुवर करत अजोर ।।३।।

मोसे दीन मलीन को गाहक, देखत कृपा कोर ।

दीन संतोष दोष दुख जारत, दीन कहे प्रभु तोर ।।४।।

 

।। दशरथ राज किशोर जय ।।

रविवार, 1 अक्तूबर 2023

जनकपुर में राम-लक्ष्मण-मुनि संग आए सखी श्यामल गौर हो

मुनि संग आए सखी श्यामल गौर हो ।

इन सम ये नहीं तिहुँ पुर और हो ।।१।।

नील जलद जैसे मन जिमि मोर हो

छवि को समुंद्र लागैं कौशिलाकिशोर हो ।।२।।

रूप अनूप देखे बड़े चितचोर हो ।

मन संग रहा नहीं कवनव जोर हो ।।३।।

देखन में लघु लगैं, बल नहिं थोर हो ।

इनहीं की चर्चा होवै पुर चहु ओर हो ।।४।।

जुगुनूँ से भूप धनु तम घनघोर हो ।

रवि कुल रवि राम करिहैं अजोर हो ।।५।।

दीन संतोष उठै हिय में हिलोर हो ।

सिय को वरेंगे राम शिव धनु तोर हो ।।६।।

 

।। श्रीसीताराम भगवान की जय ।। 

मंगलवार, 19 सितंबर 2023

हे नाथ मेरे मुझे कब मिलोगे

हे नाथ मेरे मुझे कब मिलोगे । जिय की जरनि राम रघुवर हरोगे ।।


ऐसा नहीं आप मिलते नहीं हो । याद जनों की करते नहीं हो । मुझे याद स्वामी कब तुम करोगे ।। हे नाथ. ।।


दीनों से मिलते हो तुम मैंने जाना । मिलने गए करके वन का बहाना ।

नयनों को मेरे कब शीतल करोगे ।। हे नाथ. ।।


हेरि-हेरि वन में मिले तुम ठिकाना । कोल भील केवट को किसने था माना ।

कृपा कोर मुझपे कब तुम करोगे ।। हे नाथ. ।।


कपि भालु खग को किसने निहारा । सुनि सुनि विरद गुन मिलता सहारा ।

मेरे राम मेरी तुम निर्बहोगे ।। हे नाथ. ।।


बालपने से बल पे तुम्हारे । रहता रहा राम जानो हमारे । रविकुल रवि राम कब तुम उओगे ।। हे नाथ. ।।


धनुष वाण धारी रघुवर हमारे । संतोष दीनों के संबल सहारे । अपनी ढरनि राम कब तुम ढरोगे ।। हे नाथ. ।।

 

।। दीन हीन हितैषी दीनबंधु  रघुनाथ जी की जय ।।

गुरुवार, 14 सितंबर 2023

हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे


 हे नाथ मेरी कब तुम सुनोगे । अपने जनों में मुझे भी गिनोगे ।।


दीनों की सुनते विरद ऐसा कहती । तेरे बनाए बिगड़ी है बनती ।

अपनी ढरनि राम कब तुम ढरोगे ।। हे नाथ. ।।

 

कपि भालु राखे जेहि गुन गोसाईं । गीधादि सबरी की बिगड़ी बनाई ।

सो गुन दयानिधि कब अनुकरोगे ।। हे नाथ. ।।

 

पतितपावन तुम हो कहाते । पतितो को सुनते निज पुर बसाते ।।

सो रीति स्वामी कब अनुसरोगे ।। हे नाथ. ।।

 

दीनदयालु तुम सा न कोई । मेरी दशा नाथ तुम से न गोई । 

दयामय दया नाथ कब तुम करोगे । हे नाथ. ।।

 

दीनों के बंधू किसी को न जाना । बालपने से तुमको ही माना । 

कर कंज सिर पे कब तुम धरोगे ।। हे नाथ. ।।

 

कितने अधम को तुम हो उधारे । मोसे दीन हीनों को चुन चुन के तारे । 

मेरे नाथ मुझको कब उद्धरोगे ।। हे नाथ. ।।

 

जैसा भी है दीन संतोष तेरा । तेरे सिवा राम दूजा न मेरा । 

मेरा है तू भी कब तुम कहोगे ।। हे नाथ. ।।

 

 ।। दीनदयाल भगवान श्रीराम की जय ।। 

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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