सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

सोमवार, 18 मई 2020

सनातन धर्म और अर्थ (धन) की पवित्रता: धन की पवित्रता सभी पवित्रताओं में श्रेष्ठ है


सनातन धर्म में धन की शुचिता (पवित्रा) पर बहुत जोर दिया गया है । ग्रंथों में कहा गया है कि धन की पवित्रता सभी पवित्रताओं में श्रेष्ठ है । इसलिए धन के अर्जन में बहुत सावधानी की जरूरत होती है । यदि सावधानी पूर्वक धन का अर्जन न किया जाय तो धन की शुचिता चली जाती है । और धन की पवित्रता के बिना जीवन पवित्र नहीं रहता ।


  संसार में जीवन यापन के लिए धन की आवश्यकता होती है । धर्म और काम के लिए भी धन की जरूरत होती है । इसलिए सामान्यतयः सभी लोग धन अर्जन के लिए कोई न कोई कार्य करते हैं । लेकिन सदग्रंथ कहते हैं कि धन का अर्जन धर्म पूर्वक ही होना चाहिए ।


  धर्म पूर्वक धन के अर्जन का मतलब है कि जो कार्य किया जाय उसे पूरी निष्ठा और ईमानदारी से किया जाय तथा उस कार्य के बदले जितना धन देने को निश्चित किया गया हो उतना ही धन लिया जाय । अर्थात इसमें चोरी, बेईमानी अथवा घूस का एक भी पैसा नहीं होना चाहिए । और यदि कोई ऐसा नहीं करता तो उसका धन पवित्र नहीं रहता । और यदि धन पवित्र नहीं होगा तो वह व्यक्ति भी पवित्र नहीं रह पायेगा । अपवित्र धन से अन्तःकरण की पवित्रता नष्ट हो जाती है ।


  यदि किसी का धन पवित्र नहीं है तो वह अन्य किसी साधन से पवित्र नहीं हो सकता है-न ही दान देने से और न ही स्नान से ।


  मनु महाराज मनु स्मृति में कहते हैं कि सभी पवित्रताओं में धन की पवित्रता ही श्रेष्ठ है-


  सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे सुचिहि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ।।


 गोस्वामी तुलसीदास महाराज कहते हैं कि जिस धन पर धर्म पूर्वक अपना अधिकार नहीं है वह दूसरे के हिस्से का होता है । और जैसे कोई विष का उपभोग नहीं करता उसे त्याग देता है । ठीक इसी तरह दूसरे के धन को विष से भी बड़ा विष मानकर त्याग देना चाहिए- ‘धन पराव विष ते विष भारी’


इस प्रकार जितनी शुद्धतायें हैं उनमें धन की शुद्धता ही श्रेष्ठ है । जो धन के सम्बंध में पवित्र है, वही वास्तव में पवित्र है । अधिक धन की इच्छा से अपने धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए ।


कलियुग में लोग धन कमाने में न्याय, अन्याय, उचित और अनुचित पर विचार नहीं करते । इससे ही लोगों का अन्तःकरण दूषित हो जाता है और तरह-तरह के अन्य पाप भी उत्पन्न होते रहते हैं । दूषित धन उपभोग करने वाले को भी दूषित कर देता है । इसलिए धन की पवित्रता बनाए रखना चाहिए ।


।। जय श्रीसीताराम ।।

रविवार, 10 मई 2020

भगवान और भगवान के नाम, रूप, लीला और गुण की अनंतता



सनातन भक्ति सिद्धांत के अनुसार भगवान और भगवान के नाम, रूप, लीला और गुण में अभेद होता है । जिस प्रकार भगवान अनंत हैं ठीक इसी तरह भगवान के नाम, रूप, लीला और गुण भी अनंत हैं ।


  भगवान के नाम, रूप, लीला और गुण की कोई सीमा नहीं है । इनका पूरा-पूरा वर्णन किसी के द्वारा अथवा किसी भी तरह संभव नहीं है । यह अनंतता का ही गुण है । इसलिए ही गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि भगवान शेष यदि अपने हजार मुखों से लगातार कई कल्पों तक भगवान की लीला-कथा का गायन करते रहें तो भी भगवान की लीला-कथा का गायन संभव नहीं है । क्योंकि भगवान की लीला कथा अनंत है- ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ । 


 अनंत का एक अर्थ यह है कि जिसका कोई अंत न हो अर्थात जो अंत रहित हो । जो अंत रहित होगा उसका कोई पार नहीं पा सकेगा । थाह नहीं पा सकेगा । जब अंत ही नहीं होगा तो कोई पार कैसे पायेगा ?


 अनंत का दूसरा मतलब यह भी है कि जिसका आदि, मध्य और अंत न हो वह अनंत है । जिसका अंत हो जाय अथवा जिसके अंत का पता चल जाय वह अनंत की परिभाषा के अंतर्गत आएगा ही नहीं ।


 भगवान की अनंतता को कई प्रकार से समझा जा सकता है । यदि भगवान की विराटता की बात की जाय तो वे इतने विराट हैं कि न ही उनका आदि, न ही मध्य और न ही अंत पाया जा सकता है ।


  यहाँ यह उल्लेख करना बहुत जरूरी है कि भगवान दूसरे रूप में इतने सूक्ष्म भी हैं कि वहाँ आदि, अंत और मध्य की परिभाषा ही समाप्त हो जाती है । इसे ही भगवान का निराकार रूप कहा जाता है । और यह भगवान का कोई काल्पनिक अथवा मानसिक कल्पना वाला रूप नहीं है । सनत्कुमारसंहिता में भगवान श्रीराम की स्तुति करते हुए कहा गया है कि आप अणु से भी अणु हैं । इसी बात को गीता में भगवान ने कहा है कि मैं अति सूक्ष्म-शून्य हूँ ।


 भगवान आदि, मध्य और अंत से परे हैं इस बात को इस प्रकार भी परिभाषित किया जाता है- आदि, मध्य और अंत यह सब जीव के लिए लागू होता है । भगवान के लिए नहीं । उदाहरण के लिए भगवान का न आदि (आरंभ )है अर्थात भगवान अजन्मा हैं । इसीतरह भगवान का कभी अंत (विनाश) नहीं होता है । जिसका आरंभ और अंत नहीं है उसका मध्य परिभाषित ही नहीं किया जा सकता है । किसी चीज का मध्य तभी ज्ञात किया जा सकता है जब उसका आदि और अंत ज्ञात हो । पर भगवान का तो अंत ही नहीं है ।


 सामान्य जीव जन्मता है और उसके जीवन का अंत भी होता है और इसलिए उसके जीवन का मध्य भी होता है । सामान्य जीवों का शरीर काल चक्र से बदलता भी रहता है । लेकिन भगवान सदा एक रूप रहते हैं ।


  भगवान की अनंतता में अनेक अनंत समाहित हैं । ऐसे भगवान और उनके नाम, रूप, लीला-कथा तथा गुण का कौन पार पा सकता है ?  जब लोग संसार के रहस्यों को ही नहीं जान पाते तो संसार बनाने वाले और संसार से परे भगवान के रहस्यों को कैसे समझ सकेंगे ?


भगवान आदि, अंत और मध्य से परे हैं । अर्थात वे अनादि हैं । अंत रहित हैं । लेकिन यह चराचर जगत आदि, अंत और मध्य से परे नहीं है । यह चराचर जगत भगवान से ही उत्पन्न होता है और भगवान में ही समाहित हो जाता है । इस चराचर जगत के आदि में कुछ नहीं था। जो था वही ईश्वर है । इसके अंत में भी कुछ नहीं बचता । जो बचता है वही ईश्वर है । इसके आदि, अंत और मध्य भगवान ही हैं । इसलिए ही भगवान को जैसे आदि, अंत और मध्य रहित होने से  ‘नहि तव आदि, मध्य अवसाना' कहा जाता है ठीक ऐसे ही इन्हें ‘तुम ही आदि, मध्य अवसाना’ भी कहा जाता है ।


 ग्रंथ कहते हैं कि भगवान पूर्ण हैं । यदि हम पूर्ण में पूर्ण मिला दें तो भी पूर्ण ही प्राप्त होता है । और यदि पूर्ण में से पूर्ण निकाल लें तो भी पूर्ण ही शेष बचता है । पूर्णता का मतलब अनंतता से होता है । गणित में भी इस तथ्य का बहुतायत उपयोग किया जाता है । जैसे अनंत में अनंत के योग से अनंत ही प्राप्त होता है  तथा अनंत में से अनंत निकाल देने पर भी अनंत ही शेष  रह जाता है ।


 भगवान और उनके नाम, रूप, गुण, लीला का मन, वुद्धि और वाणी से न तो पूरा-पूरा वर्णन किया जा सकता है और न ही समझा जा सकता है । ज्ञात संसारिक अथवा वैज्ञानिक ज्ञान या अन्य साधनों से भी भगवान को समझा नहीं जा सकता क्योंकि एक तो भगवान अनंत हैं - जथा अनंत राम भगवाना । तथा कथा कीरति कल गाना ।। और दूसरे भगवान मन, वुद्धि तथा वाणी से अतर्क्य हैं- 'राम अतर्क्य वुद्धि मन वानी' 


।। जय श्रीराम ।।


शनिवार, 9 मई 2020

वह दिन जब लोग सामान्यतः बीस वर्षों तक ही जीवित रहेंगे


प्रत्येक युग में सामान्य औसत आयु अलग-अलग होती है । सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में लोगों की सामान्य औसत आयु क्रमशः घटती जाती है । जैसे-जैसे युग बीतता है वैसे-वैसे ही लोगों की सामान्य औसत आयु भी घट जाती है ।


सतयुग में लोगों की सामान्य औसत आयु चार सौ वर्ष होती है । अर्थात सतयुग में सामान्यतः लोग लगभग चार सौ वर्ष तक जीते हैं । सतयुग में कई लोग हजारों वर्ष तक भी जीते हैं ।


इसी तरह त्रेता में लोगों की सामान्य औसत आयु तीन सौ वर्ष होती है । अर्थात त्रेता में सामान्यतः लोग लगभग तीन सौ वर्ष तक जीते हैं । त्रेता में भी कई लोग हजारों वर्ष तक भी जीते हैं ।


 द्वापर युग में लोगों की सामान्य औसत आयु दो सौ वर्ष होती है । अर्थात द्वापर में सामान्यतः लोग लगभग दो सौ वर्ष तक जीते हैं । द्वापर में भी कई लोग हजारों वर्ष तक भी जीते हैं ।


और युगों की अपेक्षा कलियुग में सामान्य औसत आयु बहुत कम हो जाती है । और धीरे-धीरे घटती जाती है ।


 कलियुग में सामान्य औसत आयु केवल सौ वर्ष तक ही कही गयी है । कलियुग जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा यह घटकर पचास वर्ष ही रह जायेगी ।


इतना ही नहीं कलियुग का चौथा चरण आते-आते लोगों की आयु घटकर बीस वर्ष ही रह जायेगी ।


 इस प्रकार कलियुग ही ऐसा युग है जिसमें वह दिन भी आ जाता है जब लोगों की आयु धीरे-धीरे क्षीण होते-होते बीस वर्ष ही रह जाती है ।


  सत्य, सदाचार, नियम, संयम की कमी तथा पाप युक्त कर्म इसके प्रमुख कारण होंगे । साथ ही जल, वायु, धरा आदि का प्रदूषित हो जाना भी विशेष कारण होगा । धरती का बंजर हो जाना, फल, अन्न, साग, औषधि के रसों का क्षीण हो जाना भी उल्लेखनीय है 


।। जय श्रीराम ।।

शुक्रवार, 1 मई 2020

शत प्रश्नोत्तरी:पढ़ने-समझने योग्य सौ प्रश्न और उनके उत्तर



५१. शब्द व्रह्म किसे कहते हैं ?

 ‘राम’ को ही शब्द व्रह्म कहा जाता है (-स्कंद पुराण ) 

५२. तारक व्रह्म किसे कहा गया है ?

    सनातन धर्म में भगवान राम को ही तारक व्रह्म कहा गया है ।

५३. एक राम नाम विष्णु सहस्त्र नाम के बराबर होता है । इसका उल्लेख कहाँ मिलता है ?

 एक राम नाम विष्णु सहस्त्र नाम के बराबर होता है । इसका उल्लेख श्रीरामचरितमानस, श्रीराम रक्षा स्त्रोत और पद्म पुराण इत्यादि ग्रंथों में मिलता है ।

५४ भगवान श्रीराम का वर्णन सनातन धर्म के किन-किन ग्रंथों में मिलता है ।

  भगवान श्रीराम का वर्णन वेद-उपनिषद, पुराण, संहिता, रामायण, महाभारत और श्रीरामचरितमानस इत्यादि सद्ग्रन्थों में मिलता है ।

५५.  भगवान श्रीराम की महिमा का वर्णन किन-किन प्राचीन ऋषियों ने किया है ?

  भगवान श्रीराम की महिमा का वर्णन श्रीसनत्कुमार, श्रीवाल्मीकि, श्रीवशिष्ठ, श्रीविश्वामित्र, श्रीवेद व्यास आदि प्राचीन ऋषियों ने अपने-अपने ग्रंथों में किया है ।

५६. भगवान वेदव्यास रचित रामायण किस नाम से प्रसिद्ध है ?

  भगवान वेद व्यास द्वारा रचित रामायण अध्यात्म रामायण के नाम से प्रसिद्ध है ।

५७. भगवान के सभी नामों में सबसे श्रेष्ठ नाम कौन सा है ?

   सद्ग्रंथो के अनुसार भगवान के एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ नाम हैं । जिसमें राम नाम सर्वश्रेष्ठ है । देवर्षि नारद को भगवान ने ऐसा वरदान भी दिया है ।

५८. संसार सागर से तरने के लिए क्या करना चाहिए ।

   भगवान राम की सेवा-भजन के बिना संसार से तरना नहीं होता है । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध, त्यागी और तपस्वी भी राम जी के भजन से ही इस संसार सागर से तरते हैं- तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी । राम नमामि नमामि नमामी ।।

५९. देवी और देवता के उपासकों की मुक्ति कैसे होती है ?

    देवी और देवता के उपासकों की मुक्ति भी राम भजन से होती है ।

६०. वेदों और पुराणों की रचना किसने किया है ?

   वेद शास्वत ग्रंथ हैं । ये भगवान से ही प्रगट होते हैं । अतः इनकी रचना कोई नहीं करता । इसी तरह पुराण भी शास्वत ग्रंथ हैं ।

 ६१. वेद और पुराण शास्वत ग्रंथ हैं तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि इनकी रचना श्रीवेद व्यास जी ने किया है ?  

 वेद और पुराण श्रवण परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थांतरित होते रहते हैं । लेकिन कलियुग में यह योग्यता क्षीण हो जाती है । कलियुग के लोगों को भी वेदों और पुराणों का लाभ मिल सके इस उद्देश्य से ही श्रीवेद व्यास जी वेदों और पुराणों को लिपि बद्ध कर देते हैं ।

६२. क्या वेद और पुराण का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है ?

   वेद और पुराण का ज्ञान देवलोक में इसके मूल स्वरूप में सदैव विद्यमान रहता है । इसलिए वेद और पुराण का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है । पृथ्वी पर इनके मूल स्वरूप में कालांतर में थोड़ा परिवर्तन भले ही आ सकता है ।

६३. हम सब भगवान के अंश हैं । इसलिए मैं व्रह्म हूँ अथवा मैं भगवान हूँ ऐसा मानना क्या सही नहीं है ?

  हम सब जीव हैं । हम सबके अंदर जो चेतन तत्व है वह भगवान का ही अंश है । इस प्रकार हम सब भगवान के अंश हैं लेकिन भगवान नहीं है । इसलिए यह भाव सही नहीं है कि मैं भगवान हूँ । सही भाव यह है कि मैं भगवान का सेवक हूँ शेष संसार चर-अचर मेरे भगवान का स्वरूप है- ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत’ । प्रश्न संख्या ८३ भी देखिए ।

६४. कई लोग कहते हैं कि हम भगवान को नहीं मानते केवल प्रकृति को मानते हैं  । इनका अध्यात्मिक कल्याण कैसे होता है ?

 यदि प्रकृति को भगवत स्वरूप मानकर पूजा किया जाय तो कल्याण होता है । लेकिन केवल प्रकृति को मानना और भगवान को न मानना गलत है । इससे अध्यात्मिक कल्याण नहीं होता । क्योंकि प्रकृति भगवान की आदि पत्नी है । अब किसी पतिव्रता पत्नी को तो माना जाय लेकिन उसके पति को न माना जाय तो कल्याण कैसे होगा ?

 ६५. भगवान को आदि गृहस्थ क्यों कहा जाता है ?

   भगवान आदि गृहस्थ हैं क्योंकि प्रकृति भगवान की आदि पत्नी है । ग्रंथों में भगवान राम को आदि गृहस्थ कहकर स्तुति की गई है ।

६६. कुछ लोग सनातन धर्म के सद्ग्रंथो को भी माइथोलोजी समझते हैं । क्या यह सही है ?
 
यह अज्ञानता है । यह पश्चात सभ्यता-संस्कृति से उद्भूत शब्द हैं । जहाँ कॉमिक (काल्पनिक) करेेक्टेर का बोलबाला है । उनके पास करोड़ो-अरबों वर्षों के सभ्यता-संस्कृति की थाती-धरोहर नहीं है । वहाँ त्याग, सत्य, सदाचार, तपस्या, नियम और संयम पर आधारित और जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझाने वाले वेद-पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत इत्यादि जैसे सदग्रंथों का अभाव है । इसलिए उन लोगों को राजा हरिश्चंद्र, राजा शिवि, राजा रघु और महर्षि दधीच इत्यादि जैसे हमारे पूर्वज उनकी सोच के अनुरूप कॉमिक करेक्टेर ही लगते हैं और अज्ञानियों ने उनके माइथोलोजी को यहाँ के ग्रंथों पर भी थोप दिया है ।

६७. कलियुग में सबसे ज्यादा नुकसान क्या होता है ?
  
कलियुग में सबसे ज्यादा नुकसान यही होता है कि लोगों की बुद्धि ही उनसे रूठ जाती है । इससे सही गलत और गलत सही लगने लगता है । कलियुग के लोग ठूठे को हरा और हरे को ठूठा समझने लगते हैं- ‘रामदास कलिकाल में मति सबकी गै रूठ । ठूठे को समुझत हरा हरे पेड़ को ठूठ’ ।।

६८. कलियुग का सबसे बड़ा लाभ क्या है ?

   जो फल पहले के युगों में तपस्या, यज्ञ, पूजा आदि से मिलता था वो कलियुग में केवल ‘राम’ नाम से मिल जाता है । यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता कही गई है ।

६९. कलियुग कब समाप्त होगा ?

   कलियुग का कुल समय चार लाख बत्तीस हजार वर्ष कहा गया है । जिसमें से अभी बत्तीस हजार वर्ष भी नहीं बीते हैं ।

७०. कलियुग बढ़ रहा है । इसका अनुमान कैसे लगाया जाय ?

  जब गौ, गंगा, गोविंद और गायित्री का अनादर होने लगे, सद्ग्रंथो को माइथोलोजी समझने वाले बढ़ने लगें, माता-पिता, साधु-संत का अनादर होने लगे, स्त्रियां आभूषण और वस्त्र से क्षीण होने लगें (श्रीविष्णु पुराण), कम आयु में ही बाल सफेद होने लगे, छल-कपट और झूठ बढ़ने लगे तो समझना चाहिए कि कलियुग बढ़ रहा है ।



७१. कलियुग में लोगों की आयु कितनी कही गई है ।

  कलियुग में लोगों की आयु सौ वर्ष कही गई है । जो कलियुग के बढ़ने के साथ घटती रहती है । धीरे-धीरे यह पचास वर्ष और अंततः मात्र बीस वर्ष ही रह जायेगी ।

७२. कलियुग बढ़ने पर विवाह आदि सनातन संस्कारों की क्या स्थिति होगी ?

कलियुग बढ़ने पर सभी सनातन संस्कार धीरे-धीरे क्षीण होते जायेंगे । धीरे-धीरे लोग विवाह आदि से भी विमुख हो जायेंगे ।

७३. भवसागर कहाँ स्थित है ?

  भवसागर नाम का कोई भौतिक सागर कहीं नहीं है । इस संसार को ही भवसागर कहा जाता है । और जन्म-मरण से छूटने को भवसागर से पार होना कहा जाता है ।

७४. सनातन धर्म में एक चतुर्युगी का क्या अर्थ होता है ।

    चार युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के कुल समय को एक चतुर्युगी कहा जाता है । कलियुग चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का होता है । इसके दोगुने समय का द्वापर, तीन गुने समय का त्रेता और चार गुने समय का सतयुग होता है । सबका योग करने पर एक चतुर्युगी में कुल वर्षों की संख्या प्राप्त हो जाती है । इसके लिए हम एक आसान तरीका भी बता रहे हैं । कलियुग के समय का दस गुना करने पर एक चतुर्युगी में कुल वर्षों की सख्या प्राप्त हो जाती है ।

७५. सनातन धर्म में एक कल्प का क्या मतलब होता है ?

  एक हजार चतुर्युगी को एक कल्प कहते हैं । इस प्रकार एक कल्प में सतयुग एक हजार बार , त्रेता एक हजार बार , द्वापर एक हजार बार , और कलियुग भी एक हजार बार आता है ।

   कलियुग के कुल समय का दस हजार गुना करने पर एक कल्प में कुल वर्षों की संख्या प्राप्त हो जाती है ।

७६. एक कल्प में त्रेता युग एक हजार बार आता है । तो क्या एक कल्प में भगवान राम का अवतार एक हजार बार होता है ?

  भगवान राम का अवतार एक कल्प में एक बार ही होता है । 

७७. कुछ लोग कहते हैं कि भगवान श्रीराम कम कला के और भगवान श्रीकृष्ण अधिक कला के हैं ? क्या यह सत्य है ?

यह सत्य नहीं है । यह ऐसा कहने वालों की हठधर्मिता मात्र हैं । भगवान श्रीराम अकल भी हैं और सकल भी हैं । भगवान राम कलानिधान हैं । सनत्कुमार संहिता, विनयपत्रिका इत्यादि ग्रंथों में  इस तथ्य का वर्णन है । अध्यात्म रामायण और स्कंद पुराण को भी देखना चाहिए ।  

७८. क्या सनातन धर्म केवल भारत वर्ष का धर्म है ?

    सनातन धर्म समस्त प्राणीमात्र का एवं देश और काल की सीमा से परे धर्म है । और इसके सिद्धांतों को मानने से ही मानवता का तथा संसार के अन्य सभी प्राणियों का तथा इस व्रह्मांड का कल्याण हो सकता है । जल (नदी, सरोवर, समुंद्र), पर्वत, जंगल, पेड़-पौधों, वायु, धरा आदि का आदर और इनका संरक्षण सनातन धर्म सिखाता है । हर प्राणी और कण-कण में भगवान के होने की बात सनातन धर्म करता है । पर धन को विष के समान, पर स्त्री को माता के समान, माता-पिता और गुरू को भगवान के समान परहित को धर्म तथा परपीड़ा को अधर्म बताने और कृतज्ञता सिखाने वाला धर्म सबका धर्म है । इसके मूल सिद्धांतों को न मानने से ही देश समाज में जल संकट, शुद्ध वायु संकट, धरती के अस्तित्व पर संकट, हत्या-लूट, घूस इत्यादि दिनों-दिन बढ़ रहे हैं और समस्त मानव जाति और प्राणी मात्र पर ही संकट खड़ा हो गया है ।

७९. सनातन धर्म में भारत भूमि को शेष भूमि से श्रेष्ठ किस प्रकार बताया गया है ?

सनातन धर्म के अनुसार देवता भी भारत भूमि में जन्म पाने के लिए तरसते हैं । यह तपस्या, सत्य, सदाचार और नियम-संयम की भूमि है तथा शेष भूमि भोग भूमि है ।
ग्रंथों के अनुसार मनुष्य का जन्म भगवान की कृपा से मिलता है । और भारत भूमि में जन्म सत्कर्म-पुण्य से मिलता है ।



८०. कलियुग के बाद सतयुग आएगा । क्या उस समय आज की सड़कें, भवन, इत्यादि रहेंगे ?


 नहीं । यह सब पहले ही नष्ट हो जायेगा ।



८१. ग्रंथ कहते हैं कि भगवान संसार से परे हैं । इसका क्या अर्थ है ?

 इसका अर्थ है कि भगवान संसारिक बंधन से मुक्त हैं । संसारिक नियम भगवान पर लागू नहीं होते हैं । उदाहरण के लिए संसार में प्रत्येक जीव का जनम और मरण होता है । लेकिन भगवान जनम और मरण से परे हैं । इसी तरह संसार के प्रत्येक व्यक्ति को रोग, दुःख, बुढ़ापा आदि सताते हैं । परंतु भगवान इन सब चीजों से परे हैं ।

  संसार के नियमों से न ही भगवान को बाँधा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है । भगवान स्वतंत्र हैं । वे संसारिक नियमों के अधीन नहीं है ।

८२. आजकल कई लोग पूछते हैं कि भगवान को किसने बनाया ? इस प्रश्न का क्या औचित्य है ?

इस प्रश्न का कोई औचित्य नहीं है । संसार में प्रत्येक प्राणी अपने जनक (पूर्ववर्ती) से उत्पन्न होता है तथा प्रत्येक संसारिक बस्तु जैसे घर, सड़क, आदि को बनाने वाला कोई न कोई होता है लेकिन यह मानना अथवा सोचना कि जो संसार के लिए सत्य है, हमारे लिए सत्य है , वही भगवान के लिए भी सत्य होगा अथवा होना चाहिए, बिल्कुल गलत है । संसारिक नियम भगवान पर लागू नहीं होते हैं । भगवान और भगवान की सत्ता पर पहुँचते ही संसारिक नियमों की सीमा समाप्त हो जाती है  ।

   इस प्रकार संसारिक चीजों को बनाने वाला कोई न कोई अथवा कोई कारण जरूर होता है । लेकिन यह नियम भगवान पर लागू नहीं होता है । भगवान जगत के आदि कारण हैं । जगत के स्रोत हैं । जगत की इकाई हैं । अतः यह प्रश्न निराधार है- जो सबको रचता जगत, उसे रचेगा कौन । राम इकाई जगत की, मूढ़ रहैं किमि मौन ।।

८३. सोहऽमस्मि का क्या अर्थ  है ?

   वह भवद्भक्त जीवात्मा मैं हूँ  मैं संसार के कल्पित नाम रूपवाला नहीं  हूँ ।

८४. जीवन में नियम और संयम की जरूरत क्यों होती है ?

  बुरे संस्कार अच्छे संस्कार को, बुरे विचार अच्छे विचार को, बुरे कर्म अच्छे कर्म को दबाना चाहते हैं ।  बुराई हमारे ऊपर हावी होना चाहती है । इससे बचने के लिए नियम और संयम की जरूरत होती है ।  नियम और संयम से हम भोग के वशीभूत होने से बच जाते हैं । जबकि इन्द्रियाँ हमें भोग में लगाना चाहती हैं ।

८५. देश-समाज में दिन-प्रतिदिन अपराधों की बाढ़ आती जा रही है । इन्हें रोकने के लिए सनातन धर्म क्या उपाय बताता है ?

देश-समाज में बढ़ते अपराधों का मूल कारण सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों से दूर हो जाना है । यदि लोग सनातन धर्म के कुछ ही तथ्यों को मानना शुरू कर दें तो देश-समाज की अनेकानेक समस्यायें समाप्त हो सकती हैं । इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं- माता-पिता और गुरजन को मानना, गौ, गंगा और गोविन्द को मानना, परनारी को माता मानना, परधन को विष मानना, परहित को पुण्य और परपीड़ा को पाप मानना ।

८६. अच्छे और बुरे बिचार का जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है ?

अच्छे बिचार में सकारात्मक यानी निर्माणकारी उर्जा और बुरे बिचार में  नकारात्मक यानी विनाशकारी उर्जा होती है । सकारात्मक उर्जा से अपना तथा दूसरों का भी भला होता है । वहीं दूसरी ओर नकारात्मक उर्जा से न ही अपना और न ही दूसरे का भला होता है । इसलिए जीवन में सकारात्मक विचारों पर ही बल दिया जाता है ।

८७. अच्छाई की अपेक्षा बुराई का प्रभाव जल्दी क्यों पड़ता है ?

   बुराई के परमाणुओं की गति अच्छाई के परमाणुओं से अधिक होती है । इसलिए ही कोई बुरी बात जल्दी फैल जाती है । जबकि अच्छी बात लोगों तक देर में पहुँचती है । दूसरे बुराई में अच्छाई की अपेक्षा प्राथमिक आकर्षण अधिक होता है ।

८८. मन की सफाई का क्या महत्व है ?

  मन की सफाई के लिए सत्संगति की जरूरत होती है । और मन की सफाई किए बिना भगवान नहीं मिलते । यदि अपना मन साफ हो जाए तो हम स्वयं तो सुखी रहेंगे ही इससे अपनी वजह से दूसरों को परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा ।

८९. भगवान राम तक पहुँचाने वाला राज-पथ कौन सा है ?

    राम भजन रुपी राजपथ भगवान राम तक पहुँचाने वाला है- बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो । गुरू कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राज डगरो सो ।।

९०. जीवन में भजन शुरू करने का सही समय क्या होता है ?

 जब मन में भजन के लिए भाव जागृत हो तभी से भजन शुरू कर देना चाहिए ।  ऐसा विचार आते ही, प्रेरणा मिलते ही बिना विलंब किए भजन शुरू कर देना चाहिए । बुढ़ापे का इंतजार नहिं करना चाहिए ।

९१. संसार और भगवान से अपेक्षा रखने में क्या अंतर होता है ?

  संसार से अपेक्षा रखने वाले को तनाव होता है । और भगवान से अपेक्षा रखने वाला तनाव से बच जाता है ।  संसार से जितनी अपेक्षा कम की जाय उतना ही अच्छा होता है ।  भगवान का अवलंब सबसे बड़ा अवलंब होता है । इसलिए भगवान की भक्ति करना चाहिए । समर्पण करना चाहिए और विश्वास रखना चाहिए ।

९२. मानव कौन है ?

   मानव का मतलब है ‘मानो’ अर्थात जो माने वह मानव है । माता-पिता और गुरजन को मानना, गौ, गंगा और गोविन्द को मानना, परनारी को माता मानना, परधन को विष मानना, परहित को पुण्य और परपीड़ा को पाप मानना मानव धर्म है- रामदास कहते सही मानव माने होय । बिनु माने मानव नहीं मानवता कहि रोय ।।

सनातन धर्म के अनुसार दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान आदि रखने वाला प्रत्येक प्राणी मानव नहीं होता है-

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लम्पट परधन परदारा ।।
मनहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ।।

९३. मनुष्य जीवन क्यों मिलता है ?

  मनुष्य जीवन अपना परम कल्याण करने के लिए मिलता है । और परम कल्याण होता है भगवान श्रीसीतारामजी से जुड़ने से । यही मनुष्य जीवन का परम हेतु है । आहार-विहार, भय, निद्रा आदि गुण तो अन्य प्राणियों में भी होता है । केवल ईश्वर भजन ही ऐसा काम है जो अन्य योनि के प्राणियों के लिए सुलभ नहीं है । इसलिए ही मनुष्य जीवन मिलता है ताकि भगवान से जुड़कर भगवान को प्राप्त किया जा सके ।

९४. राम रसायन क्या है ?

  श्रीराम पद प्रेम-श्रीराम भक्ति जो भवसागर की अचूक औषधि है राम रसायन कहलाती है ।

९५. संत और सदग्रंथ कहते हैं कि भगवान हम सबके अंदर हैं । परंतु भगवान दिखते नहीं है । ऐसे में इस बात को सत्य कैसे माना जाए ?

संत और सदग्रंथ बिल्कुल सत्य कहते हैं । सत्य न ही हमारे समझने से बदलता है और न ही हमारे न समझने से । न ही हमारे मानने से और न ही हमारे न मानने से । सत्य हमेशा सत्य ही रहता है । हाँ सत्य का स्वरूप बदल सकता है । इसे जानने और समझने के तरीके अलग हो सकते हैं ।

  हम हवा को भी नहीं देख पाते हैं । लेकिन हवा का अस्तित्व है । हवा का हम स्पर्श से अनुभव करते हैं । आत्मा अथवा प्राण भी तो नहीं दिखता । केवल प्रभाव दिखता है । प्राण निकलते ही सब कुछ समाप्त हो जाता है । विज्ञान की बात करें तो काला द्रव्य नहीं दिखता, द्रव्य के मूल कण नहीं दिखते लेकिन इनका अस्तित्व विज्ञान मानता है और इसप्रकार इस तथ्य की पुष्टि करता है कि न दिखने वाली चीजों का भी अस्तित्व होता है ।

  शरीर जड़ है । इसमें जो चेतना है वह आत्मा अथवा प्राण से ही आती है । जो अविनाशी ईश्वर का अविनाशी अंश है । जिसे सीटी स्कैन जैसे आधुनिक तकनीकि से भी नहीं पकड़ा जा सकता है । नहीं देखा जा सकता है । लेकिन क्या कोई ऐसा कह सकता है कि आत्मा होती ही नहीं । प्राण होते ही नहीं । यदि नहीं होते तो वह क्या है जिसके निकल जाने के बाद शरीर होकर भी कुछ नहीं रह जाता ।

  गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि श्रद्धा और विश्वास की कमी होने से हम अपने अन्तःकरण में स्थिति ईश्वर को नहीं देख पाते हैं ।

९६. भगवान और भगवान की सत्ता को समझने के लिए किस दृष्टि की जरूरत होती है ।

  भगवान और उनकी सत्ता मन, वुद्धि और वाणी का विषय नहीं है । हमारे पास जो भी साधन हैं उनके जरिये हम न भगवान को जान सकते हैं और न समझ सकते हैं । संसारिक दृष्टि से भगवान को न ही देखा जा सकता है, न ही उन तक पहुँचा जा सकता है और न ही पाया जा सकता है । हम अपनी दृष्टि और सोच बदलकर भगवान की सत्ता का अनुभव कर सकते हैं । भगवान अनुभव गम्य हैं । भगवान और उनकी सत्ता का अनुभव किया जा सकता है । इसके लिए श्रद्धा और विश्वास की जरूरत होती है ।

९७.  मन में कौन सी भावना दृढ हो जाय तो जीवन बदल सकता है ?

    मैं रामजी का सेवक हूँ और राम जी मेरे स्वामी है । यह भावना बहुत उत्तम है । यदि भूलकर भी यह विश्वास कम न हो तो जीवन बदल सकता है ।


९८. भक्ति और भगवान को लेकर ग्रंथों और संतों के अनेकानेक मत हैं । ऐसे में क्या करना चाहिए ?

इस प्रश्न का गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत सीधा उत्तर दिया है-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू” ।।

९९. समस्त साधनों का फल क्या है ?

 सत्संगति, तीर्थाटन, जप, तप, व्रत यज्ञ आदि साधनों का फल भगवान राम के चरणों में प्रीति होना चाहिए । यदि यह फल प्राप्त न हो तो समझना चाहिए कि इन साधनों का फल मिला ही नहीं ।

१००. सभी सद्ग्रंथो की सीख क्या है ? 
     
  सभी सदग्रंथों की सीख है- भगवद्भक्ति, भगवदशरनागति, भगवदचरनानुराग । अतः-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुन ग्रामहिं ।।




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। जय श्रीराम  

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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