सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

गुरुवार, 22 मई 2014

राम जी के भजन-पूजन का अधिकार किस-किसको है

साधु-संत और सदग्रंथ बताते हैं कि राम जी बहुत ही सरल हैं । उनके जैसा कोई भी देवता अथवा भगवान नहीं है । राम जी के भजन-पूजन से सब कुछ उसी तरह से सुलभ हो जाता है, जैसे कल्पवृक्ष के नीचे सोचने मात्र से सब कुछ प्राप्त हो जाता है । इसलिए ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें भक्त-कामतरु कहा है-‘भक्त कल्पपादप आरामः’ । जरूरत है बस विश्वास करके राम जी के चरण कमलों में प्रेम करने की-‘विश्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू’



     आज के समय में हम मनुष्यों को कल्पतरु तो मिल नहीं सकता है । और जो चीज मिल नहीं सकती है, उसके बारे में ज्यादा सोचने से क्या फायदा ? कल्प बृक्ष मिले या न मिले पर जो अपने भक्तों के लिए कल्प बृक्ष के समान ही कामनाओं को देने वाले, पूर्ण करने वाले राम जी हैं, वे तो सर्व सुलभ हैं ।



   न कहीं आना और न ही कहीं जाना । चाहे जहाँ रहते हो, चाहे जहाँ हो उनका भजन-पूजन कर सकते हो । हर जगह, हर समय सुलभ हैं ।



सारा संसार राम जी का है । और इसलिए सारे संसार की सब चीजें राम जी की हैं । इसलिए हम सभी भी राम जी के ही हैं । और राम जी सारे संसार के हैं । हमारे हैं । अतः सारे संसार को राम जी को पाने का अधिकार है । न भाषा से मतलब है, न देश से मतलब है, न जाति से मतलब है और न ही किसी अन्य चीज से मतलब है ।



    कोई भी व्यक्ति चाहे जिस देश अथवा जाति में पैदा हुआ हो, उसे राम जी के पूजन और भजन का पूरा अधिकार है । वह चाहे ऊँचे कुल का हो या नीचे । वह चाहे स्त्री हो या पुरुष हो अथवा नपुंसक हो । कोई भी हो, हर किसी को राम जी का नाम लेने, पूजा करने और भजन करने का अधिकार है ।


 स्त्री, पुरुष, और नपुंसक मतलब मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी, चर-अचर कोई भी राम जी का भजन-पूजन कर सकता है-


पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥



   राम जी के भजन-पूजन के लिए अन्य किसी योग्यता की जरूरत भी नहीं है । राम जी का भजन-पूजन करने से योग्यता अपने आप आ जाती है, जो कुछ भी करने के योग्य नहीं होते, वे बहुत कुछ करने के योग्य हो जाते हैं ।



  किसी गुण की भी जरूरत नहीं है । राम जी के भजन-पूजन से धीरे-धीरे गुण अपने आप आ जाते हैं । पाप-पुण्य से भी कोई मतलब नहीं है यानी कोई सोचे कि हम तो पापी हैं तो राम जी का भजन-पूजन कैसे करें ? अथवा कोई कह दे कि तुम पापी हो इसलिए राम जी का भजन-पूजन करने का अधिकार तुम्हें नहीं है- तो यह गलत है । भजन-पूजन से राम जी के यश गायन से पाप मिट जाते हैं । पाप कर्म से मन दूर हो जाता है ।



इस प्रकार से हर किसी को राम जी के भजन-पूजन का अधिकार है । और मनुष्य तो क्या बड़े-बड़े देवता भी राम जी को ही भजते रहते हैं ।



।।जय श्रीसीताराम ।।


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शुक्रवार, 16 मई 2014

क्या भाग्य बदल सकती है ?

 मानव जीवन एक गाड़ी की तरह है । जिसके भाग्य और पुरुषार्थ दो पहिये हैं । जीवन रुपी गाड़ी सदा एक समान नहीं चलती है । कभी दौड़ती है तो कभी मंद हो जाती है । और कभी-कभी लगता है कि कुछ हो ही नहीं रहा है । और न ही आगे कुछ होने की कोई उम्मीद दिखती है ।  हर जगह निराशा दिखती है । चारो ओर अंधकार लगने लगता है । ऐसा समय हर किसी के जीवन में आता है । हर किसी के जीवन में आ सकता है ।  ऐसी स्थिति में क्या करें ?



  जीवन रुपी गाड़ी के ठीक से चलने हेतु दोनों पहियों का ठीक होना जरूरी होता है । कर्म तो मनुष्य के हाथ में होता है । वह चाहे तो कर्म करे चाहे तो बैठा रहे । इधर-उधर में बिता दे । चाहे तो मन से करे चाहे बेमन से । चाहे ठीक कर्म करे चाहे गलत । धर्म करे या अधर्म । चोरी करे या मेहनत । यह व्यक्ति की अपनी समझ पर है ।



   लेकिन भाग्य मनुष्य के हाथ में नहीं होती । यह बिधाता के हाथ में होती है । जिसके मस्तिष्क में जो लिख जाय, वह उसे भोगता है । अब प्रश्न यह है कि क्या मस्तिष्क में लिखी हुई रेखा को मिटाया अथवा बदला जा सकता है ?




   प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में रेखाएं होती हैं । जो बहुत ही महत्वपूर्ण होती हैं । जिन्हें विद्वान लोग समझते थे । और समझ सकते हैं । रावण के भाल में यह लिखा हुआ था कि नर  के हाथ से ही तुम्हारी मृत्यु होगी । रावण ने एक बार अपने मस्तिष्क की रेखाओं को पढ़ा  और पाया कि नर के हाथ से मृत्यु होगी । तो हँसने लगा । क्योंकि संसार के शक्तिशाली से शक्तिशाली अस्त्रों और सस्त्रों का उसने निरादर कर दिया था । श्रीविष्णु जी का चक्र उसकी भुजाओं से टकराकर वापस चला जाता था । ऐसे में वह सोचता था कि मनुष्य और रावण का वध । असंभव है । रावण ने सोचा कि व्रह्मा जी की बुढ़ापे के कारण बुद्धि ठीक से काम नहीं कर रही है, इसलिए ऐसा उल्टा-पुल्टा लिख दिया है । जो सत्य नहीं होगा- ‘नर के कर आपन बध बाँची । हँसेउ जानि बिधि गिरा असाँची’ ।।



    गोस्वामी तुलसी दास जी ने अपने लिए स्वयं लिखा है कि बिधाता ने हमारे मष्तिष्क में कुछ भी अच्छा नहीं लिखा था-‘बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई’ । इसके बावजूद हर कोई जानता है कि तुलसी दास जी ने अपने भाग्य को बदल लिया था ।



भाग्य बदल सकती है । इसमें कोई दो राय नहीं है । ग्रंथो में इसके प्रमाण हैं । भाग्य ईश्वर की अनुकम्पा से ही बदलती है ।



कोई कितना ही अभागा क्यों न हो । वह भाग्यशाली हो सकता है । अभाग्य, सौभाग्य में बदल सकती है ।



गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसके लिए एक सहज मार्ग सुझाया है । यदि जीव राम जी की यश गाथा को मन से गाने लग जाय, उनकी लीला कथा को रोज मन लगाकर पढ़ने लग जाय तो उसके मस्तिष्क में लिखे हुए बुरे अंक सुअंक में बदल जाते हैं । इसमें कोई दो राय नहीं है ।




   राम जी की लीला कथा-यश गाथा को गाने के लिए श्रीरामचरितमानस जी का नियमित प्रेम पूर्वक विश्वास से पाठ करना चाहिए । इससे अवश्य ही बुरे वक्त अच्छे वक्त में बदलने लगेंगे । निराशा में आशा का संचार हो जाएगा । अंधकार में प्रकाश की किरण मार्ग दिखा जायेगी । फिर मार्ग मिलने पर कर्म तो करना पड़ेगा ही । लेकिन मार्ग मिलने पर राम जी और श्रीरामचरितमानस जी का पूर्ववत ही ध्यान करते रहना चाहिए । भूलना नहीं चाहिए । विश्वास करके देखने की ही जरूरत शेष है । परिणाम तो आपने आप सामने आ ही जाएगा-




मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ।।



।। जय श्रीराम ।।


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शनिवार, 10 मई 2014

गोस्वामी तुलसीदास जी के पाँच उपदेश

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज जैसे संत और भक्त का उदय संसार के मंगल के लिए होता है । संसार के कल्याण के लिए होता है । लेकिन उल्लू ऐसे संतो को नहीं समझ पाते । इसलिए ये दुष्प्रचार करते हैं । उल्टा समझते हैं और दूसरों को भी उल्टा ही समझाते हैं । यानी खुद कुएँ में गिरते हैं और दूसरों को भी गिराते हैं । ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि उल्लू ज्ञान रुपी सूर्य से विरत और मोह रुपी रात्रि में अनुरक्त रहते हैं । इसलिए ऐसे लोग मरने के बाद भी उल्लू होकर ही पैदा होते हैं- ‘होहिं उलूक संत निंदा रत । मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत’ ।।


  तुलसीदास जी जैसे संत के बताए हुए रास्ते पर यदि कोई देश-समाज चले तो सारी परेशानियाँ अपने आप दूर हो जाएँ । गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्राणिमात्र के कल्याण के लिए अनेक उपदेश अपने ग्रंथों के माध्यम से हमें उपलब्ध करा दिए हैं । जिनका पालन करके मनुष्य, मानव बनकर भक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो जाता है ।


      गोस्वामी तुलसीदास जी के अनेकों उपदेश हैं । लेकिन यहाँ पर केवल पाँच उपदेश दिए जा रहे हैं –


१.      ‘परहित सरिस धर्म नहि भाई’: परहित के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है । इसलिए सबको दूसरों की मदद करना चाहिए । यह सबसे बड़ा मानव धर्म है । इसकी विशद व्याख्या भविष्य में करेंगे ।



२.      ‘परपीड़ा सम नहि अधमाई’: दूसरों को पीड़ा देने के समान कोई दूसरा अधर्म नहीं है । संत किसी भी स्थिति और परिस्थित में भी अधर्म करने को नहीं कहते । कभी भी अधर्म करने को नहीं कह सकते । इसलिए संतो के उपदेश और ग्रन्थ को सूझ-बूझ के साथ सुनना और पढ़ना चाहिए 



चूँकि दूसरे को पीड़ा देना अधर्म है । इसलिए हमें कभी भी किसी भी रूप में किसी को पीड़ा नहीं देना चाहिए । न बचन से, न कर्म से और न ही किसी अन्य रूप में किसी को पीड़ा देना चाहिए ।



   संत प्राणिमात्र की रक्षा और सुरक्षा की बात करते हैं । इसलिए किसी को किसी भी जीवधारी को पीड़ा नहीं देना चाहिए । यह अधर्म है । इससे यह भी साबित हो जाता है कि जीव हत्या नहीं करनी चाहिए । हमें मनुष्य देह अधर्म करने के लिए नहीं बल्कि धर्म करने के लिए ही मिलता है । इसलिए हमें परहित करना चाहिए और परपीड़ा से सदैव बचना चाहिए ।



३.      परम धरम श्रुति विदित अंहिसा: वेदों के अनुसार अहिंसा सर्व श्रेष्ठ धर्म हैं । हम परहित की भावना रखेंगे और परपीड़ा को अधर्म समझेंगे तो अंहिसा का अपने आप पालन होता रहेगा । हिंसा का दूसरा मतलब पीड़ा ही हुआ । बिना पीड़ा दिए हिंसा थोड़े होगी । इसलिए हमें अहिंसा का मार्ग पकड़ना चाहिए ।



  हमनें कई बार लिखा है कि सनातन धर्म विज्ञान जैसा है । इसे समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टकोण और गणतीय तर्क की जरूरत है । इसलिए सनातन धर्म के ग्रंथ को पढ़ते समय सावधानी चाहिए । जैसे उदाहरण के लिए मान लीजिए आप श्रीरामचरितमानस पढ़ रहे हैं । अब आप को कहीं विरोधाभास लगता है । तो समझना चाहिए कि हमारे अर्थ में कहीं समस्या हो रही है । हम सही अर्थ नहीं जान पा रहे हैं । क्योंकि सनातन धर्म रुपी विज्ञान में विरोधाभास नहीं होता है । आधुनिक विज्ञान केवल ‘कल्पना और ‘परिकल्पना’ पर ही आधारित है । यदि इन दोनों को निकाल दिया जाय तो सब कुछ शून्य हो जायेगा गणित के अध्ययन में जब कोई विरोधाभासी परिणाम आ जाता है । तो हमें अपनी परिकल्पना को सही करना पड़ता है । और कहना पड़ता है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि मेरी परिकल्पना गलत है । यही नियम सनातन धर्म के सद्ग्रंथो यानी श्रीरामचरितमानस में भी लागू होता है ।



   लेकिन अहिंसा का मतलब यह नहीं है कि कोई हमें जान से मारने पर उतारू हो जाय अथवा अपने देश पर आक्रमण कर दे तो भी हम कहें कि ‘परम धरम श्रुति विदित अहिंसा’ । इस स्थिति में श्री हनुमान जी के कथन ‘जो मोहि मारा तेहिं हम मारे’ का पालन करना चाहिए । आधुनिक समय के कानून में यह ‘सेल्फ डिफेंस’ के अंतर्गत आता है । हनुमान जी ने इस नियम का पालन करके अपनी भी रक्षा कर ली और धर्म की भी । अहिंसा का मतलब यही है कि अनावश्यक हिंसा नहीं करनी चाहिए । अपने स्वार्थ और लाभ के लिए किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।  जहाँ तक संभव हो हिंसा से बचना चाहिए और जब लगे कि अब बिना हिंसा के प्राण नहीं बचेंगे तब इस स्थिति में हिंसा कर सकते हैं । कुलमिलाकर किसी को भी सताना नहीं चाहिए । हिंसा पाप है । अधर्म है । 



४.      परनिंदा सम अघ न गरीसा: (वेदों के अनुसार ) दूसरे की निंदा करने के समान कोई भारी पाप नहीं है । अतः हमें किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए । सामान्यतः निंदा पीठ पीछे ही की जाती है । लेकिन जब व्यक्ति को पता चलता है कि हमारी निंदा हुई है या की गई है तो उसे पीड़ा होती है । इस प्रकार परपीड़ा के हिसाब से भी यह अधर्म हुआ ।

                              
   जीवन व्यर्थ के काम करने के लिए नहीं बल्कि सार्थक काम करने के लिए मिलता है । सकारात्मक कार्य करने के बजाय निंदा जैसे नकारात्मक कार्य से पाप नहीं तो और क्या होगा ?


जिह्वा को रसना भी कहते हैं । जिह्वा नाना पदार्थों का रस लेती है । लेकिन इसे कभी तृप्ति नहीं मिलती । यह रस ढूढ़ती रहती है । निंदा रुपी रस से भी इसकी तृप्ति नहीं होती । वास्तव में इसे राम नाम रुपी रस चाहिए होता है । राम नाम रुपी रस छककर पी ले तो  फिर अन्य रस या निंदा रस इसके लिए बेरस हो जाता है । जिह्वा को राम नाम रुपी रस पिलाने जैसा सार्थक और सकारात्मक कार्य और क्या हो सकता है ? निंदा रस में गोते लगाकर लोग राम नाम रुपी रस से बंचित रहते हैं । और उनका समय इसी में जाया होता रहता है कि अब किससे और कैसे और किसके बारे में क्या कहें ? 

  निंदा करने से नकारात्मक सोच बढ़ती जाती है । इससे मन और मस्तिष्क प्रभावित होता है । विकास अवरुद्ध होता है  जिसकी निंदा की जाती है, उसका पाप निंदा करने वाल प्राप्त करता रहता है 



५.      अघ कि पिसुनता सम कोई आना: क्या चुंगुली करने के समान दूसरा कोई पाप है ? मतलब चुंगुली करना बड़ा पाप होता है । इसलिए हमें चुंगुली नहीं करनी चाहिए ।  चुंगुली से भी परपीड़ा होती है । चुंगुली से झगड़ा, क्लेश, टकराव आदि पैदा हो जाते हैं । लोगों में अलगाव हो जाता है । जबकि हमें मिलजुल कर रहना चाहिए । इस कारण से भी यह पाप हुआ । चुंगुली से बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं । चुंगुली तो पति-पत्नी को भी अलग करा सकती है । फिर इसके समान और पाप क्या हो सकता है ?


     गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज एक ऐसा देश-समाज चाहते थे जिसमें सभी लोग सकारात्मक काम करें । निर्माणकारी कार्य करें । जिससे देश समाज का उत्थान हो ।  सकारात्मक काम करने के लिए सकारात्मक सोच चाहिए । जो चुंगुली और पर निंदा से नहीं आएगी । जब लोग एक दूसरे से लड़ते रहेंगे, क्लेश, झगड़ा-लड़ाई, मार-काट, परपीड़ा आदि व्याप्त रहेंगी तो क्या होगा ?


जब हम अच्छा सोचेंगे । तभी अच्छा करेंगे । अच्छा करेंगे तो देश-समाज में तरक्की होगी । खुशुहाली आएगी । सब लोग एक दूसरे की मदद करेंगे तो प्रेम बढ़ेगा । कोई किसी को पीड़ा नहीं देगा तो सुख-शांति रहेगी । देश-समाज में अराजकता नहीं फैलेगी । इससे सबसे बड़ा फायदा होगा कि समता आएगी । समता और प्रेम से ही भक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है । जब खुशुहाली नहीं होगी, तरक्की नहीं होगी और मन व्यर्थ की बातों में उलझा रहेगा तो जन साधारण को भक्ति का मार्ग सुलभ नहीं होगा ? क्योंकि वह इंही पचड़ों में पड़ा रहेगा और विषमताओं में उलझा रहेगा ।  और इस स्थिति में वह राम जी का भजन कैसे करेगा ? और जब समता और प्रेम होगा, बिषमता नहीं होगी, खुशहाली होगी तो अपने आप स्थिति कुछ ऐसी हो जाएगी-



जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं । बैठि परसपर इहहि सिखावहिं ।।



।। जय सियाराम ।।

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                                           श्रीराम प्रभु कृपा यूट्यूब चैनेल 

शनिवार, 3 मई 2014

सनातन धर्मी को जन्मदिन कब और कैसे मनाना चाहिए ?

सनातन धर्मी को यानी जो भी सनातन धर्म को मानने वाले हैं । उन्हें जन्मदिन कब और कैसे मनाना चाहिए, इस विषय में मैं संक्षेप में कुछ कहना चाहता हूँ ।  


   हम लोग अपनी सभ्यता-संस्कृति पर एक ओर तो गर्व करते हैं और दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते हुए चले जा रहे हैं ।  जबकि पाश्चात्य सभ्यता वाले भी हमारी सभ्यता-संस्कृति को गौरवशाली मानते हैं ।  वे इससे जुड़ना चाहते हैं और हम लोग इससे बिछुड़ते जा रहे हैं ।


   सबसे पहली बात सनातन धर्मी कौन है ? सीधा सा जबाब है जो भगवान श्रीरामजी, श्रीकृष्णजी, श्रीविष्णुजी, श्रीशंकरजी, श्रीसूर्यदेवजी, श्री गणेशजी, श्री दुर्गाजी और गो, गंगा, गायित्री और तुलसी जी को मानता हो, पूजता हो, वही सनातन धर्मी है ।


   सनातन धर्मी को जन्मदिन, पैदा होने की तारीख़ के बजाय पैदा होने की तिथि को मनाना चाहिए । जन्म दिन की तारीख को जन्मदिन मनाना सनातन धर्म के हिसाब से सुसंगत नहीं है । आज के समय में तारीख याद रखना आसान और तिथि याद रखना थोड़ा कठिन हो गया है । बहुत लोग तो तिथि जानते तक नहीं । लेकिन हर चीज का सबके लिए अलग-अलग महत्व होता है । सनातन धर्मी के लिए तिथि की महत्ता है । पाश्चात्य सभ्यता में तारीख़ का महत्व है । अतः कमसे कम सबको अपने जन्म दिन की तिथि याद रखनी ही चाहिए ।


   कोई भी तिथि हमेशा तारीख़ से मेल नहीं खाती । उदाहरण के लिए २०११३ में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी उन्नीस अप्रैल, शुक्रवार को पड़ी थी और २०१४ में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी आठ अप्रैल, मंगलवार को पड़ी थी । कहने का मतलब तिथि, दिनाँक के सापेक्ष स्थिर न होकर परिवर्तनीय है और सनातन धर्म में तिथि का महत्व है न कि दिनाँक का । इसलिए हमेशा तिथि, महीना और पक्ष को नोट करके रखें और याद रखें और तिथि महीना और पक्ष के हिसाब से जन्मदिन मनाएँ । इसका अवश्य लाभ मिलेगा ।


   हम लोग भगवान श्रीराम जी का जन्म चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के नवमी तिथि को और भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाते हैं । यह हमारी परम्परा है ।


   गाँव से लेकर शहरों तक जन्मदिन तरह-तरह से मनाए जाते हैं । अभी तक अधिकांश गाँवो में जन्म दिन जन्म तिथि को ही सादगी से मनाया जाता है । जो कि सही तरीका है ।


   कॉलेज और विश्वविद्यालय के हॉस्टल में रहने वाले छात्र जन्म दिन मनाते हैं । और इनमें से कई इस दिन मदिरा पीते हैं । भले ही चोरी-छिपे पिएँ । जन्मदिन की पार्टी में लोग मदिरा पीते हैं । यह गलत है ।  जन्म दिन के दिन जो लोग माँसाहारी है उन्हें भी किसी जीव का मांस नहीं खाना चाहिए । ‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’ बोलना गलत नहीं है । लेकिन यह बोलने अथवा सुनने से बर्थ डे हैप्पी नहीं होगा । हैप्पी करने के लिए सात्विक कर्म करना पड़ेगा । माता-पिता का सम्मान करों । उनका कहना मानों । पढ़ने को आये हो तो पढ़ो । रामजी का नाम लो । तो जीवन अपने आप हैप्पी हो जाएगा ।


   सनातन धर्म में दीप का बुझना सही नहीं समझा जाता । इसलिए दीप अथवा मोमबत्ती बुझाना भी गलत है । ऐसा नहीं करना चाहिए । केक काटना भी जरूरी नहीं है । जन्म दिन के दिन मोमबत्ती बुझाकर अंधकार करने के बजाय प्रकाश कीजिए जिससे बच्चे के जीवन में प्रकाश आये और काटने के बजाय जोड़ने वाला काम करना चाहिए । जिससे बच्चा बड़ा होकर घर-परिवार और देश-समाज को जोड़े । यहाँ तो लोग छोटे-छोटे बच्चों को भी चाकू पकड़ा देते हैं । 


    जन्मदिन मनाना हो तो घर-परिवार में सात्विक वातावरण बनाना चाहिए । बच्चों को बड़ों का आशिर्बाद लेना चाहिए । हो सके तो किसी योग्य पंडित जी को बुलाकर भगवान सत्य-नारायण की कथा सुनें । प्रसाद बाँटें । दान दें और लोगों को सात्विक भोजन कराएँ ।


  यह न कर सकें तो सात्विक भोजन करें । और भगवान का गुणगान करें । और भगवान से आशिर्बाद माँगे ।  धार्मिक ग्रंथ जैसे श्रीरामचरितमानस का पाठ करना चाहिए । जिसका जन्मदिन हो उसे भी प्रेरित करना चाहिए । बच्चों में तो श्रीरामचरितमानस पढ़ने की आदत डाल देनी चाहिए । जिससे बच्चे यदि रोज श्रीरामचरितमानस न पढ़ सकें तो भी कम से कम रविवार को जरूर पढ़े 


  कहने का मतलब है कि जन्मदिन को एक सात्विक वातावरण में बदल दें । जो हो सके दान दें । घर-परिवार, गली-मोहल्ले वालों को भोजन कराएँ और भगवान को धन्यबाद दें, भगवान का आशिर्बाद लें और सब मिलकर भगवान का गुणगान करें । सही तिथि पर जन्म दिन मनाएँ । इससे अच्छा और क्या हो सकता है ? ऐसा करने से निश्चय ही बच्चे को नई और अच्छी दिशा मिलेगी । यश और कीर्ति में वृद्धि होगी ।
   


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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