सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शनिवार, 28 जनवरी 2023

हे राम राघव हे रघुनंदन अग जग नायक अग जग वंदन


।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 


हे राम राघव हे रघुनंदन ।

अग जग नायक अग जग वंदन ।।

रघुकुल भूषण दशरथ नंदन ।

मैया कौशल्या के आनंदवर्धन ।।

वानर भालू ; भील जन मंडन ।

राखि सरन दुख दोष विभंजन ।।

जन मन भावन जन उर चंदन ।

सरल सबल अघ ओघ विखंडन ।।

दोषकोष पतित बहु दुर्जन ।

कृपासिंधु किए सब सज्जन ।।

श्रीरघुनाथ राम जन रंजन ।

दीन हीन बल खल बल खंडन ।।

द्रवउ सियावर हर धनु भंजन ।

दीन संतोष दीन दुख गंजन ।।

 

।। राम राघव रघुनंदन भगवान की जय ।।


रविवार, 22 जनवरी 2023

नाथ ! रघुनाथ ! सुनौ जग रीति यही है

। श्रीसीतारामाभ्याम नमः  


नाथ ! रघुनाथ ! सुनौ जग रीति यही है ।

सब कुछ जानौ राम सोच बस कही है ।।१।।

स्वानहुँ के स्वामी जाने लोग मन रही है ।

याको कोऊ नाहीं जानि सकुचत नहीं है ।।२।।

जानत अनाथ नाथ मोर गति यही है ।

मोसे दीन दूबरे को ठौर नहीं कहीं है ।।३।।

सोचौं चाहौं करौं नाथ होत नहीं सही है ।

होत विपरीति अघ दोष मति गही है ।।४।।

ढील जनि करौ नाथ समय निरबही है ।

कासो और कहौं राम मोसे कोउ नहीं है ।।५।।

बल विश्वास तुहीं सुधि नहिं लही है ।

दीन संतोष मेरो कहौ बाँह गही है ।।६।।

 


।। अनाथ के नाथ रघुनाथ की जय ।।

रविवार, 15 जनवरी 2023

गुर बिनु भव निधि तरय न कोई

 

कलियुग में वेद मार्ग को त्यागकर लोग अपने मनोकूल मार्ग बना लेते हैं । कलियुग में सबसे अच्छा मार्ग कौन सा होता है-‘मनोकूल मार्ग’ । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि कलियुग में लोग-‘मारग सोइ जाको जो भावा’ के अनुसार मार्ग चुन लेते हैं और उसी पर चलने लगते हैं । उसी का प्रचार-प्रसार करने लगते हैं ।

                      

 पिछले पोस्ट में बताया गया है कि गुरू-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की सनातन परंपरा है । वैदिक परंपरा है । वेद अनुमोदित परंपरा है और सनातन धर्म में वेद सर्वोपरि हैं । और वेद अनुमोदित तथ्य को दूषित करना, उसकी निंदा करना पाप है जो नरकों में ले जाता है-

कल्प कल्प भरि एक एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ।।

 

श्रीरामचरितमानस जी पर वेद, शास्त्र, प्राचीन संत, देवता, भगवान आदि सबकी सम्मति है- ‘वेद शास्त्र सम्मति सबही की’ । इतना ही नहीं श्रीरामचरितमानसजी भगवान शंकर जी का हस्ताक्षरित ग्रंथ है । अर्थात शंकरजी ने इस ग्रंथ पर अपना हस्ताक्षर किया है ।

 

भगवान शंकर जी से बड़ा कोई संत, भक्त, ज्ञानी, वैरागी है क्या ? और भगवान शंकर जी की श्रीरामचरितमानस जी पर सम्मति है । और श्रीरामचरितमानस जी में लिखा है कि-

गुर बिनु भवनिधि तरय न कोई । जो विरंचि शंकर सम होई ।।

 

इसके बाद भी यह कहना कि भगवान और जीव के बीच किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं है । गुरू को बिचौलिया कहा जाना क्या उचित है ?

 

मनोकूल मार्ग जो कलियुग का मार्ग है इसमें पिक एंड चूज भी बहुत चलता है । जो मनोकूल हो उसे ले लो और जो मनोकूल न हो उसे छोड़ दो । रामचरितमानस जी बहुत पठनीय, बहुत श्रवणीय है । इसलिए कई लोग श्रीरामचरितमानस जी के कुछ दोहे और चौपाइयों को तो बोलेंगे । गायेंगे । सुनायेंगे । अथवा अपनी कही हुई बात को मजबूती प्रदान करने के लिए भी प्रयोग करेंगे । लेकिन वही दूसरी ओर गुरू को बिचौलिया भी बोल देंगे । गुरू और शिष्य के सम्बंध को बंधन बता देंगे । यह तो पिक एंड चूज हुआ ।

 

जैसे कोई किसी व्यक्ति से कहे कि हम आपको बहुत मानते हैं, पसंद करते हैं  लेकिन आपका हाथ हमको बिल्कुल पसंद नहीं है । इसे मैं नहीं रहने दूँगा क्योंकि यह हमें पसंद नहीं है । यह कैसा मानना हुआ ? मानों तो पूरा मानों या तो न मानो । और जो तथ्य वेद अनुमोदित है उससे इतना परहेज क्यों ? भगवान भी आते हैं तो वेद धर्म की रक्षा करने के लिए आते हैं- ‘वेद धर्म रक्षक जन त्राता’ । फिर गुरू बिचौलिया कैसे हो गया ?

 

 यह बात सही है कि समाज में बुराई आ गई है । योग्य गुरू और योग्य शिष्य दोनों का मिलना मुश्किल है । फिर भी गुरू बिचौलिया नहीं है । ऐसा कहना गुरू तत्व की निंदा करना है ।

 

  कोई गुरू बना लेगा तो वह भव बंधन से छूट ही जाएगा ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो गुरू और शिष्य दोनों की योग्यता पर निर्भर करेगा । उनकी लगन पर निर्भर करेगा ।

 

  बिना गुरू के भवनिधि क्या है ? इससे तरना है इसका विवेक भी नहीं आएगा । भगवान से जुड़ना है । ‘राम-राम’ जपना है । इसका विवेक ही नहीं आएगा ? जहाँ से यह ज्ञान मिलता है । यह विवेक आता है वही गुरू है ।

 

 गुरू बिनु भवनिधि तरय न कोई’ यह परम सत्य है । सनातन-शाश्वत सत्य है । वेद अनुमोदित सत्य है । इसलिए बिना गुरू के कोई संसार सागर से पार नहीं होता है ।

 

जहाँ पर गुरू और संत की महिमा बताई गाई है वहीं गुरू और संत के लक्षण भी बताए गए हैं । लक्षण घटें तो गुरू बना लेने में कोई बुराई नहीं है । और न घटे तो भगवान को ही गुरू बना लेना चाहिए । क्योंकि रामजी तो जगत गुरू हैं - ‘जगतगुरुं च शाश्वतं तुरीयमेव केवलं । श्रीसनत्कुमारसंहिता में भी कहा गया है-

 

             नारायणं जगन्नाथमभिरामं जगत्पतिम् ।

             कविं पुराणं वागीशं रामं दशरथात्मजम् ।।


             राजराजं रघुवरं कौसल्यानन्दवर्धनम् ।

             भर्गं वरेण्यं विश्वेशं रघुनाथं  जगद्गुरूम् ।।


              रामं रघुवरं वीरं धनुर्वेदविशारदम् ।

              मंगलायतनं देवं रामं राजीवलोचनम् ।।

 

                       ।। जय श्रीराम ।।

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

गुरू तत्व की निंदा नरकों में ले जाती है

 जिसको थोड़ा भी सनातन धर्म का ज्ञान होगा उसे पता होगा कि गुरू-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की सनातन परंपरा है । वैदिक परंपरा है । वेद अनुमोदित परंपरा है । और वेद सनातन धर्म में सर्वोपरि हैं ।

 

अभी हाल में कुछ महीने पहले ही एक लोग कथा कहते हुए कह रहे थे कि भगवान और जीव के बीच में किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं है । संसार में पहले से ही कई बंधन हैं । फिर एक बंधन और क्यों बनाना है ? गुरु की कोई जरूरत नहीं है । 

 

कुछ भी हो गुरू को बिचौलिया कहना अथवा मानना उचित नहीं है । ऐसा बोलना गुरू तत्व का अपमान है । और गुरु तत्व का अपमान भगवान का ही अपमान है । ऐसा समझना चाहिए ।

 

 सही-योग्य व्यक्ति को गुरू बनाना चाहिए । यह सब कहना समझाना उचित है लेकिन वेद विरुद्ध कोई बात कहना उचित नहीं है । योग्य गुरू न मिलें तो भगवान को ही गुरू बनाया जा सकता है । लेकिन गुरू तत्व को ही नकार देना उचित नहीं है क्योंकि यह वेद अनुमोदित तथ्य है । 


गुरु बनकर भगवान को छोड़कर अपने को ही पुजवाना आदि गलत है । यह सब कहना, समझाना सही है । लेकिन गुरू तत्व की निंदा गलत है । 


कोई व्यक्ति गुरू बनकर सही शिक्षा नहीं देता, गलत आचरण रखता है, संसार से अथवा अपने से ही जोड़े रखता है और भगवान से नहीं जोड़ता है तो ऐसे व्यक्ति के बारे में कोई बोलना चाहे तो बोले । ऐसे किसी व्यक्ति के बारे में बोलना अथवा कुछ कहना एक व्यक्ति विशेष की बात होती है  


लेकिन गुरू को ही बिचौलिया करार देना सनातन-वैदिक परंपरा की निंदा है । वेद की निंदा है । गुरू-शिष्य का सम्बंध बंधन नहीं होता है । बंधन छुड़ाने के लिए होता है । लेकिन कराल कलिकाल है यदि सही गुरू नहीं है अथवा सही शिष्य नहीं है तो बंधन कैसे छूटेगा ? यह बात तो है । लेकिन यह सब व्यक्ति से व्यक्ति के लिए है । समाज में बुराई आ गई है इसलिए वेद के सिद्धांतों की तो निंदा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि वेद की निंदा नर्क में ले जाती है 


वेद के सिद्धांतों की निंदा करना, उन्हें गलत बताना अथवा उन पर दोषारोपण करना सनातन धर्म में पाप है और नर्क में ले जाने वाला है । एक कल्प में एक हजार बार सतयुग, एक हजार बार त्रेता, एक हजार बार द्वापर और एक हजार बार कलियुग आते हैं । अर्थात एक कल्प का समय बहुत बड़ा होता है ।

 

और जो लोग वेद के सिद्धांतों को तर्क करके गलत बताते हैं उन्हें एक-एक नर्क में एक-एक कल्प रहना पड़ता है । ऐसा संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-

 

कल्प कल्प भरि एक एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ।।

 

 ।। जय श्रीराम ।।

 

 

रविवार, 8 जनवरी 2023

भगवान श्रीकृष्ण का श्रीराम नाम और भगवान श्रीराम से अनुराग

 भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण एक ही हैं । और भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है । फिर भी अज्ञानता बस कुछ लोग भेद करते हैं और लोगों को गुमराह करते हैं ।

 

 भगवान श्रीराम का अवतार पहले हुआ था और भगवान श्रीकृष्ण का अवतार बाद में हुआ था । इसलिए अवतार काल की दृष्टि से भगवान श्रीराम भगवान श्रीकृष्ण के पूर्ववर्ती हुए ।

 

 एक बार जब अर्जुन जी ने भगवान श्रीकृष्ण से सहज कल्याण का उपदेश देने को कहा तब भगवान श्रीकृष्ण ने राम नाम की बड़ी अद्भुत महिमा गाई । और राम नाम जपने से सहज कल्याण हो जाता है ऐसा उपदेश दिया ।

 

 भगवान श्रीकृष्ण भी तीर्थ यात्रा करते थे । कहा जाता है कि अयोध्या जी में कनक भवन में विराजित भगवान श्रीराम की एक प्रतिमा भगवान श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित है ।

 

श्रीरामेश्वरम तीर्थ में धनुषकोटि जो भगवान श्रीराम से सम्बंधित है, एक प्रमुख तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है । यहाँ पर स्नान करने का बड़ा महत्व है । भगवान श्रीकृष्ण भी धनुषकोटि में स्नान करने के लिए गए थे ।

 

 भगवान को कोई पाप स्पर्श नहीं करता है । फिर भी एक राक्षस के वध के उपरांत पाप के निवृत्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने सुदूर दक्षिण में जाकर भगवान श्रीराम के तीर्थ धनुषकोटि में स्नान किया था ।

 

  केरल राज्य के त्रिशूर जनपद में भगवान श्रीराम की एक बहुत प्राचीन और भव्य मंदिर है । ऐसी मान्यता है कि मंदिर में विराजित विग्रह द्वापर में द्वारका जी में विराजित और भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूजित है । इस विग्रह का पूजन भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारकाजी में करते थे । भगवान श्रीकृष्ण के स्वाधाम गमन के बाद समुद्र ने द्वारिका जी में प्रवेश किया था । उस समय यह विग्रह समुंद्र में आ गया था । कालान्तर में यह विग्रह एक नाविक को मिला और एक राजा ने इस विग्रह को केरल राज्य के त्रिशूर जनपद में स्थापित किया ।

 

कहा जाता है कि आज भी द्वारिकाधीश भगवान द्वारकाजी में श्रीराम जय राम जय जय राम का कीर्तन सुनकर ही शयन करते हैं ।

 

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण का भी श्रीराम नाम और भगवान श्रीराम में अनुराग था । भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण एक ही हैं उनमें भेद नहीं है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

रविवार, 1 जनवरी 2023

भगवान श्रीराम से राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा छोड़ने का माता सीता का अनुरोध और रामजी का जबाब

भगवान श्रीराम का एक नाम सत्य प्रतिज्ञ है अर्थात राम जी अपनी प्रतिज्ञा को सदैव सत्य करते हैं । रामजी का एक नाम दृढ प्रतिज्ञ भी है अर्थात रामजी अपनी प्रतिज्ञा का दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं ।

 

महाराष्ट्र राज्य के नागपुर शहर के पास रामटेक नामक स्थान है । यहाँ पर भगवान श्रीराम का एक बहुत प्राचीन मंदिर है । टेक का एक अर्थ प्रतिज्ञा होता है । कहा जाता है कि भगवान श्रीराम ने राक्षसों का वध करने के लिए इसी स्थान पर प्रतिज्ञा लिया था । तभी से इस स्थान का नाम रामटेक है ।

 

जब भगवान श्रीराम दंडकारन्य में आए तो अस्थियों का ढेर देखकर रामजी को बड़ी दया आई और रामजी ने मुनियों से पूछा । तब मुनियों ने कहा कि हे प्रभु आप सर्वदर्शी-सर्वज्ञ और अन्तर्यामी-सबके हृदय की जानने वाले हैं । आपको तो सब पता है फिर भी जब आप पूछ रहे हो तो हम बता रहे हैं । साधु-संतों को राक्षस खा जाते हैं । यह उन्हीं के द्वारा खाए हुए साधु-संतों के हड्डियों का ढेर है-

 

अस्थि समूह देखि रघुराया । पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ।।

निसच निकर सकल मुनि खाए । सुनि रघुवीर नयन जल छाये ।।

 

यह सुनकर रामजी को बड़ा दुख हुआ । रामजी के कमल नयनों में जल आ गया और रामजी ने मुनियों के समक्ष प्रतिज्ञा किया कि हम दुष्ट राक्षसों का विनाश कर देंगे-

निशचर हीन करहुँ महि, भुज उठाय प्रण कीन्ह ।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन जाइ जाइ सुख दीन्ह ।।

 

 राक्षसों के वध की बात सुनकर सीतामाता को अच्छा नहीं लगा । जब रामजी थोड़ा और आगे चले तो सीताजी ने कहा प्रभु अपनी यह प्रतिज्ञा छोड़ दीजिए । क्योंकि इस प्रतिज्ञा के कारण अनेकों राक्षसों का वध होगा । और आपका इनसे क्या विरोध है ? अथवा राक्षसों ने आपसे कौन सा बैर किया है ? इसलिए आप अपनी प्रतिज्ञा को छोड़ दीजिए ।

 

  तब रामजी ने कहा कि प्रतिज्ञा करके छोड़ देना उचित नहीं है । मैं आपको छोड़ सकता हूँ, लक्ष्मण को छोड़ सकता हूँ लेकिन इन मुनियों के समक्ष की हुई अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता हूँ ।

 

  तब सीताजी ने कहा कि मैं चाहती हूँ कि आपको कोई दोष न लगे इसलिए ऐसी लीला रचूँगी जिससे राक्षसों का आपसे बैर हो जाए । और तब आप राक्षसों का वध कर देना ।

 

 बाद में रामजी ने दुष्ट राक्षसों का वध करके अपनी प्रतिज्ञा को पूरी किया ।

 

।। जय श्रीराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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