सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 28 अगस्त 2022

रविकुल रवि अब उवौ सुहाई

 । श्रीसीतारामाभ्याम नमः 


रविकुल रवि अब उवौ सुहाई ।

मम अघ दोष घने घन कारे कृपा करि बिदराई ।।१।।

सहस कोटि रवि तेज विराजै जग जीवन गति दाई ।

सब बिधि हीन दीन मैं स्वामी नहि बल और उपाई ।।२।।

जग दुख तम तुम बिनु रघुनायक कबहुँ न नाथ नसाई ।

परम सुजान दीन जन पालक कृपासिंधु रघुराई ।।३।।

बल संबल अवलंब एक तुम निज पद कमल लगाई ।

दीन संतोष मोह निस सोए राखो राम जगाई ।।४।।

 

।। जय श्रीराम ।।

बुधवार, 24 अगस्त 2022

मेरे भक्तों का कभी विनाश नहीं होता- श्रीराम गीता

जो लोग भक्ति-भाव से भगवान का भजन करते हैं वे लोग चाहे  स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि कोई भी क्यों न हो संसार-बंधन से मुक्त हो जाते हैं । भगवान श्रीराम अपने भक्तों से बहुत प्रेम करते हैं और उनका बहुत ख्याल रखते हैं । 

 

भगवान श्रीराम कहते हैं कि मेरे भक्तों का कभी विनाश नहीं होता । और भक्तों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । भगवान राम ने ऐसी प्रतिज्ञा कर रक्खी है कि मेरे भक्त का नाश नहीं होता ।

 

भगवान श्रीराम कहते हैं कि जो मूढ़ मेरे भक्त की निंदा करता है, वह मुझ देवादिदेव भगवान की ही निंदा में रत है ।

 

 भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण मूलतः एक ही हैं । लीला की दृष्टि में थोड़ा भेद दिखता है क्योंकि जिस समय जैसी लीला की जरूरत होती है भगवान वैसी ही लीला करते हैं । इसी तरह जिस समय जैसे रूप की जरूरत होती है भगवान वैसा ही रूप बना लेते हैं । इस कारण से रूप और लीला भिन्न होती है लेकिन भगवान मूलतः एक ही हैं ।

 

 भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन जी से गीताजी में कहा कि हे अर्जुन तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्त का विनाश नहीं होता है । तब अर्जुन जी ने ऐसी प्रतिज्ञा की । द्वापर में भगवान अपनी प्रतिज्ञा तोड़ भी देते थे लेकिन अपने भक्त की प्रतिज्ञा की रक्षा करते थे । इसलिए भगवान ने अर्जुन जी से यह प्रतिज्ञा कराई थी कि मेरे भक्तों का नाश नहीं होता है ।

 

इस प्रकार भगवान के भक्तों का कभी विनाश नहीं होता है-

 

न मद्भक्ता विनश्यन्ते मद्भक्ता वीतकल्मषः ।

आदावेत्तप्रतिज्ञातं न में भक्ताः प्रणश्यति ।।

-    श्रीराम गीता (अद्भुत रामायण)

अर्थात मेरे भक्तों का कभी विनाश नहीं होता । मेरे भक्तों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । मैंने पहले से ही यह प्रतिज्ञा कर रक्खी है कि मेरे भक्त का नाश नहीं होता ।

 

 ।। जय श्रीराम ।।

मंगलवार, 23 अगस्त 2022

अंत समय (मरते समय) भगवन्नाम से किसकी मुक्ति होती है

गोस्वामी जी महाराज श्रीरामचरितमानस जी में कहते हैं कि-

जनम जनम मुनि जतन कराहीं । अंत राम कहि आवत नाहीं ।।

यहाँ जतन का मतलब साधन है । और कहि का मतलब मुँह से राम नाम निकलना है । यहाँ ‘अंत राम  सुनि आवत नाहीं’ नहीं लिखा गया है । अर्थात मुँह से यदि अंत समय में राम नाम निकल गया तो मुक्ति मिल जाती है ।

 

इसी तरह गोस्वामीजी कहते हैं कि

जाकर नाम मरत मुख आवा । अधमहु मुकुत होत श्रुति गावा ।।

यहाँ मुख आवा का मतलब उच्चारण करने से है, बोलने से है । अर्थात यदि व्यक्ति  अंत समय में स्वयं राम नाम का उच्चारण करता है तो उसकी मुक्ति हो जाती है । यहाँ भी राम नाम कर्ण आवा नहीं कहा गया है । 

ग्रंथों में केवल शंकर जी द्वारा राम मंत्र सुनाने से काशी क्षेत्र में मुक्ति की बात लिखी है । ऐसा वरदान स्वयं भगवान श्रीराम ने शंकर जी को दिया है ।

 

 कोई मर रहा हो और कोई उसे राम नाम सुना रहा हो तो उस व्यक्ति की मुक्ति हो जायेगी इसमें संदेह है । क्योंकि यदि राम नाम सुनाने से व्यक्ति के भीतर भगवान का चिंतन होने लग जाए अथवा उसके मुख से राम नाम निकल जाए तो उसकी मुक्ति हो जायेगी । चिंतन उस व्यक्ति के  मन में होना चाहिए जो मरने वाला है । इसी तरह राम नाम उस व्यक्ति के मुख में आना चाहिए जो मरने वाला है ।

जीवन भर माया-मोह,झूठ, छल, कपट, प्रपंच  और संसार में अनुरक्त रहें और अंत समय में भगवान का स्मरण हो जाय अथवा भगवन्नाम का उच्चारण हो जाए यह सब इतना सरल नहीं है । हमारे यहाँ अवधी में एक कहावत कही जाती है कि ‘सहजै गुड़ पाकै, तौ के न गपाकै’ । इतना सरल होता तो त्यागी, वैरागी बनने और तरह-तरह के साधन और साधना की जरूरत ही नहीं रह जाती ।

 

  नाम और रूप में भेद नहीं है । नाम स्मरण और भगवत स्मरण एक ही है । ग्रंथों में अंत समय में भगवान का स्मरण होने से अथवा भगवन्नाम का उच्चारण होने से मुक्ति की बात कही गई है । भगवान गीताजी में कहते हैं कि-

 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ।।

 

इस श्लोक में भी भगवान ने अंतकाल में भगवान का स्मरण करते हुए देह त्याग करने पर भगवत स्वरूप हो जाने की बात कही है । इस प्रकार चाहे कोई भगवान का चिंतन करते हुए देह का त्याग करे और चाहे भगवन्नाम का उच्चारण करते हुए देंह का त्याग करे तो मुक्ति मिल जाती है ।

 

 ।। जय श्रीराम ।।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

कृष्ण रूप प्रगटे रघुराई

कृष्ण रूप प्रगटे रघुराई ।

दशरथ कौशल्या मन भावन बालकेलि सुख पाई ।।१।।

वीरसेन रत्नालका देवी सोइ सुख हित मन लाई ।

भगति प्रेम सेवा तप कीन्हें दम्पति अति हर्षाई ।।२।।

परमोदार राम प्रभु प्रगटे बोले गिरा सुहाई ।

द्वापर नन्द यशोदा बनिहौ गोकुल गाँव रहाई ।।३।।

तब शिशु रूप प्रगट होइ रहिहौं माता-पिता बनाई ।

ग्यारह बरष बाल सुख दैहों बसौ अमरपुर जाई ।।४।।

धरा द्रोण बसु बने अमरपुर पुनि जन्में जब आई ।

रघुवर कृष्ण रूप तब जनमें घर-घर मोद बधाई ।।५।।

दीन संतोष देवकीनन्दन गए यहि रूप समाई ।

कृष्णचंद्र निज जन मन राखे चरित किए सुखदाई ।।६।।


।। श्रीकृष्णचंद्र भगवान की जय ।। 

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

अष्ट सखी संग राधा मोहन लीला करत रसाल

 वृंदावनवासी सांवरे मन मोहन मदन गोपाल ।

मथुरा जाए गोकुल आए जशुमति कियो निहाल ।।१।।


घर-घर बाजने सुंदर बाजे सब भए मालामाल ।

देवकीनन्दन जगबन्दन भए नंद बाबा को लाल ।।२।।


गली-गली में नाच नचावैं गोपिन दै-दै ताल ।

माखन खातिर घर-घर डोलत गोपिन ऐंठत गाल ।।३।। 


लकुटी लेकर गाय चरावत बड़ा छ्वीलो ग्वाल 

कामरि वंसुरी सुंदर सोहै तिलक सजीलो भाल ।४


यमुना तीरे कंदुक खेलत संग सखा सब बाल 

अष्ट सखी संग राधा मोहन लीला करत रसाल ।५


टेढ़ी-टेढ़ी चितवन सोहै टेढ़े टेढ़े बाल ।

टेढ़ी कटि संतोष सुधारत जीवन टेढ़ी चाल ।।६।।


।। वृंदावनवासी सांवरे सरकार की जय ।।

बुधवार, 17 अगस्त 2022

जो रघुनंद सोई नंदनंदा । उभै भेद भाखत मतिमंदा ।।

आजकल कई लोग भगवान श्रीकृष्ण को भगवान श्रीराम से भिन्न अथवा उत्कृष्ट बताने अथवा सिद्ध करने में लगे रहते हैं । इसके दो प्रमुख कारण हैं । एक है अज्ञानता और दूसरा है आसक्ति ।

 

 लेकिन सिद्धांत यही है कि जो दशरथ नंदन श्रीराम हैं वे ही नंद नंदन श्रीकृष्ण हैं । जो लोग भेद करते हैं उन्हें मूर्ख अथवा मतिमंद कहा गया है-

 

   जो रघुनंद सोई नंदनंदा । उभै भेद भाखत मतिमंदा ।।

 

रत्नहरि जी कहते हैं कि सुखों की खानि जिन राम जी को रानी कौशल्या ने अयोध्या में जन्म दिया वे ही राम जी गोकुल में यशोदा के पुत्र हैं-

 

जन्यो जो इत कौशल्या रानी । जसुमत सुत उत सोई गुनखानी ।।

 

रत्नहरि जी आगे कहते हैं कि श्रीराम ही श्रीकृष्ण हैं और श्रीकृष्ण ही श्रीराम हैं और दोनों के भजन से भव भय का नाश हो जाता है-

 

रघुपति कृष्ण कृष्ण रघुवीरा । उभय भजन भंजन भवभीरा ।।

 

इस प्रकार रघुकुल नंदन श्रीराम ही नंद नंदन श्रीकृष्ण हैं । और मतिमंद लोग ही प्रलाप करते हैं और राम कृष्ण को भिन्न बताते हैं । अथवा किसी को कम और किसी को ज्यादा बताते हैं ।

 

।। भगवान श्रीरामकृष्ण की जय ।।

रविवार, 14 अगस्त 2022

भगवान श्रीराम से समस्त देवता और भगवान विष्णु आदि सूर्य से प्रकाश की किरणें की तरह उत्पन्न होते हैं

भगवान श्रीविष्णु भगवान श्रीराम की स्तुति करते हुए कहते हैं कि जिस समय आप अपने एक रूप को अनेक रूपों में विभक्त करके विश्व का विस्तार करते हैं उस समय जैसे सूर्य से ये किरणें  प्रसरित होती हैं, उसी प्रकार हमलोग आपसे प्रादुर्भूत होते हैं ।

 

इस प्रकार समस्त देवता और व्रह्माजी, शंकरजी, विष्णुजी आदि और सभी पितर समस्त जगत राम जी के अंशभूत हैं । रामजी की विभूतियाँ हैं -

 

यस्यांशभूताश्र्व वयं तथान्ये

सुरः समस्ताः पितरश्च सर्वे ।

किं वा बहूक्तेन जगत समस्तं

विभोर्विभूतिः परमा रिरंसोः ।।

          - श्रीराम गीता (स्कंद पुराण)

 

कई लोग अज्ञान अथवा आसक्ति बस भगवान श्रीकृष्ण को भगवान राम से भिन्न अथवा उत्कृष्ट बताने अथवा सिद्ध करने का प्रयास करते हैं । यह सही नहीं है ।

 

श्रीवाल्मीकि रामायण (श्री वाल्मीकि कृत) और श्रीपद्म पुराण (श्री वेद व्यास कृत) में व्रह्मा जी कहते हैं हे राम आप ही श्रीकृष्ण हो – ‘सीता लक्ष्मीर्भवान विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः’ ।

 श्रीराम गीता के तीसरे अध्याय में इंद्र कहते हैं कि यद्यपि आप दैवी वाणी के अगोचर, ब्रह्मादि देवों के लिए भी अचिन्त्य, अविनाशी, अद्वितीय प्रभु हैं, तथापि मैं आपको धनुष द्वारा शासन करनेवालों में श्रेष्ठ एक रघुवंशी राजा ही समझता था ।

 इंद्र ने जो कहा उसका मतलब है कि रामजी की लीला, गुण, चरित्र, स्वरूप, प्रभाव आदि बहुत गूढ़ हैं । किसी के समझ में आसानी से नहीं आते  गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कृत श्रीरामचरितमानस जी में भगवान शंकर जी ने कहा है-

 

उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं विरति ।

पावहिं मोह विमूढ़  जे हरि बिमुख न धर्म रति ।।

 

वाल्मीकि जी ने श्रीरामचरितमानस जी में कहा है कि-

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे । जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे ।।


भगवान श्रीराम, श्रीराम गीता के तीसरे अध्याय में देवताओं से कहते हैं कि इस समय तुमलोगों ने मेरे जिस सनातन विश्वरूप-विराट स्वरूप का दर्शन किया है, यह अनेक व्रह्मांडों से सुशोभित मेरा एक अंश मात्र है । इसके ऊपर जो मेरा परम स्वरूप है तुम सब लोग कभी भी मेरा दर्शन नहीं कर सकते ।

 

देवता और मनुष्य भी भक्ति द्वारा ही उस परम स्वरूप का दर्शन कर सकते हैं ।

 

श्रीराम गीता में बालखिल्य कहते हैं कि हे श्रीराम आप से पर अथवा अपर कुछ भी नहीं है और न कुछ आपसे अणु अथवा महान ही है । आप सदा अद्वितीय, स्वराट और अचल हैं ।

 

रामजी ने कहा है कि मैं ही स्वयंप्रकाश सनातन भगवान हूँ । ईश्वर हूँ  मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ । मुझसे भिन्न दूसरी वस्तु की सत्ता नहीं है –

अहं हि भगवानीशः स्वयंज्योतिः सनातनः ।

परमात्मा परं व्रह्म मत्तो ह्यन्यनन् विद्यते ।।

                                              

इस प्रकार रामजी से पर या अपर कुछ भी नहीं है । यदि कुछ है तो वह वास्तव में है ही नहीं अर्थात वह कल्पनामात्र ही है उसका अस्तित्व नहीं है ।

 

।। जय श्रीराम ।। 

शनिवार, 13 अगस्त 2022

रघुनाथ जी की कृपा ही जीव को मोह से छुड़ाती है-मोह निर्मूलिनी कृपा रघुनाथ की

मायाधीश भगवान श्रीराम की माया से मोह जनित है । अर्थात जीव भगवान की माया से ही मोहित होकर संसार बंधन में पड़ा रहता है । और रघुनाथ जी की कृपा मोह का समूल नाश करने वाली है ।

 न ही यह जीव के वश की बात है कि वह मोह से छूट सके और न ही किसी दूसरे के वश की बात है कि वह जीव को मोह से छुड़ा सके । केवल और केवल रघुनाथ जी की कृपा ही जीव को मोह से छुड़ाती है ।

 

इस प्रकार यह जीव के हाथ की बात ही नहीं है कि वह मोह रूपी रस्सी की गाँठ खोल सके । लोग ऐसा कहते रहते है, ज्ञान की बातें करते रहते हैं कि देह-शरीर, गेह-घर और जग-संसार अपना नहीं है । इस प्रकार जीव बातें तो ज्ञान की करता है लेकिन माया वश संसार में भूला रहता है और अज्ञानियों की तरह दुख भोगता है ।

 

लेकिन जानकी जीवन जग जीवन मायाधीश भगवान राम की कृपा के बिना अपने बल से मोह छूटने वाला नहीं है ।

 

इसलिए मैं तो अपने नाथ रघुनाथ जी से ही आशा लगाकर उनके और उनके गुण गणों के बल पर चिंता मुक्त रहता हूँ । क्योंकि राम जी सुसाहिब हैं और अपने जनों का बहुत ही ख्याल करने वाले हैं वे जैसा ठीक समझेंगे स्वयं करेंगे -


मोह निर्मूलिनी कृपा रघुनाथ की ।

मोह रजु गाँठ खोलै नहीं जीव हाथ की ।।१।।

देंह गेह नहीं जग बात करै ज्ञान की ।

माया बस भूला फिरै गति अनजान की ।।२।।

मायाधीश राम जग जीवन जानकी ।

छोह बिनु छूटै नाहीं बल अपान की ।।३।।

रहत निसोच आस किए निज नाथ की ।

सुसाहिब राम और बल गुन गाथ की ।।४।।

 

।। जय श्रीराम ।

बुधवार, 10 अगस्त 2022

नाथ जीव तव माया मोहा- मोह रुपी रस्सी की गाँठ कैसे खुलती है ?

कई लोग कहते हैं, बताते हैं कि शरीर संसार अपने नहीं है केवल भगवान ही अपने हैं । यह बोलना बहुत आसान है । लेकिन वास्तव में इसके अनुरूप जी पाना आसान नहीं है । कई लोग ऐसा बोलते रहते हैं और दूसरों को बताते रहते हैं । लेकिन इसे जीवन में उतार नहीं पाते । और यही सुनते, बोलते और बताते जीवन का अंत आ जाता है । वास्तव में ऐसा क्यों नहीं हो पाता यह जानना, यह समझना बहुत जरूरी है । यह बात तो सच है लेकिन वास्तव में जीवन में कब और कैसे उतरेगी ? 

 

कई संतों ने भी इस बात को पुरजोर तरीके से समझाने का प्रयास किया है । कुछ लोग या ऐसा कहें कि गिनती के लोग इसके अनुरूप जीवन जीने में सफल भी हुए होंगे । लेकिन बड़े पैमाने पर लोग इसके अनुरूप जीवन जी पायें हैं अथवा जीवन जी पा रहे हैं ऐसा कहना बहुत मुश्किल है ।

 

ऐसे में क्या उपाय है ? माया-मोह से जीव मुक्त कैसे हो पायेगा ? शरीर संसार अपना नहीं है केवल भगवान अपने हैं इसके अनुरूप जीवन कैसे हो पायेगा ?

 

  ऐसा इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि वास्तव में जीव की यह सामर्थ्य ही नहीं है कि वह माया-मोह से मुक्त हो सके ।  बोलने और बताने की बात अलग है । कोई भी बोल देगा । बता देगा कि शरीर संसार अपने नहीं हैं केवल भगवान ही अपने हैं । लेकिन बोलने से काम थोड़े चलता है ।

जब तक शरीर संसार से मोह भंग नहीं होगा तब तक काम बनने वाला नहीं है ।

 

हनुमानजी महाराज स्वयं भगवान श्रीराम से कहते हैं कि-

 

‘नाथ जीव तव माया मोहा । सो निस्तरइ तुम्हारिहिं छोहा ।।

                               -श्रीरामचरितमानस

 

अर्थात बिना राम जी की कृपा के जीव मोह से उपराम नहीं हो सकता । नहीं हो सकता । नहीं हो सकता ।

 

गोस्वामीजी श्रीविनयपत्रिका जी में कहते हैं कि-

तुलसिदास यह जीव मोह रजु जोइ बाँध्यो सोइ छोरै ।

 

अर्थात जीव मोह रुपी रस्सी में बँधा हुआ है । बँधा तो है । छूटेगा कैसे ? अपने आप । अपने बल पर । दोनों में से कोई नहीं । तब कोई और छुड़ा देगा । कोई और भी नहीं छुड़ा पायेगा । तब कैसे छूटेगा ?

 

गोस्वामीजी जी का भाव है कि मोह रुपी रस्सी की जो गाँठ है वह कोई सामान्य गाँठ नहीं है । बहुत ही अजीब गाँठ है । ऐसी गाँठ है कि जिसे खोलना किसी को आता ही नहीं । जितना खोलना चाहो और उलझ जाती है । इसलिए सारे जतन बेकार हो जाते हैं ।

 

 अब जिसने यह गाँठ लगाई है उसे ही इसको खोलने का रहस्य पता है । इसलिए यह उसी के खोलने से खुलेगी । और जैसे यह गाँठ खुलेगी जीव मोह रुपी रस्सी से छूट जायेगा ।

 

 इस प्रकार यह जीव के बस की बात नहीं है कि वह मोह रुपी रस्सी से मुक्त हो जाए । इसलिए यह कहने से कि शरीर संसार अपना नहीं है कल्याण होने वाला नहीं है ।

 

तब जीव क्या करे । जीव भगवान राम से प्रार्थना करे और भगवान राम की शरण हो जाए । बस गाँठ भी खुल जायेगी और कल्याण भी हो जायेगा । और दूसरे साधन सफल होंगे अथवा नहीं इस बात को ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता है । एक मात्र पूर्ण सफल साधन है शरणागति ।

 

।। जय श्रीराम ।।

 

गीता जी से आगे की बात-अर्जुन जी को सहज साधना का उपदेश

कई लोग आजीवन गीता जी के प्रचार और प्रसार में लगे रहते हैं । कई लोग आजीवन गीता जी पर प्रवचन करते रहते हैं । कई लोग गीता कंठस्थ कराते हैं और कई लोग गीता जी को कंठस्थ कर लेने पर जोर देते हैं । यह सब बहुत अच्छी बात है । यह सब भी साधना है ।

 

 जो लोग उच्च कोटि के साधक हैं उन्हें गीता जी के गूढ़ रहस्य समझ में आते होंगे । निष्काम कर्म योग, ज्ञान योग आदि समझते होंगे और जीवन में उतारते भी होंगे । क्योंकि जीवन में उतारना ही लक्ष्य है । यदि जीवन में गीता जी की बातें नहीं उतरी तो उपरोक्त साधना सफल हो गई ऐसा कहना मुश्किल है ।

 

लेकिन जो सामान्य साधक हैं उन्हें निष्काम कर्म योग, ज्ञान योग आदि की बातें गले नहीं उतरती । ऐसे में उनके लिए कौन सी सहज साधना है ?

 

  अर्जुन जी ने सारी गीता सुन लिया, भगवान के विराट स्वरूप का दर्शन कर लिया और महाभारत का युद्ध भी लड़ लिया । इस प्रकार अर्जुन जी गीता ज्ञानी हो गए । गीता में भगवान ने अर्जुनजी को श्रीराम नाम जप का उपदेश नहीं किया है । इसलिए इस साधना का उपदेश गीता जी से आगे की बात है । 

 एक बार अर्जुन जी ने भगवान से पूछा कि सहज साधना क्या है ? जिससे जीव सहज ही संसार सागर से मुक्त हो जाए ।

 

तब भगवान ने गीता जी से आगे की बात बताई कि सबसे सहज साधना है राम नाम का जप । इससे सहज कोई साधना नहीं है । इस प्रकार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन जी को राम राम जपने का उपदेश किया । ऐसा ही उपदेश भगवान व्यास ने धर्मराज युधिष्ठिर को भी किया था और 'श्रीराम' को परम जपनीय मंत्र बताया था ।

 

राम राम जपकर सहज ही मुक्ति और मुक्ति के भी आगे की चीज भगवान की भक्ति मिल जाती है । यह साधना छोटे बड़े सभी साधकों के लिए एक समान सुलभ और सुखकारी है और परम सहज साधना है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

रविवार, 7 अगस्त 2022

दीन हीन से प्रीति करने की करुणानिधान भगवान श्रीराम की रीति है

हे चराचर जगत के स्वामी रघुनाथ जी और हे माता जानकी आपको छोड़कर मुझे न तो किसी दूसरे की आशा है और न ही विश्वास है-

। श्रीसीतारामाभ्याम नमः 


अग जग नाथ रघुनाथ माता जानकी ।

आस न विश्वास मोहि केहू और आन की ।।१।।

जानौं नहीं गूढ़ बात ज्ञान विज्ञान की ।

उपनिषद शास्त्र आदि वेद पुरान की ।।२।।

जप तप नहीं बल एकौ अपान की ।

दास एक खास किए बल गुन गान की ।।३।।

दीन हीन प्रीति रीति करुनानिधान की ।

दीन मलीन राखे शरण पद त्रान की ।।४।।

दीनबंधु सुनै जग साधु सुजान की ।

दीन संतोष तुहीं मोसे अनजान की ।।५।।

चाह नहीं नाथ मोहि गति निरबान की ।

निज करि राखो सुधि करि निज वान की ।।६।।

 

।। दीनबंधु सीताराम जी की जय ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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