सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

रविवार, 25 अगस्त 2019

पाताल लोक कहाँ है- पाताल लोक का सही निर्धारण


कलियुग में जो जितना नासमझी की बात यानी उल्टी-सीधी गुमराह करने वाली बात करे उसे जयादा समझदार माना जाता है । और लोग उसकी बात पर विश्वास भी करते हैं । और कहते हैं कि वैसा नहीं ऐसा है बिल्कुल सही बता रहे हैं ।


कई लोग जो अपने को वुद्धिजीवी समझते हैं अथवा जिन्हें ऐसा समझा जाता है वे लोग टीवी आदि पर भी और अन्य माध्यमों से अपने ज्ञान का परिचय देते हुए पाए जाते हैं और पौराणिक-अध्यात्मिक विषयों की गंभीरता को न समझते हुए भी टिप्पणी करते हैं । और कहते हैं कि वास्तव में ऐसा है । वैसा नहीं जैसा लिखा है ।


  मैंने कई लोगों को कहते हुए सुना है और एक टीवी चैनल के लोग एक कार्यक्रम में दिखा और समझा रहे थे कि पाताल लोक धरती के नीचे नहीं है ।


  ग्रंथो में धरती के नीचे कई लोकों का वर्णन है । जैसे पाताल, सुतल, अतल, वितल आदि । लेकिन आधुनिक जानकार जिन्हें उचित जानकारी नहीं होती है कहते हैं कि पाताल धरती के नीचे नहीं । धरती पर ही है ।


  ये लोग और टीवी वाले कई लोग भ्रम फैलाते हैं और लोगों को गुमराह करते हुए कहते हैं कि अमेरिका ही पाताल लोक है । जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि अमेरिका धरती का हिस्सा है और सात महाद्वीपों से बाहर नहीं है । जब ग्रंथों ने सात सागर और साथ महाद्वीपों से युक्त पृथ्वी के नीचे पाताल लोक का वर्णन किया है तो धरती के किसी विशेष भूभाग को पाताल लोक मानना कहाँ की समझदारी है । 



  ग्रंथों में करोड़ों वर्ष पूर्व ही लिख दिया गया है कि पृथ्वी पर सात महा द्वीप हैं  । और इस पर मुख्य रूप से सात सागर हैं ।  क्या अमेरिका सात महाद्वीपों और सात सागरों  वाली धरती से अलग है ? नहीं । इसी के अंतर्गत है ।


अतः जैसा ग्रंथों में लिखा है कि पाताल लोक धरती के नीचे का लोक है । वैसा ही है । चूँकि अमेरिका सात सागरों और सात महाद्वीपों वाली धरती का ही हिस्सा है । इसलिए अमेरिका पाताल लोक नहीं है । अमेरिका को पाताल मानना और समझना  मूर्खता है ।




।। जय श्रीराम ।।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : मथुरा और गोकुल में एक साथ दो श्री श्रीकृष्ण प्रगट हुए थे


भगवान श्रीकृष्ण भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष के अष्टमी को रोहणी नक्षत्र में प्रगट हुए थे । तब से इस दिन को श्रीकृष्ण जनमाष्टमी के नाम से जाना जाता है । और तब से भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है ।

        
  भगवान दो रूपों में प्रगट हुए थे । एक श्रीकृष्ण मथुरा में और दूसरे गोकुल में । मथुरा में भगवान प्रगट हुए थे यह बात सब लोग जानते है । और जन्म की कथा प्रसिद्ध है ।


लेकिन गोकुल में भी भगवान प्रगट हुए थे । यह कथा उतनी प्रसिद्ध नहीं है । इस कथा के बारे में लोग कम जानते है । परंतु कई संत ऐसा मानते और जानते भी हैं । तथा ग्रंथों में इसका प्रमाण भी मिलता है ।


  ग्रंथों के अनुसार स्वयं भगवान राम श्रीकृष्ण के रूप में गोकुल में प्रगट हुए थे । ऐसा ग्रंथों से और संतों से पता चलता है । श्रीविनयपत्रिका जी में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान राम भगवान श्रीकृष्ण के रूप में गोकुल में नंद बाबा के यहाँ प्रगट हुए-

  
 सुर-मुनि विप्र बिहाय बड़े कुल,

          गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो 

वायों दियो विभव कुरुपति को,

           भोजन जाय विदुर-घर कीन्हो ।।

मानत भलहि भलो भगतनि तें,

            कछुक रीति पारथहि जनाई ।

तुलसी सहज सनेह राम बस,

           और सबै जल की चिकनाई ।।


                         -श्रीविनयपत्रिका / २४० 


संत बताते हैं कि जब वसुदेवजी श्रीकृष्ण भगवान को लेकर गोकुल पहुँचे तो मथुरा के भगवान श्रीकृष्ण गोकुल के भगवान श्रीकृष्ण में विलीन हो गए । इस प्रकार बाद में एक भगवान श्रीकृष्ण ही रह गए ।



 हम आज जन्माष्टमी के पावन पुनीत अवसर पर भगवान की वंदना करते हैं –


श्रीकृष्णचन्द्र देवकीनन्दन माँ जशुमति के बाल गोपाल ।
  
रुक्मणीनाथ राधिकावल्लभ मीरा के प्रभु नटवरलाल ।।

मुरलीधर बसुदेवतनय बलरामानुज कालिय दहन ।

पाण्डवहित सुदामामीत भक्तन के दुःख दोष दलन ।।

मंगलमूरति श्यामलसूरति कंसन्तक गोवर्धनधारी ।

त्रैलोकउजागर कृपासागर गोपिनके बनवारि मुरारी ।।

कुब्जापावन दारिददावन भक्तवत्सल  सुदर्शनधारी 

दीनदयाल शरनागतपाल संतोष शरन अघ अवगुनहारी ।।

   विनयावली / २० 


।। जय श्री श्रीकृष्ण ।।


गुरुवार, 15 अगस्त 2019

श्रीरामार्चा पूजन : मनोवांछित फल देने वाली और व्रह्माजी, विष्णुजी और शंकरजी द्वारा भी की जाने वाली एक पूजा


सनातन हिंदू धर्म से जुड़े हुए लोग अनेक त्योहार, अनेक व्रत, और पूजन आदि के बारे में जानते हैं । लेकिन बहुत कम लोग ऐसे हैं जो श्रीरामार्चा पूजन के बारे में सुने हों अथवा जानते हों ।


   श्रीरामचरितमानस जी में आता है कि शंकरजी, विष्णुजी और व्रह्माजी आदि सृष्टि से सम्बंधित कार्य आदि तपस्या के बल पर करते हैं । तपस्या के केंद्र में कोई न कोई देवता होता है । मंत्र होता है । बिधि होती है । लेकिन जब विष्णुजी, व्रह्माजी और शंकरजी तपस्या करते हैं तो केंद्र में कौन देवता होता होगा ? यह एक प्रश्न है ?


  इस प्रश्न का उत्तर श्रीशिव संहिता में है । भगवान शंकर जी स्वयं कहते हैं कि हे पार्वती भगवान विष्णु को पालन की, व्रह्माजी को सृष्टि की और मुझे संहार की शक्ति- योग्यता श्रीरामार्चा से मिलती है । शंकरजी कहते हैं कि सृष्टि के समय भगवान विष्णु व्रह्मा जी को श्रीराम का अर्चन करने का उपदेश देते हैं । आदि ।


 इस प्रकार बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी श्रीरामार्चा पूजन करते हैं । इसकी एक विधि है । और बड़ी महिमा कही गई है । जिन्हें कोई सहारा देने वाला नहीं है, उन्हें यह सहारा देने वाला-सन्मार्ग दिखाने वाला है । मनोवांछित फल को देने से लेकर रोग, दोष, दुर्भाग्य आदि को दूर करके सुख और सौभाग्य देने वाला अर्चन है । जब देवी-देवता भी इससे बल और योग्यता पाते हैं तो मनुष्य के लिए तो मंगलकारी और लाभकारी तो होगा ही ।


यहाँ तक कहा गया है कि संपूर्ण कामनाओं की सिद्धि करनेवाली, संपूर्ण विघ्नों को नष्ट करनेवाली, मंगलमयी रामार्चा का अनुष्ठान करके मनुष्य सुखी हो जाता है । और रामार्चा से बढ़कर कोई यज्ञ नहीं है । रामार्चा से बढ़कर कोई तप नहीं है । रामार्चा से बढ़कर कोई दान नहीं है । रामार्चा से बढ़कर कोई जप नहीं है । तीनों लोकों में रामार्चा से बढ़कर कोई उत्तम पुण्य नहीं है । 


शंकरजी कहते हैं के हे देवि  रामार्चन के अतिरिक्त संपूर्ण अभीष्टों को पूर्ण करने वाला कोई दूसरा साधन मैं नहीं देख रहा हूँ ।  और न ही मैंने कोई दूसरा साधन सुना ही है । आदि  पूरी महिमा का उल्लेख कर पाना मुश्किल है ।


  चूँकि यह कुछ गोपनीय है । अतः हर कोई इसके बारे में नहीं जानता । किसी सुयोग्य पंडित से संपर्क कर ‘श्रीरामार्चा’ पूजन के बारे में जाना जा सकता है और कराया भी जा सकता है । जितने मनोयोग-श्रद्धा से पूजन किया और कराया जाएगा उसके अनुरूप फल मिलना लाजिमी ही है ।



।। जय श्रीराम ।।





बुधवार, 7 अगस्त 2019

रामजी की मर्यादा और सीताजी का दूसरा वनवास


रामजी को मर्यादा पुरषोत्तम और पुराण पुरषोत्तम कहा जाता है । अर्थात मर्यादा निभाने में राम जी सबसे उत्तम हैं । इसीप्रकार पुराणों में जितने पुरषों के चरित्र का वर्णन किया गया है । राम जी उन सबमें सर्वोत्तम हैं । रामजी का चरित्र सबसे उत्तम है ।


इतना ही नहीं वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि राम जी धर्म के साक्षात विग्रह हैं । अर्थात नैतिक नियम, नीति और धर्म के साक्षात प्रतिमूर्ति रामजी हैं । रामजी सभी नियमों, नीतियों और धर्म के सभी सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करने वाले हैं । किसी को जानना हो कि धर्म क्या है ? नैतिकता क्या है ? तो उसे रामजी का चिंतन करना चाहिए । रामजी के चरित्रों का चिंतन करना चाहिए । क्योंकि कोई भी नैतिक मूल्य अथवा धर्म राम जी के चरित्र से परे नहीं हैं । ऐसा संतों और सद्ग्रन्थों का मत है ।


ऐसे में सीता जी को दूसरा वनवास क्यों दिया गया ? यह समझने के लिए निम्नलिखित बातों को समझना चाहिए ।


 जो साधारण मनुष्य हैं जैसे हम लोग तो उन्हें कम से कम तीन मर्यादाओं का अवश्य पालन करना चाहिए ।


 पहली कुल की मर्यादा होती है । इसका मतलब है कि हमारे कुल के पूर्वजों ने जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं, जो आदर्श स्थापित किए हैं । उनका पालन करना । उसके अनुसार कार्य करना । उदाहरण के लिए रघुवंश में वचन पालन का आदर्श था- रघुकुल रीति सदा चलि आई । प्राण जाइ पर वचन न जाई ।


दूसरी है लोक की मर्यादा । लोक की मर्यादा का मतलब है जो आदर्श हमारे समाज का है उसके अनुरूप रहना । आज के समय में भी कई बार इससे लाभ होता है । लोग प्रायः कहते हैं कि ऐसा करोगे तो ‘चार लोग’ क्या कहेगें ? यहाँ चार लोग का मतलब समाज से होता है । इस प्रकार समाज के डर से कई चीजें अच्छी की जाती हैं ।


तीसरी है वेद की मर्यादा । जिसे आज के समय में लोग जानते ही नहीं । वेद का नाम जरूर सुना होगा । लेकिन वैदिक मर्यादा के बारे में जब पता नहीं है तो पालन का कोई सवाल ही नहीं है ।


  आजकल लोग अपने माता-पिता को ही नहीं मानते, जानते पहचानते तो कुल की मर्यादा की किसे पड़ी है । वेद की मर्यादा से भी कुछ लेना देना नहीं है । समाज का डर भले ही कुछ लोगों को हो । वैसे आजकल कोई मर्यादा ही नहीं रह गयी है और ‘करता वह जिसको जो भाए’ का समय आ गया है । इसे ही कलियुग कहा गया है ।


उपरोक्त तीन मर्यादाएं मनुष्य मात्र के लिए हैं । चाहें वह स्त्री,पुरुष और नपुंसक कोई भी क्यों न हो ।


 रामजी मनुष्य रूप में अवतरित तो हुए थे लेकिन मनुष्य नहीं थे । वे लोक में थे लेकिन अलौकिक थे । इसलिए उन्हें पारलौकिक मर्यादा का भी पालन करना था । यह मर्यादा हम लोगों के लिए नहीं है ।


रामजी के अवतार का एक कारण इसी मर्यादा को निभाने के लिए हुआ था । नारद जी के वचन को रखने के लिए राम जी मनुष्य बने और रावण द्वारा सीताजी का हरण किया जाना स्वीकार किया ।


 इसी तरह भृगु जी के वचन को रखने के लिए सीताजी को वनवास दिया गया । सीताजी को अयोध्या से वनवास भेजा गया । भृगु जी का शाप था कि असमय आपको अपनी पत्नी का परित्याग करना पड़ेगा । रामजी ने भृगु जी के शाप को सत्य करके दिखाया और उनके वचन की रक्षा की ।


 इस तरह साधारण मनुष्यों से इतर रामजी पारलौकिक मर्यादा से बंधे थे । और रामजी ने एक साथ कुल की यानी रघुवंश की, लोक की, वेद की और सूक्ष्म लोक की चारों मर्यादाओं का पालन किया ।


चूँकि सूक्ष्म लोक की मर्यादा अलौकिक है । पारलौकिक है । इसलिए कोई सोचे कि रामजी ने सीताजी का परित्याग कर दिया था इसलिए मुझे भी ऐसा करना चाहिए । तो यह गलत है । क्योंकि यह लोक की दृष्टि से सही नहीं है ।


  और यदि कोई सोचे कि राम जी ने सीताजी का परित्याग करके गलत किया था तो यह नासमझी की बात है । मूर्खता है । रामजी ने सदा मर्यादाओं का पालन किया है । और इसलिए ही वे मर्यादा पुरषोत्तम हैं । पुराण पुरषोत्तम हैं ।


 इतना ही नहीं । जो राम जी हैं । वे ही सीता जी हैं । रामजी और सीताजी में भेद नहीं है । अभेद है । लोक (लीला) की दृष्टि से राम जी और सीताजी अलग हो गए । लेकिन तत्वतः रामजी और सीताजी कभी अलग नहीं होते-

  
उमा राम गुन गूढ़, पंडित मुनि पावहिं विरति ।
पावहिं मोह विमूढ़ जे हरि विमुख न धर्म रति ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।


गुरुवार, 1 अगस्त 2019

न राम जी के दास बिगड़ते हैं और न ही रामजी के दास का बिगड़ता है


इस कराल कलिकाल में भी रामजी की अपने दासों पर विशेष कृपा होती है । इसी कृपा के बल पर दीन दास जीवित रहते हैं । और इसी से न तो राम जी के दास कभी बिगड़ते हैं और न ही राम जी के दास का कभी कुछ बिगड़ता है ।


 कई बार सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति बिगड़ गए हैं । और उन्हें जेल हो गई है । इसमें से कोई राम जी का दास नहीं होता है । रामजी के दास को कभी जेल नहीं जाना पड़ता है । कोई रामजी का दास न हो और झूठे अपने को ऐसा दिखाए अथवा प्रचारित करे तब बात दूसरी है । सच्चे राम दास कभी नहीं बिगड़ते । रामजी उनका सार सँभार करते हैं ।


रामजी के दास का कभी कुछ बिगड़ता भी नहीं है । लोग चाहे जितनी कोशिस करें लेकिन कुछ बिगाड़ नहीं पाते चाहे बिगाड़ने की इच्छा रखने वाले रावण जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली क्यों न हों ?


 राम जी के दास की बिगड़ी उत्तरोत्तर बनती ही रहती है । बिगड़ी बनानी है तो राम जी को अपना स्वामी बना लेना चाहिए । राम जी को अपना स्वामी बना लेने से बिगड़ी बनती जाती है । और कभी कुछ बिगड़ता नहीं है । राम जी ऐसे स्वामी हैं । ऐसा उनका विरद है । स्वभाव है कि अपने दास की ऐसी बिगड़ी जो किसी के भी बनाए न बने उसे भी सुधार देते हैं । बना देते हैं ।


लेकिन रामजी को स्वामी बनाकर उनपर विश्वास रखना जरूरी है । उनकी प्रभुता को मन में रखना जरूरी है । बस क्या है एक नहीं अनेकों जन्मों की बिगड़ी बन जायेगी-


तुलसी सीताराम रटु हिय राखो विश्वास ।
कबहूँ बिगरत न सुनी रामचंद्र के दास ।। 


।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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