रामजी की लीला बड़ी अद्भुत है । रामजी जैसा त्यागी, वैरागी और योगी कोई नहीं है । फिर भी रामजी लीला में रोने में भी संकोच नहीं करते । सीता हरण हो जाने पर रामजी ने विलाप किया । लंका में लक्ष्मण जी के मूर्छित हो जाने पर विलाप किया । इतना ही नहीं जब वन में भगवान राम अयोध्या जी की व अयोध्यावासियों की याद करते थे तो आँखों में आँसू ले आते थे । दशरथजी की मृत्यु का समाचार सुनकर भी रामजी की आँखों में आँसू आ गए थे । रामजी तब भी रोये थे ।
एक बार रामजी ने
हनुमानजी के लिए भी बहुत विलाप किया था । कथा इस प्रकार है । कल्प भेद से यह कथा थोड़ा
अलग भी मिलती है । स्कंदपुराण के अनुसार रामेश्वरम में शिव लिंग की स्थापना के लिए
हनुमानजी को रामजी ने काशी से शिव लिंग लाने के लिए भेजा ।
हनुमानजी ने तपस्या से
भगवान शंकर को प्रसन्न करके उनसे शिवलिंग प्राप्त किया । और जब आए तो देखा कि
भगवान श्रीराम जानकी जी के हाथ से बनाए गए बालू के शिव लिंग की स्थापना कर चुके
हैं ।
हनुमानजी ने सोचा कि
जब रामजी को इस शरीर की सेवा ही स्वीकार नहीं है तो इसे रखकर क्या होगा ? ऐसा
सोचकर हनुमानजी प्राण त्याग करके के लिए प्रस्तुत हो गए ।
रामजी ने हनुमानजी को बहुत समझाया । वैराग्य का उपदेश भी किया ।
लेकिन जब हनुमानजी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा तो रामजी ने कहा हनुमान ! यदि तुम
मेरे द्वारा स्थापित शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं वहाँ तुम्हारे द्वारा लाए इस
शिवलिंग की स्थापना कर दूँगा ।
हनुमानजी प्रसन्न हो गए । उन्हें लगा कि बालू से बने शिवलिंग
को उखाड़ देने में क्या कठिनाई है । हनुमानजी उसे उखाड़ने लगे । पहले एक हाथ लगाया ।
फिर दोनों हाथ और जब शिवलिंग टस से मस नहीं हुआ तो पूँछ से लपेटकर अपनी पूरी शक्ति
लगाकर उखाड़ने लगे । लेकिन वह बालू का शिव लिंग सीताजी और रामजी के हाथ का स्पर्श
पाकर व्रज तुल्य हो गया था । हनुमान जी की पूँछ खिसक गई और हनुमानजी मुख के बल
बहुत दूर गिरे । हनुमानजी को इतनी चोट आई कि मुख से रक्त निकलने लगा और वे मूर्छित
हो गए ।
हनुमानजी की मूर्छा
टूट नहीं रही थी । उनको इस प्रकार मरणासन्न देखकर रामजी व्याकुल हो गए और विलाप
करने लगे ।
रामजी विलाप
करते-करते हनुमानजी का पंपा सरोवर के पास मिलने से लेकर एक-एक लीला को याद कर रहे
थे और बोलते जा रहे थे कि हनुमानजी ने कैसे और क्या-क्या रामजी के लिए किया ।
सुग्रीव से मित्रता कराना, सुरसा को जीतना, सिंहिका का वध करना आदि । लंका में
हनुमानजी का पराक्रम, अशोक वाटिका उजाड़ना, अक्ष कुमार का वध करना , लंका दहन करना
आदि ।
रामजी ने कहा कि तुमसे मिलकर मैं अपने पिता का,
भाइयों का और माता कौसल्या का भी स्मरण नहीं करता था ।
वायुपुत्र यदि तुम मर गए हो तो मैं भी यहीं प्राण त्याग करूँगा
। वत्स हनुमान यदि तुम मर चुके हो तो तुम्हारे बिना मुझे सीता का क्या करना है
अथवा छोटे भाई लक्ष्मण से ही क्या प्रयोजन है ? भरत से शत्रुघ्न से , राज्य
लक्ष्मी से भी मुझे कोई काम नहीं है ।
वत्स हनुमान उठो ! आज पृथ्वी पर क्यों सो रहे हो ? वानरश्रेष्ठ मेंरे लिए सोने के लिए शय्या बिछाओ । मेरे भोजन के लिए कंद-मूल फल ले आओ । मैं इस
समय स्नान करने जाना चाहता हूँ जल्दी कलश लेकर आओ । मेरे लिए मृगचर्म, वस्त्र तथा
कुश लाओ । वानरोत्तम जब मैं लक्ष्मण के साथ नागपाश से युद्ध में बँध गया था तब तुमने ही मुझे छुड़ाया
था । संजीवनी औषधि लाकर तुम्हीं ने लक्ष्मण को प्राण दान दिया और तुम्हीं ने रावण
के गर्व को नष्ट किया है । युद्ध में तुम्हारी सहायता से ही मैंने रावणादि
राक्षसों को मारकर सीता को प्राप्त किया ।
हनुमान ! अंजनानंदन !
सीताशोकविनाशन ! इस प्रकार लक्ष्मणको, सीताको और मुझे अयोध्या पहुँचाए बिना किसलिए
तुम चले गए ? महावीर ! राक्षसकंटक ! तुम कहाँ गए ?
इस प्रकार विलाप करते हुए रामजी हनुमानजी के मुख को देखते हुए रो
रहे थे । भगवान श्रीराम के कमलनयनों के जल से हनुमानजी का मुख भीग गया । तब हनुमानजी को धीरे-धीरे चेतना लौटी । रामजी ने हनुमानजी को ह्रदय से लगाया ।
इसके बाद हनुमानजी ने
भगवान राम की बहुत अद्भुत और सुंदर स्तुति किया । फिर माता सीता जी की भी बहुत सुंदर स्तुति किया । इन
दोनों स्तुतियों का नित्य पाठ करने का बड़ा महात्म्य है ।
फिर भगवान राम के आदेश से हनुमानजी ने अपने द्वारा लाए हुए शिवलिंग का रामेश्वर शिवलिंग से थोड़ी दूरी पर स्थापना किया । भगवान श्रीराम ने कहा कि इन हनुमदीश्वर के दर्शन के बिना रामेश्वर दर्शन का फल नहीं होगा । इस लीला से जुड़ी कुछ बातें आगे पोस्ट की जाएँगी ।
।। जय श्रीराम ।।
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