सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

एक वर्ष में भगवद प्राप्ति, डेढ़ वर्ष में लीला में प्रवेश और दो वर्ष में भगवान का दुर्लभ दर्शन प्रत्यक्ष प्राप्त करें - भावी विज्ञापन

 

 गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्रीरामचरितमानस जी में कहा ही है कि 'कलि कौतुक तात न जात कही' और जैसे ‘दो महीने में इंग्लिश बोलना सीखें’ अथवा ‘एक महीने में अंकगणित सीखे’ इस तरह के विज्ञापन देखने-सुनने में आते ही रहते हैं । और इस तरह की पुस्तकें भी बाजार में मिल ही रही हैं । इसी तरह कलियुग का समय होने से ‘दो अथवा चार महीने में कथा कहना सीखें’ और ‘दो महीने में संस्कृत सीखें’ आदि के भी कोर्स चलने लगे हैं । और इस तरह की पुस्तकें भी मिल जाती हैं ।

 

ऐसे कथावाचक और संत मिल जाएँ जो इस बात का विज्ञापन कराएँ कि ‘एक वर्ष में भगवद प्राप्ति करें’,‘डेढ़ वर्ष में लीला में प्रवेश करें’ और ‘दो वर्ष में भगवान का दुर्लभ दर्शन प्राप्त करें’ तो इसे देख-सुनकर आश्चर्य करना इस कलिकाल में नासमझी ही कही जाएगी क्योंकि कहा गया है- 'रामदास कलिकाल में अधिक कहाँ सब थोर'। अर्थात कलियुग में जो हो जाए, सुनने में आ जाए, देखने में आ जाए उसे कम ही समझना चाहिए क्योंकि इससे भी अधिक की संभावना बनी रहेगी 

 

  पहले के समय में समुचित अध्ययन के बाद बोध-ज्ञान प्राप्त करके अनुभव और आचरण में उतारने के बाद ज्ञान का प्रचार करने-उपदेश देने, कथा आदि कहने की परंपरा थी । लेकिन अब ऐसा नहीं है । लोगों के पास ज्यादा अध्ययन करने के लिए समय नहीं है । परंपरा से अध्ययन की बात तो दूर समझो । फिर आचरण में उतारने की बात तो और दुर्लभ है । लेकिन उपदेश देना है और कथा कहना है ।

 

 श्रीमद्भागवत पुराण में व्यास जी ने लिखा है कि कलियुग में कथा का सार समाप्त हो जाएगा । सार रहित कथा होगी । वही हो रहा है । इसलिए ही चाहे जितनी कथाएं सुन लो स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं होता ।

 

  आज की युवा पीढ़ी ने आधुनिक पढ़ाई किया है । वह तर्क भी करती है । तो उसे समझाने के लिए कुछ भी बोलकर काम नहीं बनेगा । और जब कथा वाचक अथवा संत समुचित ज्ञान और अनुभव से रहित होगा तो तथ्य हीन बातों से उन्हें नहीं समझा पायेगा । इससे उन्हें उल्टी-पल्टी बातें सुनकर संतों, कथा वाचकों और कथाओं से अश्रद्धा हो जायेगी और वे धीरे-धीरे इनसे बहुत दूर चले जाएँगे ।

 

  एक संत कथा में बोल रहे थे जब कौवा का बैंक अकाउंट नहीं होता और  उसका काम बिना बैंक अकाउंट के चल सकता है तो आप लोगों का क्यों नहीं चल सकता है । आप लोग कहोगे कि कौवा जल्दी मर जाता है तो उसे अकाउंट की क्या जरूरत ? लेकिन ऐसा नहीं है । कौवा जल्दी नहीं मरता फिर भी उसका काम बिना बैंक अकाउंट के चलता है तो फिर आप लोगों का क्यों नहीं चल सकता ?

 

 मनुष्य के बौद्धिक और सामाजिक स्तर की तुलना कौवा से करने का क्या औचित्य है ? भोले-भाले लोग तो ताली बजायेंगे । लेकिन आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी इन बातों से निरास होगी ।

 

ऐसे ही एक संत ने एक स्त्री से कहा कि माता जी आपका भजन कैसे चल रहा है तो वह बोली जितना हो सकता है करती हूँ अभी दो बेटियों का विवाह करना है । तो संत जी ताली बजकर जोर से हँसे और बोले तो कर लो बेटियों का विवाह तुम्हें भगवद प्राप्ति नहीं होगी । ऐसे संत और कथा वाचक कैसा समाज बनाना और देखना चाहते हैं ?

 

  ऐसे ही एक संत हजारों की भीड़ में कथा कहते हुए कह रहे थे कि जब मेरा काम बिना पैसे के चल सकता है तो आप लोगों का काम बिना पैसे के क्यों नहीं चल सकता । ऐसा कहकर ये संत अपनी महानता-श्रेष्ठता लोगों को बताना चाहते थे । भोले-भाले लोग ताली बजाते हैं । लेकिन युवा तर्क करता है कि संत जी भोजन करते हैं, कपड़ा पहनते हैं, बीमार होते हैं तो दवा भी कराते हैं तो इनका काम बिना पैसे के कहाँ चल रहा है ?

 

   ये लोगों को गुमराह कर रहे हैं । हाँ इनका काम इनके पैसे से नहीं चलता बल्कि समाज के पैसे से चलता है, शिष्यों के पैसों से चलता है लेकिन ये कह रहे हैं कि मेरा काम बिना पैसों के ही चलता है । काम बिना पैसे के चलना और काम दूसरे के पैसे से चलना दोनों में बड़ा अंतर है । इनको इतनी भी समझ नहीं है । और जैसा ये कह रहे हैं कि आप लोगों का काम बिना पैसे के क्यों नहीं चल सकता तो अगर सब लोग ऐसा सोच लें और ऐसे ही रहने लगें तो संत जी का काम भी कहाँ से चलेगा ?

 

  उपरोक्त बर्णित बातों-तथ्यों से यही लगता है कि युवा पीढ़ी धीरे-धीरे संतों, कथा वाचकों और कथाओं से बहुत दूर हो जायेगी । और वे सोंचेगे कि संत जी जो बता रहे हैं ऐसा ही ग्रंथों में लिखा होगा इस कारण से उनकी ग्रंथों में भी अश्रद्धा हो जायेगी । इस स्थित में या तो अधिकाँश लोग नास्तिक हो जाएँगे अथवा दूसरे धर्मों की ओर आकर्षित हो जाएँगे इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता । तथा जिस तरह से कुछ संत और कथावाचक भगवद प्राप्ति, लीला में प्रवेश और भगवान के दर्शन को खेल-कलि कौतुक बना दे रहे हैं ऐसे में उपरोक्त विज्ञापन शीघ्र देखने को भी मिल सकते हैं 

 

।। जय श्रीराम ।।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

दशरथ के वारे दुलारे सखी आज मिथिला पधारे

 

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

  

दशरथ के वारे दुलारे सखी आज मिथिला पधारे

हाथे धनुष वाण अति सोहै । माथे मुकुट महा छवि मोहै ।

रहि नहिं जात निहारे ।। सखी आज. ।।

पीतवसन कटि परिकर बाँधे । अंग अंग सुभग तरकस वर काँधे ।

रूप मोहिनी डारे ।। सखी आज. ।।

मुनिवर का जो यज्ञ कराए । नीच मारीच जो दूर भगाए ।

ताड़का सुबाहु जो मारे ।। सखी आज. ।।

भूपति मिलि वर विनय सुनाए । राम लखन मुनिवर संग आए ।

अहिल्या को जो उधारे ।। सखी आज. ।।

राम लखन की सुंदर जोरी । हिल मिल देखो सब तृन तोरी ।

त्रिभुवन के उजियारे ।। सखी आज. ।।

पुर नर नारि रूप गुण गावैं । सुर नर मुनि नहिं दृग तर आवैं

मदन लजावनहारे ।। सखी आज. ।।

दीन संतोष के नाथ सजीले । निरखत कौन अपान न भूले ।

जागे भाग्य हमारे ।। सखी आज. ।।

 

।। जय श्रीसीताराम ।।

रविवार, 1 दिसंबर 2024

कब मिलिहौ रघुवीर

 

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

 

कब मिलिहौ रघुवीर ।

कर सर चाप धरे रघुनायक काँधे साजि तुणीर ।।१।।

सुर नर मुनि मोहक छवि भारी घन जिमि श्याम शरीर ।

सीता लखन सहित रघुनंदन संग पवनसुत वीर ।।२।।

अवध चित्रकूट मंदाकिनि कि प्रभु सरजू तीर ।

शवरी केवट गीध अहिल्या जाइ हरेउ प्रभु भीर ।।३।।

सब बिधि दीन हीन करुनाकर मन बस मोह समीर ।

वानर भालू भील रखैया कब रखिहौ कर सीर ।।४।।

कोमल चित दीनन दुख द्रवत भरि आवत दृग नीर ।

दीन संतोष सही अब कीजै ग्रंथ कहे मतिधीर ।।५।।

  

।। जय श्रीराम ।।

रविवार, 10 नवंबर 2024

सोइ करतूति बिभीषन केरी (जेहि अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली)....

 

श्रीरामचरितमानस जी के बालकाण्ड में निम्नलिखित चौपाइयाँ ऐसी हैं जिन्हें लेकर कई लोग भ्रमित हैं और दूसरे लोगों को भी भ्रमित करते रहते हैं । कुछ लोग जान बूझकर भी मनमाना अर्थ करते हैं और समुचित तथ्य को प्रकाशित नहीं करते अथवा समझना और समझाना ही नहीं चाहते-

 

जेहि अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली ।

फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली ।।

सोइ करतूति बिभीषन केरी ।

सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी ।।

 

बालि ने सुग्रीव की पत्नी रूमा को सुग्रीव के जीते जी उसकी इच्छा के बिपरीत जबरन रख लिया था । इस पाप के चलते ही रामजी ने बालि का वध कर दिया था । बाद में सुग्रीवजी ने तारा को अपनी पत्नी बना लिया और बिभीषण जी ने मंदोदरी को पत्नी बना लिया । यही सुग्रीव की कुचाल और विभीषण की करतूति है ।

लेकिन रामजी ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया । क्योंकि सुग्रीव और विभीषण ने पाप नहीं किया था । इस बात को बड़ी गंभीरता से समझना चाहिए ।

 

 कई लोग कहते हैं कि तारा और मंदोदरी तो रामजी की भक्ता थीं तो फिर ये लोग सुग्रीव और विभीषण की क्रमशः पत्नी बनी हों यह गलत है । क्योंकि तारा के लिए आया है- ‘लीन्हेसि परम भगति वर माँगी’ । मंदोदरी के लिए आया है- ‘भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि’ । लेकिन भक्ता होना और धर्मपूर्वक पत्नी होना गलत नहीं है ।

 

  संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि सुग्रीव और विभीषण बंधु बधू से भोग करते थे / हैं । गोस्वामी जी कहते हैं कि- ‘कीस-निसाचर की करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है’ विभीषण जी को एक कल्प तक राज्य करने का वरदान दिया है रामजी ने इसलिए विभीषण के लिए गोस्वामी कहते हैं कि- ‘अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो’ । इससे यह बात प्रमाणित हो गई कि सुग्रीव ने तारा को और विभीषण ने मंदोदरी को पत्नी बना लिया था ।

 

अब प्रश्न है कि सुग्रीव और विभीषण को दोष क्यों नहीं लगा ? जबकि सनातन धर्म के अनुसार तो ऐसा कृत पाप की श्रेणी में आता है और अनुमोदित भी नहीं है । इसका उत्तर निम्नवत है-

 

  तारा और मंदोदरी पंचकन्या में आती हैं । ये साधारण स्त्री नहीं हैं । हर महीने इन्हें कौमार्य प्राप्त हो जाता है । इसलिए पति की मृत्यु के बाद बैधव्य दोष इन्हें केवल एक महीने के लिए लगा था । उसके बाद कौमार्य प्राप्त होने पर स्वेच्छा से तारा सुग्रीव की और मंदोदरी विभीषण की पत्नी बन गईं ।

 

 इसलिए न सुग्रीव को और न ही विभीषण को दोष लगा । यदि न तारा की इच्छा होती और न मंदोदरी की और इसके बावजूद सुग्रीव तारा को और विभीषण मंदोदरी को पत्नी बना लेते तो तारा और मंदोदरी के कौमार्य के होते हुए भी इन्हें दोष लगता । बालि को पाप क्यों लगा क्योंकि न रूमा पंचकन्या में थी और न ही रूमा की इच्छा थी । इच्छा होती तो भी दोष लगता । एक बात और यदि बालि और रावण जीवित होते तो हर महीने कौमार्य प्राप्त होने के बावजूद भी दूसरे की पत्नी बन जाने पर दोष लगता-पाप होता  

  इसलिए मनुष्यों को ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि सुग्रीव और विभीषण ने ऐसा किया था और उन्हें दोष नहीं लगा था तो हम भी ऐसा कर सकते हैं । मनुष्यों के लिए इच्छा होने पर भी दोष लगेगा । इस प्रकार तारा सुग्रीव की और मंदोदरी विभीषण की पत्नी बन गई थीं और चारों रामजी के भक्त थे और उनका कृत दोष युक्त नहीं दोष मुक्त था । लेकिन यही कृत आम लोगों के लिए, भक्तों के लिए अनुमोदित नहीं है क्योंकि दोष युक्त है । 


  यह भी ध्यान देने योग्य है कि विभीषण जी का नाम प्रातः स्मरणीय द्वादश भक्तों में आता है । विभीषण जी का नाम लेने से पातक दूर होते हैं । ऐसे में यदि मंदोदरी को पत्नी बनाना दोष-पाप युक्त कृत होता तो भला विभीषण जी ऐसा क्यों करते ? 

 

।। जय श्रीराम ।।

सोमवार, 4 नवंबर 2024

आरती करिए राम रघुवर की दीनबंधु रविकुल दिनकर की

 

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

 

आरती करिए राम रघुवर की ।

दीनबंधु रविकुल दिनकर की ।। टेक ।।

कटि तुणीर कर धनु सर धर की ।

सुंदर श्याम जानकीवर की ।।

कोमलचित अति आरतिहर की ।

सरल सबल दीनन सिर कर की ।।

पद पंकज जन मन मधुकर की ।

हरि हर बिधि जन मुनि मनहर की ।।

ज्ञान विज्ञान सदगुनगन घर की ।

दीनदयाल जनहित तत्पर की ।।

अगुन सगुन अज अजर अमर की ।

असरन सरन धरम धुर धर की ।।

योगेश्वरेश्वर करुणाकर की ।

मंगलमूल अमंगल हर की ।।

मीत पुनीत कीस वनचर की ।

दीन संतोष बिधि बिधि हरि हर की ।।

 

।। श्रीसीतारामापर्णमस्तु ।।

।। सियावर रामचंद्र भगवान की जय ।।

 

 

रविवार, 3 नवंबर 2024

किस ग्रंथ के अनुसार हनुमानजी का नाम प्रातः काल अवश्य लेना चाहिए

 

सुंदरकाण्ड की प्रसिद्ध चौपाई- ‘प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहिं दिन ताहिं न मिलइ अहारा’ के अनुसार कुछ लोग कहते, सोचते अथवा समझते हैं कि हनुमान जी का नाम प्रातः काल नहीं लेना चाहिए । इस चौपाई पर लोगों ने बहुत से व्याख्यान भी दिए हैं । और अपने-अपने तरफ से समझाने का प्रयास भी किया है ।

 

    लेकिन इस चौपाई के माध्यम से हनुमान जी ने विभीषण जी को भगवान श्रीराम की दीनों पर कृपा, उनकी दयालुता, उनकी सरलता, भक्त वत्सलता और शरणागत वत्सलता को दिखाने के लिए ऐसा कहा कि जब मुझ पर भगवान श्रीराम ने कृपा कर दिया तब आप पर तो अवश्य ही करेंगे । क्योंकि एक तो मैं वानर जो स्वभाव से ही चंचल होते हैं । दूसरे मैं सब प्रकार से हीन हूँ । इतना हीन हूँ कि कोई सुबह-सुबह नाम भी ले ले तो उसे उस दिन भोजन तक न मिले । इतना हीन होने पर भी रामजी ने मुझे अपना लिया इसलिए आपको भी अवश्य अपना लेंगे ।

 

   अतः उपरोक्त चौपाई का यह मतलब नहीं है कि हनुमानजी का नाम प्रातः काल नहीं लेना चाहिए । अपनी दीनता दिखाने के लिए और रामजी दीनों पर विशेष कृपा करते हैं यह समझाने के लिए हनुमानजी ने ऐसा कहा था ।

 

   जब तक वानर-भालू राम जी से नहीं मिले थे, उन पर रामजी की कृपा नहीं हुई थी तब अवश्य ऐसा था कि लोग वानरों और भालुओं को विकारी समझते थे और ऐसा मानते थे कि वानर और भालू का सुमिरण करने से अशुभ होता है-‘अशुभ होइ जिनके सुमिरन ते वानर-भालु-विकारी’ । लेकिन जब से राम जी ने अपनाया तब से वानरों-भालुओं का सुमिरण शुभ हो गया । वानर-भालु पवित्र हो गए और रामजी ने इनको अपना मित्र बना लिया ।

 

  श्रीवाल्मीकि जी महाराज ने श्रीआनंद रामायण में ऐसा लिखा है कि हनुमान जी का नाम प्रातः काल लेने से शुभ होता है । इसलिए जो सुबह नींद खुलते ही हनुमानजी का नाम लेता है उसका दिन अच्छा जाता है । अतः हनुमान जी का नाम प्रातः काल अवश्य लेना चाहिए ।

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान ।। 

सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

मेरे सब कुछ राम तुम्ही हो

 ।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।


मेरे सब कुछ राम तुम्ही हो 

स्वामि सुहृद अभिराम तुम्ही हो 

अग जग के विश्राम तुम्ही हो ।

जन मन पूरणकाम तुम्ही हो ।।

आदि मध्य परिणाम तुम्ही हो 

जीवन चक्र विराम तुम्ही हो 

दीन मलीन के नाथ तुम्ही हो ।

सीतापति रघुनाथ तुम्ही हो ।।

करते दीन सनाथ तुम्ही हो ।

रघुपति दीनानाथ तुम्ही हो ।।

निराधार आधार तुम्ही हो ।

गुनगन के आगार तुम्ही हो ।।

ज्ञान और विज्ञान तुम्ही हो ।

अग जग जीवन प्रान तुम्ही हो ।।

दीनबंधु भगवान तुम्ही हो ।

मुनि जन मन के ध्यान तुम्ही हो ।।

रवि शशि में प्रकाश तुम्ही हो ।

व्यापक विश्वनिवास तुम्ही हो ।।

कपि केवट के मीत तुम्ही हो ।।

निर्बल के बल जीत तुम्ही हो ।।

आरत हित जन पाल तुम्ही हो ।

रघुवर परमकृपाल तुम्ही हो ।।

दीन संतोष की आस तुम्ही हो ।

बल संबल विश्वास तुम्ही हो ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

दीनबंधु रघुवीर हमारे


।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।


दीनबंधु रघुवीर हमारे ।

दीन मलीन के एक सहारे ।।

सरल सबल करुणा बहुताई ।

सियावर शीलसिंधु रघुराई ।।

रघुकुलनायक राम गोसाईं ।

दीन मलीन के राम सहाई ।।

आरत हित प्रभु जन सुखदाई ।

दीन हीन पे प्रीति सदाई ।।

असरन सरन ठौर जन देते

आवत सरन बाँह गहि लेते ।।

सुर सदग्रंथ साधु सब कहते ।

दीन हीन प्रभु राम न तजते ।।

बालपने से गुनगन पढ़ते ।

लीला चरित विरद मन गुनते ।।

रघुवर मन मोरे तुम भाए

तेरे बल जन तोर कहाए ।।

मैं तेरा तुम मेरे मानै ।

मन की गति तुम बिनु को जानै ।।

कहि-कहि मैं निज ओर बताए ।

अब लगि नहिं निज ओर जनाए ।।

कोटिक दीन हीन अपनाए ।

दीन संतोष बहुत बिसराए ।।

कर सायक शारंग धनु धारी

सुधि लीजे रघुवीर हमारी ।।

 

।। जय रघुवीर ।।

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

बोले जनक दुख पाइ बड़ी बदहाली हो

 

बोले जनक दुख पाइ बड़ी बदहाली हो

प्रण करि कीन्हेउ काह सुकृति जनु घाली हो ।।

रहिहैं कुअँरि कुआँरि प्रेम प्रतिपाली हो ।

जो कछु लिखा लिलार सकै कोउ टाली हो ।।

आए बनि बहु वीर वीरता जाली हो ।

नाहीं बचा कोउ वीर धरा भइ खाली हो ।।

लक्षिमन कहत रिसाय धरा नहिं खाली हो ।

बोलेउ नहीं विचारि बचन जनु गाली हो ।।

रघुकुल की बड़ी कीर्ति गौरवशाली हो ।

यहाँ बैठे अवधकिशोर बड़े बलशाली हो ।।

शिवधनु तम घनघोर निशा जनु काली हो ।

जुगनूँ से सब भूप राम दिनमाली हो ।।

तोड़ेउ धनु रघुवीर मची खुशहाली हो ।

रघुवर उर जयमाल सियाजू डाली हो ।।

 

।। जय श्रीराम ।।

 

 

 

 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

भव वारिध मन्दर हे श्याम सुंदर

 

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

 

भव वारिध मन्दर हे श्याम सुंदर दशरथ राजदुलारे

रघुकुलनायक दीनसहायक कौशल्या लोचन तारे ।।१।।

पतितपावन सुर नर मुनि भावन जन मन को अति प्यारे ।

दीन मलीन दास सुखदायक युग पुर गुन उजियारे ।।२।।

आरत दीन मलीन को गाहक बरबस आप निहारे ।

देखत शिला नाथ तुम द्रवेउ निज पद रज कण डारे ।।३।।

सेवक सुखद नाथ तव करनी शिव धनु भंजनहारे ।

दीन मलीनन को गति दायक जन हित वन पद धारे ।।४।।

कोल किरात भील अरु केवट, निषाद विपुल वनचारे ।

गीध आदि निशचर कपि भालू रघुवर मीत तुम्हारे ।।५।।

दीनबंधु प्रभु करुणामूरति आरत हित व्रत धारे ।

हे करुणाकर हे दीनेश्वर, संबल अवलंब हमारे ।।६।।

सीतानाथ राम रघुनाथ, मोहि क्यों नाथ विसारे ।

दीन संतोष सकुच तजि चितवौ विरद बढ़ै जयकारे ।।७।।

 

।। जय श्रीराम ।।


बुधवार, 25 सितंबर 2024

बचपन के वैराग्य और बाद के वैराग्य में मुख्य अंतर

 

कई लोगों को बचपन में ही माता-पिता किसी संत को दे देते हैं । इसलिए इन लोगों को बचपन से ही त्याग और वैराग्य का अभ्यास होने लग जाता है । और इनके अंदर संसार बहुत कम प्रविष्ट कर पाता है और आगे थोड़ी सावधानी की जरूरत होती है ।  ऐसे लोगों के अच्छे महात्मा बनने की सम्भावना अधिक होती है । इसी तरह कुछ लोगों के मन में बचपन में ही स्वतः वैराग्य हो जाता है और ये लोग घर छोड़कर चले जाते हैं और थोड़ी सावधानी से रहकर अच्छा भजन-साधन करने में लगते हैं ।


 सनातन धर्म में परंपरा और संस्कार आदि का बड़ा महत्व है । संत परंपरा भी होती है । जब बचपन में ही चले जाते हैं तो संसार का संस्कार कम और संत का संस्कार अधिक प्रभावी हो जाता है । और बचपन में चले जाने से परम्परागत तरीके से वेद-शास्त्र के अध्ययन का सौभाग्य भी मिलता है ।

 

वहीं जो बाद में वैराग्य धारण करते हैं उन पर संसार का संस्कार अधिक रहता है । बाहर से भेष बदल लेने पर भी भीतर से संसार का संस्कार-प्रभाव बना रहता है । इसलिए बाद में वैराग्य धारण करने वालों के जीवन में ईर्ष्या, निंदा आदि के संस्कार कहीं न कहीं अपना प्रभाव दिखाते ही रहते हैं ।

 

 बाद में वैराग्य धारण करने वालों का शास्त्र अध्ययन भी परंपरागत तरीके से नहीं हो पाता है । इसलिए शास्त्रों के समुचित ज्ञान का अभाव भी रहता है ।

 

बाद में वैराग्य धारण करके कहीं केवल भजन में लग जाएँ तब तो एक प्रकार से ठीक रहता हैं । लेकिन कई लोग उपदेशक बन जाते हैं । और परंपरागत समुचित ज्ञान होता नहीं है इससे इनका और इनके श्रोता जनों दोनों  की हानि होने की सम्भावना बनी रहती है । और भोले-भाले लोग गुमराह भी होते हैं । इससे लोक और परलोक दोनों बिगड़ सकता है । क्योंकि लोक से ही परलोक बनता है ।

 

  सबसे बड़ी गलती यह होती है जब बाद में वैराग्य लेने वाले लोग भी अनुष्ठानात्मक कथा कहने लगते हैं । क्योंकि भगवान वेद व्यास ने व्यासपीठ पर बैठकर कथा कहने के लिए कई नियम बताए  हैं । और उनका निरादर करके कथा कहना किसी तरह से ठीक नहीं है ।


    अनुष्ठानात्मक कथा कहने वाला वेद-शाश्त्र विशारद होना चाहिए । वेद अध्ययन परम्परागत तरीके से किए होना चाहिए । किसी संत परंपरा में दीक्षित होना चाहिए और जिस ग्रंथ की कथा कही जाए उसका अध्ययन गुर मुख से होना चाहिए । आदि । नहीं तो कथा कहने का अधिकार नहीं होता है । 


  सत्संग की बाते करना, भगवद चर्चा करना तो कोई भी कर सकता है लेकिन व्यास पीठ पर बैठकर अनुष्ठानात्मक कथा कहने का अधिकार हर किसी को नहीं होता है । लेकिन जैसे जैसे कलियुग बढ़ेगा वैसे-वैसे मनमानी बढ़ती जायेगी और नियम तथा परंपरा का कोई महत्व नहीं रह जाएगा । यहाँ भले ही कोई लोक रिझा ले लेकिन वहाँ तो दण्ड मिलेगा ही ।

 

 पहले के भक्त और संत इन बातों का बहुत ध्यान रखते थे क्योंकि शास्त्र की मर्यादा का पालन करना उनके लिए सर्वोपरि होता था और  इसलिए ही कई भक्त ऐसे हुए हैं जिनके पास भक्ति, ज्ञान और वैराग्य था इसलिए उपदेशात्मक प्रवचन, सत्संग, कीर्तन आदि तो करते-कराते रहे लेकिन कभी व्यास पीठ पर बैठकर अनुष्ठानात्मक कथा नहीं कहे क्योंकि उन्हें शास्त्र सम्मत अधिकार प्राप्त नहीं था । परंतु कलियुग बढ़ रहा है तो शास्त्र, परंपरा और नियम कौन मानेगा और इसलिए- ‘मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा’ को ही अधिकाँश लोग चरितार्थ कर रहे हैं । 


  लेकिन जिस सनातन धर्म में देवराज इंद्र, भगवान महादेव, ब्रह्मा जी आदि को भी छूट नहीं है और बहुत छोटी सी गलती पर धर्मराज युधिष्ठिर जैसे महात्मा को भी नर्क का दर्शन करना पड़ा हो वहाँ फिर किसको छूट मिलेगी ?

 

।। जय श्रीराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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