कई लोगों को बचपन में ही माता-पिता किसी संत को दे देते हैं । इसलिए इन लोगों को बचपन से ही त्याग और वैराग्य का अभ्यास होने लग जाता है । और इनके अंदर संसार बहुत कम प्रविष्ट कर पाता है और आगे थोड़ी सावधानी की जरूरत होती है । ऐसे लोगों के अच्छे महात्मा बनने की सम्भावना अधिक होती है । इसी तरह कुछ लोगों के मन में बचपन में ही स्वतः वैराग्य हो जाता है और ये लोग घर छोड़कर चले जाते हैं और थोड़ी सावधानी से रहकर अच्छा भजन-साधन करने में लगते हैं ।
सनातन धर्म में परंपरा
और संस्कार आदि का बड़ा महत्व है । संत परंपरा भी होती है । जब बचपन में ही चले
जाते हैं तो संसार का संस्कार कम और संत का संस्कार अधिक प्रभावी हो जाता है । और बचपन
में चले जाने से परम्परागत तरीके से वेद-शास्त्र के अध्ययन का सौभाग्य भी मिलता है
।
वहीं जो बाद में वैराग्य धारण करते हैं उन पर संसार का संस्कार
अधिक रहता है । बाहर से भेष बदल लेने पर भी भीतर से संसार का संस्कार-प्रभाव बना
रहता है । इसलिए बाद में वैराग्य धारण करने वालों के जीवन में ईर्ष्या, निंदा आदि
के संस्कार कहीं न कहीं अपना प्रभाव दिखाते ही रहते हैं ।
बाद में वैराग्य धारण
करने वालों का शास्त्र अध्ययन भी परंपरागत तरीके से नहीं हो पाता है । इसलिए
शास्त्रों के समुचित ज्ञान का अभाव भी रहता है ।
बाद में वैराग्य धारण करके कहीं केवल भजन में लग जाएँ तब तो एक
प्रकार से ठीक रहता हैं । लेकिन कई लोग उपदेशक बन जाते हैं । और परंपरागत समुचित
ज्ञान होता नहीं है इससे इनका और इनके श्रोता जनों दोनों की हानि होने की सम्भावना बनी रहती है । और
भोले-भाले लोग गुमराह भी होते हैं । इससे लोक और परलोक दोनों बिगड़ सकता है ।
क्योंकि लोक से ही परलोक बनता है ।
सबसे बड़ी गलती यह
होती है जब बाद में वैराग्य लेने वाले लोग भी अनुष्ठानात्मक कथा कहने लगते हैं ।
क्योंकि भगवान वेद व्यास ने व्यासपीठ पर बैठकर कथा कहने के लिए कई नियम बताए हैं । और उनका निरादर करके कथा कहना किसी तरह से
ठीक नहीं है ।
अनुष्ठानात्मक कथा कहने वाला वेद-शाश्त्र विशारद होना चाहिए । वेद अध्ययन परम्परागत तरीके से किए होना चाहिए । किसी संत परंपरा में दीक्षित होना चाहिए और जिस ग्रंथ की कथा कही जाए उसका अध्ययन गुर मुख से होना चाहिए । आदि । नहीं तो कथा कहने का अधिकार नहीं होता है ।
सत्संग की बाते करना,
भगवद चर्चा करना तो कोई भी कर सकता है लेकिन व्यास पीठ पर बैठकर अनुष्ठानात्मक कथा
कहने का अधिकार हर किसी को नहीं होता है । लेकिन जैसे जैसे कलियुग बढ़ेगा वैसे-वैसे
मनमानी बढ़ती जायेगी और नियम तथा परंपरा का कोई महत्व नहीं रह जाएगा । यहाँ भले ही
कोई लोक रिझा ले लेकिन वहाँ तो दण्ड मिलेगा ही ।
पहले के भक्त और संत इन बातों का बहुत ध्यान रखते थे क्योंकि शास्त्र की मर्यादा का पालन करना उनके लिए सर्वोपरि होता था और इसलिए ही कई भक्त ऐसे हुए हैं जिनके पास भक्ति, ज्ञान और वैराग्य था इसलिए उपदेशात्मक प्रवचन, सत्संग, कीर्तन आदि तो करते-कराते रहे लेकिन कभी व्यास पीठ पर बैठकर अनुष्ठानात्मक कथा नहीं कहे क्योंकि उन्हें शास्त्र सम्मत अधिकार प्राप्त नहीं था । परंतु कलियुग बढ़ रहा है तो शास्त्र, परंपरा और नियम कौन मानेगा और इसलिए- ‘मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा’ को ही अधिकाँश लोग चरितार्थ कर रहे हैं ।
लेकिन जिस सनातन धर्म में देवराज इंद्र, भगवान महादेव, ब्रह्मा जी आदि को भी छूट नहीं है और बहुत छोटी सी गलती पर धर्मराज युधिष्ठिर जैसे महात्मा को भी नर्क का दर्शन करना पड़ा हो वहाँ फिर किसको छूट मिलेगी ?
।। जय श्रीराम ।।
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