जब विभीषण जी राम जी की शरण में आने के लिए समुद्र पार करके आ
गए तो वानर-भालुओं ने यह समाचार रामजी को दिया । इस मुद्दे पर विचार-विमर्श होने
लगा । मुख्य-मुख्य वानरों ने अपना-अपना मत रखा । अधिकांश लोग विभीषण को रखने के पक्ष
में नहीं थे ।
लेकिन हनुमानजी विभीषण
से मिल चुके थे । इसलिए हनुमानजी ने यथा शक्ति विभीषण जी की सरलता और निर्दोषता के
विषय में भगवान राम से कहकर, कहा कि आगे आप जैसा उचित समझें, वैसा करें ।
फिर रामजी अपना मत
रखने लगे । रामजी बोले जो मित्र भाव से मेरे पास आ गया हो उसे मैं किसी तरह त्याग नहीं
सकता । संभव है उसमें कुछ दोष भी हों लेकिन दोषी को आश्रय देना सत्पुरुषों के लिए
निन्दित नहीं है ।
यह सुनकर वानरराज
सुग्रीव ने तर्क युक्त बहुत सी बातें कहीं । फिर राम जी बोले वानरराज ! विभीषण
दुष्ट हो या साधु, क्या वह निशाचर किसी तरह भी मेरा सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भी
अहित कर सकता है ? वानरयूथपते ! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी पर जितने भी पिशाच, दानव,
यक्ष और राक्षस हैं उन सबको एक अँगुली के अग्रभाग से मार सकता हूँ –
पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां
चैव राक्षसान् ।
अन्गुल्यग्रेण तान् हन्यामिच्छ्न् हरिगणेश्वर ।।- श्रीवाल्मीकि रामायण ।
रामजी बहुत सी बातें कहकर आगे बोले कि जो एक बार भी शरण में
आकर मैं तुम्हारा हूँ ऐसा कहकर मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है, उसे मैं
समस्त-भूतों –प्राणियों से अभय कर देता हूँ । यह मेरा सदा के लिए व्रत है -
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं
मम ।।
अतः कपिश्रेष्ठ सुग्रीव !
वह विभीषण हो या स्वयं रावण आ गया
हो । तुम उसे ले आओ । मैंने उसे अभयदान दे दिया-
आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं
मया ।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम् ।।
।। जय श्रीराम ।।
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