वैराग्य की दुर्लभतम अवस्था क्या है ? वैराग्य के लिए संघर्ष का क्या मतलब है ? वैराग्य की असली कसौटी क्या है ? वास्तविक वैराग्य क्या है ? यह सभी के लिए पठनीय और विचारणीय है । यह सभी को जानना और समझना चाहिए ।
एक पक्ष है विकार उत्पन्न करने वाले कारणों से बच-बचकर रहना, उनसे भागना और दूसरा पक्ष है विकार उत्पन्न करने वाले कारणों के बीच भी विकार रहित बने रहना । दोनों दो अलग-अलग चीजें हैं । संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी दूसरे पक्ष की ही अधिक सराहना करते हैं । और यह स्थित दुर्लभतम है ।
भोगों का अभाव अथवा भोगों की अनुउपलब्धता त्याग और वैराग्य के
अंतर्गत नहीं आता है । जैसे किसी किसी का विवाह नहीं होता है और कुछ लोग विवाह
नहीं करते । दोनों स्थितियों में बहुत अंतर है ।
कई लोगों के जीवन में वैराग्य के लिए संघर्ष चलता
रहता है । एक लोग बता रहे थे कि एक व्यक्ति ने विवाह नहीं किया । यह त्याग हुआ ।
फिर उन्होंने प्रतिज्ञा किया कि किसी स्त्री को स्पर्श नहीं करेंगे । और न किसी स्त्री
से चरण स्पर्श करवाएंगे । आदि । फिर उन्होंने प्रतिज्ञा किया कि बस और ट्रेन में
यात्रा नहीं करेंगे । क्योंकि बस और ट्रेन में महिलाएँ भी चलती हैं । इसलिए बस और
ट्रेन में यात्रा करने से स्त्री से स्पर्श हो जाने की सम्भावना रहेगी । यह वैराग्य के लिए संघर्ष है ।
एक संत कह रहे थे कि एक बार किसी अच्छे संत ने कहा था कि हीरे,
सोने, मणि, माणिक्य आदि की सड़के, भवन आदि बनवा दिए जाएँ तो उसे देखकर भी मेरे मन
में लोभ-विकार नहीं आएगा । यह मैं बड़ी दृढ़ता और बड़े विश्वास से कह सकता हूँ ।
लेकिन यही बात इतनी दृढ़ता और विश्वास के साथ मैं स्त्रियों के सम्बंध में नहीं कह
सकता ।
लेकिन संत शिरोमणि
गोस्वामी तुलसीदास जी के सिद्धांतों की बात की जाए तो वैराग्य की असली कसौटी जंगल
में अथवा एकांत में नहीं होती है । जिससे विकार उत्पन्न होता है अथवा हो सकता है
उन कारणों से दूरी बनाने अथवा भागने से नहीं होता है ।
जो विकार उत्पन्न कर सकने वाले कारण के बीच विकार रहित रह सके उसे गोस्वामी जी ने धीर-महापुरुष कहा है । और यही वैराग्य की असली कसौटी है । और इस कसौटी पर खरा उतरने वाला महापुरुष आज के समय में दुर्लभतम ही है । वैराग्य के लिए संघर्ष करने वाले बहुत लोग मिल जाते हैं । और इसी संघर्ष में जीवन व्यतीत हो जाता है ।
ते धीर अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ ।
- गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ।
इसी तरह गोस्वामी जी रामजी, सीताजी और लक्ष्मण जी के त्याग और वैराग्य की अपेक्षा भरत जी के त्याग और वैराग्य की सराहना करते हैं । क्योंकि रामजी, सीताजी और लक्ष्मण जी वन में त्याग और वैराग्य से रहते हैं और तपस्या करते हैं लेकिन वन में वैभव नहीं है । और भरत जी उस अयोध्या जी में त्याग, वैराग्य से रहते हैं, तपस्या करते हैं जहाँ के वैभव को देखकर देवराज इंद्र को भी ईर्ष्या होती है और धनाध्यक्ष कुबेर जी भी अयोध्या के वैभव को देखकर लजा जाते हैं । ऐसी अयोध्या में भरत जी कैसे रहते हैं जैसे भौंरा चंपा के बाग में रहता है । इसलिए भरत जी का त्याग और वैराग्य अधिक सराहनीय है क्योंकि भोग के सारे कारणों के रहते हुए वे राग रहित रहते हैं -
अवध राज सुर राजु सिहाई । दशरथ
धनु सुनि धनदु लजाई ।।
तेहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक
जिमि चंपक बागा ।।
लखन राम सिय कानन बसहीं । भरतु भवन
बसि तप तनु कसहीं ।।
दोउ दिसि समुझि कहत सब लोगू । सब बिधि
भरत सराहन जोगू ।।
।। जय श्रीराम ।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें