गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी त्याग और वैराग्य की जरूरत होती है । भगवान से अनुराग की जरूरत होती है । भगवान से अनुराग, भगवान से जुड़ने के लिए बचपन ही सर्वोत्तम होता है । यदि बचपन में ही भगवान से जुड़ाव हो जाए तो आगे इसी को और मजबूत किया जाना होता है ।
यदि पहले जुड़ाव नहीं
हो पाया तो जब जागो तभी सबेरा के अनुसार मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य भगवत
प्राप्ति है यह बात सुनते, समझते ही भजन
में लग जाना चाहिए ।
यदि साठ वर्ष की
अवस्था हो जाने पर भी त्याग और वैराग्य का उदय न हो तो यही गृहस्थ जीवन का सबसे
बड़ा दुर्भाग्य होता है ।
इस अवस्था तक अपने मन
को समझाकर मन से बैरागी बन जाना चाहिए । घर- परिवार की सारी जिम्मेदारी बेटे-बहू
को देकर मन को बैरागी बनाकर भगवान में लग जाना चाहिए ।
कहीं कोई कथा-प्रवचन सुनने जाओ तो संत बताते हैं कि लहसन-प्याज
छोड़ देना चाहिए । यह बहुत छोटा त्याग होता है लेकिन लोग इसे भी नहीं छोड़ पाते । यह
बिचार करने वाली बात है कि जब इतना छोटा त्याग नहीं हो पाता तो घर-संसार का त्याग
कैसे होगा ?
कई लोग मौखिक सब त्याग देते हैं । कहते हैं कि अब हमसे कोई मतलब नहीं है । लेकिन भीतर से पकड़े रहते हैं । अध्यात्म जगत बहुत अनूठा है । इसमें बाहर का नहीं केवल भीतर का ही महत्व होता है ।
घर-परिवार को छोड़कर जाना तो पड़ेगा । कब तक कोई पकड़े रह सकता है
। इसलिए पचास वर्ष आते-आते पकड़ ढ़ीली करना शुरू कर देना चाहिए और कम से कम साठ तक
पहुँचते-पहुँचते बिल्कुल छोड़ देना चाहिए ।
मरना तो पड़ेगा ही । इसलिए संत और ग्रंथ की बात मान लेने में ही
लाभ है । अतः जब घर-परिवार एक दिन छूटना
ही है तो जीते जी ही भीतर से छोड़ देना चाहिए- ‘अंत में तोहिं तजेंगे पामर, तूँ
न तजे अबहीं ते’ । भीतर से छोड़ देने पर घर से दूर जाने की भी जरूरत नहीं है ।
और मरते समय मन संसार में, घर-परिवार में अटकता नहीं है । और जो भजन करते रहते हैं
उनका मन भगवान में अटक जाता है ।
साठ वर्ष की अवस्था
हो जाने पर भी यदि बिषयों से बिराग नहीं हो
पाया तो इस बात का दुख होना चाहिए कि अभी तक जीवन बिना भगवान के भजन के ही बीत गया
और अब भी हम घर-संसार में ही लगे हैं -
होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन ।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरि भगति
बिनु ।।
।। जय श्रीसीताराम ।।
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